शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

म्यांमार में साम्प्रदायिक हिंसा से प्रजातांत्रिक प्रक्रिया को धक्का


दक्षिण एशिया के लगभग सभी देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा एक बड़ी समस्या बनी हुई है। अलग.अलग देशों में इसका स्वरूप भले ही अलग.अलग हो परन्तु इसके नतीजे में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ अमानवीय व्यवहार हो रहा है और निर्दोष व्यक्ति सताये जा रहे हैं। इस मामले में, सन् 2013 की शुरूआत बहुत बुरी रही है। नए साल के तीन महीने भी नहीं गुजरे हैं परन्तु इस बीच पाकिस्तानए बांग्लादेश, भारत और म्यांमार में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के दौर हो चुके हैं। जब भी मुसलमानों के खिलाफ हिंसा की बात की जाती है तब कुछ लोग इस्लाम को हिंसा में विश्वास रखने वाला धर्म बताकर यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि हिंसा के लिए स्वयं मुसलमान ही जिम्मेदार हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दूसरे धर्मों के मानने वाले भी पलटकर यह कह सकते हैं कि चूंकि गीता में कृष्ण, अर्जुन को हथियार उठाने के लिए प्रेरित करते हैं इसलिए हिन्दू धर्म भी हिंसा को प्रोत्साहित करता है। यह आम धारणा है कि बौद्ध धर्म, शांति का धर्म है। परन्तु सच यह है कि यद्यपि सभी धर्म नैतिकतापूर्ण व्यवहार के हामी हैं तथापि लगभग सभी धर्मों के मानने वालों ने समय.समय पर अपने.अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए धर्म के नाम पर हिंसा की है। निःसंदेहए भगवान गौतम बुद्ध शांति के पुरोधा थे परन्तु यह भी सही है कि श्रीलंका, थाईलैण्ड और अब ;मार्च 2013द्ध म्यांमार में बौद्ध भिक्षु हिंसा करने में किसी से पीछे नहीं हैं।
म्यांमार के मैयिखाटीला में साम्प्रदायिक हिंसा के ज्वार पर नियंत्रण पाने के लिए मार्शल ला लागू कर दिया गया है और सेनाए स्थिति पर नजर रखे हुए है। इस इलाके में बौद्धों और मुसलमानों के बीच हिंसा हो रही है। आधिकारिक तौर पर यह कहा जा रहा है कि इस हिंसा में अब तक 31 लोग मारे जा चुके हैं परन्तु गैर.आधिकारिक सूत्र, मृतकों की संख्या कहीं अधिक बताते हैं। पूरे राज्य में आपातकाल लागू कर दिया गया है। हमेशा की तरह, हिंसा की शुरूआत एक मामूली सी घटना से हुई। एक बौद्ध दंपति और सोने के गहनों की एक दुकान के मुसलमान मालिक के बीच किसी मुद्दे को लेकर कटु बहस हो गई। इसके बाद, दोनों समुदायों के मन में एक दूसरे के प्रति छुपी घृणा और गुस्सा बाहर आ गया और फसाद शुरू हो गये। यद्यपि हिंसा में एक बौद्ध भिक्षु भी मारा गया है तथापि मरने वालों में अधिकांश मुसलमान हैं। इस घटना ने जून.जुलाई 2012 में पश्चिमी म्यांमार के राखिने राज्य में हुई सांप्रदायिक झड़पों की याद ताजा कर दी है। इस हिंसा में 110 लोग मारे गये थे और एक लाख बीस हजार बेघर हो गये थे। मृतकों और बेघर होने वालों में अधिकांश रोहिंग्या मुसलमान थे।
पिछली तानाशाह सरकार ने साम्प्रदायिक हिंसा की खबरों को छुपाकर रखा था। अब जबकि म्यांमार में प्रजातंत्र दस्तक दे रहा हैए इस तरह की हिंसा की खबरें सामने आ रही हैं। म्यांमार का समाज विविधतापूर्ण और बहुवादी है। वहां बौद्धों का बहुमत है परंतु मुस्लिम अल्पसंख्यकों की आबादी भी कम नहीं है। रोहिंग्या मुसलमान शायद दुनिया के सबसे दमित अल्पसंख्यक समुदाय हैं। वे इंडो.आर्य हैं और मुख्यतः ब्रिटिश शासनकाल में म्यांमार में बसे थे। बहुसंख्यक बौद्ध, चीनी व तिब्बती मूल के हैं। मुसलमान देश की पश्चिमी सीमा पर स्थित राखिने राज्य में रहते हैं। सन् 1982 में बने नागरिकता कानूनों में उन्हें नागरिकता से वंचित कर दिया गया। इस अन्यायपूर्ण कानून से उनके मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ। उनसे जबरदस्ती काम कराया जाता है। सरकारी परियोजनाओं में उन्हें बिना कोई वेतन लिए काम करना पड़ता है। यूएनएचसीआर के अनुसारए सन् 1991 से उनकी देश के अंदर आवाजाही पर कड़ा प्रतिबंध है। उनके साथ दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार किया जाता है। इन गंभीर परिस्थितियों के चलते, उनमें से कई थाईलैंडए मलेशिया व अन्य देशों में भाग गए हैं।
