महान
राष्ट्रवादी विपिनचंद्र पाल ने कहा था कि --- ' देश को नया रिफार्म यानी
सुधार नही चाहिए अपितु री--- फ़ार्म यानी पुनर्गठन चाहिए | आज इस राष्ट्र को
ऐसे ही पुनर्गठन की आवश्यकता है | इंग्लैंड को भारतीय सरकार की नीति --
निर्माण का अधिकार छोड़ देना चाहिए | '
देश के इतिहास में , 1905 में अंग्रेज वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा किये गये बंगाल के विभाजन के बाद खड़े हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को राष्ट्रीयता के पहले उभार के रूप में देखा जा सकता है | इसका यह मतलब नही है कि इससे पहले ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी आन्दोलनों का कोई राष्ट्रीय चरित्र नही था | एकदम था | लेकिन वह राष्ट्रीयता पुराने या मध्ययुगों के मूल्यों मान्यताओं पर आधारित थी | उदाहरण -- 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम देश में विद्यमान सामन्ती मूल्यों मान्यताओं के साथ ब्रिटिश दासता को जड़ मूल से खत्म कर देने का स्वतंत्रता संग्राम था | हालाकि यह बात भी एकदम सच है कि बीसवी शताब्दी में शुरू हुए आधुनिक युग के राष्ट्रीय आंदोलनों , 19 वी शताब्दी के उन्ही आन्दोलनों व संघर्षो की पृष्ठ्भूमिया आधार पर ही पनपे तथा आगे बढे |
1905 में ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन के इस महान राष्ट्रवादी उभार ने न केवल देशवासियों में आधुनिक राष्ट्रवाद की भावना का रक्त संचार कर दिया , अपितु देशवासियों के भीतर ब्रिटिश राज के हिमायतियो और विरोधियो के बीच अन्तरभेद व विरोध को भी तेज कर दिया | यहाँ तक कि बंग -- भंग के विरोध की अगुवाई कर रही कांग्रेस पार्टी में भी आन्दोलन के प्रमुख मुद्दों और उसके उद्देश्य को लेकर ऐतिहासिक विभाजन हो गया | वह आज कल की राजनितिक पार्टियों के भीतर चल रहे सत्ता -- स्वार्थी विभाजन जैसा नही था , बल्कि वह राष्ट्रवादी आन्दोलनों के प्रमुख मुद्दों को लेकर उसकी दिशा या लक्ष्य के सवाल पर हुआ था |जहा बालगंगाधर तिलक , विपिनचंद्र पाल तथा लाला लाजपत राय जैसे गरम दलीय कांग्रेसी नेताओं के प्रमुख मुद्दों में बंगाल विभाजन के साथ विदेशी मालो का बहिष्कार करने , स्वदेशी मालो को अंगीकार करने तथा राष्ट्रीय शिक्षा लेने और स्वराज पाने पर जोर था | वही गोपाल कृष्ण गोखले तथा मदन मोहन मालवीय जैसे नरम दलीय नेताओं का बंगाल विभाजन के विरोध के स्वदेशी को अपनाने पर ही प्रमुख जोर था | जहा गरम दलीय कांग्रेस का प्रमुख लक्ष्य स्वराज था वही नरम- दल का प्रमुख लक्ष्य ब्रिटिश हुकूमत के भीतर हिन्दुस्तानियों के लिए ज्यादा अधिकार पद -- प्रतिष्ठा को प्राप्त करना था |
यहाँ हम इतिहास के पन्नो से गरम दलीय नेताओं के -- खासकर बाल -- पाल -- लाल के महत्वपूर्ण कथन यहाँ उद्घृत कर रहे है | ये उद्धरण हमने बी . एल . ग्रोवर तथा यशपाल की पुस्तक '' आधुनिक भारत का इतिहास '' से लिया है ----
बाल गंगाधर तिलक का यह कथन तो सर्वविदित है कि -- ' स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे | ' कोई भी समझ सकता है कि तिलक का प्रमुख लक्ष्य स्वराज था | उन्होंने अपने इसी ऐतिहासिक कथन के साथ यह भी कहा था कि -- '' स्वराज व स्वशासन , स्वधर्म के लिए आवश्यक है | स्वराज के बिना कोई सामाजिक सुधार नही हो सकता , न ही कोई औद्यगिक प्रगति या कोई उपयोगी शिक्षा ही हो सकती है और न ही राष्ट्रीय जीवन की परिपूर्णता खड़ी हो सकती है |
विपिनचंद्र पाल ने कहा था कि -- '' देश को नया रिफार्म यानी सुधार नही चाहिए अपितु री- फ़ार्म यानी पुनर्गठन चाहिए | आज इस राष्ट्र को ऐसे ही पुनर्गठन की आवश्यकता है | इंग्लैण्ड को भारतीय सरकार की नीति -- निर्माण का अधिकार छोड़ देना चाहिए और एक विदेशी सरकार को जो कानून चाहे , वह बना सकने का अथवा अपनी इच्छा से शासन करने के अधिकार को त्याग देना चाहिए | उन्हें अपनी इच्छा से कर लगाने और अपनी इच्छा से धन को व्यय करने के अधिकार को भी छोड़ना होगा | ....
