मौजूदा कानून अगर न्याय नहीं दिला सकता तो और सख्त कानून किस काम का?समता और सामाजिक न्याय के बिना क्या कानून का राज संभव है ?और लिंगभेद का क्या
मौजूदा कानून अगर न्याय नहीं दिला सकता तो और सख्त कानून किस काम का?
समता और सामाजिक न्याय के बिना क्या कानून का राज संभव है?
और लिंगभेद का क्या?
महिलाओं के प्रति अपराध के खिलाफ केंद्र सरकार सख्त कानून बनाने जा रही है। इससे ऐसे दरिंदों को कानून के दायरे में लाकर सख्त सजा मिल सके। इसके लिए जस्टिस वर्मा कमेटी बनाई गई है। क्या नये कानून से महिलाएं सचमुच सुरक्षित हो जायेंगी?
देश भर में जो पुरुष स्त्री की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं, मोमबत्तियां जला रहे हैं, कानून बदलने के लिए आंदोलन करने सड़क पर उतर रहे हैं, पितृसत्तात्मक मनुसमृति व्यवस्था बदलने के लिए वे कितने तैयार हैं? अपने घर और समाज में स्त्री को क्या वे आजाद कर देंगे?
एफडीआई के खिलाफ जिहादी राजनीति का तमाशा अभी खत्म हुआ नहीं है। कालाधन के खिलाफ अराजनीतिक धर्मयुद्ध तो जारी है ही। अब बलात्कारियों को नपुंसक बना देने और उन्हें पांसी देने पर सर्वसम्मति बन रही है। सवाल है कि किस किस को फांसी देंगे? आप सवाल है कि जो बलात्कार के मामलों में सचमुच निरपराध होंगे और झूठे मामले में जिन्हें फंसाया जा रहा है, न्याय के बाजार में पहुंच और पैसा न हो पाने से क्या वे ही नयी व्यवस्था के सबसे बड़े शिकार नहीं होंगे? आपसी दुश्मनी के मामलों में अक्सर रेप केस डालने का जो रिवाज है, उसका क्या करेंगे? क्या पूंजी और सत्ता को नपुंसक बनाने का कोई रसायन ईजाद हो गया है?महिलाएं खुशफहमी में हैं। महिला आरक्षण विधेयक अभी लंबित हैं और संसद की पुरुषसत्ता किसी भी हाल में इसे पास कराने को तैयार नहीं है। जब अल्पमत सरकार बाजार के हित में आर्थिक सुधार की जनविरोधी नरसंहार एजंडा को लागू करने के लिए एक के बाद एक विधेयक संसद में पास करा लेती है, तो क्यों रुक जाता है महिलाओं को आरक्षण का बिल और अनुसूचितों को पदोन्नति का विधेयक?इस देश में नारी को देवा कहा जाता है। धार्मिक आस्था के मुताबिक हर सिर देवीमाता के चरणों में झुक जाता है। इस देश में इंदिरा गांधी जैसी नेता न सिर्फ भारत की प्रधानमंत्री रही, विश्वनेतृत्व में भी शामिल रही आजीवन। अब भी सत्ता पक्ष की नेता सोनिया गांदी और विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज है। जिस दिल्ली को बलात्कार की राजधानी कहा जाता है, वहां मुख्यमंत्री शीला दीक्षित है।मायावती, जयललिता और ममता बनर्जी जैसी नेता हैं। पर महिलाओं का सशक्तीकरण क्यों नहीं हुआ क्यों देश भर में महिलाओं पर अत्याचार बढ़ते ही जा रहे हैं उपभोक्ता संस्कृति में बाजार की चीज बनाकर सख्त कानून से अगर स्त्री को हम देहमुक्त करना चाहते हैं, तो वह समाज यथार्थ से भिन्न परिसर है। जब भोग ही एकमात्र सामाजिक मूल्य है और हर हाथ में मोबाइल और इंटरनेट से जुड़ा हर पुरुष हों, स्त्री आखेट की मानसिकता कला, साहित्य, संस्कृति और धर्म की बुनियाद हो, तो सख्त कानून से दो चार बलात्कारियों को सजा हो जायेगी ,जैसे कि अब तय है कि दिल्ली बलात्कारकांड के खलनायकों के बचने की कोई सूरत नहीं है, लेकिन इससे न बलात्कार रुकनेवाला है और न देहव्यापार। नहीं रुकेगा बाजार और सत्ता के हित में स्त्रीदेह का अबाध इस्तेमाल, जो अबाध पूंजी प्रवाह का दूसरा पहलू है। कानून बनाने से क्या यौन उत्पीड़न रुक जायेगा? फतवे बंद होंगे?खाप पंचायतें खत्म हो जायेंगी? सम्मान के लिए हत्याएं नहीं होंगी ?रुक जायेंगी भ्रूण हत्याएं? घर की चहारदीवारी में अपनों से सुरक्षित हो जायेगी स्त्री? बंद हो जायेगा दहेज उत्पीड़न? खत्म होगी स्त्री को निशाना बनाकर बेदखली की व्यवस्था?
हाल यह है कि संयुक्त राष्ट्र ने कहा कि वह भारत में बढ़ती सामूहिक बलात्कार की घटनाओं को लेकर बेहद चिंतित है । साथ ही उसने कहा कि देश में महिलाओं और लड़कियों के संबंध में विचारों में बदलाव आना चाहिए । पैरा-मेडिकल छात्रा के सामूहिक बलात्कार और मौत की आलोचना करते हुए यूनिसेफ की भारत शाखा ने कहा कि यह चैंकाने वाली बात है कि भारत में प्रत्येक तीन में से एक बलात्कार पीड़िता बच्ची है । यूनिसेफ ने कहा कि महिलाओं और लड़कियों के प्रति विचारों में बदलाव लाने की आवश्यकता है । यूएन ने कहा कि भारत को इस कानून में बदलाव लाने की जरूरत है।तो दूसरी ओर, भारत में अपने तालिबानी तर्ज पर फरमान जारी करने वाली खाप पंचायत ने अब गैंगरेप के दोषियों को फांसी की सजा दिलवाए जाने का विरोध किया है। केंद्र सरकार द्वारा इस घटना के आरोपियों को कोर्ट में फांसी देने की मांग करने पर पंचायत ने नाराजगी जाहिर की है। हिसार में हुई खाप पंचायत में कहा गया कि सरकार जल्दबाजी में कोई भी ऐसा कानून न बनाए जिसका दुरुपयोग होने की संभावना हो। खाप नेता सूबे सिंह ने यहां के एक गांव में कहा कि अधिकारियों को गैंगरेप के मामले पर जारी जन विरोधों और इसके आरोपियों के लिए मौत की सजा की मांग को देखते हुए भावनाओं में नहीं बहना चाहिए।
बंगाल में 2007से लेकर2011 तक 13 हजार से ज्यादा बलात्कार के मामले अदालतों में लंबित है। इनमें से चार हजार मामलों में पुलिस अभी चार्जशीट ही दाखिल नहीं कर पायी। राजनीतिक हरी झंडी न मिलने पर न थाने में एफ आईआर दर्ज हो पाता है और न निष्पक्ष जांच होती है। तफतीश शुरु होने से पहले पुलिस को अपनी खाल बचाने की फिक्र लगी होती है। पुलिस जांच शुरु करें , इससे पहले कोई मंत्री या फिर मुख्यमंत्री मामले को फर्जी बता देती हैं।अपराध कर्म राजनीतिक संरक्षण के बिना नहीं होता। गुजरात में तो एक नहीं, दो नहीं, बीस बीस बलात्कारी राजनीतिक दलों के टिकट पर चुनाव लड़े। कोलकाता में जब दिल्ली सामूहिक बसात्कार के खिलाफ मोमबत्ती जुलूस निकल रहा था तभी डायमंड हारबर और बारासात में बलात्कार के बाद हत्या की वारदातें हुईं। राज्यभर में ऐसी वारदाते होती रहती हैं। पर उन मृतकाओं और पीड़िताओं को न्याय दिलाने के लिए कहीं कोी मोमबत्ती नहीं जलाया जाता। और कार्रवाई, बारासात कांड के दोदिन बीत जाने के बावजूद पुलसे यह बताने की हालत में नहीं है कि बलात्कार हुआ है कि नहीं। चूंकि लाश बरामद हो गयी है , तो अब यह तो कह नहीं सकते कि हत्या भी नहीं हुई। बारासात कोलकाता से सटे उत्तर चैबीस परगना का जिला मुख्यालय है और तेजी से बलात्कार नगरी के नाम पर कुख्यात होता जा रहा है।यहीं 14 परवरी को शाम को पुलिस मुख्यालय के पास शाम को कोलकाता से नौकरी करके लौट रही दीदी को गुंडों से बचाने के लिए उसके भाई माध्यमिक परीक्षार्थी राजीव दास को अपनी जान गवानी पड़ी। इस कांड पर रघुवीर यादव की भूमिका समेत एक फिल्म भी बन चुकी है पर बारासात के हालात नहीं बदले।
-पलाश विश्वास
1 टिप्पणी:
हमारे समाज का दोग़लापन कैसे दूर हो ?
आपने जिस बात को उठाया है, उस पर वाक़ई विचार किया जाना चाहिए। इससे आगे बढ़कर यह भी सोचा जाना चाहिए कि बलात्कार या हत्या के जिन मुजरिमों के लिए कोर्ट सज़ा ए मौत मुक़र्रर करता है। उन्हें राष्ट्रपति द्वारा माफ़ कर दिया जाता है। इसी के साथ समाज को ख़ुद अपने बारे में भी सोचना होगा क्योंकि ये सारे बलात्कारी और हत्यारे इसी समाज में रहते हैं।
ऐसी धारणा बन गई है कि सामूहिक नरसंहार और बलात्कार के बाद भी सज़ा से बचना मुश्किल नहीं है अगर यह काम योजनाबद्ध ढंग से किया गया हो। पहले किसी विशेष समुदाय के खि़लाफ़ नफ़रत फैलाई गई हो और उस पर ज़ुल्म करना राष्ट्र के हित में प्रचारित किया गया हो और इसका लाभ किसी राजनीतिक पार्टी को पहुंचना निश्चित हो। ऐसा करने वालों को उनका वर्ग हृदय सम्राट घोषित कर देता है। वे चुनाव जीतते हैं और सरकारें बनाते हैं और बार बार बनाते हैं। देश के बहुत से दंगों के मुल्ज़िम इस बात का सुबूत हैं। राजनैतिक चिंतन, लक्ष्य और संरक्षण के बिना अगर अपराध स्वतः स्फूर्त ढंग से किया गया हो तो एक लड़की से रेप के बाद भी मुजरिम जेल पहुंच जाते हैं जैसा कि दामिनी के केस में देखा जा रहा है।
दामिनी पर ज़ुल्म करने वालों के खि़लाफ़ देश और दिल्ली के लोग एकजुट हो गए जबकि सन 1984 के दंगों में ज़िंदा जला दिए गए सिखों के लिए यही लोग कभी एकजुट न हुए। इसी तरह दूसरी और भी बहुत सी घटनाएं हैं। यह इस समाज का दोग़लापन है। इसी वजह से इसका अब तक भला नहीं हो पाया। दूसरों से सुधार और कार्यवाही की अपेक्षा करने वाला समाज अपने आप को ख़ुद कितना और कैसे सुधारता है, असल चुनौती यह है।
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