क्या कड़े कानून ही एकमात्र उपाय है
दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की शिकार महिला की सिंगापुर में मौत (28 दिसम्बर 2012) ने गुस्से और विरोध की एक शक्तिशाली राष्ट्रव्यापी लहर को जन्म दिया है। लगभग दो सप्ताह पहले घटित इस अपराध के बाद से ही लोग सड़कों पर निकल आए थे और उन्होंने इस लोमहर्षक घटना के प्रति अपने रोष व वितृष्णा का इजहार किया। प्रदर्शनकारियों के विरूद्ध पुलिस की कार्यवाही दुर्भाग्यपूर्ण थी।
सामूहिक बलात्कार की यह घटना इतनी भयावह और दिल को दहला देने वाली थी कि इसने समाज के सभी वर्गों का ध्यान आकर्षित किया और आमजनों के आक्रोश की कोई सीमा ही न रही। लोगों के निशाने पर थी सरकार और पुलिस, जो इस तरह के अपराधों को घटित होने से रोकने में नाकाम रही है। लोगों में इस बात को लेकर भी गुस्सा था कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों से निपटने के लिए हमारे देश में कड़े कानूनों की कमी है। वे यह भी चाहते थे कि दोषियों को जल्दी से जल्दी सजा मिले, ऐसी व्यवस्था की जाए। प्रदर्शनकारियों की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण मांग यह थी कि दोषियों को फांसी पर लटकाया जाए।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इस तरह का व्यापक जनाक्रोश, सरकार और समाज को ऐसे कदम उठाने पर मजबूर करेगा जिनसे हमारे कानून बेहतर व और कड़े बनेंगे व पुलिस के काम में सुधार आएगा। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि इस जनविरोध की सामाजिक व राजनैतिक प्रतिक्रिया केवल यहीं तक सीमित नहीं रहेगी। हम सबको यह समझना होगा कि केवल कड़े कानून बनाने और दोषियों को सजा देने से समस्या का समाधान नहीं होगा। ऐसा करके हम केवल समस्या के लक्षणों पर प्रहार करेंगे। बेहतर यह होगा कि इस घटना से उपजे दुःख और आक्रोश को ऐसी दिशा दी जाए जिससे बलात्कार और महिलाओं के सेक्स उत्पीड़न की ब़ती प्रवॢत्ति का गंभीर व गहन अध्ययन संभव हो सके। हमें एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर कदम बाने होंगे जिसके मूल्य प्रगतिशील हों और जो ऐसे वातावरण का निर्माण कर सके, जिसमें महिलाओं को बराबरी का दर्जा मिले और वे पितृसत्तात्मकता की जंजीरों से मुक्त हो सकें। पितृसत्तात्मकता के कारण ही महिलाओं को दूसरे दर्जे का इंसान माना जाता है और यह मानकर चला जाता है कि पुरूषों के सामने झुकना, उनके लिए आवश्यक और स्वाभाविक है।
हिंसा की शिकार महिलाओं को पुलिस और न्यायपालिका के एक बड़े हिस्से में व्याप्त पूर्वाग्रहों से मुकाबला करना होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि जिन लोगों पर महिलाओं के विरूद्ध अपराधों से संबंधित जिम्मेदारियां हैं उन्हें लैंगिक मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना आवश्यक है। बलात्कार, दरअसल, उस सोच की उपज है जो महिलाओं को दोयम दर्जे का व्यक्ति या कब जब पुरूषों की संपत्ति मानती है। यह दृष्टिकोण सामंती समाज के मूल्यों का अविभाज्य हिस्सा है। भारतीय समाज के चरित्र के सामंती से प्रजातांत्रिक बनने की प्रक्रिया पिछले लगभग तीन दशकों से थमी हुई है। धर्म की राजनीति के उदय के साथ ही, महिलाओं की पुरूषों से बराबरी हासिल करने की लड़ाई नेपथ्य में चली गई है। धर्म के नाम पर राजनीति के परवान च़ने से हमारी व्यवस्था, हमारी संस्कृति, हमारे मूल्यों और हमारी सामूहिक सामाजिक सोचसभी पर असर पड़ा है।
वैश्विक स्तर पर अमेरिका तेल के कुओं पर अपना अधिकार जमाने के लिए इस्लाम का दानवीकरण करने में जुटा हुआ है। अमेरिका ने इस्लाम के दकियानूसी संस्करणों को प्रोत्साहन दिया, अतिपुरातनपंथी सोच को ब़ावा दिया और अल्कायदा को खड़ा किया। अमेरिका ने ही इस्लामिक आतंकवाद शब्द को ग़ा और इस सबसे मुस्लिम समाज के प्रतिगामी व प्रतिक्रियावादी तत्व मजबूत हुए। इस प्रक्रिया में पितृसत्तात्मकता को मजबूती मिलना स्वाभाविक है।
भारत में राममंदिर आंदोलन के रास्ते धर्म का राजनीति में प्रवेश हुआ। धर्म की राजनीति ने लैंगिक न्याय और समानता के संघर्ष को पीछे ़केल दिया है। सन 1970 के दशक में मथुरा में पुलिस हिरासत में एक आदिवासी लड़की के साथ बलात्कार की घटना की प्रतिक्रिया में शक्तिशाली महिला आंदोलन उभरा था जिसने महिलाओं के समानता के मुद्दे से जुड़े कई प्रासंगिक प्रश्नों को जोरदार ंग से उठाया था।
सामंती समाज के प्रजातांत्रिक समाज में बदलने की प्रक्रिया के दौरान कई विचारधाराएं, जो कि इस परिवर्तन के विरूद्ध थीं, ने ऐसे विचार सामने रखे जिनमें यह निहित था कि महिलाएं पुरूषों की संपत्ति हैं। भारत में उदित साम्प्रदायिक राजनीति के पैरोकार मनुस्मॢत्ति और उन इस्लामिक परंपराओं के हामी थे, जो महिलाओं को दोयम दर्जा देती हैं। हिन्दुत्ववादी विचारक विनायक दामोदर सावरकर ने तो शिवाजी द्वारा कल्याण के सूबेदार की बहू को ससम्मान वापिस भेजने के उदारतापूर्ण कदम की भी भत्र्सना की थी। शिवाजी की सेना उसे लूट का माल मानकर शिवाजी के लिए भेंट स्वरूप ले आई थी। शिवाजी ने उसे ससम्मान वापिस भेजा। तालिबानी मानसिकता से हम सभी परिचित हैं। उनके हुक्म का पालन न करने की सजा मलाला भोग रही है। भाजपा सांसद बी़ एल़ शर्मा ‘प्रेम‘ ने अपनी विचारधारा को उजागर करते हुए झाबुआ में ननों से हुए बलात्कार को ‘राष्ट्रवादी कार्यवाही‘ बताया था।
साम्प्रदायिक हिंसा को भड़काने के लिए भी महिलाओं के शरीर का इस्तेमाल किया जाता है। ‘उन लोगों‘ ने ‘हमारी‘ महिलाओं के स्तन काट लिए हैंयह अफवाह फैलाना दंगे भड़काने का पुराना और आजमाया हुआ तरीका है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि महिलाएं ‘अपने पुरूषों‘ द्वारा ‘दूसरी‘ महिलाओं के साथ बलात्कार को प्रोत्साहित करती हैं और उसमें मदद भी करती हैं। मुंबई में 199293 और गुजरात में 2002 में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान ऐसे कई उदाहरण सामने आए थे। बलात्कार का इस्तेमाल समाज के कमजोर वर्गों के खिलाफ हथियार बतौर भी किया जाता है। कई बार दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ उनके समुदाय को सजा देने के लिए बलात्कार किया जाता है।
पितृसत्त्तात्मक मूल्य, बांटने वाली राजनीति का आवश्यक अंग हैं। हमें आशा है कि जो जनांदोलन इस मुद्दे पर खड़ा हुआ है वह अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के अतिरिक्त, ऐसी प्रक्रिया को भी जन्म देगा जिससे इस तरह की घटनाओं के असली, गहरे कारणों का विश्लेषण हो और उस साम्प्रदायिक राजनीति को चुनौती मिले जो जातिगत व लैंगिक ॐचनीच पर आधारित है। आवश्यकता इस बात की नहीं है कि महिलाओं को पुरूषों के अधीन एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाए जिसे सुरक्षा और सम्मान दिया जाना चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि हम एक ऐसे समाज के निर्माण की ओर ब़ें जिसमें महिलाओं का उनके जीवन पर नियंत्रण हो, वे किसी मामले में कमजोर न हों बल्कि वे दूसरे लिंग के व्यक्तियों के समकक्ष व समान हों।
-राम पुनियानी
1 टिप्पणी:
कड़े कानून बनाने और दोषियों को सजा देने से समस्या का समाधान नहीं होगा।
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