सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

गड़बड़झाला------उद्भ्रांत


                           
    डा. उदयभानु पाण्डे से कभी भेंट नहीं हुई- फ़ोन पर हुई एक-आध बार की बातचीत को छोड़कर। गत वर्ष ‘अकार’ में प्रकाशित उनका लेख अच्छा लगा था और ’कथादेश’ की मौजूदा मैराथन बहस में भी उनका हस्तक्षेप सार्थक था- सिर्फ़ मेरे लिए प्रयुक्त विशेषण को छोड़कर, जिस कारण ख़ामखाँ उन्हें इन पंक्तियों के लेखक के ‘शीर्ष’ पर रखकर चलाई गई अर्चना वर्मा की बंदूक का सामना करना पड़ा! मैंने तो पहले ही अपनी सम्बन्धित हतप्रभता से उन्हें टेलीफ़ोन पर अवगत कराया था।
    गत लगभग पूरे दिसम्बर माह जब मैं पत्नी की अस्वस्थता के कारण नोएडा के एक निजी अस्पताल में रहा तो किसी दिन उन्होंने फ़ोन पर यह सूचना दी थी, तब मैने सेक्टर-34 के समाचारपत्र विक्रेता से उक्त अंक मँगवाया । ये वही दिन थे जब राजधानी में हुई गैंगरेप की दुर्दांत घटना के चलते देश दुःख और गुस्से की समवेत आग में जल रहा था और मेरी इकाई भी उसी का हिस्सा थी। लिखना तो कहां हो सकता था-अश्लीलता के पक्ष में लिखे उस गरिष्ठ लेख को पढ़ना भी, एन्टीबायोटिक दवाओं के प्रभाव से पत्नी के सोने के बाद, टुकड़ों-टुकड़ों में कई रात्रियों से छनकर मिले समय में ही संभव हो सका। स्थिति सामान्य होने के बाद अब जाकर नये वर्ष के इस पहले महीने के मध्य में यह टिप्पणी लिख पा रहा हूँ।
    क्योंकि सच कहूँ तो इस बहस को इतना लम्बा खींचने की सुश्री वर्मा की अप्रासंगिक भूूमिका से मुझे अफ़सोस हुआ है। वरना, न तो उनसे, न संदर्भित कवि-द्वय से मेरी कोई लाग-डाँट है। शालिनी के लेख पर सबसे पहली स्वतःस्फूर्त टिप्पणी भी मैने इसी कारण लिखी थी, जिसके सन्दर्भ में उन्होंने पत्रकारिता की नैतिकता के विरूद्ध कार्य किया। इन्हीं सब बातों ने मुझे दोबारा कलम उठाने को विवश किया है ।
लेकिन अपना क्षोभ व्यक्त करने से पहले उसके कारक बने तीन प्रमुख किरदारों का जि़क्र ज़रूरी है। जैसा कि संकेत किया है, अर्चना जी को सूरत से कम, ‘प्रसंगवश’ सीरत से अधिक पहचानता हूँ। 16-17 वर्ष पूर्व राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ कार्यालय में मन्नू जी के साथ बैठीं एक भद्र महिला के बारे में कहा था कि ये अर्चना वर्मा हैं। मैं गोरखपुर से स्थानान्तरित होकर उप कार्यक्रम नियंत्रक के रूप में दूरदर्शन महानिदेशालय आया ही था और वर्ष 1970 से प्रारम्भ सम्बन्धों के चलते हमेशा की तरह दिल्ली आते ही उनसे मिलने पहुँच गया था। तब शायद रस्मी दुआ-सलाम ज़रूर हुआ होगा। बस उसे छोड़कर उनसे कभी एक शब्द का भी आदान -प्रदान नहीं हुआ। सुश्री अनामिका का नाम पहली बार तब सुना था, जब वर्ष 1984 में कानपुर के मित्र प्रकाशक साहित्य रत्नालय के श्री महेश त्रिपाठी ने मेरे तीन काव्यसंग्रहों के साथ उनका एक उपन्यास छापा था। दिल्ली आगमन के बाद इस सम्बन्ध में याद दिलाने पर उन्होंने उसे किशोरावस्था की कृति बताते हुए ख़ास महत्व नहीं दिया था- यद्यपि बाद में शायद किसी अन्य नाम से वह दिल्ली से भी छप गया था। प्रारम्भ में उनकी कुछ कविताओं ने मुझे आकर्षित किया था, मगर इधर लगता है कि वे अति आत्मविश्वास, अहंकार और गुरूडम का शिकार होकर क्षेत्रीय और भाषायी राजनीति करने के साथ साथ स्वयं को ‘शीर्ष कवयित्री’ कहने-कहलाने में अपनी शान समझती हैं। वरिष्ठों की अवमानना और कनिष्ठों से चरणस्पर्श की कांक्षा उनके व्यवहार में नज़र आती है। यहां उनकी शालीन चुप्पी श्रेयस्कर होती-उस प्रतिक्रिया की तुलना में-जो उन्होंने अपनी मित्र के कहने पर दी । अकारण नहीं है कि उनके पक्ष में नियोजित की गईं दो-तीन दलीलें इसीलिए बेहद कमज़ोर हैं-उनकी सबसे बड़ी पैरोकार के साथ, जो व्यवहार में उन्हीं की राह की बगलगीर हैं। जबकि हम आज से नहीं, सदियों से जानते हैं कि कविता