मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

मनमोहनसिंह वाशिंगटन से भारत के वित्तमंत्री मनोनीत थे

तीसरे कार्यकाल के लिए मनमोहन सिंह के तैयार होने की खबर फैलते ही सत्तावर्ग में खलबली मच गयी है। जैसा कि आम गलतफहमी है कि सत्ता में रहने की आदत हो जाने की वजह से भारत में नवउदारवादी मुक्त बाजार अर्थ व्यवस्था के जनक की नीयत डोल गयी है और वे युवराज की ताजपोशी के लिए शायद कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, ऐसा हरगिज नहीं है। असल में जायनवादी वैश्विक व्यवस्था कारपोरेट साम्राज्यवाद और ​​अमेरिकी हितों  के उपनिवेश में तब्दील इस अनंत वधस्थल के नरसंहार बंदोबस्त पर अपना नियंत्रण छोड़ने को तैयार नहीं है। इंदिरा गांधी​ ​ के प्रमुख आर्थिक सलाहकार ने अपनी पुस्तक आपिला चापिला, जिसका अंग्रेजी अनुवाद भी बहुप्रचलित है, में भारत में नवउदारवादी युगारंभ का सिलसिलेवार ब्यौरा पेश किया है और बताया है कि कैसे मनमोहनसिंह वाशिंगटन से भारत के वित्तमंत्री मनोनीत किये गया थे। इसका ​​खंडन नहीं हुआ। इसके उलट राष्ट्रपति भवन, योजना आयोग और सरकार व प्रशासन से लेकर सर्वत्र अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वबैंक और विश्व व्यापार संगठन के पुराने कारिंदे काबिज हैं। भारत में राजनीतिक समीकरण चाहे कुछ हो, विश्व व्यवस्था अपना यह समीकरण बिगाड़ना हरगिज नहीं चाहेगा। इस वास्तव के संदर्भ में ही मनोहन की इच्छा अनिच्छा का आकलन होना चाहिए। इस विश्व व्यवस्था में जायनवादियों के अलावा ग्लोबल ​​हिंदुत्व का भी वर्चस्व हैए जो अमेरिकी प्रशासन में संघियों की बढ़ती घुसपैठ से साफ जाहिर है।दरअसल हिंदू साम्राज्यवाद और कारपोरेट साम्राज्यवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भारत का अर्धऔपनिवेशिक अर्धसामंती राष्ट्रचरित्र इस समीकरण के ही मुताबिक है।​
​मामला जितना गंभीर समझा जा रहा है , उससे ज्यादा गंभीर है। नरेंद्र मोदी भाजपा के खर्च पर जो अमेरिकी इजराइली वरदहस्त हासिल करने का अथक प्रयास कर रहे हैंए वह उसे निर्णायक मानकर ही कर रहे हैं।देशी पूंजीपतियों का समर्थन भारतीय मुक्त बाजार के प्रबंधन की सर्वोच्च नौकरी के लिए काफी नही है, यह बात नरेंद्र मोदी बेहतर जानते हैं तो क्या स्तावर्ग के लोग इस तथ्य से अनजान हैं भारत में वंशवाद और नस्लवाद जातिव्यवस्था पर हावी है। वंशवादी व्यवस्था को पूंजीपतियों का समर्थन है तो जायनवादी कारपोरेट साम्राज्यवाद नस्ली भेदभाव पर ही आधारित है। दरअसल भारतीय जाति व्यवस्था भी नस्ली भेदभाव पर आधारित है। सत्तावर्ग के लोग तीन वर्णों में विभाजित हैं, जिनकी जातियां नहीं होती। जबकि किसान शूद्रों को एससीए एसटी और ओबीसी की हजारों जातियों में विभाजित कर दिया गया है। जाति व्यव्साथा पर बात करते हुए विध्वान क्रांतिकारी लोग इसके नस्लवादी चरित्र को नजरअंदाज कर जाते हैं। इसी वंशवादी नस्ली भेदभाव के आधार पर ही​ युवराज कीताजपोशी का दावा बनता है। लेकिन ही पर्याप्त नहीं है। वंश और नस्ल प्रतिनिधि की राजनीतिक महात्वाकांक्षा और पापुलिज्म से मुक्त बाजार को सबसे ज्यादा आघात पहुंच सकता है, क्रांतिकारी जनविद्रोह की अनुपस्थिति में भी। इसीलिए अब भी सत्ता पर विश्वबैंकीय ​​अर्थशास्त्रियों और कारपोरेट जगत के गैरसंवैधानिकप्रतिनिधियों का दावा राहुल गांधी और नरेंद्रमोदी समेत भारतीय संसद में तमाम निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से कहीं ज्यादा है। भारतीय उद्योग जगत को संबोधित करके कारपोरेट भरोसा जीतने की कवायद राहुल कर रहे हैं तो वे नरेंद्र मोदी के पदचिन्हों का ही अनुसरण कर रहे हैं। इससे भारतीय उपनिवेश का वास्तव बदल नहीं जाता।
-एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​

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