उधर वैश्वीकरणवादी नीतियों और डंकल प्रस्ताव को लागू किये जाने का काम हुआ और इधर मजदूरों ,
किसानो व एनी जनसाधारण हिस्सों के संकटों के तेजी से बढने का दौर शुरू हुआ |उधर धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों का तेजी से चढने का दौर शुरू हुआ | इधर किसानो व एनी जनसाधारण हिस्सों के गिरने -- मरने और आत्महत्याओं का दौर शुरू हुआ |
दिनाक 31 अगसत को केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री हरीश रावत ने राज्य सभा में दिये गए एक लिखित उत्तर में यह जानकारी दी कि देश में वर्ष 1995 से लेकर 2011 तक के बीच दो लाख नब्बे हजार चार सौ सत्तर किसानो ने आत्महत्या की है | इस सूचना में आत्महत्याओं के कुछ प्रमुख कारण भी बताये गए है | इसमें किसानो में बढती गरीबी , कर्जो व एनी देनदारियो को न दे पाने के चलते बढ़ता दिवालियापन तथा आर्थिक स्थितियों में अचानक बदलाव का आना बताया गया है | केन्द्रीय मंत्री महोदय ने पिछले साल अर्थात 2011 में इन्ही कारणों से 14 हजार 27 किसानो कि आत्महत्याओं की सूचनाये भी दी है | ध्यान देने लायक बात है कि इस महत्वपूर्ण सूचना प्रचार माध्यमो ने आम तौर पर कोई महत्व नही दिया | इसे समाचार पत्रों के प्रमुख समाचारों में कोई जगह नही मिली | अंदर के पृष्ठों में इसे कम महत्व के समाचार के रूप में ही स्थान दिया गया | यह किसानो कि आत्महत्या के प्रति भी प्रचार माध्यमो के उपेक्षा को ही परिलक्षित करता है | केन्द्रीय व प्रान्तीय सत्ता सरकारों तथा प्रचार माध्यमो द्वारा किसानो की आत्महत्याओ की उपेक्षा का मामला कोई नया नही है , अपितु वह सालो साल से चलता आ रहा है | पिछले 16 में सरकारी आंकड़ो के अनुसार प्रतिवर्ष औसतन 18000 किसानो की आत्महत्या का आकलन बैठता है | अगर घंटे के लिहाज से देखा जाए तो आत्महत्या का यह हिसाब दो किसान प्रति घंटा हो जाता है |
यह स्थिति तब है जब कई राज्य सरकारे अपने राज्य में किसानो की आत्महत्या के कारणों के रूप में कृषि की समस्याओं को प्रमुख कारण के रूप में नकारती रही है या उसे बहुत कम करके आंकती रही है | उदाहरण == छत्तीसगढ़ में किसानो की बढती आत्महत्याओं को कम करके दिखाने की कुछ ऐसी ही नई पद्धति के जरिये वहा कि सरकार ने वर्ष 2011 में कृषि के संकटों के चलते आत्महत्या के मामलो को शून्य करके दिखा दिया | एनी प्रान्तों की सरकारे भी यही काम क्र रही हैं |जबकि पुरे देश और देश के हर प्रांत में इन सालो में किसानो की समस्याओं संकटों में बेहिसाब वृद्धिया होती रही हैं | इसके फलस्वरूप किसानो की आत्महत्याओं का सिलसिला भी बढ़ता रहा है | इसे उपेक्षित करके किसानो की आत्महत्याओं के बारे में ये तर्क वितर्क चलते रहे है कि ये आत्महत्याए खेती के संकटों के चलते हुई हैं या एनी कारणों से | इसी का परिलक्षण है कि विदर्भ क्षेत्र में किसानो की बड़ी तादाद में होती आत्महत्याओं के कारणों को जानने के लिए बीस से भी ज्यादा विशेषज्ञ कमेटियो की रिपोर्ट पेश की जा चुकी हैं और उनका अध्ययन जारी है | जबकि तथ्यगत सच्चाई यह है कि पंजाब जैसा राज्य कृषि में सबसे ज्यादा आगे रहने के बाद अब किसानो कि आत्महत्याओं के मामले में भी आगे बढ़ता जा रहा है | इसका एक महत्वपूर्ण परिलक्षण या सबूत यह भी है कि यहाँ की सरकार ने 2012 -- 13 प्रान्तीय बजट में 500 करोड़ रूपये का आवंटन आत्महत्याओं के मुआवजे के रूप में किया है |बढती लागत , स्थिर रहते या कम बढ़ते उत्पादन और फिर लागत के मुकाबले कृषि उत्पादों के मूल्य में कही कम वृद्धि , किसानो को सरकारी और गैर सरकारी कर्जो में फसने पर मजबूर करती रही है | और उनकी देनदारिया न क्र पाने पर किसानो को अपना गला स्वंय फंसा क्र या फिर कीटनाशक दवाए पी क्र अपना जीवन समाप्त क्र लेने को मजबूर भी करती रही है | इसके वावजूद देश की केन्द्रीय सरकार साल -- दर -- साल किसानो की छुटो , अनुदानों को काटने और कर्ज की मात्राओं को बढाने का काम करती रही है | उदाहरण 1996 --- 97 में केन्द्रीय बजट में कृषि कर्ज के नाम पर आवंटित 22000 करोड़ की रकम को तेजी से बढाते हुए इस बार के बजट में 4 लाख 75 हजार करोड़ क्र दिया है | कर्ज की रकम बढाने के अलावा न तो किसानो की बढती कृषि लागत को घटाने का कोई प्रयास किया गया और न ही खेती में सिंचाई के सार्वजनिक इंतजाम के बुनियादी ढाँचे को बढाने का ही कोई प्रयास किया गया | इसी तरह से किसानो की लागत के बीज , खाद आदि को उचित समय पर मुहैया कराने और कृषि उत्पादों को उचित मूल्य पर खरीद करने के बुनियादी ढांचों के अपेक्षित विकास स्तर का भी कोई काम नही किया गया है | हाँ , इनकी जगह कर्जदाता सरकारी संस्थाओं से लेकर सरकारी बैंको द्वारा मान्यता प्राप्त माइक्रोफाइनेंस जैसी भारी सूदखोर संस्थाओं का जरुर विकास कर दिया गया है |इसी के साथ किसान क्रेडिट कार्ड के जरिये अल्पकालीन या फसली ऋण दिए जाने को भी खूब बढावा दिया गया है |
जाहिर सी बात है कि आधुनिक कृषि की जरुरतो और संकटों के चलते किसान पहले से कम व्याज का सरकारी ऋण लेने का प्रयास करेगा | फिर सरकारी बैंको से समय पर कर्ज न मिल पाने या फिर बैंको के कर्ज अदायगी न क्र पाने पर उसे प्राइवेट महाजनों या माइक्रो फाइनेन्स कम्पनियों की शरण में जाना ही पडेगा | फिर तो उनके व्याज के चक्रव्यूह से किसान और उसकी खेती का निकल पाना मुश्किल है | आम तौर पर कृषि ऋण संकटों में फंसे किसानो के बारे में यह चर्चा -- प्रचार चलाया जाता रहा है कि आत्महत्या क्र रहे ज्यादातर किसान प्राइवेट महाजनों की कर्जदारी में अपनी जान गवाते रहे है ||इस सिलसिले में सरकारी कर्जो व प्राइवेट महाजनी कर्जो में किसानो के चरणबद्ध रूप में फसने की स्थितियों को आम तौर पर नजरअंदाज क्र देने के साथ ही बैंको तथा प्राइवेट महाजनों या फाइनेन्स कम्पनियों के बीच किसानो से सूदखोरी की कमाई करने के कई तरह के सब्न्धो की भी जानबुझकर अनदेखी कर दी जाती रही है |
इसके अलावा बहुतेरे लोग किसानो की आत्महत्या के कारणों में उनके शादी -- व्याह के बढ़ते खर्चो तथा मुकदमे बाजी आदि के खर्चो को ही प्रमुख बनाकर पेश करने लगते है | मानो किसानो की बढती समस्याओं के पीछे यही कारण प्रमुख हो | खेती किसानी की समस्या प्रमुख न हो | जबकि कोई भी आदमी यह समझ सकता है कि अगर खेती किसानी से ठीक -- ठाक बचत होने लगे तो इन कभी -- कभार होने वाले आयोजनों के दबावों समस्याओं का बोझ उठाने में किसान भी किसी हद तक सक्षम जरुर हो जाएगा |
