मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

धर्मनिरपेक्षता व भाजपा की दुविधाएं

भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की हालिया बैठक ;सितंबरए 2012 में एल. के. आडवाणी ने कहा कि पार्टी को धर्मनिरपेक्षता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को फिर से रेखांकित करने की जरूरत है। यह बात बैठक के उद्घाटन सत्र में उनके लिखित भाषण में कही गई थी। परंतु जब वे बोलने खड़े हुए तो वे इस वाक्य पर अटक गए। अपनी पार्टी की धर्मनिरपेक्षता के प्रति गहरी चिढ़ के चलते वे इस शब्द को मंच से उच्चारित न कर सके।
इस मुद्दे पर चर्चा हम ताजी घटनाओं से शुरू करें। पिछले कुछ महीनों से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लगातार कहते आ रहे हैं कि एन.डी.ए. का नेतृत्व किसी ऐसे नेता को करना चाहिए जिसकी छवि धर्मनिरपेक्ष हो। अपरोक्ष रूप से वे भाजपा और की ओर से नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के पद की उम्मीदवारी का विरोध कर रहे हैं। नीतीश कुमार की अपनी राजनैतिक मजबूरियाँ हैं और वे नरेन्द्र मोदी की छाया से भी दूर रहना चाहते हैं। चूंकि भाजपा को सत्ता में आने के लिए नीतीश कुमार और एन.डी.ए .गठबंधन के अन्य नेताओं की सख्त जरूरत है इसलिए मोदी को प्रधानमंत्री बतौर प्रस्तुत करने के बारे में वह दुविधा में फँस गई है। वैसे भीए भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्षता के बारे में भाजपा एन.डी.ए की सोच, कथनी और करनी में बहुत अंतर रहा है। 