सन् 2012 के जून.जुलाई में राखिने में बौद्धों और रोंहिग्या मुसलमानों के बीच हिंसा की शुरूआत एक बौद्ध लड़की के साथ बलात्कार की अफवाहों के बाद हुई थी। असल में हुआ यह था कि एक मुसलमान लड़का व बौद्ध लड़की आपस में प्रेम करते थे और वे शादी करने के उद्देश्य से अपने.अपने घरों से भाग गए थे। लड़के का कत्ल कर दिया गया और उसके दो साथी, जिन्होंने उसे भागने में मदद की थी, को मौत की सजा सुनाई गई है।
कुल मिलाकर, ये सारी स्थितियां क्षेत्र में धर्मनिरपेक्षता व प्रजातंत्र के जड़ें न पकड़ पाने का नतीजा हैं। पूरे दक्षिण एशिया में, आर्थिक कारणों से लोग एक देश से दूसरे देश जा रहे हैं। साम्राज्यवादी देशों से स्वतंत्र होने के बादए दक्षिण एशिया के कई देशों में प्रभुत्वशाली समुदायों ने धर्म को नागरिकता अधिकारों से जोड़ने का प्रयास किया। इससे कुछ समुदाय औपचारिक या अनौपचारिक रूप से नागरिक के बतौर अपने अधिकारों से वंचित कर दिए गए। श्रीलंका में बड़ी संख्या में तमिलों, जो वहां के बागानों में काम करने के लिए गए थे, को समान अधिकारों से वंचित किया गया। उनकी प्रतिक्रिया भी अतिवादी रही और उन्होंने एलटीटीई का गठन कर जबरदस्त खून.खराबा किया।
म्यांमार की पांच प्रतिशत आबादी मुसलमान है। इनमें से कुछ यहां कई सदियों से रह रहे हैं। कोई भी आधुनिक प्रजातांत्रिक राज्य उन्हें उनके संपूर्ण नागरिक अधिकार देने से इंकार नहीं कर सकता। म्यांमार पर कई दशकों तक सैनिक तानाशाहों का राज रहा और उस दौरान एक दुर्भाग्यपूर्ण और अतार्किक निर्णय मेंए नागरिकता को धर्म से जोड़ दिया गया। यह समझने के लिए गहन अध्ययन की आवश्यकता है कि इतनी बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षु, इस्लाम के विरूद्ध क्यों हो गए हैं। श्रीलंका में भी बौद्ध भिक्षुओं ने तमिलों का कटु विरोध किया था। ऐसा लगता है कि कुछ सामाजिक.मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के चलते सभी धर्मों को बराबरी का दर्जा देने के प्रजातांत्रिक सिद्धांत की लगातार अवहेलना हो रही है। म्यांमार में कई दशकों तक चली लंबी लड़ाई के बाद प्रजातंत्र की वापिसी हो रही है परंतु इस नव प्रजातंत्र में साम्प्रदायिक विभाजन एक बड़ी समस्या बनकर उभरा है। एक अर्थ में यह विभाजन साम्राज्यवादी शासन की विरासत भी है, जिसने समाज को बांटने की हर संभव कोशिश की।
म्यांमार की इस हिंसा के बाद, पूरे दक्षिण एशिया को जाग उठना चाहिए और अपनी औपनिवेशिक विरासत में से एक.दूसरे से घृणा करने की लंबी परंपरा को उखाड़ फेंकना चाहिए। सभी देशों में साम्राज्यवादी शासकों ने अपने आर्थिक और राजनैतिक हितों की खातिर विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच विभाजन के बीज बोए। स्वतंत्रता के बाद भी इन देशों में ऐसी राजनैतिक ताकतें सक्रिय बनी रहीं जो धार्मिक पहचान का इस्तेमाल अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए करती हैं और जिनका नारा है अपने को छोड़कर हरेक से घृणा करो।यह प्रवृत्ति और ये ताकतें दक्षिण एशियाई देशों की प्रगति को बाधित कर रही हैं। दक्षिण एशिया के देश आपस में मिलकर दक्षिण एशिया महासंघ बनाने की बजाए अपने.अपने नागरिकों की आपसी खूनी लड़ाईयों को सुलझाने में व्यस्त हैं। शांति के बिना इस क्षेत्र का विकास नहीं हो सकता। हमें संकीर्ण धार्मिक पहचान से ऊपर उठना होगा। दक्षिण एशिया के सभी देशों में धार्मिक स्वतंत्रता होनी चाहिए और सभी धर्मों को बराबरी का दर्जा मिलना चाहिए। जब तक इन देशों के सभी धर्मों के नागरिक सम्मान और गरिमा से जीवन नहीं बिताने लगेंगे तब तक इस क्षेत्र में विकास की उम्मीद नहीं की जा सकती। तब तक हम यह आशा नहीं कर सकते कि घोर गरीबी में जी रहे दक्षिण एशिया के करोड़ों नागरिकों को कोई राहत मिलेगी।
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राम पुनियानी

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