लाला लाजपत राय ने कहा कि -- '' जैसे दास की कोई आत्मा ( अर्थात स्वविवेक नही रह जाता ) उसी तरह से दास जाति ( अर्थात राष्ट्र की ) कोई आत्मा नही रह जाती | फिर इस आत्मा के बिना मनुष्य पशु के समान है | इसलिए इस आत्मा को जागृत करने के लिए स्वराज परम आवश्यक है और सुधार तथा उत्तम राज्य इसके विकल्प नही हो सकते | ...............
इनके अलावा राष्ट्रवादी क्रांतिकारी दर्शन व व्यवहार के प्रति समर्पित रहे महान राष्ट्रवादी व दार्शनिक श्री अरविन्द घोष का कहना था कि -- '' राजनितिक स्वतंत्रता राष्ट्र के जीवन का श्वास है | बिना राजनितिक स्वतंत्रता के सामाजिक तथा शैक्षणिक सुधार , औद्योगिक प्रसार , राष्ट्र की नैतिक उन्नति इत्यादि की बात सोचना मुर्खता की चरम सीमा है | '
स्पष्ट है कि इन सभी राष्ट्रवादियो के लिए स्वराज का अर्थ विदेशी नियंत्रण से मुक्त स्वतंत्रता का था , जिसमे अपने राष्ट्र की नीतियों तथा प्रबन्धन में स्वराज की अवधारणा रखते हुए ब्रिटेन के साथ इस देश को लूट -- पाट के बनते -- बढ़ते रहे आर्थिक सम्बंधो को समाप्त करने की बात नही कही गयी थी | लेकिन उन्होंने उस राष्ट्रीय आन्दोलन में विदेशी मालो के बहिष्कार तथा स्वदेशी को अंगीकार करने के नारे व कार्यक्रम को तथा राष्ट्रीय शिक्षा को प्रमुख मुद्दा बनाकर यह स्पष्ट कर दिया था कि वे राष्ट्र के आर्थिक , शैक्षणिक व सांस्कृतिक जीवन में विदेशी मालो . सामानों और विदेशी शिक्षा पर निर्भरता नही बल्कि राष्ट्र का आत्मनिर्भरतापूर्ण स्वराज चाहते है |
सवाल है कि राष्ट्रवादियो और भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियो के ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वराज और फिर पूर्ण राष्ट्र्मुक्ति के उद्देश्यों व क्रियाकलापों को आज सुनने , जानने की कोई आवश्यकता है या नही ? अगर उसकी आवश्यकता है तो किसे है ? यानी समाज के किस हिस्से को है ? इस राष्ट्र के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से को ? या विभिन्न पेशो , स्तरों में बटे जनसाधारण समाज को ? नि:सन्देह देश का धनाढ्य उच्च राजनितिक एवं गैर राजनितिक हिस्सा यह काम नही कर सकता | कयोंकि यही वह हिस्सा है जो 1947 के बाद से ब्रिटेन , अमेरिका जैसे लुटेरे साम्राज्यी देशो के साथ संबंधो को बढाते हुए तथा उनसे पूंजी व तकनीक आदि से अधिकाधिक सहयोग -- सहायता लेते हुए उनकी हिदायतों व सलाहों , शर्तो , नीतियों को मानता और लागू करता रहा है | फिर पिछले बीस सालो से वह अन्तराष्ट्रीय वैश्वीकरणवादी नीतियों को डंकल प्रस्ताव आदि को राष्ट्रीय नीतियों व कानूनों के रूप में लागू करते हुए राष्ट्र में विदेशियों को बेलगाम एवं अधिकार पूर्वक आगमन का भरपूर सहयोग व समर्थन करता रहा है | उन्हें देश के धनाढ्य व उच्च हिस्सों के साथ अधिकाधिक अधिकार सम्पन्न बनाता रहा है | लेकिन इसी के साथ इस पूरे दौर में जनसाधारण को अधिकाधिक साधनहीन अधिकारहीन भी बनाता रहा है |
