शनिवार, 24 नवंबर 2012

साम्प्रदायिक एकता की बात करें, वैमनस्य की नहीं





प्रकृति के प्रलय का तांडव भले ही अभी हमसे कितनी ही दूर क्यों न हो परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानव अपने ही द्वारा निर्मित प्रलयरूपी चक्रव्यूह में स्वयं बहुत तेजी से उलझता जा रहा है। आज के दौर में विश्व के शक्तिशाली देशों सहित सारा संसार आर्थिक मंदी के भारी दौर से गुजर रहा है। विश्व के बड़े से बड़े बैंक, बड़ी कम्पनियाँ, सरकारी व गैर सरकारी उपक्रम आदि के दीवालिया होने के समाचार प्राप्त हो रहे हैं। महँगाई का दानव गरीबों के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगा रहा है। दूसरी ओर इन्हीं दुर्गम परिस्थितियों के मध्य मानव जाति अपने आपको इन विकराल समस्याओं से उबारने के प्रयासों के बजाए उल्टै स्वयं को वैचारिक मतभेदों में ही उलझाती जा रही है। 
संसार में नाममात्र हैसियत रखने वाला इन्सान आज अपनी ही मानव जाति का दुश्मन बना बैठा है। विरोध व मतभेद का कारण भी अजीबो गरीब है। कहीं अपने अल्लाह को सही बताया जा रहा है तथा शेष विश्वासों को झूठ और बकवास बताया जाता है। कोई अपने भगवान और अपनी संस्कृति को ही आदिकाल की उपज बता रहा है तथा इसके अतिरिक्त सभी धारणाओं को बेबुनियाद साबित करने की कोशिश कर रहा है तो कोई अपने गॉड को ही दुनिया का बनाने व चलाने वाला स्वीकार करता है। इनकी नजरों में भी शेष सभी विश्वास व धारणाएँ महज एक तमाशा मात्र हैं। प्रश्न यह है कि करोड़ों वर्ष के पृथ्वी के इस इतिहास में साठ या सत्तर वर्ष की औसत आयु जीने वाला एक साधारण व्यक्ति क्या अपने आप में इतनी क्षमता रखता है कि वह इस महान रहस्य का पता लगा सके कि ईश्वरीय सत्ता की वास्तविकता आखिर है क्या? संसार का रहस्य क्या है? अल्लाह, ईश्वर, गॉड, वाहेगुरु आदि में सब सही है या कोई एक अवधारणा ही सही हैं?
ब्रह्माण्ड, आकाश की गहराइयों तथा तारों के असीम संसार की बात ही क्या कहना, मैं तो बहुत छोटे से उदाहरण के साथ अपनी बात अपने पाठकों को समझाने का प्रयास कर रहा हूँ। देश की अत्यन्त रमणीक स्थली हिमाचल प्रदेश में प्रायः मेरा आना जाना रहता है। मुझे वहाँ ऐसे सैकड़ों लोग मिलते रहते हैं जो यह बताते हैं कि इस राज्य में तमाम ऐसी जगहें हैं जहाँ आज तक मनुष्य के कदम नहीं जा सके। इस बात का सीधा सा अर्थ है कि न केवल ऐसे स्थान जो दिखाई तो देते हैं परन्तु आम मनुष्य की पहुँच से दूर हैं बल्कि उन स्थानों के रहस्य भी आम लोगों को मालूम नहीं हैं। जरा कल्पना कीजिए कि पृथ्वी रूपी इस ग्रह पर ऐसे न जाने कितने स्थान हैं जिसके विषय में मनुष्य को कोई जानकारी नहीं है। उसके बावजूद यही मनुष्य जोकि प्राकृतिक शक्तियों व रहस्यों के विषय में काफी हद तक अज्ञानी कहा जा सकता है, उसी सर्वशक्तिमान के नाम पर उसके अलगअलग रूपों को लेकर एक दूसरे के खून का प्यासा बना नजर आ रहा है। धर्म व सम्प्रदाय, खुदा व भगवान के नाम पर आज मानव जाति एक दूसरे की जान व माल की दुश्मन बनी बैठी है। यदि कभी किसी तानाशाह मुगल शासक ने भारत पर आक्रमण किया और कई मंदिर तोड़ डाले तो उसके जवाब में भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के बावजूद सैकड़ों वर्षों के बाद संगठित रूप में हिन्दुत्ववादी शक्तियों द्वारा 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराकर उसका जवाब देने की जरूरत महसूस की गई। स्वयं को राष्ट्रवादी जताने वाली इन शक्तियों ने इस बात की परवाह नहीं की कि उनकी इस आक्रामकता पूर्ण कार्रवाई से देश का साम्प्रदायिक सौहाद्रर छिन्नभिन्न हो जाएगा। बल्कि उन्होंने उन विदेशी आक्रमण कर्ताओं की कारगुजारियों का जवाब भारत के अल्पसंख्यकों के मध्य दहशत व अविश्वास की भावना फैला कर दिया।
बात अगर यहीं ख़त्म हो जाती फिर भी गनीमत थी। 6 दिसम्बर 1992 की साम्प्रदायिकता की यह आग मुंबई बम धमाकों से होती हुई गोधरा ट्रेन हादसे तक जा पहुँची और इस खौफनाक हादसे में उपद्रवियों द्वारा 58 बेगुनाह कारसेवकों को जिंदा जला दिया गया। फिर क्या था, साम्प्रदायिकता का जिन्न बोतल से बाहर निकल आया तथा पूरे गुजरात में अल्पसंख्यकों पर वह जुल्म ाया गया जिसने 1947 जैसे रक्तरंजित विभाजन की याद ताजा कर दी। बहरहाल आज साम्प्रदायिकता अर्थात वैचारिक आतंकवाद का यह ज़हर पूरे भारत में तेजी से फैलता जा रहा है। इन्सान स्वयं इन्सानों का दुश्मन तो बन ही चुका था, अब तो मंदिर, मस्जिद, चर्च, कब्रिस्तान आदि सब कुछ इन मानवता
विरोधियों के निशाने पर हैं। साफ नजर आ रहा है साम्प्रदायिकता के इस फैलते हुए जहर के परिणाम स्वरूप एक रूविदी हिन्दू यदि अपने बच्चों को मात्र हिन्दुत्व की शिक्षा दे रहा है तो स्वयं को इस्लाम का ठेकेदार समझने की गलतफहमी पालने वाला मुसलमान भी अपने बच्चों को सिर्फ मुसलमान ही बनाना चाह रहा है। भारत में ईसाई मिशनरीज पर हमेशा से यह आरोप लगाया जाता रहा है कि इनके द्वारा भारत में बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन किया जाता है। कई दशकों से लगाए जाने वाले इन्हीं आरोपों के बीच अपने रचनात्मक कार्यों के बल पर मदर टेरेसा ने न र्सिफ भारत रत्न का सम्मान ले लिया बल्कि उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से भी नवाजा गया। ईसाइयत के प्रसार का विरोध करने वाली शक्तियाँ मदर टेरेसा जैसी मानवता से प्रेम करनी वाली कोई दूसरी शक्ति तो आज के दौर में पैदा नहीं कर सकती। परन्तु इन उग्र शक्तियों द्वारा ईसाई ननों से तथा महिलाओं से बलात्कार वास्तविक हिन्दुत्व को बदनाम किए जाने के समाचार जरूर सुनाई दिए। इन तथाकथित राष्ट्रवादियों द्वारा ईसाइयों के अराधना स्थल चर्चों को जला कर अपनी शक्ति व तथाकथित महानता का प्रदशर्न जरूर किया जाता रहा है।
इसी प्रकार इस्लाम जो कि शांति, प्रेम व सद्भाव का मार्ग बताने वाला धर्म समझा जाता है उसी इस्लाम का अनुसरण करने वाले कुछ लोग आए दिन आतंकवादी घटनाएँ अंजाम देकर इस्लाम धर्म पर धब्बा लगाने का प्रयास कर रहे हैं। स्वयं को जेहादी कहने वाले यह गुमराह लोग आज अपनी इन्हीं अमानवीय हरकतों की वजह से स्वयं अपने ही धर्म के सबसे बड़े दुश्मन बन बैठे हैं। परन्तु इन सभी नकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद संतोष का विषय यह है कि प्रत्येक धर्म व सम्प्रदाय का आम उदारवादी व प्रगतिशील आदमी अभी भी अपने आप को किसी भी हिसंक गतिविधि से दूर ही रखना चाहता है। महँगाई व भविष्य की अनिश्चितता के इस अंधकारमय दौर में साधारण व्यक्ति केवल अपनी रोजीरोटी, अपने परिवार के कल्याण तथा अपने अस्तित्व के लिए ही जीना व उससे जूझना चाहता है। आम आदमी के पास आज इतना समय नहीं है कि वह धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर घर से बाहर निकले, त्रिशूल, तलवार धारण करके अथवा बम बनाने या एके47 चलाने का प्रिशक्षण प्राप्त करे। परन्तु कितना दुःखद है कि इन सबके बावजूद देश में कहीं न कहीं से आम आदमी को विचलित कर देने वाले ऐसे हिंसक समाचार आए दिन सुनाई दे रहे हैं।