का पथ अनंत का पथ है। चरैवेति, चरैवेति। वर्ष 1959 से प्रारम्भ इस यात्रा में फि़लहाल तो आधी सदी ही पार हुई है। और वर्ष 1960 में ही पहली कविता छपने के कारण प्रकाशन- यात्रा में भी उतनी अवधि बीत चुकी है। पोर्न कवितायें  लिखने और उनकी अर्चना करने वाले उसी के आसपास इस धरा पर अवतरित हुए होंगे, इसलिए उन्हें मुझसे शिकायत है तो वह स्वाभाविक ही है। लेकिन वे इतना तो जान ही लें कि इस यत्किंचित लम्बी यात्रा के बाद और कुल सत्तर पुस्तकों में कविता की ही तीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित होने के बाद भी मुझे स्वयं को सामान्य कवि मानने तक में पसोपेश होता है-‘शीर्ष स्तर’ तो बहुत दूर की कौड़ी है। ऐसे विशेषण उन्हीं को मुबारक़! पाण्डेय जी ने ठीक ही गोस्वामी जी की मदद ली है- खल परिहास होहि हित मोरा! अंतिम किरदार ‘कथादेश’ सम्पादक तो मेरे तब के मित्र हैं, जब वे आगरा से एक मासिक पत्रिका ‘रूप कंचन’ निकालते थे और वर्ष 1975 में उसके प्रस्तावित कहानी विशेषांक में मेरी कहानी आमंत्रित करते हुए उन्होंने, तब कानपुर निवासी, मुझे एकाधिक पत्र लिखे थे। ज़ाहिर है कि तब वे सीधे, सरल इंसान थे- आज की तुलना में -जो कथा-प्रकाशन की दृष्टि से मार्च 1974 में ‘कहानी पत्रिका’ में जनमे एक उद्भ्रांत कथाकार से भी कहानी मांगने में संकोच नहीं करते थे! खैर!
अब अपने क्षोभ का खुलासा:
1.    पाण्डेय जी ने लिखा था कि ‘‘उद्भ्रांत ने सटीक टिप्पणी की है,  लेकिन लगता है उसमें कुछ छूट गया है’’। अर्चना वर्मा ने ‘मौनं स्वीकृति लक्षणम्’ के अनुसार इसे ठीक क़रार दिया है (अन्यथा वे इसका खंडन ज़रूर करतीं), और दिसम्बर 2012 की उनकी सफाई के अनुसार यह प्रकट है कि ‘कुछ छूटा’ नहीं था। दरअसल उन्होंने जानबूझ कर उसे काट दिया था- श्री हरिनारायण की निस्पृहता का बेजा लाभ लेकर उनके सम्पादकीय अधिकार का स्वयं इस्तेमाल करते हुए । सवाल है कि उन्होंने मेरे लेख को देखने के तुरंत बाद संदर्भित कवियों से और अन्यों से भी बचाव जैसी कार्यवाही  के लिए क्यों कहा? स्वाभाविक रूप से उनकी प्रतिक्रिया आती तो कुछ भी ग़लत नहीं था, मगर यहां दबाव डालकर लिखवाने की कोशिशें हुईं। आखिर इस दुरभिसंधि में वे क्यों शामिल हुईं? मेरे लेख को एक महीने इसीलिए विलंबित किया गया, ताकि उनके कार्टेल को उतना समय अपनी तैयारी के लिए मिल जाये! फिर वह कौन सा डर था कि अगस्त 2012 में अधोहस्ताक्षरी के लेख को प्रकाशित तो किया गया - यह दिखाने के लिए कि हम बडे़े ‘लोकतांत्रिक’ है(!)-मगर उसके ज़रूरी बड़े हिस्से को काट दिया गया? यह जर्नलिस्टिक एथिक्स के खिलाफ़ था, जिसके अंर्तगत सम्पादक उभयपक्षीय रहने के लिए बाध्य होता है। शायद इसीलिए हरि नारायण ने उसका पालन किया। मगर तब सवाल है कि उन्होंने अपनी सहयोगी को उनके अधिकार क्षेत्र में प्रवेश की अनुमति क्यों दी? पत्रकारिता की नैतिकता का सवाल उठाने का अधिकार कम से कम मुझे तो इसलिए भी है कि मैं वर्ष 1970 में ‘युगप्रतिमान’ पाक्षिक और वर्ष 1974-’77 में अनियतकालीन पत्रिका ‘युवा’ का सम्पादन कर चुका हूँ-दैनिक ‘आज’ के कानपुर संस्करण के सम्पादकीय विभाग में कार्य के अलावा।
2.    मेरा जो चार पृष्ठीय लेख 13 मई 2012 को ईमेल से और 15 मई 2012 को कूरियर से मिल चुका था, उसे जुलाई 2012 के अंक में क्यों नहीं दिया गया और अगस्त अंक में अन्यों के साथ दिया भी गया तो उसके सबसे ज़रूरी बाद के उन ढाई पृष्ठों को किस सम्पादकीय विवेक से काटा गया (उन्होने शालिनी माथुर को फ़ोन पर ऐसा कहा था), जहां से मैंने बिन्दुवार शालिनी के लेख की मीमांसा शुरू की थी? किस सम्पादकीय विवेक से अपने ‘प्रसंगवश’ के छह और आशुतोष कुमार के पांच पृष्ठों को उसी अंक में दिया गया, जबकि आशुतोष के लेख के दो पृष्ठों में उन्हीं कविताओं का पुनर्मुद्रण था जिसकी कोई आवश्यकता नहीं थी?