इसलिए यह बात निश्चित हो चुकी है कि राष्ट्र के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से का अब राष्ट्र -- हित व जन -- हित की नीतियों को बनाने व लागू करने का काम नही कर सकते | उन्हें अब उसकी कोई आवश्यकता नही रह गयी है | वे महज देश व विदेश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों के हितो -- स्वार्थो की अधिकाधिक पूर्ति वाली नीतियों , कानूनों को लागू करने और संचालित करने का ही काम कर सकते है | उन्हें उसी को आगे बढाने वाले '' रिफार्म '' यानी '' सुधार '' चाहिए |
लेकिन इन नीतियों सुधारों के कुपरिणामो को जीवन में संकट के रूप में भोगते जा रहे जनसाधारण को आज ऐसे जनविरोधी रिफार्म यानी सुधार की नही बल्कि राज और समाज का जनहित में री -- फ़ार्म यानी पुनर्गठन चाहिए | विदेशी लूट को लगातार बढाने वाली अन्तराष्ट्रीय या विदेशी नीति नही बल्कि राष्ट्रीय जीवन और जनजीवन के हित की राष्ट्रवादी जनवादी नीति व कानून चाहिए | राष्ट्र -- हित एवं जनहित का पूरा अधिकार चाहिए | उसे लागू करने वाली स्वराज व जनराज की व्यवस्था चाहिए | विदेशी लूट को लगातार बढाने वाली विदेशी सम्बन्ध नही चाहिए बल्कि ऐसे सम्बन्ध से राष्ट्र को मुक्ति चाहिए मुक्त राष्ट्र के साथ नए राष्ट्रिय व अन्तराष्ट्रीय सम्बन्ध चाहिए | वस्तुत: इसी लक्ष्य को लेकर हम इतिहास के पन्नो को पलट भी रहे है और उन्हें आपको सूना भी रहे है |
हमे अपने राष्ट्र के लिए एक नया मुक्ति पथ खोलना होगा |
-सुनील दत्ता
पत्रकार
देश के इतिहास में , 1905 में अंग्रेज वायसराय लार्ड कर्जन द्वारा किये गये बंगाल के विभाजन के बाद खड़े हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को राष्ट्रीयता के पहले उभार के रूप में देखा जा सकता है | इसका यह मतलब नही है कि इससे पहले ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी आन्दोलनों का कोई राष्ट्रीय चरित्र नही था | एकदम था | लेकिन वह राष्ट्रीयता पुराने या मध्ययुगों के मूल्यों मान्यताओं पर आधारित थी | उदाहरण -- 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम देश में विद्यमान सामन्ती मूल्यों मान्यताओं के साथ ब्रिटिश दासता को जड़ मूल से खत्म कर देने का स्वतंत्रता संग्राम था | हालाकि यह बात भी एकदम सच है कि बीसवी शताब्दी में शुरू हुए आधुनिक युग के राष्ट्रीय आंदोलनों , 19 वी शताब्दी के उन्ही आन्दोलनों व संघर्षो की पृष्ठ्भूमिया आधार पर ही पनपे तथा आगे बढे |
