दिल्ली , कितना आकर्षण है इस शब्द में ! प्रत्येक भारतीय के दिल में बसी
हुई यह दिल्ली प्राचीन काल से इस देश की महत्वपूर्ण नगरी और राजधानी है ,
दसवी सदी के अंतिम चरणों में '' ढिल्ली '' नाम से बसाई गई , यही नगरी
मध्यकाल में दिल्ली नाम से प्रसिद्ध हुई .
भारत का इतिहास वस्तुत: दिल्ली का ही इतिहास है , यह नगरी 18 बार बसी और उजड़ी है , यदि इस के मूक खंडहर बोल सकते तो वे ईरानी , शक , कुषाण , हूण , अरब
भारत का इतिहास वस्तुत: दिल्ली का ही इतिहास है , यह नगरी 18 बार बसी और उजड़ी है , यदि इस के मूक खंडहर बोल सकते तो वे ईरानी , शक , कुषाण , हूण , अरब
, तुर्क , मुग़ल ,मंगोल , अफगान और अंग्रेजो के आक्रमण , विनाश व निर्माण की रोमांचक कहानी कह उठते |
दिल्ली के बार -- बार बसने और उजड़ने की कहानी कुछ तो खंडहरों में कुछ इतिहास के पन्नो में सुरक्षित है , दिल्ली का रोमांचक इतिहास वस्तुत: मध्यकाल से आरम्भ होता है | हम अपनी कथा का आरम्भ अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान से करते है जिन्हें उस समय के मुसलिम इतिहासकारों तथा सुल्तानों ने '' राय पिथौरा '' कहा है |
सम्राट बीसलदेव तथा विग्रहराज चतुर्थ का चौहान वंश के शासको में वही स्थान है , जो गुप्त वंश के सम्राटो में समुद्रगुप्त का है . महाराज बीसलदेव ने अजमेर और सांभर के छोटे से राज्य को अपने पराक्रम से साम्राज्य में बदल दिया , वह बहुत शूरवीर और कवि थे . उनके एक हाथ में तलवार और दूसरे में लेखनी रहती थी , उन्होंने परिहारो को परास्त क्र के दिल्ली जीती और यहाँ के प्रसिद्ध लौह स्तंभ पर 1163 ई. में अपना अभिलेख खुदवाया |
बीसलदेव का राज्य विन्ध्याचल से हिमालय तक फैला हुआ था , उन के अंतिम दिनों में तोमर राजा अनगपाल ने चौहानों से दिल्ली को स्वतंत्र करा लिया था , लेकिन जब बीसलदेव का भाई सोमेश्वरदेव राज सिंहासन पर बैठा तो उस ने पूरे दलबल के साथ दिल्ली पर आक्रमण कर के उसे अपने राज्य में मिला लिया |
इस विजय के बाद अनगपाल अजमेर के चौहानों को एक कर देने वाला सामंत मात्र बन क्र रह गया , इसी सोमेश्वरदेव की कर्पूरीदेवी नामक रानी से 1058 ई. में एक पुत्र का जन्म हुआ , जिसका नाम पृथ्वीराज रखा गया . इस राजकुमार के शासन काल में चौहानों का उत्कर्ष चरम सीमा पर पहुंच गया | हिन्दुस्तान के महान सम्राटो में उसकी गिनती होने लगी | पृथ्वीराज चौहान ने जब राजगद्दी संभाली तो उन्होंने दिल्ली को सम्पूर्ण भारत की केन्द्रीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया , इस का जो गौरव प्राचीनकाल में था , वही अब सदियों बाद इसे मिला , पृथ्वीराज का शासन सुदूर पंजाब तक फैला हुआ था , उन्होंने विजय प्राप्त कर के अपनी शक्ति सुदृढ़ की और अपने दादा बीसलदेव की भाँती चौहान शक्ति की विजयपताका दूर -- दूर तक फहरा दिया | पृथ्वीराज ने 1182 ई . में चंदेलो को हरा कर कालिंजर के सुदृढ़ दुर्ग पर अधिकार जमाया , महोबा के शासक परमाल को परास्त कर के सब पर अपनी शक्ति का सिक्का बैठा दिया और गुजरात के राजा भीमदेव को ललकार कर सारे उत्तर भारत में एक प्रचंड सम्राट के रूप में कीर्ति स्थापित की | यही नही , उत्तरपश्चिम सीमा से जब डाकुओं की तरह टूट पड़ने वाले तुर्कों को कई बार मारपीट कर ठिकाने लगाया तो पृथ्वीराज के भय से भयभीत हो कर तुर्क दस्यु भारत के भीतरी प्रदेशो में घुसने से कतराने लगे . मध्य एशिया के तुर्क उन्हें भयवश '' राय पिथौरा '' कहकर पुकारते थे | मुसलिम इतिहासकारों ने इस हिन्दू सम्राट को सर्वत्र '' राय पिथौरा '' ही लिखा है |