3.    इसका रहस्य विद्वान पाठकों के समक्ष मैं उजागर कर देता हूँ। दरअसल लेख के जानबूझकर छोड़े या काटे गये हिस्से में ही मेरी वह भविष्यवाणी भी थी कि सम्बन्धित कार्टेल जिसने इतनी जोड़-तोड़ के बाद ऐसी उपलब्धि हासिल की है-चुप नहीं बैठेगा। अब आप पाठक साक्षी हैं कि भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। यह देखना दिलचस्प है कि सुश्री वर्मा ने अपने दिसंबर के सुदीर्घ ग्यारह पृष्ठीय ‘बयान’ में सुश्री अनामिका पर दबाव डालकर लिखवाने की बात कहकर उसे मान भी लिया है। ज़ाहिर है कि औरांे से भी ऐेसे ही कहा होगा, तभी अगस्त अंक में अपने सिपहसालारों के साथ वे बचाव पक्ष में प्रकट र्हुइं और दिसंबर अंक में उसकी स्वघोषित कुतार्किक परिणति के साथ ही उन्होंने ठंडी साँस ली। मेरा लेख जुलाई 2012 में ही छपता तो वे अपने कार्टेल को कैसे सक्रिय कर पातीं! अगस्त में भी वह पूरा छपता तो सब बेनक़ाब हो रहे थे। लेकिन सप्ताह भर के अन्दर ही पचासों ब्लाॅग्स में और महीने के अंत तक ‘दुनियाँ इन दिनांे’ (संः सुधीर सक्सेना) में इस साजि़श के खुलासे के साथ पूरा लेख छपने के कारण अंततः वे बेनक़ाब तो हो ही गये।
4.    उन्होंने पक्ष-विपक्ष भी रेखांकित कर दिया है, मगर यहाँ गड़बड़झाला हो गया है। वादी को प्रतिवादी और प्रतिवादी को वादी कहा जा रहा है। स्वयं वे पहले तो आरोपी के बचाव पक्ष की भूमिका में प्रकट होती हैं और अंत में अच्छी कविता के बचाव के लिए जिरह करने वाली शालिनी माथुर को जवाब देने का मौक़ा दिये बिना मनमाने ढंग से प्रबुद्ध जनता को न्यायाधीश की कुर्सी से उतार कर स्वयं काबिज़ हो, फ़ैसला लिखने लग जाती हैं। पाठकों को स्मरण होगा कि ‘कथादेश’ में प्रकाशित अधूरी टिप्पणी के दूसरे ही पैरा में मैंने इस पूरे प्रसंग को ‘अदालत का रूपक’ दिया था, जिसमें पाठक को न्यायाधीश कहा गया था (पहले में ‘आपरेशन थियेटर’ का)। वहीं से प्रेरित होकर सुश्री वर्मा ने बैरिस्टर जनरल की भूमिका अखि़्तयार कर ली। 
5.    किसी कृति पर फ़ैसला देने का अधिकार सिर्फ पाठक का होता है। दुनियाँ का कोई लेखक उसे मूर्ख मानने की हिमाक़त नहीं करता, जिसे अर्चना जी कर रही हैं। उनकी गूढ़ भाषा भी इसकी चुगली करती है। अपनी नातिदीर्घ रचना-यात्रा में दुरूहतम भाषा लिखने वाले आलोचकों तक से पाला पड़ने के कारण मैं तो येन-केन-प्रकारेण द्रविड़ प्राणायाम करके उनकी बात का मर्म निकाल लेता हूँ, लेकिन अधिकांश पाठक वर्ग को वह समझ में नहीं आती। और पाठक तो सभी तरह के है, जिनमें विद्वानों की संख्या भी कम नहीं।
6.    बहस को जो प्रारम्भ करता है, वही उसका समापन करता है, यह मामूली -सी बात भी वे नहीं जानतीं। शालिनी के उत्तर के बिना यह बहस किसी तार्किक परिणाम तक नहीं पहुँच सकेगी। आशा है उसके समापन की घोषणा भी सम्पादक महोदय ही करेंगे, कोई अन्य नहीं!
मो0 09818854678

-उद्भ्रांत

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