1905 में ब्रिटिश विरोधी आन्दोलन के इस महान राष्ट्रवादी उभार ने न केवल देशवासियों में आधुनिक राष्ट्रवाद की भावना का रक्त संचार कर दिया , अपितु देशवासियों के भीतर ब्रिटिश राज के हिमायतियो और विरोधियो के बीच अन्तरभेद व विरोध को भी तेज कर दिया | यहाँ तक कि बंग -- भंग के विरोध की अगुवाई कर रही कांग्रेस पार्टी में भी आन्दोलन के प्रमुख मुद्दों और उसके उद्देश्य को लेकर ऐतिहासिक विभाजन हो गया | वह आज कल की राजनितिक पार्टियों के भीतर चल रहे सत्ता -- स्वार्थी विभाजन जैसा नही था , बल्कि वह राष्ट्रवादी आन्दोलनों के प्रमुख मुद्दों को लेकर उसकी दिशा या लक्ष्य के सवाल पर हुआ था |जहा बालगंगाधर तिलक , विपिनचंद्र पाल तथा लाला लाजपत राय जैसे गरम दलीय कांग्रेसी नेताओं के प्रमुख मुद्दों में बंगाल विभाजन के साथ विदेशी मालो का बहिष्कार करने , स्वदेशी मालो को अंगीकार करने तथा राष्ट्रीय शिक्षा लेने और स्वराज पाने पर जोर था | वही गोपाल कृष्ण गोखले तथा मदन मोहन मालवीय जैसे नरम दलीय नेताओं का बंगाल विभाजन के विरोध के स्वदेशी को अपनाने पर ही प्रमुख जोर था | जहा गरम दलीय कांग्रेस का प्रमुख लक्ष्य स्वराज था वही नरम- दल का प्रमुख लक्ष्य ब्रिटिश हुकूमत के भीतर हिन्दुस्तानियों के लिए ज्यादा अधिकार पद -- प्रतिष्ठा को प्राप्त करना था |
यहाँ हम इतिहास के पन्नो से गरम दलीय नेताओं के -- खासकर बाल -- पाल -- लाल के महत्वपूर्ण कथन यहाँ उद्घृत कर रहे है | ये उद्धरण हमने बी . एल . ग्रोवर तथा यशपाल की पुस्तक '' आधुनिक भारत का इतिहास '' से लिया है ----
बाल गंगाधर तिलक का यह कथन तो सर्वविदित है कि -- ' स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे | ' कोई भी समझ सकता है कि तिलक का प्रमुख लक्ष्य स्वराज था | उन्होंने अपने इसी ऐतिहासिक कथन के साथ यह भी कहा था कि -- '' स्वराज व स्वशासन , स्वधर्म के लिए आवश्यक है | स्वराज के बिना कोई सामाजिक सुधार नही हो सकता , न ही कोई औद्यगिक प्रगति या कोई उपयोगी शिक्षा ही हो सकती है और न ही राष्ट्रीय जीवन की परिपूर्णता खड़ी हो सकती है |
विपिनचंद्र पाल ने कहा था कि -- '' देश को नया रिफार्म यानी सुधार नही चाहिए अपितु री- फ़ार्म यानी पुनर्गठन चाहिए | आज इस राष्ट्र को ऐसे ही पुनर्गठन की आवश्यकता है | इंग्लैण्ड को भारतीय सरकार की नीति -- निर्माण का अधिकार छोड़ देना चाहिए और एक विदेशी सरकार को जो कानून चाहे , वह बना सकने का अथवा अपनी इच्छा से शासन करने के अधिकार को त्याग देना चाहिए | उन्हें अपनी इच्छा से कर लगाने और अपनी इच्छा से धन को व्यय करने के अधिकार को भी छोड़ना होगा | ....
लाला लाजपत राय ने कहा कि -- '' जैसे दास की कोई आत्मा ( अर्थात स्वविवेक नही रह जाता ) उसी तरह से दास जाति ( अर्थात राष्ट्र की ) कोई आत्मा नही रह जाती | फिर इस आत्मा के बिना मनुष्य पशु के समान है | इसलिए इस आत्मा को जागृत करने के लिए स्वराज परम आवश्यक है और सुधार तथा उत्तम राज्य इसके विकल्प नही हो सकते | ...............