लेकिन असल मामला तो खेती -- किसानी के संकट का है और वह भी उन संकटों में आम किसान के लगातार फंसते जाने का हैं | इसे खेती किसानी की छूटो , अनुदानों को लगातार काटने -- घटाने तथा बीज , खाद , सिंचाई , दवाई आदि के मूल्यों को बढाने वाली देश की सत्ता सरकारे व प्रचार माध्यमि विद्वान् बुद्धिजीवी भी यह बात बखूबी जानते है कि 1991 में वैश्वीकरणवादी नीतियों को लागू किये जाने तथा 1995 में डंकल प्रस्ताव स्वीकार किये जाने के बाद देश -- दुनिया के धनाढ्य व उच्च हिस्सों को खुलेआम अधिकाधिक छूट व अधिकार देते जाने के साथ मजदूरों , किसानो और अन्य के छूटो अधिकारों को लगातार काटा जा रहा है | उधर इन नीतियों और डंकल प्रस्ताव को लागू जाने का काम हुआ और इधर मजदूरों , किसानो व अन्य जनसाधारण हिस्सों के संकटों के तेजी से बढने का दौर शुरू हुआ | उधर धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों का तेजी से चढने का दौर शुरू हुआ | इधर किसानो व अन्य जनसाधारण हिस्सों के गिरने मरने का और आत्महत्याओं का दौर शुरू हुआ | व्यवसायिक खेती करने वाले कृषि के विकसित क्षेत्रो में शुरू हुई किसान आत्महत्याए अब पिछड़े व कम विकसित प्रान्तों में बढ़ते कृष संकटों के साथ बढती जा रही है | क्या यह समझना मुश्किल है कि आत्म हत्याओं के पीछे दुनिया के धनाढ्यो एवं उच्च वर्गो की बढती छूटे व अधिकार उनके लिए लागू की जा रही नीतियाँ व प्रस्ताव जिम्मेदार है ? देश -- दुनिया की धनाढ्य कम्पनिया और उनकी सेवक बनी सरकारे जिम्मेदार है ? इन स्थितियों में 2 लाख 90 हजार किसानो को आत्महत्या करते हुए बताना भी इस सच्चाई को छिपाना और उसे आधे -- अधूरे रूप मे पेश करना है ये आत्महत्याए दरअसल आत्महत्याए नही है , बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में की जा रही किसान हत्याए है | धनाढ्य वर्गो व सरकारों द्वारा किसानो को मजबूर करके खुद उन्ही के द्वारा करवाई जा रही उन्ही की हत्याये है |
अत: आत्महत्याए क्र चुके किसानो को याद करने उनकी आत्महत्याओं के कारणों को जानने , समझने और फिर उसके विरुद्ध संगठित रूप में उठ खड़े होने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी किसान समुदाय तथा उनके समर्थको की है |
- सुनील दत्ता
किसानो व एनी जनसाधारण हिस्सों के संकटों के तेजी से बढने का दौर शुरू हुआ |उधर धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों का तेजी से चढने का दौर शुरू हुआ | इधर किसानो व एनी जनसाधारण हिस्सों के गिरने -- मरने और आत्महत्याओं का दौर शुरू हुआ |
दिनाक 31 अगसत को केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री हरीश रावत ने राज्य सभा में दिये गए एक लिखित उत्तर में यह जानकारी दी कि देश में वर्ष 1995 से लेकर 2011 तक के बीच दो लाख नब्बे हजार चार सौ सत्तर किसानो ने आत्महत्या की है | इस सूचना में आत्महत्याओं के कुछ प्रमुख कारण भी बताये गए है | इसमें किसानो में बढती गरीबी , कर्जो व एनी देनदारियो को न दे पाने के चलते बढ़ता दिवालियापन तथा आर्थिक स्थितियों में अचानक बदलाव का आना बताया गया है | केन्द्रीय मंत्री महोदय ने पिछले साल अर्थात 2011 में इन्ही कारणों से 14 हजार 27 किसानो कि आत्महत्याओं की सूचनाये भी दी है | ध्यान देने लायक बात है कि इस महत्वपूर्ण सूचना प्रचार माध्यमो ने आम तौर पर कोई महत्व नही दिया | इसे समाचार पत्रों के प्रमुख समाचारों में कोई जगह नही मिली | अंदर के पृष्ठों में इसे कम महत्व के समाचार के रूप में ही स्थान दिया गया | यह किसानो कि आत्महत्या के प्रति भी प्रचार माध्यमो के उपेक्षा को ही परिलक्षित करता है | केन्द्रीय व प्रान्तीय सत्ता सरकारों तथा प्रचार माध्यमो द्वारा किसानो की आत्महत्याओ की उपेक्षा का मामला कोई नया नही है , अपितु वह सालो साल से चलता आ रहा है | पिछले 16 में सरकारी आंकड़ो के अनुसार प्रतिवर्ष औसतन 18000 किसानो की आत्महत्या का आकलन बैठता है | अगर घंटे के लिहाज से देखा जाए तो आत्महत्या का यह हिसाब दो किसान प्रति घंटा हो जाता है |
यह स्थिति तब है जब कई राज्य सरकारे अपने राज्य में किसानो की आत्महत्या के कारणों के रूप में कृषि की समस्याओं को प्रमुख कारण के रूप में नकारती रही है या उसे बहुत कम करके आंकती रही है | उदाहरण == छत्तीसगढ़ में किसानो की बढती आत्महत्याओं को कम करके दिखाने की कुछ ऐसी ही नई पद्धति के जरिये वहा कि सरकार ने वर्ष 2011 में कृषि के संकटों के चलते आत्महत्या के मामलो को शून्य करके दिखा दिया | एनी प्रान्तों की सरकारे भी यही काम क्र रही हैं |जबकि पुरे देश और देश के हर प्रांत में इन सालो में किसानो की समस्याओं संकटों में बेहिसाब वृद्धिया होती रही हैं | इसके फलस्वरूप किसानो की आत्महत्याओं का सिलसिला भी बढ़ता रहा है | इसे उपेक्षित करके किसानो की आत्महत्याओं के बारे में ये तर्क वितर्क चलते रहे है कि ये आत्महत्याए खेती के संकटों के चलते हुई हैं या एनी कारणों से | इसी का परिलक्षण है कि विदर्भ क्षेत्र में किसानो की बड़ी तादाद में होती आत्महत्याओं के कारणों को जानने के लिए बीस से भी ज्यादा विशेषज्ञ कमेटियो की रिपोर्ट पेश की जा चुकी हैं और उनका अध्ययन जारी है | जबकि तथ्यगत सच्चाई यह है कि पंजाब जैसा राज्य कृषि में सबसे ज्यादा आगे रहने के बाद अब किसानो कि आत्महत्याओं के मामले में भी आगे बढ़ता जा रहा है | इसका एक महत्वपूर्ण परिलक्षण या सबूत यह भी है कि यहाँ की सरकार ने 2012 -- 13 प्रान्तीय बजट में 500 करोड़ रूपये का आवंटन आत्महत्याओं के मुआवजे के रूप में किया है |बढती लागत , स्थिर रहते या कम बढ़ते उत्पादन और फिर लागत के मुकाबले कृषि उत्पादों के मूल्य में कही कम वृद्धि , किसानो को सरकारी और गैर सरकारी कर्जो में फसने पर मजबूर करती रही है | और उनकी देनदारिया न क्र पाने पर किसानो को अपना गला स्वंय फंसा क्र या फिर कीटनाशक दवाए पी क्र अपना जीवन समाप्त क्र लेने को मजबूर भी करती रही है | इसके वावजूद देश की केन्द्रीय सरकार साल -- दर -- साल किसानो की छुटो , अनुदानों को काटने और कर्ज की मात्राओं को बढाने का काम करती रही है | उदाहरण 1996 --- 97 में केन्द्रीय बजट में कृषि कर्ज के नाम पर आवंटित 22000 करोड़ की रकम को तेजी से बढाते हुए इस बार के बजट में 4 लाख 75 हजार करोड़ क्र दिया है | कर्ज की रकम बढाने के अलावा न तो किसानो की बढती कृषि लागत को घटाने का कोई प्रयास किया गया और न ही खेती में सिंचाई के सार्वजनिक इंतजाम के बुनियादी ढाँचे को बढाने का ही कोई प्रयास किया गया | इसी तरह से किसानो की लागत के बीज , खाद आदि को उचित समय पर मुहैया कराने और कृषि उत्पादों को उचित मूल्य पर खरीद करने के बुनियादी ढांचों के अपेक्षित विकास स्तर का भी कोई काम नही किया गया है | हाँ , इनकी जगह कर्जदाता सरकारी संस्थाओं से लेकर सरकारी बैंको द्वारा मान्यता प्राप्त माइक्रोफाइनेंस जैसी भारी सूदखोर संस्थाओं का जरुर विकास कर दिया गया है |इसी के साथ किसान क्रेडिट कार्ड के जरिये अल्पकालीन या फसली ऋण दिए जाने को भी खूब बढावा दिया गया है |
जाहिर सी बात है कि आधुनिक कृषि की जरुरतो और संकटों के चलते किसान पहले से कम व्याज का सरकारी ऋण लेने का प्रयास करेगा | फिर सरकारी बैंको से समय पर कर्ज न मिल पाने या फिर बैंको के कर्ज अदायगी न क्र पाने पर उसे प्राइवेट महाजनों या माइक्रो फाइनेन्स कम्पनियों की शरण में जाना ही पडेगा | फिर तो उनके व्याज के चक्रव्यूह से किसान और उसकी खेती का निकल पाना मुश्किल है | आम तौर पर कृषि ऋण संकटों में फंसे किसानो के बारे में यह चर्चा -- प्रचार चलाया जाता रहा है कि आत्महत्या क्र रहे ज्यादातर किसान प्राइवेट महाजनों की कर्जदारी में अपनी जान गवाते रहे है ||इस सिलसिले में सरकारी कर्जो व प्राइवेट महाजनी कर्जो में किसानो के चरणबद्ध रूप में फसने की स्थितियों को आम तौर पर नजरअंदाज क्र देने के साथ ही बैंको तथा प्राइवेट महाजनों या फाइनेन्स कम्पनियों के बीच किसानो से सूदखोरी की कमाई करने के कई तरह के सब्न्धो की भी जानबुझकर अनदेखी कर दी जाती रही है |
इसके अलावा बहुतेरे लोग किसानो की आत्महत्या के कारणों में उनके शादी -- व्याह के बढ़ते खर्चो तथा मुकदमे बाजी आदि के खर्चो को ही प्रमुख बनाकर पेश करने लगते है | मानो किसानो की बढती समस्याओं के पीछे यही कारण प्रमुख हो | खेती किसानी की समस्या प्रमुख न हो | जबकि कोई भी आदमी यह समझ सकता है कि अगर खेती किसानी से ठीक -- ठाक बचत होने लगे तो इन कभी -- कभार होने वाले आयोजनों के दबावों समस्याओं का बोझ उठाने में किसान भी किसी हद तक सक्षम जरुर हो जाएगा |
लेकिन असल मामला तो खेती -- किसानी के संकट का है और वह भी उन संकटों में आम किसान के लगातार फंसते जाने का हैं | इसे खेती किसानी की छूटो , अनुदानों को लगातार काटने -- घटाने तथा बीज , खाद , सिंचाई , दवाई आदि के मूल्यों को बढाने वाली देश की सत्ता सरकारे व प्रचार माध्यमि विद्वान् बुद्धिजीवी भी यह बात बखूबी जानते है कि 1991 में वैश्वीकरणवादी नीतियों को लागू किये जाने तथा 1995 में डंकल प्रस्ताव स्वीकार किये जाने के बाद देश -- दुनिया के धनाढ्य व उच्च हिस्सों को खुलेआम अधिकाधिक छूट व अधिकार देते जाने के साथ मजदूरों , किसानो और अन्य के छूटो अधिकारों को लगातार काटा जा रहा है | उधर इन नीतियों और डंकल प्रस्ताव को लागू जाने का काम हुआ और इधर मजदूरों , किसानो व अन्य जनसाधारण हिस्सों के संकटों के तेजी से बढने का दौर शुरू हुआ | उधर धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों का तेजी से चढने का दौर शुरू हुआ | इधर किसानो व अन्य जनसाधारण हिस्सों के गिरने मरने का और आत्महत्याओं का दौर शुरू हुआ | व्यवसायिक खेती करने वाले कृषि के विकसित क्षेत्रो में शुरू हुई किसान आत्महत्याए अब पिछड़े व कम विकसित प्रान्तों में बढ़ते कृष संकटों के साथ बढती जा रही है | क्या यह समझना मुश्किल है कि आत्म हत्याओं के पीछे दुनिया के धनाढ्यो एवं उच्च वर्गो की बढती छूटे व अधिकार उनके लिए लागू की जा रही नीतियाँ व प्रस्ताव जिम्मेदार है ? देश -- दुनिया की धनाढ्य कम्पनिया और उनकी सेवक बनी सरकारे जिम्मेदार है ? इन स्थितियों में 2 लाख 90 हजार किसानो को आत्महत्या करते हुए बताना भी इस सच्चाई को छिपाना और उसे आधे -- अधूरे रूप मे पेश करना है ये आत्महत्याए दरअसल आत्महत्याए नही है , बल्कि अप्रत्यक्ष रूप में की जा रही किसान हत्याए है | धनाढ्य वर्गो व सरकारों द्वारा किसानो को मजबूर करके खुद उन्ही के द्वारा करवाई जा रही उन्ही की हत्याये है |
अत: आत्महत्याए क्र चुके किसानो को याद करने उनकी आत्महत्याओं के कारणों को जानने , समझने और फिर उसके विरुद्ध संगठित रूप में उठ खड़े होने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी किसान समुदाय तथा उनके समर्थको की है |
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3 टिप्पणियां:
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