मध्यकाल में कुछ राजा पुरानी परम्परा के अनुसार स्वंयवरो का आयोजन क्र के अपनी कन्याओं का विवाह करते थे , इन स्वंयवरो में प्राय: युद्ध भडक उठता था . एक राजकुमारी के माथे पर सिंदूर लगता भी न था की दूसरी हजारो सुहागिने कुछ ही देर में सिंदूर से सदा के लिए वंचित हो जाती , यह अजीब सिवाज था . स्वंयवरो में कलह और युद्ध न हो -- ऐसा नही देखा गया , इतिहास गवाह है की स्वंयवरो की परिणिति विनाशकारी युद्धों के रूप में हुई |
कभी -- कभी स्वंयवर में एक पक्ष बलपूर्वक कन्या का अपहरण भी कर लेता था जिस से खूब तलवारे चलती और हिन्दू जाति एक मामूली सी बात के लिए आपस में लड़ कर दुर्बल होती रहती |
मध्य काल में भी स्वंयवर और राजकुमारी के अपहरण जैसी घटाए जब -- तब होती रही है , इनमे
संयोगीता स्वंयवर की घटना तो ऐसी है , जिस ने भारत का इतिहास ही बदल दिया -- दो वीर राजपूत राजा घोर शत्रु बन गये |
ईसा की बारहवी शताब्दी के अंतिम वर्षो की बात है , उन दिनों कन्नौज के राजा जयचंद की परम सुन्दरी कन्या सयोगीता के स्वंयवर की बहुत धूमधाम थी . संयोगीता जितनी सुन्दर थी उतनी गुणवती और कला निपुण थी , राजा जयचंद ने अपनी एक मात्र पुत्री के स्वंयवर में भारत के सभी प्रसिद्ध राजाओं और राजकुमारों को निमंत्रण दिया था , लेकिन दिल्ली के यशस्वी सम्राट पृथ्वीराज चौहान को जानबूझ क्र निमंत्रण नही भेजा कयोंकि वह '' राय पिथौरा '' की बढती हुई शक्ति से बहुत जलता था | जयचन्द्र की दिल्ली पर बहुत पहले से नजर थी , वह तोमरो की क्षीण शक्ति को जानता था . जयचन्द्र ने एक बार दिल्ली पर धावा भी बोला था , लेकिन राजा अनगपाल ने अजमेर के चौहानों की सहायता से उसे हरा कर भगा दिया , इस विजय के बाद अनगपाल ने दिल्ली का प्रदेश पृथ्वीराज को सौप दिया और स्वंय संन्यास धारण कर के तीर्थ यात्रा करने निकल गया , जयचन्द्र न दिल्ली को भूल सका और न अपनी पराजय को , वह '' राय पिथौरा '' की भयावह शक्ति को जानता था . इसी ईर्ष्या के कारण जयचन्द्र ने पृथ्वीराज के पास निमंत्रण नही भेजा , बल्कि उसका अपमान करने के लिए स्वंयवर सभा के द्वार पर पृथ्वीराज की मूर्ति द्वारपाल के रूप में खड़ी कर दी |
जयचंद ने अपनी और से पृथ्वीराज को नीचा दिखाने में कोई कसर न छोड़ी , लेकिन उसे यह न मालुम था की उस की पुत्री सयोगीता मन ही मन पृथ्वीराज से प्रेम करती है और उसे पति रूप में वरण करने का दृढ निश्चय कर चुकी है . उसे इस बात का आभास तक न हुआ की संयोगीता ने गुप्त रीति से दिल्ली सम्राट के पास अपनी प्रेमपाती भेज कर उसे कन्नौज बुलवा लिया है |
सयोगीता का प्रणय सन्देश पा कर '' राय पिथौरा '' अर्थात दिल्ली सम्राट अपने चुने हुए सामन्तो और योद्धाओं को ले कर रणभूमि में जा पहुंचा , जैसे ही स्वंयवर सभा में राजकुमारी संयोगीता ने पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में जयमाला डाली वैसे ही सम्राट तुरंत उस के पास पहुँच गया सबको ललकारते हुए बोला '' राजकुमारी ने सब के सामने दिल्ली नरेश पृथ्वीराज के गले में जयमाला डाल दी है , मैं वही पृथ्वीराज चौहान अपनी पत्नी संयोगीता को अपने साथ दिल्ली लिए जा रहा हूँ , जिसे इस बात में आपत्ति हो वह ख़ुशी से शस्त्र परीक्षा कर सकता है '' यह कह कर सम्राट ने संयोगीता को हाथ का सहारा दे कर अपने घोड़े पर बैठाया और संकेत पाते ही दोनों को लेकर वह स्वामिभक्त घोड़ा हवा से बाते करने लगा |