इनके अलावा राष्ट्रवादी क्रांतिकारी दर्शन व व्यवहार के प्रति समर्पित रहे महान राष्ट्रवादी व दार्शनिक श्री अरविन्द घोष का कहना था कि -- '' राजनितिक स्वतंत्रता राष्ट्र के जीवन का श्वास है | बिना राजनितिक स्वतंत्रता के सामाजिक तथा शैक्षणिक सुधार , औद्योगिक प्रसार , राष्ट्र की नैतिक उन्नति इत्यादि की बात सोचना मुर्खता की चरम सीमा है | '
स्पष्ट है कि इन सभी राष्ट्रवादियो के लिए स्वराज का अर्थ विदेशी नियंत्रण से मुक्त स्वतंत्रता का था , जिसमे अपने राष्ट्र की नीतियों तथा प्रबन्धन में स्वराज की अवधारणा रखते हुए ब्रिटेन के साथ इस देश को लूट -- पाट के बनते -- बढ़ते रहे आर्थिक सम्बंधो को समाप्त करने की बात नही कही गयी थी | लेकिन उन्होंने उस राष्ट्रीय आन्दोलन में विदेशी मालो के बहिष्कार तथा स्वदेशी को अंगीकार करने के नारे व कार्यक्रम को तथा राष्ट्रीय शिक्षा को प्रमुख मुद्दा बनाकर यह स्पष्ट कर दिया था कि वे राष्ट्र के आर्थिक , शैक्षणिक व सांस्कृतिक जीवन में विदेशी मालो . सामानों और विदेशी शिक्षा पर निर्भरता नही बल्कि राष्ट्र का आत्मनिर्भरतापूर्ण स्वराज चाहते है |
सवाल है कि राष्ट्रवादियो और भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियो के ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वराज और फिर पूर्ण राष्ट्र्मुक्ति के उद्देश्यों व क्रियाकलापों को आज सुनने , जानने की कोई आवश्यकता है या नही ? अगर उसकी आवश्यकता है तो किसे है ? यानी समाज के किस हिस्से को है ? इस राष्ट्र के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से को ? या विभिन्न पेशो , स्तरों में बटे जनसाधारण समाज को ? नि:सन्देह देश का धनाढ्य उच्च राजनितिक एवं गैर राजनितिक हिस्सा यह काम नही कर सकता | कयोंकि यही वह हिस्सा है जो 1947 के बाद से ब्रिटेन , अमेरिका जैसे लुटेरे साम्राज्यी देशो के साथ संबंधो को बढाते हुए तथा उनसे पूंजी व तकनीक आदि से अधिकाधिक सहयोग -- सहायता लेते हुए उनकी हिदायतों व सलाहों , शर्तो , नीतियों को मानता और लागू करता रहा है | फिर पिछले बीस सालो से वह अन्तराष्ट्रीय वैश्वीकरणवादी नीतियों को डंकल प्रस्ताव आदि को राष्ट्रीय नीतियों व कानूनों के रूप में लागू करते हुए राष्ट्र में विदेशियों को बेलगाम एवं अधिकार पूर्वक आगमन का भरपूर सहयोग व समर्थन करता रहा है | उन्हें देश के धनाढ्य व उच्च हिस्सों के साथ अधिकाधिक अधिकार सम्पन्न बनाता रहा है | लेकिन इसी के साथ इस पूरे दौर में जनसाधारण को अधिकाधिक साधनहीन अधिकारहीन भी बनाता रहा है |
इसलिए यह बात निश्चित हो चुकी है कि राष्ट्र के धनाढ्य एवं उच्च हिस्से का अब राष्ट्र -- हित व जन -- हित की नीतियों को बनाने व लागू करने का काम नही कर सकते | उन्हें अब उसकी कोई आवश्यकता नही रह गयी है | वे महज देश व विदेश के धनाढ्य एवं उच्च हिस्सों के हितो -- स्वार्थो की अधिकाधिक पूर्ति वाली नीतियों , कानूनों को लागू करने और संचालित करने का ही काम कर सकते है | उन्हें उसी को आगे बढाने वाले '' रिफार्म '' यानी '' सुधार '' चाहिए |
लेकिन इन नीतियों सुधारों के कुपरिणामो को जीवन में संकट के रूप में भोगते जा रहे जनसाधारण को आज ऐसे जनविरोधी रिफार्म यानी सुधार की नही बल्कि राज और समाज का जनहित में री -- फ़ार्म यानी पुनर्गठन चाहिए | विदेशी लूट को लगातार बढाने वाली अन्तराष्ट्रीय या विदेशी नीति नही बल्कि राष्ट्रीय जीवन और जनजीवन के हित की राष्ट्रवादी जनवादी नीति व कानून चाहिए | राष्ट्र -- हित एवं जनहित का पूरा अधिकार चाहिए | उसे लागू करने वाली स्वराज व जनराज की व्यवस्था चाहिए | विदेशी लूट को लगातार बढाने वाली विदेशी सम्बन्ध नही चाहिए बल्कि ऐसे सम्बन्ध से राष्ट्र को मुक्ति चाहिए मुक्त राष्ट्र के साथ नए राष्ट्रिय व अन्तराष्ट्रीय सम्बन्ध चाहिए | वस्तुत: इसी लक्ष्य को लेकर हम इतिहास के पन्नो को पलट भी रहे है और उन्हें आपको सूना भी रहे है |
हमे अपने राष्ट्र के लिए एक नया मुक्ति पथ खोलना होगा |
-सुनील दत्ता
पत्रकार
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें