अप्रैल के तीसरे सप्ताह में मैं मराठवाड़ा के दौरे पर रहा। वहां जो कुछ देखा, सुना, समझा, वह राष्ट्रीय मीडिया में सूखे पर आ रही खबरों से मिलता-जुलता भी था और दूसरे स्तर पर बिल्कुल अलहदा भी था। इसे हम या तो मुख्यधारा के मीडिया की सीमाएं कह कर टाल सकते हैं या फिर घटनाओं की अधिकता और खबरों की अफरा-तफरी में एक ज्वलंत सामाजिक मसले को दरकिनार कर दिए जाने की सुनियोजित साजि़श के तौर पर भी देख सकते हैं। दोनों ही स्थितियों में मराठवाड़ा का यथार्थ जो है, वह बदलता नहीं है। आगे जो कहानी मैं सुनाने जा रहा हूं, वह समकालीन तीसरी दुनिया के मई अंक में आवरण कथा के तौर पर प्रकाश्य है, लेकिन इस कहानी को जनपथ पर सुनाने के लिए 1 मई से बेहतर तारीख और नहीं हो सकती है। सात किस्तों में मराठवाड़ा की यह आंखों देखी कहानी उन लाखों गन्ना मज़दूरों को समर्पित है जो अपनी जि़ंदगी बचाने की जद्दोजेहद में पश्चिमी महाराष्ट्र की दैत्याकार चीनी मिलों में काम करने को और अपना खून चूसने वाले दानवों को बार-बार वोट देने को मजबूर हैं क्योंकि मौत से बचने का उनके पास और कोई विकल्प नहीं।
अभिषेक श्रीवास्तव
(औरंगाबाद, अहमदनगर, जालना, बीड , परभणी, नांदेड़ से लौटकर)
''शब्दों और उनके
अर्थ का रिश्ता तकरीबन टूट चुका है। जिनके लेखन से यह बात झलकती है, वे आम तौर से एक
सामान्य भाव का संप्रेषण कर रहे होते हैं- कि वे एक चीज़ को नापसंद करते हैं और
किसी दूसरी चीज़ के साथ खड़े होना चाहते हैं- लेकिन वे जो बात कह रहे होते हैं
उसकी सूक्ष्मताओं में उनकी दिलचस्पी नहीं होती।''
-जॉर्ज ऑरवेल, पॉलिटिक्स एंड दि इंग्लिश लैंग्वेज, 1946
अकाल! इस शब्द से जुड़ी छवियां क्या हो सकती
हैं? शायद सबसे पहले केविन कार्टर की
सोमालिया-1993 की मशहूर तस्वीर दिमाग में
कौंध जाए जहां एक कुपोषित बच्चे को खाने के लिए उसकी ओर बढ़ता गिद्ध है। हो सकता
है बंगाल के अकाल की कुछ छवियां हों या फिर कालाहांडी के जीर्ण-शीर्ण पुरुष, स्त्री और बच्चे। ऐसी पूर्वस्थापित छवियों
से आगे बढ़ें तो इस साल की शुरुआत में समाचार माध्यमों में महाराष्ट्र के गांव के
गांव खाली होने संबंधी आई खबरों से भी कुछ धूसर सी छवियां बनी होंगी। हमें बताया
गया कि बांध सूख गए हैं, तो सूखे बांध की एक छवि ज़रूर दिमाग
में होगी।‘अकाल’ दरअसल
काल की निरंतरता का निषेध है, अनवरत सामान्य से असामयिक विचलन है।
इसलिए जब यह शब्द साथ लेकर आप बाहर निकलते हैं तो ऐसी ही अतिरेकपूर्ण और असामान्य
छवियों की तलाश में जुट जाते हैं जिनसे पूर्वाग्रहों की गठरी और भारी होती हो।
जॉर्ज ऑरवेल कहते हैं कि एक बार यह प्रक्रिया शुरू हो जाए तो फिर पलटती नहीं यानी
हमारी चुनी हुई भाषा आने वाली छवियों को अपने हिसाब से गढ़ती है और बदले में
छवियां हमारी भाषा को और भ्रष्ट करते जाती हैं। इस प्रक्रिया के तहत एक ही देश-काल
के भीतर ‘अकाल’ की
खोज करना बाध्यता बन जाती है और हाथ से यथार्थ फिसल जाता है। मराठवाड़ा के बारे
में अब तक जो कुछ भी हमें मुख्यधारा के माध्यमों में बताया गया, दिखाया गया या समझाया गया है, वह इसी मायने में संकटग्रस्त है, अधूरा है, संदर्भहीन
है।
मराठवाड़ा में अकाल नहीं, दुष्काल है। यह शब्द वहीं का है। सारे मराठी
लोग‘दुष्काल’ का
इस्तेमाल करते हैं। मराठवाड़ा के छह जिलों को देखने-समझने के बीच एक बार भी ऐसा
नहीं हुआ कि किसी ने ‘अकाल’ का
नाम गलती से भी लिया हो। ‘अकाल’ और ‘दुष्काल’ दरअसल
इस क्षेत्र को बाहर से और भीतर से देखने का मामला है। भीतर का आदमी खुद को
कालबाह्य नहीं मान सकता। उसके लिए यह एक दौर है जो कुछ बुरी सौगातें लेकर आया है।
जैसे आया है वैसे ही चला जाएगा। इसीलिए वह ‘दुष्काल’ की न तो किसी अतिरेकपूर्ण व्याख्या में
विश्वास करता है, न ही उसके किसी इंकलाबी इलाज में।
वह अपने अतीत से कोई सबक भी नहीं लेता। भविष्य के लिए कोई तैयारी भी नहीं करता।
उसका वर्तमान दरअसल उसके तईं उसके अतीत का ही विस्तार है जहां पुराने अवसर भले
गायब हों, लेकिन कुछ नए अवसर अचानक जिंदा हो
गए हैं। इन अवसरों को उन्होंने पैदा किया है जो इसे‘अकाल’ के रूप में देखते, सुनते और बताते हैं। इसीलिए यहां सारा मामला
फिलहाल अवसरों को पकड़ पाने का बन जाता है। कह सकते हैं कि 2013का मराठवाड़ा एक ऐसा विशाल और जटिल प्रहसन
है जिसका हर चरित्र अपनी-अपनी भूमिका से बाहर है। हर कोई आधा दर्शक है और बाकी
निर्देशक। इस प्रहसन के सर्वाधिक दिलचस्प, दर्दनाक और अनपेक्षित अध्याय से
परदा उठता है जालना जिले में, जो मराठवाड़ा के सबसे बड़े शहर
औरंगाबाद से करीब साठ किलोमीटर की दूरी पर है।
दुष्काल का प्रहसन
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हमारी गाड़ी जहां रुकती है, ठीक वहीं पर करीब दो दर्जन औरतें और
लड़कियां एक मोटे और काले से पाइप पर झुकी हुई हैं। करीब तीसेक बड़े-छोटे बरतन भरे
जाने के इंतज़ार में एक-दूसरे से टकराकर भरी दोपहर में टन्न-टुन्न की बेतरतीब
आवाज़ें पैदा कर रहे हैं। उनके पीछे विट्ठल मंदिर का बड़ा सा चबूतरा है जो तेज़
धूप को जलते हुए बल्ब से चुनौती दे रहा है। यानी बिजली भी आ रही है और पानी भी।
दाहिने हाथ पर एक प्राथमिक पाठशाला है। यहां भी बल्ब जल रहे हैं। यह जालना के
अम्बड़ तालुका का सोनकपिंपल गांव है। कहते हैं कभी यहां सोने का पीपल रहा होगा, आज हालांकि पूरा गांव सिर्फ एक बोरवेल से
पानी भरता है जो स्कूल के प्रांगण में खुदा हुआ है। स्कूल प्रशासन जब चाहे तब मोटर
चालू करता है और बंद कर देता है। उसी के हिसाब से लोग भी पानी भर लेते हैं।
मराठवाड़ा-2013 की मशहूर परिघटना के रूप में
बहुप्रचारित पानी का टैंकर यहां नहीं आता। ज़ाहिर है, किसी मेहमान के लिए ग्राम पंचायत से ज्यादा
महत्व की चीज़ यहां का स्कूल है। बच्चे जा चुके हैं और शिक्षक काम निपटा कर
अतिथियों का इंतज़ार कर रहे हैं। हमें यहां लाने वाले 28वर्षीय युवा बाबासाहेब पाटील जिगे को
स्थानीय लोग नेता मानते हैं। उन्होंने पहले ही प्रधानाचार्य को ताकीद कर दी थी, इसलिए हमें सीधे एक बड़े से सभागार में ले
जाया जाता है और सबसे पहली सूचना यह दी जाती है कि मराठवाड़ा का यह पहला स्कूल है
जहां एलसीडी प्रोजेक्टर से पढ़ाई शुरू हुई। सारी उंगलियां कमरे की छत की ओर मुड़
जाती हैं जहां एप्सन का एक प्रोजेक्टर लगा हुआ है। सामने की दीवार पर बड़ा सा सफेद
परदा है। पहले से तय कार्यक्रम के आधार पर एक शैक्षणिक वीडियो हमें दिखाया जाता है
जिसमें हृदय के काम करने के तरीके को एनिमेशन से समझाया गया है। वॉयस ओवर अमेरिकी
अंग्रेज़ी में किसी विदेशी का है। कमरे के बाहर गांव के बच्चे उसे देखने के लिए
इकट्ठा हो गए हैं और शिक्षक उन्हें हांकने और चुप कराने में जुटे हैं।
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‘‘क्या बच्चे यह भाषा समझ जाते हैं’’, हमने प्रधानाचार्य से पूछा। जवाब एक शिक्षक
ने दिया, ‘‘हां, परदे
पर देख कर लेसन जल्दी समझ में आ जाता है।’’ स्कूल का एक चक्कर लगाने के बाद हम
चलने को होते हैं, तो स्कूल की ओर से एक शिक्षक
श्यामजी उगले हमसे आग्रह करते हैं,
‘‘आप इस प्रोजेक्टर के
बारे में ज़रूर लिखिएगा। मैंने उत्सुकता से पूछा, ‘‘क्यों? पानी के बारे में क्यों नहीं?’’ उनकी ओर से हमारे साथ आए जिगे जवाब देते हैं, ‘‘यह इस गांव की उपलब्धि है। विकास हो रहा है
