सोमवार, 17 दिसंबर 2012

कसाब की फाँसी और कारपोरेट मीडिया

    यह संयोग है कि शिव सेना नेता बालठाकरे की मौत का कवरेज खत्म हुआ और कसाब की फाँसी का कवरेज आरंभ हुआ। ठाकरे के कवरेज ने हिन्दुत्व को महिमामंडित किया और उनके मुस्लिम विरोधी नजरिए को निजी गुणों की  जय-जयकार के कोलाहल के जरिए छिपाया गया। इस तरह की प्रस्तुतियों के जरिए कारपोरेट मीडिया और खासकर टी.वी. न्यूज चैनलों की दिषा पहले से तय हो चुकी थी। कसाब को फाँसी दिए जाने पर एक नेता ने टी.वी. पर कहा कि कसाब को फाँसी पर लटकाकर केन्द्र सरकार ने बाल ठाकरे को बेहतरीन श्रद्धांजलि दी है। यह सच है कि 26/11 की घटना बड़ी आतंकी घटना थी। उसमें जितने बड़े पैमाने पर जन-धन की क्षति हुई और शिव सेना आम लोगों की भावनाओं को आघात पहुँचा उसकी भरपाई किसी भी तरह संभव नहीं है। कसाब को फाँसी दिए जाने के संदर्भ में कई बातें हैं जिन पर गौर किया जाना चाहिए। पहली बात यह है कि कसाब को फाँसी एक न्यायिक प्रक्रिया के तहत दी गई है। यह अकस्मात् घटित घटना नहीं है। फाँसी को सुरक्षा कारणों से गुप्त रखा गया था। हमारे अनुसार सुरक्षा कारणों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है मीडिया का उपद्रव। सरकार ने मीडिया उपद्रव से बचने के लिए कसाब की फाँसी की प्रक्रिया को मीडिया से छिपाया। लेकिन कसाब के घर वालों से लेकर पाक सरकार तक, भारत के राष्ट्रपति से लेकर सेशन  जज तक सबको मालूम था कि फाँसी कब दी जाएगी। यह फाँसी इस मायने में महत्वपूर्ण है कि पहली बार किसी आतंकी को स्वतंत्र भारत में फाँसी दी गई। पंजाब, कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व के राज्यों तक सक्रिय आतंकियों में से आज तक किसी को फाँसी की सजा नहीं दी गई।    कसाब की फाँसी का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू है इसमें शामिल इंटरनेट प्रमाण। इन प्रमाणों के आधार पर ही भारत की सुरक्षा एजेंसियाँ यह सुनिष्चित कर पाईं कि आखिरकार कैसे और किस तरह आतंकियों के तार पाकिस्तान से जुड़े हैं। पाक में भी कौन से आतंकी और आई.एस.आई. के कौन से अधिकारी के निर्देष पर मुंबई हमला संपन्न किया गया। इस काम में अमरीकी संस्थाओं और एफ.बी.आई. ने भारत सरकार की मदद की और अदालत में आकर उनके अधिकारियों ने इंटरनेट प्रमाणों की पुष्टि भी की। इस घटना के बाद भारत सरकार की नींद टूटी और इंटरनेट फ्लो और सक्रियता की नजरदारी करने और समस्त दूरसंचार कम्युनिकेशन की राजनैतिक नजरदारी को नए सिरे से नियोजित किया गया।
    कसाब की फाँसी का एक अन्य पहलू यह भी है कि संभवतः यह पहला आतंक विरोधी मुकदमा था जिसे कम समय में उसके अंजाम तक पहुँचाया गया। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुंबई की घटना के बाद पाकिस्तान का आतंकियों के साथ आंतरिक अंतर्विरोध तेज हुआ है और अमरीका का भारत के प्रति नजरिया बदला है।
    मुंबई की 26/11 की घटना सामान्य आतंकी घटना नहीं थी। वह कई मायनों में सुरक्षा और कम्युनिकेशन के क्षेत्र में मूलगामी परिवर्तनों को लाने का बहाना बनी। जब यह घटना हुई तो उस समय टी.वी. चैनलों की बाढ़ आ चुकी थी और चैनलों ने मनमाने ढ़ंग से टी.वी. कवरेज दिखाया था। यहाँ तक कि पाक स्थित एक आतंकवादी के एक चैनल ने लाइव इंटरव्यू तक प्रसारित किया था। बाद में सरकारी दबाव में उस चैनल को प्रसारण रोकना पड़ा और मुंबई में न्यूज चैनलों के प्रसारण को रोका गया था। उस समय यह तथ्य सामने आ चुका था कि भारत के टी.वी. चैनलों के पास आतंकी कार्रवाई को कवरेज करने का अभी तक हुनर विकसित नहीं हुआ है। ठीक यही वह समझ है जिसके तहत भारत सरकार ने कसाब की खबरों को सेंसर करके रखा और फाँसी दिए जाने के बाद ही बताया कि कब फाँसी दी गई। इसके बाद न्यूज चैनलों में फाँसी के कवरेज को लेकर प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गई। कसाब के टी.