यही नकारात्मकता कभी उन दलों की कार्यशौली और उनके संघर्ष के रूप में प्रकट होने लगती है। माओवाद पार्टी से जुड़े संगठनों में यह प्रक्रिया स्पष्ट रूप से कई बार परिलक्षित हुई है। बिहार में लालूराबड़ी शासन में हुए कई जनसंहार इसी प्रक्रिया के हिस्सा रहे हैं।
आपसी सुरक्षा के नाम पर किसानों के निजी तथा जातीय झगड़ों में उलझ जाना, सजा या प्रतिवाद के नाम पर विरोधियों की हत्या करना, महिलाओं के प्रति रूग्रिस्त और अमानवीय मानसिकता का व्यवहार करना और दलेलचक, बघौरा, बाथे और सेनारी जैसे सैकड़ों जातीय नरसंहारों को अंजाम देना इसी प्रक्रिया की अभिव्यक्तियाँ थीं। देश का एक बहुसंख्यक समृद्ध वर्ग यह मानता है कि पूँजी निर्माण की राह में नक्सलवाद सबसे गंभीर चुनौती है। उनका तर्क यह भी है कि इससे मुक्त होकर ही चीन दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बना है। समृद्ध और शक्तिशाली बना है। यह तर्क देने वाले देंग सियाओ पेंग के उस महत्वपूर्ण और काफी मशहूर कथन का हवाला देते हैं ॔॔क्या फर्क पड़ता है बिल्ली काली हो या सफेद? चूहे बखूबी पकड़ती हो, चूहों को मारने का दम रखती है या नहीं, यह महत्वपूर्ण है?’’ देंग ने यह बात 1978 में कही थी, जब वे चीन को माओवाद से मुक्त कराकर ॔मार्केट इकॉनामी’ यानी बाजारी अर्थव्यस्था की राह पर ले जा रहे थे। यहाँ बिल्ली से उनका आशय ॔वाद’ या ॔सिद्घांत’ से था। वे सांकेतिक भाषा में कह रहे थे कि पूँजीवाद हो या साम्यवाद। क्या फर्क पड़ता है? असल बात है कि चीन का विकास हो, समृद्धि आए, लोग आर्थिक रूप से संपन्न हों। चीन में यह
धारणा आज भी यथावत बनी हुई है। भारत जैसे देश के माओवादियों में यह सिद्घांत न पहले रहा है और न भविष्य में आने की उम्मीद।
माओवाद के आलोचक अक्सर इस बात का हवाला भी देते हैं कि नक्सलवाद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी या अन्य विध्वसंक संगठनों का समर्थन है। उनका मानना है कि आज भी चीन इस तरह के आंदोलनों का सबसे बड़ा मददगार देश है। वह भारत को तबाह करने की मंशा रखता है। नेपाल के माओवादियों को चीन का समर्थन मिलने के कुछ प्रमाण भी मिले हैं। नेपाल से लेकर बिहार, बंगाल, झारखंड, आंध्र प्रदेश, छतीसग़ और कर्नाटक तक के जो नक्सली प्रभाव वाले इलाके हैं ॔रेड कॉरीडोर’ के नाम से जाने जाते हैं। जिनको चीन का परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन देने की बात होती है लेकिन ये बात कितनी सच है? देश के अधिसंख्य माओवाद प्रभावित इलाकों में चीन के बारे में या माओवाद के सिद्घांतों की जानकारी नक्सलियों को है ही नहीं। क्योंकि नक्सल समस्या असल में तो देश की असमान नागरिक सुविधा और लगातार आर्थिक विषमता के कारण ब़ रही है जिसकी तरफ ध्यान देने की फुरसत ही नहीं है यहाँ की सरकारों को। हाँ खानापूर्ति के लिए कुछ स्थानीय स्तर पर कर्तव्यनिष्ठ जिलाधीशों या पुलिस अधीक्षकों द्वारा प्रयास जरूर हो रहे हैं लेकिन केंद्र या राज्य सरकार की जहाँ से पहल होनी चाहिए वहाँ अभी भी निष्क्रियता बनी हुई है। माओवाद के पसरने का यह भी मुख्य कारण है।
एक और अहम सवाल आज के दौर में उठ रहा है कि किसी भी आंदोलन को आप किस नजरिए से देख रहे हैं? उदाहरण के लिए नक्सलवाद को ही ले लीजिए। केंद्र सरकार इसके समाधान के लिए कभी हथियार उठाने की बात करती है तो कई राज्य सरकारें लचीला रुख अपनाने की दलील देती हुई पूरा सहयोग नहीं करती हैं। देश की राजनीति में अक्सर यह देखा गया है कि जो लोग या दल सत्ता से बाहर होते हैं या विरोध के जो मुद्दे होते हैं सत्ता में आते ही इन मुद्दों को वे भूल जाते हैं। अब वे भी सत्ताधारी लोगों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक यह बात साफ तौर पर स्वीकार करते रहे हैं कि आर्थिक वैश्वीकरण के युग में भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने पर विपक्षी पार्टिंयाँ चाहे जितना शोर मचा लें लेकिन सत्ता में आने के बाद चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर सकतीं और यह बात कितनी हद तक सच है इसका स्पष्ट उदाहरण आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव, चंद्रबाबू नायडू, वाई.