सारी सभा हक्की बक्की रह गयी , पीछे राजा जयचन्द्र ने पृथ्वीराज को पकड़ने के लिए सेना भेजी , लेकिन सम्राट के बहादुरों सामन्तो ने उसका मुंह मोड़ दिया , पृथ्वीराज सकुशल दिल्ली पहुँच गया और वहा विधि विधान पूर्वक संयोगीता के साथ विवाह किया . राजा जयचन्द्र अपमान का कडवा घुट पी कर रह गया | संयोगीता का दिल्ली आगमन मानो सौभाग्य की सूचना लेकर आया . विवाह के कुछ दिन बाद ही सम्राट को नागौर में एक गुप्त खजाना मिलने की सूचना मिली , उन्होंने अपने बहनोई चितौड़ नरेश समरसिंह को लिखा की वह इस खजाने की खुदाई अपनी निगरानी में कराए |
जब खजाने की खुदाई की गयी तो उसमे नौ करोड़ स्वर्ण मुद्राए निकली , इतना बड़ा खजाना या तो पांड्वो का था या गुप्त सम्राटो का | जब खजाने के मिलने से पृथ्वीराज की शक्ति और बढ़ी , उन्होंने समरसिंह को भी इस सोने में से कुछ भाग भेट करना चाहा लेकिन चितौड़ नरेश ने यह भेट स्वीकार नही की , समरसिंह , राय पिथौरा के बहनोई ही नही अभिन्न मित्र भी थे , वह उन की बहन पृथा के पति थे |
जयचंद को पृथ्वीराज का यह सौभाग्य फूटी आँख भी न सुहाया , दिल्ली की बढ़ी हुई शक्ति उस के कलेजे में कील की तरह गड़ती जाति थी , फलत: उसने गौर देश के सुलतान मुहम्मद गोरी को हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया
मुहम्मद गोरी स्वंय हिन्दुस्तान के भीतरी प्रदेशो को जीतने की ताक में था , लेकिन रास्ते में पृथ्वीराज की शक्ति उस के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई थी , ऐसे समय जयचंद का निमंत्रण उस के लिए तपती दोपहरी में शीतल छाया से कम न था , अत: उस ने साहस कर के राय पिथौरा से दो -- दो हाथ करने का निश्चय किया और सैनिको तैयारियों में लग गया
दिसम्बर 1190 ई. में मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज के राज्य सीमाओं का अतिक्रमण कर के भटिंडा पर धावा बोल दिया , यह नगर पृथ्वीराज के राज्य की उत्तरी सीमा पर सुदृढ़ चौकी के रूप में था , तुर्कों ने एकाएक हमला कर के नगर और दुर्ग को घेर लिया |
दुर्ग में थोड़े से ही सैनिक थे वे इस आकस्मिक आक्रमण के लिए बिलकुल तैयार न थे , अत: तुर्कों ने बड़ी सरलता से इस किले पर अधिकार जमा लिया सुलतान ने काजी जिआउद्धिन को भटिंडा का सूबेदार नियुक्त किया और उसके अधीन 1200 तुर्क सवार रख दिए , इस बार मुहम्मद गोरी भटिंडा की जीत से ही संतुष्ट हो गया और वापस अपने देश लौटने की तैयारी में लग गया
दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान को ज्यो ही भटिंडा के पतन का समाचार मिला त्यों ही उस ने तुर्कों को पंजाब से मार भगाने की तैयारी में जुट गया और अपनी गजसेना व अश्वसेना लेकर वह तुरंत उत्तर की ओर बढा , जब गौर सुलतान मुहम्मद को पृथ्वीराज के आगमन का समाचार मिला तो उसका माथा ठनका , उसे तो जासूसों से यह खबर मिली थी की पृथ्वीराज अपनी नई रानी के साथ रांगरंग में मस्त है और उसे राजकाज की कोई सुधबुध नही है , उसने बहुत सोच विचार कर राय पिथौरा का सामना करने का निश्चय किया |
सुलतान ने करनाल के पास तरावली के मैदान में छावनी डाल दी और चौहानों की प्रतीक्षा करने लगा , कुछ दिन बाद पृथ्वीराज की सेनाओं ने भी उसके सामने अपना मोर्चा जमा लिया |
