बुधवार, 23 जनवरी 2013

भुगतान संतुलन का संकट?

फिर क्यों भुगतान संतुलन का संकट?



ग्लोबल रेटिंग एजेंसी मूडीज ने बढ़ते राजकोषीय घाटे के साथ साथ भुगतान संतुलन के संकट की चेतावनी दी है। १९९१ में इसी भुगतान संकट के बहाने नरसिंहराव की अल्पमत कांग्रेसी सरकार नें वाम व संघी निष्क्रियता के माहौल में समाजवादी विकास का नेहरु इंदिरा माडल का परित्याग करके उदारीकरण का युग शुरु किया था। अमेरिकी सरकार के दबाव में तब विश्वबैंक के प्रतिनिधि बतौर डा. मनमोहन सिंह को भुगतान संकट से निपटने के लिए बतौर गारंटी भारत का वित्तमंत्री बनाया गया था। इंदिरा गांधी के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अर्थशास्त्री डा. अशोक मित्र ने पूरे प्रकरण का खुलासी बहुत पहले कर दिया है और जिसका आज तक खंडन नहीं हुआ है।कांग्रेस की सरकार ने 1991 में आर्थिक सुधार की शुरुआत की जो इस अवधि से पहले के दशकों में भी सत्ता में थीए हालांकि 1977.79 के बीच गतिरोध का दौर जरूर रहा। बीस साल हो गये आर्थिक सुधारों के ए लिकिन यह देश अब भी भुगतान संतुलन संकट के सामने असहाय है।याददाश्त इतनी भी कमजोर नहीं होनी चाहिए कि संकट ही याद न रहे। अभी 21 साल पहले की ही बात हैए जब जून 1991 में विदेशी मुद्रा भंडार एक अरब डॉलर से भी कम रह गया यानी बस केवल तीन हफ्ते के आयात का जुगाड़ बचा था। रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा देना बंद कर दिया। निर्यातों को प्रतिस्पर्धात्मक बनाने के लिए तीन दिन में रुपये का 24 फीसद अवमूल्यन हुआ। आइएमएफ से 2.2 अरब डॉलर का कर्ज लिया गया और 67 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड व यूनियन बैंक ऑफ स्विटजरलैंड के पास गिरवी रखकर 600 मिलियन डॉलर उठाए गए, तब आफत टली।देश में विदेशी निवेश भी खूब हो रहा है और अब निवेश बढ़कर देश के जीडीपी का एक तिहाई हो गया है।वर्ष 1991 में जब भारत भुगतान संतुलन के संकट से गुजर रहा था तो सबकी आम सहमति से इसे अपने सोने के भंडार को गिरवी रखना पड़ा ताकि कर्ज का भुगतान किया जा सके। इसी दौर में आर्थिक सुधार की नींव पड़ी जिससे भारत की तकदीर में अविश्वसनीय बदलाव आया। 1991 में आर्थिक सुधार के सूत्रधार उस वक्त के वित्त मंत्री और मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह थे। उस वक्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव ने भारत को इस संकट से बाहर निकालने के लिए सभी जरूरी कदम उठाने के लिए मनमोहन सिंह को इजाजत दे दी। उन्होंने, आईएमएफ से बड़ी मात्रा में संरचनात्मक समायोजित ऋण लेने और अर्थव्यवस्था को उदार बनाने के लिए सुधार के कार्यक्रमों की शुरुआत करके ऐसा कर दिखाया।राव की आर्थिक सुधार लाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी लेकिन सावधानी के तौरपर वे मध्यमार्ग की बात करते थे।ठीक उसी तरह समावेशी विकास की मृगमरीचिका बनाने के लिए प्रधानमंत्री अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन और विश्वबैंक के अर्थशास्त्री डा. मनमोहन सिंह की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने नीतियों की दिशा के निर्धारण में प्रधानमंत्री के मुकाबले कुछ एनजीओ को ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया है।  इंदिरा के गरीबी हटाओ और समाजवादी विरासत वाले गांधी नेहरु वंशगर्भ से निकले राजनीतिक नेतृत्व को अच्छी तरह मालूम है कि चुनाव आर्थिक विकास से नहीं जीते जा सकते।वरन जनकल्याणकारी योजनाओं ;जैसे मनेरगा,खैरात बांटने;2008 की कृषि ऋण माफी या रोजगार में आरक्षण से जीते जाते हैं। उनका मानना है कि इस रणनीति ने उन्हें 2009 में दोबारा चुनाव जिताया और उसे बदलने में उन्हें कोई तुक नजर नहीं आता।जयपुर चिंतन शिविर में व्यक्त उद्गारों में इसी रणनीति की ही गूंज प्रतिगूंज है,सनसनीखेज बयानबाजी से धर्मनिरपेक्ष बाजारवादी हिंदुत्व का​​ महाविस्फोट है। वैश्विक आर्थिक संकट के बीच फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट भी इसका अपवाद नहीं है। आश्चर्य नहीं कि अर्थव्यवस्था के इस गहराते संकट को यू.पी.ए सरकार के आर्थिक मैनेजरों और नव उदारवादी आर्थिक सलाहकारों ने बहुत चालाकी के साथ मौके और उससे अधिक एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया है। साल 2012 के उत्तरार्ध में यू.पी.ए सरकार ने जिस तेजी और झटके के साथ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के अगले और सबसे कड़वे चरण को आगे बढ़ाया हैए उससे ऐसा लगता है जैसे वह अर्थव्यवस्था के संकट के गहराने का ही इंतज़ार कर रही थी।
-एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

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