एस. रेड्डी और अब किरण रेड्डी के विपक्ष से लेकर सत्ता तक की यात्रा के दौरान नक्सलवाद के प्रति बदलते रुख के रूप में देखासमझा जा सकता है। समय के साथ नक्सलियों के विरोध में सरकारें दमनात्मक कार्रवाई करती रहीं और नक्सली सरकारी फरमानों का विरोध भी करते रहे। जिसको जहाँ मौका मिला एकदूसरे को पछाड़ने का, कमजोर करने का कार्य करते रहे। लेकिन क्या इससे देश से माओवाद का खात्मा संभव है या फिर पुलिसिया कार्रवाई से माओवादियों को डरायाधमकाया जा सकता है। नक्सलवाद के जन्म की कहानी को समझ कर ही स्थाई समाधान निकाला जा सकता है।
आज देश के समक्ष यक्ष प्रश्न है कि प्रधानमंत्री व गृहमंत्री द्वारा नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा खतरा बताने के बावजूद उसका प्रभाव क्षेत्र कैसे ब़ता चला गया है। तमाम तरह की दमनात्मक और सैनिक कार्रवाई और हजारों निरपराध कार्यकर्ताओं को फर्जी मुठभेड़ के नाम पर मारने के बाद भी उसके प्रभावविस्तार को रोका नहीं जा सका है। नक्सलवाद के प्रभाव को रोकने के लिए सरकार पहले इसे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्या के रूप में देखती थी। ऐसा मानते हुए जिन इलाकों में पिछड़ापन है और समाज का जो हिस्सा बेहद पिछड़ा है उनके बीच में उनका प्रभाव होता है। तब सरकार इनके लिए कई तरह की योजनाएँ और विकास के कार्यक्रम चलाती थी। लेकिन देश के कई हिस्सो में यह प्रयोग असफल साबित हुआ है। कई क्षेत्रों में तमाम दावे के बावजूद नक्सलवाद के प्रभाव को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका है। कहींकहीं तो ये सरकारी मशीनरी पर भारी पड़ते हैं। जहाँ सरकार नक्सलियों के सामने बेबस नजर आती है।
नक्सलवादी आंदोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टियों के नाम जरूर बदलते रहे हैं। 1990 के पूर्व तक तो सरकार भूमि सुधार कानून को लागू करने पर भी जोर देती थी, कुछ राज्यों में इसे लागू भी किया गया। लेकिन जबसे अमेरिकापरस्त भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों को लागू किया गया तब से भूमि सुधार के कार्यक्रमों को लागू करने की औपचारिकताएँ भी नहीं हो रही हैं। स्थिति कितनी खराब है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश की करीब 74 फीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये से कम पर गुजारा करती है। करीब 30 फीसदी दो जून का भोजन नहीं करते हैं। अब तो सरकार कहती भी है कि गाँव के 28 रुपये और शहरी लोग 34 रुपये से अधिक कमाने वाले गरीब नहीं माने जाएँगे। यह उस देश की स्थिति है जहाँ कृषि आज भी 70 फीसदी लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन है। योजना आयोग के दो टॉयलेट के निर्माण, सौंदर्यींकरण में 35 लाख खर्च होता है, लेकिन किसानोंमजदूरों के लिए 1500 रूपये भी ज्यादा लगता है।
यहाँ एक अहम सवाल और है कि सरकारें देश में नक्सलवाद के ब़ते क्षेत्र का गलत आँकड़ा जनता के सामने पेश करती है। सरकार में बैठे लोग देश के कुल जिलों की तादाद बताकर नक्सलवाद के प्रभाव के जिलों की संख्या बताते हैं। लेकिन देश के कुल जिलों में नक्सलवाद के प्रभाव वाले जिलों की संख्या दिखाई जाएगी तो वह भारत के नक्श्ो पर काफी बड़ा दिखेगा। उससे ज्यादा नक्सलवाद के ब़ते प्रभाव को राज्यवार दिखाया जाएगा तो वह और भयावह दिखेगा।
