- राजनीति में विदेशी निवेश
सुधार/संवर्द्धन आदि का काम बड़े पैमाने पर करते हैं तो राजनीति क्यों नहीं करेंगे? एन.जी.ओ. पूँजीवादी व्यवस्था के अभिन्न अंग हैं जो उसके विरोध की राजनैतिक संभावनाओं को खत्म करते हैं। वे बताते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था अपने में पूर्ण और अंतिम है। अगर किसी समाज में समस्याएँ हैं तो वहाँ के निवासी एन.जी.ओ. बना कर धन ले सकते हैं और उन समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। उसके लिए पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध करने की जरूरत नहीं है।
देश में जब सब क्षेत्रों में धड़ाधड़ एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं तो राजनीति भी अपने हाथ में लेने की कोशिश करेंगे ही। आखिर सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार समिति (नैक) में कितने एन.जी.ओ. वालों को खपाया जा सकता है? सुनते हैं, केजरीवाल नैक में शामिल होना चाहते थे, लेकिन वहाँ जमे उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उनका रास्ता रोक दिया। आखिर आदमी केवल प्रवृत्ति नहीं होता; उसकी अपनी भी कुछ फितरत होती है। मनमोहन सिंह का यह बच्चा रूठ कर कुछ उच्छृंखल हो गया है। उच्छृंखलता ज्यादा न ब़े, इसके लिए कतिपय पालतू बच्चे पार्टी में शामिल हो गए हैं। यह उनका अपना निर्णय है या खुद मनमोहन सिंह मंडली ने उन्हें वहाँ भेजा है, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है।
एन.जी.ओ. द्वारा कार्यकर्ताओं को हड़पने की समस्या पहले भी रही है। फर्क इतना आया है कि एन.जी.ओ. के जाल में पुराने लोग भी फँसने लगे हैं। यह स्थिति नवउदारवादी व्यवस्था की मजबूती की दिशा में एक और ब़ा हुआ कदम है। इस बीच घटित एक वाकिये को रूपक के रूप में पॄा जा सकता है। 1995 में बनी राजनैतिक पार्टी समाजवादी जन परिषद (सजप) के वरिष्ठ नेता सुनील एक प्रखर विचारक और प्रतिबद्ध समाजवादी कार्यकर्ता हैं। जे.एन.यू. से अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के बाद से वे पूर्णकालिक राजनैतिक काम कर रहे हैं। किशन पटनायक द्वारा शुरू की गई ॔सामयिक वार्ता’ का समता संगठन और बाद में सजप के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है। किशन जी के रहते ही यह पत्रिका अनियमित होने लगी थी जिसकी उन्हें सर्वोपरि चिंता थी।
उनके बाद पत्रिका के संपादक बने साथी ने उसे अपना प्राथमिक काम नहीं बनाया। जबकि संपादकी की जिम्मेदारी लेने वाले किसी भी साथी को उसे अपना प्राथमिक काम स्वीकार करके ही वैसा करना चाहिए था। इस दौरान पत्रिका की नियमितता पूरी तरह भंग हो गई। अब पिछले दोतीन महीने से सुनील उसे केसलाइटारसी से निकालने और फिर से जमाने की कोशिश कर रहे हैं। सुनील राजनीति करने वाले थे और संपादक बने साथी फोर्ड फाउंडेशन से संबद्ध हैं। अब सुनील पत्रिका निकाल रहे हैं और राजनीति करने का काम किशन जी के बाद संपादक बने साथी ने सँभाल लिया है। सजप के भीतर यह फेरबदल होता तो उतनी परेशानी की बात नहीं थी। उनका मन बड़ा है! वे केजरीवाल की नई पार्टी की राजनीति कर रहे हैं। कह सकते हैं, जो जहाँ का होता है, अंततः वहीं जाता है। लेकिन इस नाटक में बड़ी मशक्कत से खड़े किए गए एक संगठन और उससे जुड़े नवउदारवाद