दरअसल दिखाई देने वाले और सुनाई देने वाले आतंकवाद, आगजनी, आत्मघाती हमलों, हिंसक घटनाओं व हत्या जैसी शर्मनाक घटनाओं के पीछे है वह आतंकवाद जो दिखाई नहीं देता और न ही वह अपना कोई ऐसा सबूत छोड़ता है जिससे कि उसे कानून की गिरफ्त में लिया जा सके, और वे हैं वैचारिक आतंकवाद को सींचने वाले स्रोत। लगभग प्रत्येक सम्प्रदाय में वैचारिक आतंकवाद की बेल बखूबी सींची जा रही है। कहीं धर्मगुरुओं द्वारा, कहीं राजनैतिक संगठनों द्वारा, कहीं तथाकथित सामाजिक संगठनों तो कहीं साम्प्रदायिक संगठनों के माध्यम से। बड़े दुःख के साथ यह भी कहना पड़ता है कि इसमें हमारे लेखकों व स्तम्भकारों की भी बड़ी अहम भूमिका दिखाई दे रही है। मैं नहीं समझता कि एक ईमानदार लेखक या स्तम्भकार को पक्षपातपूर्ण लेख लिखकर किसी एक वर्ग या समुदाय को उत्तेजित करना चाहिए अथवा किसी एक को नीचा दिखाने की कोशिश करनी चाहिए। धर्म व सम्प्रदाय के नाम पर समाज के ध्रुवीकरण के प्रयास में लगी शक्तियों से बचने का यही उपाय है कि एक तो इनके धार्मिकता का ोंग करने के झाँसे में हरगिज न आया जाए। दूसरा यह कि मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, मदरसा, दरगाह या चर्च में कहीं भी यदि खुले तौर पर या गुप्त रूप से कोई ऐसी गतिविधियाँ संचालित की जा रही हों जो किसी एक समुदाय को अन्य सम्प्रदायों के विरूद्ध संगठित करने का खतरनाक मिशन चला रही हैं तो उन्हें न सिर्फ सरकार द्वारा प्रतिबंधित करना चाहिए बल्कि आम जनता द्वारा भी उन्हें समाज से बहिष्कृत किया जाना चाहिए। आम लोगों को केवल एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यदि किसी भी समुदाय का कोई भी व्यक्ति साम्प्रदायिकता व राष्ट्रवाद को एक साथ जोड़ने की बात समझाता है तो वह व्यक्ति या ऐसा संगठन निश्चित रूप से वैचारिक आतंकवाद को ही ब़ावा दे रहा है। जरूरत है केवल ऐसे लोगों की बात सुनने की जो समाज को जोड़ने की बात करें, तोड़ने की नहीं। साम्प्रदायिक एकता की बात करें, साम्प्रदायिक वैमनस्य की नहीं। देश का विकास साम्प्रदायिक एकता व साम्प्रदायिक सद्भाव में निहित है, दुर्भावना, नफरत, भय तथा आतंक में हरगिज नहीं।
-तनवीर जाफ़री
मो0 09896219228

5 टिप्‍पणियां:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

साम्प्रदायिक एकता की बात करें, साम्प्रदायिक वैमनस्य की नहीं,,,,

recent post : प्यार न भूले,,,

Shikha Kaushik ने कहा…

सार्थक प्रस्तुति . आभार .
हम हिंदी चिट्ठाकार

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

उम्रें निकल गईं
बनाते बनाते
सांप्रदायिक एकता
क्यों न इंन्सानी एकता बनाएँ?

vijai Rajbali Mathur ने कहा…

सारी की सारी कसरत- व्यापारियों/उद्योगपतियों/ढ़ोंगी पुरोहितवादियो द्वारा फैलाई वैमनस्यता- आर्थिक लाभ उठाने हेतु होती है।

Neetu Singhal ने कहा…

विद्यमान समय का जनमानस जो की सामान्य हैं को उक्त विषय
पर चिंतन करने का न तो समय है न ही रूचि, धार्मिक विषय के
मार्मिक प्रसंगों पर सामाजिक विषमताओं को विस्तार देना तथा-
कथित नेतागण का कार्य सूत्र है जो कि सोपान-पथ स्वरूप प्रयोग
किया जाता है जिससे या तो सत्ता का मणि सिहासन सेंधें अथवा
साधें.....

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