युद्ध आरम्भ हुआ , वीर योद्धाओं ने सुलतान के दाए और बाए बाजुओ पर इतनी तेजी से धावा बोला की तुर्कों के पैर उखड़ गये और वे तितरबितर हो कर भाग निकले , लेकिन सुलतान की अधीनता में केन्द्र भाग अंत तक जमा रहा , राय पिथौरा के छोटे भाई गोविन्दराज ने अपनी जंगी हाथियों और सवारों के लेकर शत्रु के केंद्र पर धावा बोला और उसे चारो और से घेर कर शिंकजे में कसना शुरू किया |
सुलतान की सेना में घबराहट फ़ैल गयी , गोविन्दराज भी अपने यशस्वी भाई की तरह बलवान था , उसके सवारों ने ख़ास सुलतान पर तेजी से हमला किया गोविन्दराज तुर्कों को मारता काटता सुलतान के सामने जा पहुंचा , सुलतान ने मृत्यु को सामने देखकर बड़ी तेजी से गोविन्दराज पर तलवार चलाई , चोट जबड़े पर पड़ी , जिससे वह कुछ कट गया |
गोविन्दराज ने निशाना बाँध कर अपना बरछा फेंका , वह सुलतान की बांह में घुस गया और वहा गहरा घाव हो गया , सुलतान इस चोट से विचलित हो गया , बांह में से तेजी से रक्त बहने लगा और उस पर बेहोशी छाने लगी , सुलतान की इस अवस्था का आँखों देखा हाल इतिहासकार सिराज ने '' तबकातेनासिरी '' में इस प्रकार लिखा है : ------- ' सुलतान ने अपने घोड़े का मुंह घुमाया और भाग चला , घाव में अत्यधिक पीड़ा के कारण वह और अधिक न भाग पाया , इस्लामी सेना की पराजय हुई , जिस से उसे अपार क्षति उठानी पड़ी . सुलतान तो घोड़े से गिरा जा रहा था , यह देख क्र एक शेरदिल योद्धा खिलजी नवयुवक ने सुलतान को पहचान लिया , उस के पीछे वह उछल पडा और बेहोश सुलतान के गिरते हुए शरीर को अपनी बांहों में थाम क्र घोड़े को ऐड लगाई तथा युद्धक्षेत्र से दूर ले गया '
जब मुसलमानों ने सुलतान की ऐसी दशा देखी तो उन के भी पैर उखड़ गये और वे जान बचाकर भागे , सैनिको ने 40 कोस तक उनका पीछा किया पर घायल सुलतान उनके हाथ न लगा , वह एक गुप्त स्थान पर छिपा हुआ था |
जब सैनिको के खोजी दस्ते दूर निकल गये तो तुर्क सैनिक अपने घायल और मरणासन्न सुलतान को एक पालकी में डाल कर आगे बढे , धीरे -- धीरे दुसरे भगोड़े सैनिक भी उन के आसपास इकठ्ठे हो गये , उन के मन में '' राय पिथौरा '' का आतंक बुरी तरह समाया हुआ था , इसलिए वे ताबड़तोड़ कूच पर कूच करते जा रहे थे , सिंध नदी को पार कर के ही उन की जान में जान आई | अपनी राजधानी पहुँच कर सुलतान कई महीने पंलग पर पडा इलाज कराता रहा स्वस्थ होते ही उस ने सबसे पहले युद्धभूमि से भागने वाले सैनिको और सरदारों को दंड दिया और उनका मुंह काला कर के सारी नगरी में घुमाया , इसके बाद उस ने नए सिरे से अपनी सेना का संगठन किया और पिछली हार का बदला लेने के लिए आक्रमण की तैयारियों में लग गया | वीरभूमि भारत में कभी भी शौर्यपराक्रम की कमी नही रही है लेकिन यहाँ के राजाओं की युद्ध नीति में मुख्य दोष यह रहा है की वह आक्रामक न हो कर रक्षात्मक ही रही , वे सदैव रक्षात्मक युद्ध लड़ते रहे अर्थात पहल करने का मौक़ा विदेशी आक्रमणकारी को देते रहे , उन्होंने यह कभी नही सोचा की दुश्मन को अपनी धरती पर आने ही क्यों दे | इससे पहले की वह हमारे घर में घुसकर लूटमार करे , क्यों न हम ही उसे उसी के घर में जा दबोचे और अपनी धरती को रणक्षेत्र न बनने दे | पृथ्वीराज के हाथो मुहम्मद गोरी बुरी तरह तबाह हो गया था और अपनी लुटीपिटी भयभीत , घायल सेना के साथ ताबड़तोड़ भागा जा रहा था , यदि उस समय पृथ्वीराज उसे गजनी तक जा खदेड़ता तो उसका का मार्ग रोकने वाला कोई नही था , गजनी में यदि एक बार वह अपनी तलवार चमका देता तो फिर शताब्दियों तक के लिए भारत सुरक्षित रह जाता , पृथ्वीराज को अगले वर्ष ही अपनी इस भूल का की सजा मिल गयी और यह देश आगामी लगभग 800 वर्षो के लिए गुलाम बन गया |
क्रमश :
सुनील दत्ता
दिल्ली के बार -- बार बसने और उजड़ने की कहानी कुछ तो खंडहरों में कुछ इतिहास के पन्नो में सुरक्षित है , दिल्ली का रोमांचक इतिहास वस्तुत: मध्यकाल से आरम्भ होता है | हम अपनी कथा का आरम्भ अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान से करते है जिन्हें उस समय के मुसलिम इतिहासकारों तथा सुल्तानों ने '' राय पिथौरा '' कहा है |
सम्राट बीसलदेव तथा विग्रहराज चतुर्थ का चौहान वंश के शासको में वही स्थान है , जो गुप्त वंश के सम्राटो में समुद्रगुप्त का है . महाराज बीसलदेव ने अजमेर और सांभर के छोटे से राज्य को अपने पराक्रम से साम्राज्य में बदल दिया , वह बहुत शूरवीर और कवि थे . उनके एक हाथ में तलवार और दूसरे में लेखनी रहती थी , उन्होंने परिहारो को परास्त क्र के दिल्ली जीती और यहाँ के प्रसिद्ध लौह स्तंभ पर 1163 ई. में अपना अभिलेख खुदवाया |
बीसलदेव का राज्य विन्ध्याचल से हिमालय तक फैला हुआ था , उन के अंतिम दिनों में तोमर राजा अनगपाल ने चौहानों से दिल्ली को स्वतंत्र करा लिया था , लेकिन जब बीसलदेव का भाई सोमेश्वरदेव राज सिंहासन पर बैठा तो उस ने पूरे दलबल के साथ दिल्ली पर आक्रमण कर के उसे अपने राज्य में मिला लिया |
इस विजय के बाद अनगपाल अजमेर के चौहानों को एक कर देने वाला सामंत मात्र बन क्र रह गया , इसी सोमेश्वरदेव की कर्पूरीदेवी नामक रानी से 1058 ई. में एक पुत्र का जन्म हुआ , जिसका नाम पृथ्वीराज रखा गया . इस राजकुमार के शासन काल में चौहानों का उत्कर्ष चरम सीमा पर पहुंच गया | हिन्दुस्तान के महान सम्राटो में उसकी गिनती होने लगी | पृथ्वीराज चौहान ने जब राजगद्दी संभाली तो उन्होंने दिल्ली को सम्पूर्ण भारत की केन्द्रीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया , इस का जो गौरव प्राचीनकाल में था , वही अब सदियों बाद इसे मिला , पृथ्वीराज का शासन सुदूर पंजाब तक फैला हुआ था , उन्होंने विजय प्राप्त कर के अपनी शक्ति सुदृढ़ की और अपने दादा बीसलदेव की भाँती चौहान शक्ति की विजयपताका दूर -- दूर तक फहरा दिया | पृथ्वीराज ने 1182 ई . में चंदेलो को हरा कर कालिंजर के सुदृढ़ दुर्ग पर अधिकार जमाया , महोबा के शासक परमाल को परास्त कर के सब पर अपनी शक्ति का सिक्का बैठा दिया और गुजरात के राजा भीमदेव को ललकार कर सारे उत्तर भारत में एक प्रचंड सम्राट के रूप में कीर्ति स्थापित की | यही नही , उत्तरपश्चिम सीमा से जब डाकुओं की तरह टूट पड़ने वाले तुर्कों को कई बार मारपीट कर ठिकाने लगाया तो पृथ्वीराज के भय से भयभीत हो कर तुर्क दस्यु भारत के भीतरी प्रदेशो में घुसने से कतराने लगे . मध्य एशिया के तुर्क उन्हें भयवश '' राय पिथौरा '' कहकर पुकारते थे | मुसलिम इतिहासकारों ने इस हिन्दू सम्राट को सर्वत्र '' राय पिथौरा '' ही लिखा है |
मध्यकाल में कुछ राजा पुरानी परम्परा के अनुसार स्वंयवरो का आयोजन क्र के अपनी कन्याओं का विवाह करते थे , इन स्वंयवरो में प्राय: युद्ध भडक उठता था . एक राजकुमारी के माथे पर सिंदूर लगता भी न था की दूसरी हजारो सुहागिने कुछ ही देर में सिंदूर से सदा के लिए वंचित हो जाती , यह अजीब सिवाज था . स्वंयवरो में कलह और युद्ध न हो -- ऐसा नही देखा गया , इतिहास गवाह है की स्वंयवरो की परिणिति विनाशकारी युद्धों के रूप में हुई |
कभी -- कभी स्वंयवर में एक पक्ष बलपूर्वक कन्या का अपहरण भी कर लेता था जिस से खूब तलवारे चलती और हिन्दू जाति एक मामूली सी बात के लिए आपस में लड़ कर दुर्बल होती रहती |
मध्य काल में भी स्वंयवर और राजकुमारी के अपहरण जैसी घटाए जब -- तब होती रही है , इनमे
संयोगीता स्वंयवर की घटना तो ऐसी है , जिस ने भारत का इतिहास ही बदल दिया -- दो वीर राजपूत राजा घोर शत्रु बन गये |
ईसा की बारहवी शताब्दी के अंतिम वर्षो की बात है , उन दिनों कन्नौज के राजा जयचंद की परम सुन्दरी कन्या सयोगीता के स्वंयवर की बहुत धूमधाम थी . संयोगीता जितनी सुन्दर थी उतनी गुणवती और कला निपुण थी , राजा जयचंद ने अपनी एक मात्र पुत्री के स्वंयवर में भारत के सभी प्रसिद्ध राजाओं और राजकुमारों को निमंत्रण दिया था , लेकिन दिल्ली के यशस्वी सम्राट पृथ्वीराज चौहान को जानबूझ क्र निमंत्रण नही भेजा कयोंकि वह '' राय पिथौरा '' की बढती हुई शक्ति से बहुत जलता था | जयचन्द्र की दिल्ली पर बहुत पहले से नजर थी , वह तोमरो की क्षीण शक्ति को जानता था . जयचन्द्र ने एक बार दिल्ली पर धावा भी बोला था , लेकिन राजा अनगपाल ने अजमेर के चौहानों की सहायता से उसे हरा कर भगा दिया , इस विजय के बाद अनगपाल ने दिल्ली का प्रदेश पृथ्वीराज को सौप दिया और स्वंय संन्यास धारण कर के तीर्थ यात्रा करने निकल गया , जयचन्द्र न दिल्ली को भूल सका और न अपनी पराजय को , वह '' राय पिथौरा '' की भयावह शक्ति को जानता था . इसी ईर्ष्या के कारण जयचन्द्र ने पृथ्वीराज के पास निमंत्रण नही भेजा , बल्कि उसका अपमान करने के लिए स्वंयवर सभा के द्वार पर पृथ्वीराज की मूर्ति द्वारपाल के रूप में खड़ी कर दी |
जयचंद ने अपनी और से पृथ्वीराज को नीचा दिखाने में कोई कसर न छोड़ी , लेकिन उसे यह न मालुम था की उस की पुत्री सयोगीता मन ही मन पृथ्वीराज से प्रेम करती है और उसे पति रूप में वरण करने का दृढ निश्चय कर चुकी है . उसे इस बात का आभास तक न हुआ की संयोगीता ने गुप्त रीति से दिल्ली सम्राट के पास अपनी प्रेमपाती भेज कर उसे कन्नौज बुलवा लिया है |
सयोगीता का प्रणय सन्देश पा कर '' राय पिथौरा '' अर्थात दिल्ली सम्राट अपने चुने हुए सामन्तो और योद्धाओं को ले कर रणभूमि में जा पहुंचा , जैसे ही स्वंयवर सभा में राजकुमारी संयोगीता ने पृथ्वीराज की मूर्ति के गले में जयमाला डाली वैसे ही सम्राट तुरंत उस के पास पहुँच गया सबको ललकारते हुए बोला '' राजकुमारी ने सब के सामने दिल्ली नरेश पृथ्वीराज के गले में जयमाला डाल दी है , मैं वही पृथ्वीराज चौहान अपनी पत्नी संयोगीता को अपने साथ दिल्ली लिए जा रहा हूँ , जिसे इस बात में आपत्ति हो वह ख़ुशी से शस्त्र परीक्षा कर सकता है '' यह कह कर सम्राट ने संयोगीता को हाथ का सहारा दे कर अपने घोड़े पर बैठाया और संकेत पाते ही दोनों को लेकर वह स्वामिभक्त घोड़ा हवा से बाते करने लगा |
सारी सभा हक्की बक्की रह गयी , पीछे राजा जयचन्द्र ने पृथ्वीराज को पकड़ने के लिए सेना भेजी , लेकिन सम्राट के बहादुरों सामन्तो ने उसका मुंह मोड़ दिया , पृथ्वीराज सकुशल दिल्ली पहुँच गया और वहा विधि विधान पूर्वक संयोगीता के साथ विवाह किया . राजा जयचन्द्र अपमान का कडवा घुट पी कर रह गया | संयोगीता का दिल्ली आगमन मानो सौभाग्य की सूचना लेकर आया . विवाह के कुछ दिन बाद ही सम्राट को नागौर में एक गुप्त खजाना मिलने की सूचना मिली , उन्होंने अपने बहनोई चितौड़ नरेश समरसिंह को लिखा की वह इस खजाने की खुदाई अपनी निगरानी में कराए |
