रविवार, 25 नवंबर 2012

उच्च न्यायालय की टिप्पड़ी न्यायिक गरिमा के खिलाफ



रिहाई मंच के अध्यक्ष एडवोकेट मोहम्मद शुऐब औरइलाहाबाद हाई कोर्ट के अधिवक्ता और मानवाधिकार संगठन पीयूएचआर केप्रवक्ता सतेन्द्र सिंह ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आतंकवाद से संबंधितकुछ मामलों में सम्बन्धित जिले के प्रशासनिक तथा पुलिस अधिकारियों सेअभियुक्तों को रिहा किए जाने के सम्बन्ध में मागी गई आख्या के विरुद्किसी गैर जिम्मेदार व्यक्ति द्वारा माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद कोभेजे गए पत्र के आधार पर संज्ञान लेकर उत्तर प्रदेश सरकार से उत्तरमांगने तथा नियत तिथि पर उत्तर न देने तथा अवसर प्राप्त करने की याचना पर संन्बिधत शासकीय अधिवक्ता पर डांट लगाते हुए माननीय न्यायाधीघ श्री आरके अग्रवाल तथा श्री आरएस आर मौर्या द्वारा की गई टिप्पड़ी को अवांछनीय बताया। उन्होंने आगे कहा कि यह टिप्पड़ी की आज आप इन्हें छोड़ रहे हैं और कल उन्हें पद्म भूषण की उपाधि दे सकते हैं। न्यायालय की गरिमा के विरुद्ध
है तथा माननीय न्यायालय की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल है। माननीय न्यायाधीश द्वय की टिप्पड़ी कि कोई व्यक्ति अभियुक्त है यह निर्णय करना न्यायालय का कार्य है राजनीतिज्ञों का नहीं। माननीय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर की गई उक्त टिप्पड़ी माननीय उच्च न्यायालय की अवमाननाहै।
है तथा माननीय न्यायालय की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल है। माननीय न्यायाधीश द्वय की टिप्पड़ी कि कोई व्यक्ति अभियुक्त है यह निर्णय करना न्यायालय का कार्य है राजनीतिज्ञों का नहीं। माननीय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर की गई उक्त टिप्पड़ी माननीय उच्च न्यायालय की अवमाननाहै।है तथा माननीय न्यायालय की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल है। माननीय न्यायाधीश द्वय की टिप्पड़ी कि कोई व्यक्ति अभियुक्त है यह निर्णय करना न्यायालय का कार्य है राजनीतिज्ञों का नहीं। माननीय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर की गई उक्त टिप्पड़ी माननीय उच्च न्यायालय की अवमाननाहै।

है तथा माननीय न्यायालय की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल है। माननीय न्यायाधीश द्वय की टिप्पड़ी कि कोई व्यक्ति अभियुक्त है यह निर्णय करना न्यायालय का कार्य है राजनीतिज्ञों का नहीं। माननीय उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठकर की गई उक्त टिप्पड़ी माननीय उच्च न्यायालय की अवमाननाहै।
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम धारा 321 दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान के अन्तर्गत आता है। जिसमंे कहा गया है कि किसी मामले का भार साधक राज्य सरकार की इस प्रभाव की लिखित अनुमति पर (जो न्यायालय
में दाखिल की जाएगी) निर्णय सुनाए जाने के पूर्व किसी समय किसी व्यक्ति के अभियोजन को या तो साधारणतः या उन अपराधों में से किसी एक या अधिक के बारे में, जिनके लिए उस व्यक्ति का विचारण किया जा रहा है, न्यायालय की
सम्मति से वापस ले सकता है। उत्तर प्रदेश सरकार सम्बन्धित मुकदमों को वापस लेने से पहले सम्बन्धित प्रशासनिक तथा पुलिस अधिकारियों से यदि रिपोर्ट तलब कर रही है तो इसमें विधि विरुद्ध कुछ भी नहीं दिखता। यदि सरकार उक्त मुकदमों को वापस लेना चाहती है तो वापस लेने की लिखित अनुमति देने से पूर्व की जाने वाली जांच को अवैधानिक कैसे माना जाएगा।

कई मुस्लिम युवा जो आतंकवाद से सम्बन्धित आरोपों में बंद थे अनेक न्यायालयों द्वारा साक्ष्य के आभाव में पांच से लेकर पन्द्रह साल तक ट्रायल फेस करने के बाद छोड़े गए हैं। इनकी इस लंबी अवधि तक जेल में रहने को अवैध करार देने के बाद उनके ये दिन उन्हें वापस कैसे दिए जा सकते हैं। इस पर भी विचार करना आवश्यक है। जबकि भारतीय दंड संहिता में निर्दोषों को फंसाने वालों के विरुद्ध भी दंड का प्रावधान है, लेकिन गुजरात के कुछ मामलों को छोड़कर अब तक किसी भी अधिकारी या पुलिस कर्मचारी के विरुद्ध
दंडात्मक कार्यवाई नहीं की गई है। इन परिस्तियों पर विचार करने के उपरान्त ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि पुलिस ऐसा कुछ न करे कि किसी निर्दोष मुसलमान को यह कहना पड़े कि माई नेम इज खान, बट आईएम नाॅट टेररिस्ट।

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