आपसी सुरक्षा के नाम पर किसानों के निजी तथा जातीय झगड़ों में उलझ जाना, सजा या प्रतिवाद के नाम पर विरोधियों की हत्या करना, महिलाओं के प्रति रूग्रिस्त और अमानवीय मानसिकता का व्यवहार करना और दलेलचक, बघौरा, बाथे और सेनारी जैसे सैकड़ों जातीय नरसंहारों को अंजाम देना इसी प्रक्रिया की अभिव्यक्तियाँ थीं। देश का एक बहुसंख्यक समृद्ध वर्ग यह मानता है कि पूँजी निर्माण की राह में नक्सलवाद सबसे गंभीर चुनौती है। उनका तर्क यह भी है कि इससे मुक्त होकर ही चीन दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बना है। समृद्ध और शक्तिशाली बना है। यह तर्क देने वाले देंग सियाओ पेंग के उस महत्वपूर्ण और काफी मशहूर कथन का हवाला देते हैं ॔॔क्या फर्क पड़ता है बिल्ली काली हो या सफेद? चूहे बखूबी पकड़ती हो, चूहों को मारने का दम रखती है या नहीं, यह महत्वपूर्ण है?’’ देंग ने यह बात 1978 में कही थी, जब वे चीन को माओवाद से मुक्त कराकर ॔मार्केट इकॉनामी’ यानी बाजारी अर्थव्यस्था की राह पर ले जा रहे थे। यहाँ बिल्ली से उनका आशय ॔वाद’ या ॔सिद्घांत’ से था। वे सांकेतिक भाषा में कह रहे थे कि पूँजीवाद हो या साम्यवाद। क्या फर्क पड़ता है? असल बात है कि चीन का विकास हो, समृद्धि आए, लोग आर्थिक रूप से संपन्न हों। चीन में यह
धारणा आज भी यथावत बनी हुई है। भारत जैसे देश के माओवादियों में यह सिद्घांत न पहले रहा है और न भविष्य में आने की उम्मीद।
माओवाद के आलोचक अक्सर इस बात का हवाला भी देते हैं कि नक्सलवाद को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी या अन्य विध्वसंक संगठनों का समर्थन है। उनका मानना है कि आज भी चीन इस तरह के आंदोलनों का सबसे बड़ा मददगार देश है। वह भारत को तबाह करने की मंशा रखता है। नेपाल के माओवादियों को चीन का समर्थन मिलने के कुछ प्रमाण भी मिले हैं। नेपाल से लेकर बिहार, बंगाल, झारखंड, आंध्र प्रदेश, छतीसग़ और कर्नाटक तक के जो नक्सली प्रभाव वाले इलाके हैं ॔रेड कॉरीडोर’ के नाम से जाने जाते हैं। जिनको चीन का परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन देने की बात होती है लेकिन ये बात कितनी सच है? देश के अधिसंख्य माओवाद प्रभावित इलाकों में चीन के बारे में या माओवाद के सिद्घांतों की जानकारी नक्सलियों को है ही नहीं। क्योंकि नक्सल समस्या असल में तो देश की असमान नागरिक सुविधा और लगातार आर्थिक विषमता के कारण ब़ रही है जिसकी तरफ ध्यान देने की फुरसत ही नहीं है यहाँ की सरकारों को। हाँ खानापूर्ति के लिए कुछ स्थानीय स्तर पर कर्तव्यनिष्ठ जिलाधीशों या पुलिस अधीक्षकों द्वारा प्रयास जरूर हो रहे हैं लेकिन केंद्र या राज्य सरकार की जहाँ से पहल होनी चाहिए वहाँ अभी भी निष्क्रियता बनी हुई है। माओवाद के पसरने का यह भी मुख्य कारण है।
एक और अहम सवाल आज के दौर में उठ रहा है कि किसी भी आंदोलन को आप किस नजरिए से देख रहे हैं? उदाहरण के लिए नक्सलवाद को ही ले लीजिए। केंद्र सरकार इसके समाधान के लिए कभी हथियार उठाने की बात करती है तो कई राज्य सरकारें लचीला रुख अपनाने की दलील देती हुई पूरा सहयोग नहीं करती हैं। देश की राजनीति में अक्सर यह देखा गया है कि जो लोग या दल सत्ता से बाहर होते हैं या विरोध के जो मुद्दे होते हैं सत्ता में आते ही इन मुद्दों को वे भूल जाते हैं। अब वे भी सत्ताधारी लोगों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह तक यह बात साफ तौर पर स्वीकार करते रहे हैं कि आर्थिक वैश्वीकरण के युग में भूमंडलीकरण की नीतियों को लागू करने पर विपक्षी पार्टिंयाँ चाहे जितना शोर मचा लें लेकिन सत्ता में आने के बाद चाहकर भी इसका विरोध नहीं कर सकतीं और यह बात कितनी हद तक सच है इसका स्पष्ट उदाहरण आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव, चंद्रबाबू नायडू, वाई.एस. रेड्डी और अब किरण रेड्डी के विपक्ष से लेकर सत्ता तक की यात्रा के दौरान नक्सलवाद के प्रति बदलते रुख के रूप में देखासमझा जा सकता है। समय के साथ नक्सलियों के विरोध में सरकारें दमनात्मक कार्रवाई करती रहीं और नक्सली सरकारी फरमानों का विरोध भी करते रहे। जिसको जहाँ मौका मिला एकदूसरे को पछाड़ने का, कमजोर करने का कार्य करते रहे। लेकिन क्या इससे देश से माओवाद का खात्मा संभव है या फिर पुलिसिया कार्रवाई से माओवादियों को डरायाधमकाया जा सकता है। नक्सलवाद के जन्म की कहानी को समझ कर ही स्थाई समाधान निकाला जा सकता है।
आज देश के समक्ष यक्ष प्रश्न है कि प्रधानमंत्री व गृहमंत्री द्वारा नक्सलवाद को देश का सबसे बड़ा खतरा बताने के बावजूद उसका प्रभाव क्षेत्र कैसे ब़ता चला गया है। तमाम तरह की दमनात्मक और सैनिक कार्रवाई और हजारों निरपराध कार्यकर्ताओं को फर्जी मुठभेड़ के नाम पर मारने के बाद भी उसके प्रभावविस्तार को रोका नहीं जा सका है। नक्सलवाद के प्रभाव को रोकने के लिए सरकार पहले इसे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक समस्या के रूप में देखती थी। ऐसा मानते हुए जिन इलाकों में पिछड़ापन है और समाज का जो हिस्सा बेहद पिछड़ा है उनके बीच में उनका प्रभाव होता है। तब सरकार इनके लिए कई तरह की योजनाएँ और विकास के कार्यक्रम चलाती थी। लेकिन देश के कई हिस्सो में यह प्रयोग असफल साबित हुआ है। कई क्षेत्रों में तमाम दावे के बावजूद नक्सलवाद के प्रभाव को पूरी तरह खत्म नहीं किया जा सका है। कहींकहीं तो ये सरकारी मशीनरी पर भारी पड़ते हैं। जहाँ सरकार नक्सलियों के सामने बेबस नजर आती है।
नक्सलवादी आंदोलन का नेतृत्व करने वाली पार्टियों के नाम जरूर बदलते रहे हैं। 1990 के पूर्व तक तो सरकार भूमि सुधार कानून को लागू करने पर भी जोर देती थी, कुछ राज्यों में इसे लागू भी किया गया। लेकिन जबसे अमेरिकापरस्त भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों को लागू किया गया तब से भूमि सुधार के कार्यक्रमों को लागू करने की औपचारिकताएँ भी नहीं हो रही हैं। स्थिति कितनी खराब है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि देश की करीब 74 फीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये से कम पर गुजारा करती है। करीब 30 फीसदी दो जून का भोजन नहीं करते हैं। अब तो सरकार कहती भी है कि गाँव के 28 रुपये और शहरी लोग 34 रुपये से अधिक कमाने वाले गरीब नहीं माने जाएँगे। यह उस देश की स्थिति है जहाँ कृषि आज भी 70 फीसदी लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन है। योजना आयोग के दो टॉयलेट के निर्माण, सौंदर्यींकरण में 35 लाख खर्च होता है, लेकिन किसानोंमजदूरों के लिए 1500 रूपये भी ज्यादा लगता है।
यहाँ एक अहम सवाल और है कि सरकारें देश में नक्सलवाद के ब़ते क्षेत्र का गलत आँकड़ा जनता के सामने पेश करती है। सरकार में बैठे लोग देश के कुल जिलों की तादाद बताकर नक्सलवाद के प्रभाव के जिलों की संख्या बताते हैं। लेकिन देश के कुल जिलों में नक्सलवाद के प्रभाव वाले जिलों की संख्या दिखाई जाएगी तो वह भारत के नक्श्ो पर काफी बड़ा दिखेगा। उससे ज्यादा नक्सलवाद के ब़ते प्रभाव को राज्यवार दिखाया जाएगा तो वह और भयावह दिखेगा।
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