भाजपाए आर.एस.एस. की राजनैतिक शाखा है और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर संघ.प्रशिक्षित स्वयंसेवकों का कब्जा है। यद्यपि गैरआर.एस.एस..पृष्ठभूमि के कुछ नेता भी पार्टी में हैं तथापि मूलतः पार्टी को स्वयंसेवक ही नियंत्रित करते हैं। भाजपा की दशा और दिशा का निर्धारण संघ करता है और पार्टी के सभी महत्वपूर्ण निर्णय नागपुर में लिए जाते हैं। संघ ने ही नितिन गडकरी को भाजपा पर अध्यक्ष के रूप में थोपा और संघ के दबाव में हीए पार्टी के नियमों के विपरीतए उन्हें पुनः अध्यक्ष निर्वाचित किया गया। इसके पहले भी, संघ भाजपा पर अपने निर्णय लादता रहा है। यद्यपि भाजपा को रोजाना के छोटे.मोटे निर्णय लेने की स्वायत्ता है तथापि पार्टी की नीतियों और दिशा का निर्णायक व नियंता संघ ही है।
चुनावों में भाजपा के प्रचार का काम भी मुख्यतः आर.एस.एस. के स्वयंसेवक सम्हालते हैं और वे ही भाजपा के प्रचारतंत्र की रीढ़ हैं। भाजपा के सभी प्रमुख नेता . अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नरेन्द्र मोदी, अरूण जेटली और नितिन गडकरी . संघ द्वारा प्रशिक्षित स्वयंसेवक हैं। उनके लिए संघ और उसकी नीतियों के ऊपर कुछ नहीं है। अटलबिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तब अमेरिका के स्टेटन आयलैंड में अप्रवासी भारतीयों की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि वे भले ही प्रधानमंत्री हों परंतु उससे भी बढ़कर वे स्वयंसेवक हैं और स्वयंसेवक होने का उनका हक उनसे कोई नहीं छीन सकता। आडवाणी ने बाबरी मस्जिद के विध्वंसक की अपनी छवि को बदलना चाहा ताकि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकें। इसके लिए उन्होंने जिन्ना और जिन्ना के 11 अगस्त 1947 के भाषण की प्रशंसा कर दी। यह उनको बहुत भारी पड़ा। आरएसएस ने तुरंत उन्हें भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के हाशिये पर पटक दिया और वे आज भी वहीं पड़े हुए हैं। पार्टी के सर्वोच्च नेता बनने के लिए उन्होंने बहुत कोशिशें कीं परंतु वे नाकाम रहे। इसी तरहए जब आपातकाल के बाद भाजपा के तत्कालीन अवतार भारतीय जनसंघ का विलय जनता पार्टी में हो गया था तब भी आरएसएस ने जनता पार्टी को तोड़ दिया और भारतीय जनसंघ को भाजपा के रूप में पुनर्जीवित कर दिया। उस समय मुद्दा यह था कि जनता पार्टी के समाजवादी धड़े को जनसंघ के सदस्यों की दुहरी ;आरएसएस व जनता पार्टी सदस्यता पर आपत्ति थी। भारतीय जनसंघ के सदस्यों ने आरएसएस से अपना नाता तोड़ने की बजाए, जनता पार्टी को तोड़ना बेहतर समझा।
आरएसएस का मुख्य व एकमात्र एजेन्डा है हिन्दू राष्ट्र की स्थापना। हिन्दू राष्ट्र की अवधारणाए इस्लामिक राष्ट्र के समानांतर हैए जो कि पाकिस्तान के निर्माण का आधार बनी थी। भाजपा की समस्या यह है कि वह भारत जैसे धार्मिक व सांस्कृतिक विविधताओं वाले देश में केवल चुनावी प्रक्रिया के जरिए ही सत्ता में आ सकती है। भाजपा देश पर हिन्दू राष्ट्र थोपना चाहती है परंतु यह तब तक संभव नहीं है जब तक कि वह केन्द्र में अपने बल पर सत्ता में न आ जाए। सत्ता में आने के लिए उसे चुनावी राजनीति करनी पड़ेगी और अन्य पार्टियों की तरह अपना वोट बैंक भी बनाना पड़ेगा। भाजपा का लक्ष्य है हिन्दू वोटों को अपने पक्ष में ध्रुवीकृत करना और उसके पश्चात समाज के दूसरे वर्गों के सदस्यों के वोट पाने की कोशिश करना। जहां तक हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण का प्रश्न हैए भाजपा ने बाबरी मस्जिद के विध्वंसए उसके बाद हुए दंगों और गुजरात कत्लेआम के जरिए अपने इस लक्ष्य को काफी हद तक हासिल कर लिया है। अब उसका अगला कदम है दलितोंए आदिवासियों और अन्य कमजोर वर्गों को सोशल इंजीनियरिंग के जरिए अपने शिविर में लाना। इस उद्धेश्य से दलितों के लिए ष्सामाजिक समरसताष् जैसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं और आदिवासियों के हिन्दूकरण का प्रयास किया जा रहा है। आदिवासियों को यह समझाया जा रहा है कि वे मूलतः हिन्दू हैं और मुस्लिम राजाओं के अत्याचारों से तंग आकर उनके पुरखों को जंगलों में शरण लेनी पड़ी थी। अब चूंकि मुगल शासनकाल समाप्त हो चुका है इसलिए वे घर वापिसी के जरिए फिर से अपने मूल धर्म में लौट सकते हैं। इसी उद्धेश्य से आदिवासी क्षेत्रों में ईसाईयों के विरूद्ध हिंसा भी की जा रही है।
जहां तक भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय.मुसलमान.का सवाल हैए भाजपा उसे मिश्रित संकेत देती रही है। भाजपा को यह मालूम है कि देश के सभी हिन्दू कभी भी उसे वोट नहीं देंगे और इसलिए उसे मुसलमानों के एक हिस्से के समर्थन की भी आवश्यकता है। मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए भाजपा ने मुखौटों का इस्तेमाल किया। इनमें सबसे प्रभावी मुखौटा थे अटलबिहारी वाजपेयी। उन्होंने अपनी भूमिका इतनी अच्छी तरह से निभाई कि कई लोग उन्हें ष्गलत पार्टी में सही व्यक्तिष् कहने लगे। दूसरी ओरए कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता को नकली बताया गया। आडवाणी ने इसके लिए एक शब्द गढ़ा ष्छद्म धर्मनिरपेक्षताष्। इसमें कोई संदेह नहीं कि जहां तक धर्मनिरपेक्षता का सवाल हैए कांग्रेस कोई दूध की धुली नहीं है। कांग्रेस ने कई मौकों पर साम्प्रदायिक ताकतों से हाथ मिलाया है। परंतु कांग्रेस की साम्प्रदायिकता, अवसरवादी साम्प्रदायिकता है। दूसरी ओरए भाजपाए मनसा.वाचा.कर्मणा साम्प्रदायिक है। भाजपा एक ऐसा कम्प्यूटर है जिसकी प्रोग्रामिंग ही साम्प्रदायिकता की भाषा में की गई है। वाजपेयी के गंभीर रूप से अस्वस्थ हो जाने के बाद से भाजपा एक नए मुखौटे की तलाश में है। परंतु इसमें उसे अभी तक सफलता नहीं मिली है। भाजपा चाहती है कि वह अपना ध्रुवीकृत हिन्दू वोट बैंक खोए बिना मुसलमानों के मत हासिल कर ले। इसके लिए सर्कस के नट जितनी चपलता की आवश्यकता होगी।
इसी सिलसिले में बंगारू लक्ष्मण ने एक बार कहा था कि मुसलमानों का खून हमारा खून है और मुसलमानों का शरीर हमारा शरीर है। आडवाणी ने भी जिन्ना की तारीफ कर यही कोशिश की और अब उन्होंने अपने भाषण के जरिए भी इसी लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में कदम बढ़ाया है। उनके भाषण के उस हिस्से, जिसे उन्होनें पढ़ा नहीं, में कहा गया है हमें संपूर्ण निष्ठा से हमारे अल्पसंख्यक समुदायों के भाईयों को यह विश्वास दिलाना होगा कि हम हमारे विविधवर्णी समाज के अलग.अलग वर्गों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करेंगे और न ही किसी के साथ अन्याय करेंगे।केवल कोई बेवकूफी की हद तक भोला व्यक्ति ही इस बात पर विश्वास करेगा।
अभी यह कहना मुश्किल है कि अगर भाजपा कोई नया मुखौटा ढूंढ़ भी निकालती है तो अल्पसंख्यक उसपर कितना भरोसा करेंगे। अल्पसंख्यकों को अब यह समझ आ गया है कि भाजपा की धर्मनिरपेक्षता की बातें केवल नाटक हैं और असल में वह पार्टी गहरे तक अल्पसंख्यक विरोधी है। यहां तक कि धर्मनिरपेक्षता की भाजपा की परिभाषा ष्सबको न्याय किसी का तुष्टिकरण नहीं  से भी यह साफ है कि मुसलमान, भाजपा सरकार से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उनकी बेहतरी के लिए कोई सकारात्मक कदम उठाएगी। किसी भी सामाजिक.आर्थिक रूप से पिछड़े हुए वर्ग को संपूर्ण समाज के समकक्ष लाने के लिए ऐसे कदमों की आवश्यकता होती है।
आज जबकि साम्प्रदायिक राजनैतिक दलों ने विभिन्न धार्मिक समुदायों को धर्म के आधार पर ध्रुवीकृत कर दिया है तब जरूरत है ऐसी सिद्धांतवादी राजनीति कीए जिसकी धर्मनिरपेक्षता में असंदिग्ध आस्था हो। जो लोग हिन्दू राष्ट्र में विश्वास रखने वाले संगठन के गुलाम हैं वे कभी भी धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकते। उनके मुखौटे केवल जनता को बेवकूफ बनाने का प्रयास हैं। यह समय है राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हिन्दू मूल्यों को याद करने का। महात्मा गांधी एक अत्यंत श्रद्धालु हिन्दू थे परंतु उन्होंने कभी भी राजनीति के लिए हिन्दू धार्मिक पहचान का उपयोग नहीं किया। दूसरी ओर भाजपा बाबरी मस्जिदए गौमाताए रामसेतुए अमरनाथ यात्रा आदि जैसे मुद्दे दिन रात उठाती रहती है। गांधीजी के लिए धर्मए नैतिकता का पर्याय था। परंतु भाजपा धार्मिक पहचान का इस्तेमाल राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कर रही है। इसे ही साम्प्रदायिकता कहा जाता है और यह भाजपा की राजनीति की प्रमुख विशेषता है।
-राम पुनियानी

1 टिप्पणी:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

भाजपा धार्मिक पहचान का इस्तेमाल राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कर रही है।

नवरात्रि की शुभकामनाएं,,,,

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