वी. कवरेज को समग्रता में पहले से चले आ रहे बालठाकरे की मृत्यु के हिन्दू न्यूज फ्लो के संदर्भ में देखने की जरूरत है। पहले मीडिया ने एक हिन्दुत्ववादी नेता को नायक बनाया और उसकी समस्त पृथकतावादी-साम्प्रदायिक राजनीति की, व्यक्तिगत गुणों की भूरि-भूरि प्रशसा करके एक तरह से वैधता प्रदान की। बाद में कसाब का कवरेज देते समय प्रच्छन्नतः आतंकवाद का महिमामंडन किया। इस क्रम में चैनलों ने सरकार के फैसले की गोपनीयता और प्रक्रिया पर हमले नियोजित किए और उन लोगों को व्यापक स्पेस दिया जो कसाब की सरेआम फाँसी देखना चाहते थे या जो लोग सरकार के प्रयासों से सहमत नहीं थे। आष्चर्य की बात यह है कि चैनलों में एकसिरे से गृहमंत्रालय का कोई अधिकारी नजर नहीं आया और सिर्फ केन्द्रीय गृहमंत्री, महाराष्ट्र के गृहमंत्री और मुख्यमंत्री के बयान थे। कुछ पुलिस अधिकारियों के भी बयान थे।
    इस खबर का क्रम कुछ इस प्रकार रखा गया-पहले खबर आई कि राष्ट्रपति ने फाँसी माफ करने का आवेदन खारिज कर दिया है। बाद में सीधे फाँसी की खबर और अंत में कसाब की फाँसी पर टुकड़ों में खबरें और मंत्रियों के बयान के बाद पुरानी फाइलें और पुरानी यादें और सरकार की विफलता का राग। कायदे से जब यह खबर आई कि राष्ट्रपति ने फाँसी की सजा माफ करने का आवेदन खारिज कर दिया है तो सीधे एक्षन तय था, उसमें विलम्ब नहीं किया जा सकता था। लेकिन किसी भी चैनल ने यह जानने या बताने की कोषिष नहीं की कि कसाब को फाँसी कब लगेगी? किसी भी चैनल ने केन्द्रीय गृहमंत्रालय का दरवाजा नहीं खटखटाया और ना ही कोई महाराष्ट्र के गृहमंत्री के पास पहुँचा। जबकि पाक में कसाब के घरवालों को संदेश जा चुका था, पाक को मैसेज जा चुका था। लेकिन हमारा मीडिया सरकारी भक्त की तरह चुपचाप देखता रहा, उसे यह खबर तब हाथ लगी जब फाँसी की कार्रवाई संपन्न हो गई। फाँसी लगाए जाने के बाद पुरानी फाइलों,क्लीपिंग आदि की मीडिया वर्षा आंरंभ हो गई। इस क्रम में चैनल भूल गए कि फाँसी दण्ड है, यह उत्सव नहीं है। न्यूज चैनलों ने फाँसी को दण्ड के दायरे से निकालकर गली-मुहल्ले की तू-तू मैं-मैं के टाॅकषो में बदल दिया। इस क्रम में मध्यवर्ग में पनप रही बर्बर मनोदषा के रूप भी सामने आए। यह सच भी सामने आया कि मध्यवर्ग के ज्ञानी-गुणी-स्वयंभू लोग लोकतंत्र के बजाय फासिज्म और फंडामेंटलिज्म के गुणों के प्रति ज्यादा आकर्षित हैं। वे फास्टफूड की फास्ट न्याय, तालिबानियों की तरह सरेआम फाँसी की माँग करने लगे। कसाब को फाँसी दी गई ,यह खबर थी, महाखबर नहीं थी। किसी खबर को जब महाखबर, उत्सव या मनोरंजन या आनंद में तब्दील कर दिया जाता है तो वह खबर का अर्थ खो देती है। इस अर्थ में टी.वी. चैनलों ने कसाब की खबर को प्रसारण के साथ ही मार डाला। यानी भारत सरकार की आतंकवाद विरोधी मुहिम में छेद कर दिया। यह प्रकारान्तर से आतंकवादी कसाब की सेवा है। कसाब को जितना स्पेस टी.वी. चैनलों ने दिया है उसकी तुलना में आतंकवाद विरोधी नजरिए को उतना स्पेस नहीं मिला। टी.वी. में स्पेस महत्वपूर्ण होता है, फलतः कसाब मरकर भी चैनलों में अमर हो गया।
    कसाब के प्रसंग में यह प्रसंग भी जरूरी है कि उस पर कितना खर्चा आया। कुल मिलाकर 29.5 करोड़ रूपये का खर्चा आया, इसमें कसाब के खाने पर चार साल में 42,313 रूपये, कसाब के कपडों पर 1,878 रूपये और चिकित्सा पर 39,829 रूपये मात्र खर्च किए गए। इसके अलावा जो भी खर्चा है वह सुरक्षा आदि मामलों पर किया गया है।
 -जगदीश्वर चतुर्वेदी

लेखक-कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं।
मो0- 09331762360
Share |