शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

नक्सलवाद: बढ़ता दायरा, सिमटता प्रभाव-1



     नक्सलवाद एक ऐसा शब्द है, जिसे लेकर सरकार के साथ आम देश वासी भी अब चिंतित रहने लगे हैं। बंगाल के एक गाँव से शुरू होने वाला किसान आंदोलन आज देश के करीब 200 से ज्यादा जिलों में फैल गया है। जिसे लेकर अपनी चिंता गाहे-बगाहे सार्वजनिक मंचों से प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री, राज्य सरकार व स्थानीय प्रशासन तक जताते रहते हैं। अहम सवाल यह है कि माओवाद के सिद्धांतों को सरकार या जनता किस नजरिए से देखती है? आर्थिक विषमता, सबको समान अवसर और न्याय के साथ विकास जैसे कई महत्वपूर्ण प्रष्न हैं, जिनका जवाब देना, समझना या विचार करना सरकार जरूरी नहीं समझती है। शायद यही वजह है कि तमाम बंदिषों-सख्तियों के बावजूद माओवाद का दायरा बढ़ता जा रहा है।
    माओवाद को विदा कर चीन दुनिया का महाषक्ति बन गया। 01 अक्टूबर 2009 को चीनी क्रांति के 60 वर्ष पूरे होने पर चीन ने दुनिया को अपनी ताकत का अहसास कराया। आज वह अविष्वसनीय और स्तब्धकारी ताकत बन चुका है। चीन से चला माओवाद मौजूदा भारत के लिए सबसे बड़ी आंतरिक चुनौती बन गया है। देष के नीति-नियंताओं की गलत नीतियों का नतीजा है कि विकास में यह रोड़ा बन गया है। यह जानना भी दिलचस्प है कि क्या नक्सलवाद इतनी बड़ी समस्या है? इसके भाष्यकार कौन थे? कैसे और क्यों उस दौर में प्रतिभाशाली-योग्य युवकों की पीढ़ी इसमें कूदी? क्यों अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार हुए? देष के सर्वश्रेष्ठ काॅलेजों की अनेक प्रतिभाएँ कैसे उन दिनों शरीक हुई? नक्सलबाड़ी गाँव से निकला आंदोलन 250 से ज्यादा जिलों में पसर गया? व्यापक फैलाव के बावजूद इसमें बिखराव-खलन क्यों आए? विचारों और सिद्धांतों में भटकाव कैसे आए? कहाँ से किस रुप में आंदोलन को ताकत मिली?
थोड़ा अतीत में चलते हैं जब किसानों की समस्याओं को लेकर एक जनांदोलन पष्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गाँव से शुरू हुआ। 08 मई 1967 की सुबह को दार्जिलिंग के खैरबाड़ी, फाँसी देवी, नक्सलवाड़ी व सिलीगुड़ी के इलाकों में जमीन जोतने वालों द्वारा जबरन कब्जा, फसल दखल और जोतदारों के घरों पर धावा बोल उनकी बंदूकें छीनने जैसी कार्रवाइयाँ शुरू हो गईं। इतिहास में यह नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के नाम से जाना गया। आंदोलन में भूमिगत हुए नेताओं को गिरफ्तार करने आई पुलिस पर हजारों किसानों ने तीर-धनुष जैसे परंपरागत शस्त्रों से जवाबी हमला किया। आर-पार की लड़ाई कई दिनों तक चलती रही। पुलिस ने बर्बरतापूर्वक महिलाओं-बच्चों के जुलूस पर छिपकर गोलियाँ चलाईं। इस जनसंहार में कई बच्चे और निर्दोष महिलाएँ मारी गई। इस जनसंहार के प्रतिवाद में देश  भर में किसानों-मजदूरों ने रैली व मषाल जुलूस निकाला। तब आंदोलन में षिक्षक, वकील से लेकर चाय बागान के दैनिक वेतन भोगी मजदूर हड़ताल कर सड़कों पर उतरे थे। आंदोलन से प्रेरित होकर देश भर में किसान आंदोलन भड़क उठे। जो कालांतर में माओवाद के रूप में देश  के कई हिस्सों में प्रतिस्फुटित हुआ। किसानों की समस्याओं से शरू हुआ आंदोलन आगे चलकर अपने सिद्धांतों से विमुख होकर कई नरसंहारों का वाहक भी बना। हजारों बेगुनाह लोग बेवजह मारे गए।
    वस्तुतः माओवाद एक ठहरे हुए समय की ठहरी हुई वैचारिक, राजनैतिक, सामाजिक प्रवृति है। करीब चार दषकों के ठहराव से यह अनेक प्रकार की विच्युतियों और विकृतियों का सबब बन गया है। माओवादियों के लिए समय का चक्र कम्युनिस्ट आंदोलन की संक्षिप्त कालावधि 1966-69 में ही रुक गया। उसी काल में उभरी एक खास वैचारिक, राजनैतिक विचारधारा का बंदीगृह यानी जेल ही उनका मुक्तिलोक है, जिसे इस लोक में साकार करने में हिंसक जद्दोजहद ही उनका मुक्तिसंग्राम और उनका परिचय माओवाद। तब माओवाद के सिद्धांतों ने समाज के पिछड़ों-दलितों को सहज रूप से आकर्षित किया। माओवादी पार्टी या कम्युनिस्ट पार्टी के अर्थों में एक पार्टी की शक्ल लेने में अब तक समर्थ नहीं हुई है। इसका एक महत्वपूर्ण घटक एम.सी.सी. पिछले 43 वर्षों से पार्टी निर्माण के लिए अनुकूल परिस्थिति की प्रतीक्षा करता रहा।
    कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में एक नए संगठन से पार्टी बनने में इतना वक्त संभवतः किसी संगठन ने नहीं लिया होगा। 43 वर्षों तक जिस संगठन ने ढीले-ढाले केंद्र का जीवन जिया उसके लिए लेनिन या माओ की जनवादी केन्द्र आधारित पार्टी संगठन का स्वरूप लेना लगभग नामुमकिन है। उसकी सब-जोनल, जोनल या स्पेषल एरिया कमेटियाँ तथा सशस्त्र दस्ते स्वतंत्रता की अंतिम हद तक स्वायत्त थे। अपने प्रभाव वाले इलाकों में लेवी वसूलने और पुलिस से हथियार लूटने पर उनका एकाधिकार था। माओवाद के सिद्धांतो-विचारों से उनका सरोकार खत्म होता गया है। संयुक्त पार्टी बनने के बाद भी स्थानीय स्तरों पर हुई लूट, हत्याओं और अन्य कारनामों के केंद्र में यही धन और हथियारों पर अपने स्वामित्व या अधिकार का सवाल था। धन लिप्सा ने आधुनिक भारत में माओवादियों के विचारों को बदल दिया है। बावजूद इसके माओवादियों के संगठन का न तो विस्तार रुका और न हीं उनकी कार्यषैली में कोई बदलाव आया। समय के साथ उनके सिद्धांत जरूर बदलते गए। कल तक पुलिस को षिकार बना रहे नक्सलियों के लिए आम आदमी भी टारगेट बन रहे हैं। आम आदमी के टारगेट बनने से ही माओवादियों के प्रति सरकार या जनता की सहानुभूति लगातार कम हो रही है।
    यहीं से भारत में माओवाद के सिद्धांत या उनके कर्ता-धर्ता विचारों से भटक गए। हालाँकि सरकारी नीतियाँ भी उन्हें समय-समय पर तोड़ने में कामयाब रही हैं। एक विचार धारा आधारित राजनैतिक दल का ग्रामीण इलाकों में किसानों के बीच काम करना काफी मुष्किल भरा कार्य है। किसानों के आंदोलनों अथवा संघर्षों में उसकी भागीदारी का उद्देष्य किसानों को अपनी राजनीति से लैस करना और राजनैतिक रूप से प्रतिबद्ध एवं प्रबुद्ध जनाधार का निर्माण करना होता है। ऐसी स्थिति में आंदोलनों द्वारा राजनीति में उसकी भागीदारी की सफलता की कसौटी वे इस बात को बताते हैं कि पार्टी की सदस्य-संख्या में पहले की अपेक्षा कितनी बढ़ोतरी हुई। कितनी नई पार्टी यूनिटें तैयार हुई और पार्टी का राजनैतिक जनाधार कितना विस्तृत हुआ। जो इन कसौटियों पर खरे नहीं उतरते, उन्हें वे खास महत्व नहीं देते, यह एक प्रक्रिया है। दूसरी प्रक्रिया इन पार्टियों के किसानीकरण की है। किसान वर्ग के कई सकारात्मक पहलू हैं तो वहीं उसकी रूढि़याँ और नकारात्मक प्रवृत्तियाँ और संकीर्णताएँ भी हैं जो इन दलों के राजनीतिकरण पर भारी पड़ जाती हैं।
 -राणा अवधूत कुमार



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