जब खजाने की खुदाई की गयी तो उसमे नौ करोड़ स्वर्ण मुद्राए निकली , इतना बड़ा खजाना या तो पांड्वो का था या गुप्त सम्राटो का | जब खजाने के मिलने से पृथ्वीराज की शक्ति और बढ़ी , उन्होंने समरसिंह को भी इस सोने में से कुछ भाग भेट करना चाहा लेकिन चितौड़ नरेश ने यह भेट स्वीकार नही की , समरसिंह , राय पिथौरा के बहनोई ही नही अभिन्न मित्र भी थे , वह उन की बहन पृथा के पति थे |
जयचंद को पृथ्वीराज का यह सौभाग्य फूटी आँख भी न सुहाया , दिल्ली की बढ़ी हुई शक्ति उस के कलेजे में कील की तरह गड़ती जाति थी , फलत: उसने गौर देश के सुलतान मुहम्मद गोरी को हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया
मुहम्मद गोरी स्वंय हिन्दुस्तान के भीतरी प्रदेशो को जीतने की ताक में था , लेकिन रास्ते में पृथ्वीराज की शक्ति उस के लिए बहुत बड़ी चुनौती बनी हुई थी , ऐसे समय जयचंद का निमंत्रण उस के लिए तपती दोपहरी में शीतल छाया से कम न था , अत: उस ने साहस कर के राय पिथौरा से दो -- दो हाथ करने का निश्चय किया और सैनिको तैयारियों में लग गया
दिसम्बर 1190 ई. में मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज के राज्य सीमाओं का अतिक्रमण कर के भटिंडा पर धावा बोल दिया , यह नगर पृथ्वीराज के राज्य की उत्तरी सीमा पर सुदृढ़ चौकी के रूप में था , तुर्कों ने एकाएक हमला कर के नगर और दुर्ग को घेर लिया |
दुर्ग में थोड़े से ही सैनिक थे वे इस आकस्मिक आक्रमण के लिए बिलकुल तैयार न थे , अत: तुर्कों ने बड़ी सरलता से इस किले पर अधिकार जमा लिया सुलतान ने काजी जिआउद्धिन को भटिंडा का सूबेदार नियुक्त किया और उसके अधीन 1200 तुर्क सवार रख दिए , इस बार मुहम्मद गोरी भटिंडा की जीत से ही संतुष्ट हो गया और वापस अपने देश लौटने की तैयारी में लग गया
दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान को ज्यो ही भटिंडा के पतन का समाचार मिला त्यों ही उस ने तुर्कों को पंजाब से मार भगाने की तैयारी में जुट गया और अपनी गजसेना व अश्वसेना लेकर वह तुरंत उत्तर की ओर बढा , जब गौर सुलतान मुहम्मद को पृथ्वीराज के आगमन का समाचार मिला तो उसका माथा ठनका , उसे तो जासूसों से यह खबर मिली थी की पृथ्वीराज अपनी नई रानी के साथ रांगरंग में मस्त है और उसे राजकाज की कोई सुधबुध नही है , उसने बहुत सोच विचार कर राय पिथौरा का सामना करने का निश्चय किया |
सुलतान ने करनाल के पास तरावली के मैदान में छावनी डाल दी और चौहानों की प्रतीक्षा करने लगा , कुछ दिन बाद पृथ्वीराज की सेनाओं ने भी उसके सामने अपना मोर्चा जमा लिया |
युद्ध आरम्भ हुआ , वीर योद्धाओं ने सुलतान के दाए और बाए बाजुओ पर इतनी तेजी से धावा बोला की तुर्कों के पैर उखड़ गये और वे तितरबितर हो कर भाग निकले , लेकिन सुलतान की अधीनता में केन्द्र भाग अंत तक जमा रहा , राय पिथौरा के छोटे भाई गोविन्दराज ने अपनी जंगी हाथियों और सवारों के लेकर शत्रु के केंद्र पर धावा बोला और उसे चारो और से घेर कर शिंकजे में कसना शुरू किया |
सुलतान की सेना में घबराहट फ़ैल गयी , गोविन्दराज भी अपने यशस्वी भाई की तरह बलवान था , उसके सवारों ने ख़ास सुलतान पर तेजी से हमला किया गोविन्दराज तुर्कों को मारता काटता सुलतान के सामने जा पहुंचा , सुलतान ने मृत्यु को सामने देखकर बड़ी तेजी से गोविन्दराज पर तलवार चलाई , चोट जबड़े पर पड़ी , जिससे वह कुछ कट गया |
गोविन्दराज ने निशाना बाँध कर अपना बरछा फेंका , वह सुलतान की बांह में घुस गया और वहा गहरा घाव हो गया , सुलतान इस चोट से विचलित हो गया , बांह में से तेजी से रक्त बहने लगा और उस पर बेहोशी छाने लगी , सुलतान की इस अवस्था का आँखों देखा हाल इतिहासकार सिराज ने '' तबकातेनासिरी '' में इस प्रकार लिखा है : ------- ' सुलतान ने अपने घोड़े का मुंह घुमाया और भाग चला , घाव में अत्यधिक पीड़ा के कारण वह और अधिक न भाग पाया , इस्लामी सेना की पराजय हुई , जिस से उसे अपार क्षति उठानी पड़ी . सुलतान तो घोड़े से गिरा जा रहा था , यह देख क्र एक शेरदिल योद्धा खिलजी नवयुवक ने सुलतान को पहचान लिया , उस के पीछे वह उछल पडा और बेहोश सुलतान के गिरते हुए शरीर को अपनी बांहों में थाम क्र घोड़े को ऐड लगाई तथा युद्धक्षेत्र से दूर ले गया '
जब मुसलमानों ने सुलतान की ऐसी दशा देखी तो उन के भी पैर उखड़ गये और वे जान बचाकर भागे , सैनिको ने 40 कोस तक उनका पीछा किया पर घायल सुलतान उनके हाथ न लगा , वह एक गुप्त स्थान पर छिपा हुआ था |
जब सैनिको के खोजी दस्ते दूर निकल गये तो तुर्क सैनिक अपने घायल और मरणासन्न सुलतान को एक पालकी में डाल कर आगे बढे , धीरे -- धीरे दुसरे भगोड़े सैनिक भी उन के आसपास इकठ्ठे हो गये , उन के मन में '' राय पिथौरा '' का आतंक बुरी तरह समाया हुआ था , इसलिए वे ताबड़तोड़ कूच पर कूच करते जा रहे थे , सिंध नदी को पार कर के ही उन की जान में जान आई | अपनी राजधानी पहुँच कर सुलतान कई महीने पंलग पर पडा इलाज कराता रहा स्वस्थ होते ही उस ने सबसे पहले युद्धभूमि से भागने वाले सैनिको और सरदारों को दंड दिया और उनका मुंह काला कर के सारी नगरी में घुमाया , इसके बाद उस ने नए सिरे से अपनी सेना का संगठन किया और पिछली हार का बदला लेने के लिए आक्रमण की तैयारियों में लग गया | वीरभूमि भारत में कभी भी शौर्यपराक्रम की कमी नही रही है लेकिन यहाँ के राजाओं की युद्ध नीति में मुख्य दोष यह रहा है की वह आक्रामक न हो कर रक्षात्मक ही रही , वे सदैव रक्षात्मक युद्ध लड़ते रहे अर्थात पहल करने का मौक़ा विदेशी आक्रमणकारी को देते रहे , उन्होंने यह कभी नही सोचा की दुश्मन को अपनी धरती पर आने ही क्यों दे | इससे पहले की वह हमारे घर में घुसकर लूटमार करे , क्यों न हम ही उसे उसी के घर में जा दबोचे और अपनी धरती को रणक्षेत्र न बनने दे | पृथ्वीराज के हाथो मुहम्मद गोरी बुरी तरह तबाह हो गया था और अपनी लुटीपिटी भयभीत , घायल सेना के साथ ताबड़तोड़ भागा जा रहा था , यदि उस समय पृथ्वीराज उसे गजनी तक जा खदेड़ता तो उसका का मार्ग रोकने वाला कोई नही था , गजनी में यदि एक बार वह अपनी तलवार चमका देता तो फिर शताब्दियों तक के लिए भारत सुरक्षित रह जाता , पृथ्वीराज को अगले वर्ष ही अपनी इस भूल का की सजा मिल गयी और यह देश आगामी लगभग 800 वर्षो के लिए गुलाम बन गया |
क्रमश :
सुनील दत्ता
साभार ----- स . विश्वनाथ
4 टिप्पणियां:
जानकारी देती संग्रहणीय प्रस्तुति,,,,आभार सुमन जी,,,
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए,,,,
RECENT POST:....आई दिवाली,,,100 वीं पोस्ट,
इतनी जानकारी हमें नही थी आपसे मिली आभार इसके लिये
दीपावली पर्व के अवसर पर आपको और आपके परिवारजनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें
PRITHVIRAJ CHAUHAN K BAD DELHI K UJDNE ME BAS 2 HI ZIMMEDAR THE JAICHAND AUR MUSLIM AAKRAMANKARI.
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