यहां। पानी का प्रॉब्लम तो हर जगह है न।’’ हम गाड़ी में चढ़ने को होते हैं कि
इसी गांव के रहने वाले एक स्थानीय अखबार के पत्रकार धीरे से कान में फुसफुसाते हैं
कि इस गांव में एक औरत ने पिछले महीने कर्ज के चलते खुदकुशी कर ली थी, उसके घर जरूर जाइएगा। हमने जिगे से इस बारे
में जानने की कोशिश की, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया।
बोले, ‘‘ये सब छोटे पत्रकार हैं। अपने फायदे
के लिए कुछ भी बोलते रहते हैं। इनकी बात पर ध्यान मत दीजिए।’’
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वापसी में अम्बड़ तालुका के जिस बाजार में
जिगे को हमसे विदा लेना था, वहां तक बात दिमाग में अटकी रही।
उन्हें विदा करने के बाद हमने गाड़ी मुड़वाई और वापस चालीस किलोमीटर दोबारा
सोनकपिंपल पहुंच गए। करीब दस साल के एक बच्चे से पूछने पर घटना सही निकली। पत्रकार
का नंबर हमने एक दुकान से लिया, उसे बुलवाया और सीधे चल दिए उस घर
की ओर जो विकास के प्रोजेक्टर से पूरी तरह गायब था। करीब सोलह साल का एक
लड़का मुस्कराते हुए हमारी ओर आया। यह दीपक था। इस घर पर मौत की छाया साफ देखी जा
सकती थी। ओसारे में एक महिला गेहूं फटक रही थी। बाजू में उसका छोटा बच्चा शांत
बैठा था। यह दीपक की भाभी थी। दीपक और उसके बड़े भाई प्रभु की मां पर्वताबाई
अर्जुनराव डुबल ने मार्च की 15 तारीख को ज़हर खाकर जान दे दी
थी। सरकारी फेहरिस्त में जिन किसानों ने दुष्काल के कारण खुदकुशी की है, उनमें अब तक ज्ञात सारे नाम पुरुषों के हैं।
पर्वताबाई की कहानी स्थानीय टीवी-9 चैनल पर आ चुकी थी, यह बात हमें दीपक ने गर्व से बताई।
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इस परिवार पर करीब डेढ़ लाख रुपए का कर्ज़
है। खेती 12 एकड़ है,लेकिन सूखे के कारण तबाह हो चुकी है। आम तौर
पर यहां छोटे किसान साहूकारों से कर्ज़ लेते हैं,लेकिन
इस परिवार पर स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद का कर्ज़ था। सरकारी बैंकों के कर्ज़दारों का
खुदकुशी कर लेना उतना आम नहीं है, खासकर जब वह महिला हो। पूछने पर
दीपक कहते हैं, ‘‘मम्मी बहुत परेशान रहती थी, सारा काम वही करती थी, इसलिए उसने जान दे दी।’’ ‘‘आपके पिता क्या करते हैं’’, मैंने पूछा। ‘‘कुछ नहीं’’, और
उसकी नज़र मेरे पीछे अचानक आ खड़े हुए खिचड़ी दाढ़ी वाले एक शख्स की ओर चली गई। यह
अर्जुनराव डुबल थे, पर्वता के पति। हमने दो-तीन सवाल
उनसे पूछे,उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। सिर्फ
मुस्कराते रहे। उन्हें देखकर दीपक और प्रभु भी मुस्कराते रहे। अर्जुनराव सूरज ढलने
से पहले ही नशे में थे। यह बात 16 अप्रैल की है, पर्वता की खुदकुशी के ठीक एक माह बाद।
हमारे पास पूछने को कुछ और नहीं था। स्थानीय
पत्रकार सज्जन तब तक आ चुके थे। उनके चेहरे पर खुशी थी कि उनकी दी सूचना पर हम लौट
कर आए। हमने इस बात पर अचरज ज़ाहिर किया कि इस गांव में हमें लाने वाले बाबासाहेब
जिगे ने हमसे यह बात क्यों छुपाई। उन्होंने कहा, ‘‘बाबासाहेब
को मैं अच्छे से जानता हूं। उसके लोग यहां के स्कूल में हैं,इसलिए आपको यहां लाया था। इसके पहले भी
नागपुर की एक पत्रकार को ला चुका है। उसकी नज़र खराब है।’’ इस बात को समझने में हमें उतना वक्त नहीं
लगा, हालांकि समझ लेने का पूरा दावा भी
मुमकिन नहीं। दरअसल,गाड़ी में सुबह बातचीत के दौरान
जिगे से हमने अचानक ही पूछ लिया था कि क्या उनकी शादी हो गई। उन्होंने कहा था, ‘‘दोबारा बनाना है न।’’
समकालीन तीसरी दुनिया से साभार
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