विरोधी संघर्ष का काफी नुकसान हुआ है। कहना न होगा कि इससे किशन पटनायक की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगा है। आप समझ गए होंगे हम साथी योगेंद्र यादव की बात कर रहे हैं। हमने इस प्रसंग को रूपक के बतौर रखा है, जिसमें सुनील और योगेंद्र व्यक्ति नहीं, दो प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं।
साम्राज्यवाद की सगुणता के कई रूप हैं। विदेशी धन उनमें शायद मूलभूत है। पूरी दुनिया में बिछा बहुराष्ट्रीय कंपनियों और एन.जी.ओ. का फंदा उसीसे मजबूती से जुड़ा है। विदेशी
धन, चाहे कर्ज में आया हो चाहे खैरात में, वह खलनायक है जो हमारे संसाधनों, श्रम और रोजगार को ही नहीं लूटता, स्वावलंबन और स्वाभिमान का खजाना भी लूट लेता है। उसके बाद कितना भी तिरंगा लहराया जाए, देशभक्ति के गीत गाए जाएँ, न स्वावलंबन बहाल होता है न स्वाभिमान। केवल एक झूठी तसल्ली रह जाती है। सोवियत संघ के विघटित होने के बाद यह प्रकाश में आया कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को वहाँ से कितना धन मिलता था। उस समय गुरुवर विश्वनाथ त्रिपाठी ने हम से बगैर पूछे ही कहा कि ॔क्या हुआ, धन क्रांति करने के लिए लिया था।’ सवाल है कि अगर लिया था तो क्रांति का क्या हुआ? एक दौर के प्रचंड समाजवादी जॉर्ज फनारंडीज पर आरोप लगते रहे हैं कि उन्होंने सोशलिस्ट इंटरनेशनल से धन लिया। वे भी सोचते होंगे कि उन्होंने धन समाजवादी क्रांति करने के पवित्र उद्देश्य के लिए लिया है। आज वे कहाँ हैं बताने की जरूरत नहीं। विदेशी धन का यह फंदा काटना ही होगा।
नई पार्टी ने स्वराज लाने की बात कही है। लेकिन वह झाँसा ही है। एन.जी.ओ. वाले कैसे और कैसा स्वराज लाते हैं उसका जिक्र हमने ॔भ्रष्टाचार विरोध : विभ्रम और यथार्थ’ शीर्षक ॔समय संवाद’ में किया है जो अब इसी नाम से प्रकाशित पुस्तिका में उपलब्ध है। अब दोनों ही बातें हैं। नुकसान की भी और फायदे की भी। फायदे की बात पर ध्यान देना चाहिए। जो इस नवउदारवादी प्रवाह में शामिल नहीं हुए, उनकी समझ और रास्ते अब ज्यादा साफ होंगे। जो शामिल हुए, लेकिन लौट आए, यह अफसोस करना छोड़ दें कि कितनी बड़ी ऊर्जा बेकार चली गई! ऊर्जा कभी बेकार नहीं जाती। वह जिस काम के लिए पैदा हुई थी, वह काम काफी कुछ कर चुकी है और आगे करेगी। साथी अपना काम इस बार ज्यादा ध्यान से करें। उनके पास यह ताकत कम नहीं है कि वे बदलाव नहीं कर पा रहे हैं तो कम से कम देश की बदहाल आबादी के साथ धोखाधड़ी नहीं कर रहे हैं।
लोग राजनीति को कहते हैं, हमारा मानना है कि मानव जीवन ही संभावनाओं का खेल है। यह भी हो सकता है मोहभंग हो और नई पार्टी से कुछ लोग बाहर आएँ। जीवन में सीख की बड़ी भूमिका होती है। उससे नवउदारवाद विरोधी आंदोलन को निश्चित ही ज्यादा बल मिलेगा।
-प्रेम सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें