भारतीय संविधान को मानने वाले लोग बेहिचक कहेंगे कि निश्चय ही संसद के प्रति।एकदम सही जवाब है। अमिताभ बच्चन सीटपर होते और आप उनके मुखातिब रहे होते तो इस सवाल के जवाब में दस लाखपति भी बन सकते थे। हमें संसदीय गणतंत्र के बारे में पढ़ाते हुए तोतारटंत कराया जाता है कि भारत की सरकार संसद के प्रति जिम्मेदार होती है क्योंकि भारतीय संसद भारत की जनता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च संस्था है। हम जानते हैं कि भारतीय संसद की सहमति से ही इस देश का राजकाज चलाया जाना है। नीति निर्धारण की कोई कार्यवाही संसद की अवहेलना नहीं कर सकती। भारत सरकार के निर्णयों की वैधता , उस जनादेश में निहित है, जो उसे बहुमत के कारण मिलता है।देश के लिए कानून भी संसद ही बनाती है। क्या भारत में अब ऐसी किसी संसद का अस्तित्व है, जिसका किसीतरह का अंकुश कारपोरेट हितों के लिए कारपोरेट द्वारा संचालित इस निरंकुश सरकार पर है?
संसद ;पार्लियामेंट, भारत का सर्वोच्च विधायी निकाय है। भारतीय संसद में राष्ट्रपति तथा दो सदन . लोकसभा ;लोगों का सदन, एवं राज्यसभा ;राज्यों की परिषद, होते हैं। राष्ट्रपति के पास संसद के दोनों में से किसी भी सदन को बुलाने या स्थगित करने अथवा लोकसभा को भंग करने की शक्ति है। भारतीय संसद का संचालन "संसद भवन" में होता है। जो कि नई दिल्ली में स्थित है।लोक सभा में राष्ट्र की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिनकी अधिकतम संख्या ५५२ है। राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसमें सदस्य संख्या २५० है,राज्या सभा के सदस्यों का निर्वाचन, मनोनयन ६ वर्ष के लिए होता है। जिसके १.३ सदस्य प्रत्येक २ वर्ष में सेवानिवृत्त होते है।
यह पुस्तकीय तथ्य है और स्थितियां इसके विपरीत है। जो सरकार राजकाज चलाती है,वह नवउदारवादी बाजार नियंत्रित संसद में अल्पमत होकर भी अवैध जनादेश के तहत संसद की अवहेलना करके राजकाज चला रही है। आंखों में उंगली डालकर यह बताने की जरुरत नहीं है।
भारत सरकार अगर संसद के प्रति जिम्मेदार होती तो अचानक संसद कासत्रावसान समयपूर्व सिर्फ इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि सरकार संसद चलाने की हालत में नहीं है और संसद के सवालों का उसके पास कोई जवाब नहीं है।
सीबीआई पर सुप्रीम कोर्ट में जो खुलासा हुआए उसके बाद कटघरे में खड़े प्रधानमंत्री को भारतीय संसद में खड़े होकर देशवासियों की आस्था हासिल करके ही अपने पद पर रहना था। आज रेल गेट के कारण रेलमंत्री पवन बंसल और कोलगेट के लिए सीबीआई के दुरुपयोग के लिए कानून मंत्री की बलि चढ़ाने की ज कारवाई चालू है वह की गरदन बचाने की बेशर्म कवायद है। क्योंकि कोलगेट में तो मुख्य अभियुक्त भारत के प्रधानमंत्री स्वयं है।
संसद अगर भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व कर रही होती तो जनहित के प्रयोजन से उसकी कार्यवाही नियंत्रित होती न कि राजनीतिक हितों की आड़ में कारपरेट हितों दवारा। बेशर्म तरीके से भारतीय संसद को सर्वदलीय सहमति और मिलीभगत से अप्रासंगिक बना दिया गया है और यह सरकार जनविरोधी नीतियों पर चलते हुए सार्वभौम गणराज्य और इसके संविधान की दिन प्रतिदिन हत्या कर रही है।
सीबीआई का मामला तो प्रक्षेपित है और कोई अचरज नहीं कि इस मामले को प्रधानमंत्री को बचाने के लिए इतना तुल दिया जा रहा है। क्योंकि ऐसा पहलीबार नहीं हो रहा है कि सीबीआई केंद्र सरकार के कहे मुताबिक काम कर रही है।कोई भी केंद्रीय एजंसी स्वायत्त नहीं है।
यह तो सेकेंडरी मामला है। असली मामला तो कोलगेट घोटाला का है।पर प्रधानमंत्री संसद का सामना करने को तैयार नहीं है और न ही भारत के तमाम राजनीतिक दलों के निर्वाचित जनप्रतिनिधि संसदीय कार्यवाही जारी रखकर प्रधानमंत्री से जवाबतलब करने के लिए तैयार थे।
दरअसल संसद में हंगामा और वाकआउट के जरिये राजनीति जनप्रतिबद्धता का प्रदर्शन तो करता है, लेकिन संसदीय कार्यवाही ठप करके कारपोरेट नीति निर्धारण और बिना बहस के विधेयक पारित कराने के अलोकतांत्रिक राष्ट्रविरोधी कार्य संपादन में उनकी अप्रतिम दक्षता प्रश्नातीत है।
संसद में विधेयकों को पारित कराने का खेल किसी आईपीएल से कम नहीं है।गुपचुप कानून बनकर लागूहो जाता है। कानोंकान खबर नहीं होती। या फिर खूब हंगामा और वाकआउट के बीच सत्तापक्ष एतरफा तौर पर कानून पास कर देता है विपक्ष की अनुपस्थिति में। विपक्ष का यह खेल सिर अपनी जिम्मेवारी टालने का है।इसमें कोई जनसरोकार है ही नहीं।
इसीतरह अल्पमत सरकार से सहयोग के बहाने जो असंसदीय सौदेबाजी होती है, उसीके गर्भ में तमाम घोटाले होते हैं। जनादेश में मिलावट की कीमत वसूलते हुए पूरी राजनीतिक जमात भ्रष्ट हो गयी है।मसलन, अभी बंगाल में शारदा कांड के खुलासे से पक्ष विपक्ष के तमाम पवित्र चेहरों की गंदगी सड़कों पर उछलने लगी है।
यह विडंबना ही है कि संसदीय व्यवस्था का नियंत्रक जो राष्ट्रपतिपद है, उसकी गरिमा भी भूलुंठित है। तमाम घोटालों के तार सर्वोच्च पदों तक पहुंचते है। यही अनंत प्रक्रिया ही हमारी संसदीय प्रणाली बन गयी है। जिसमें सबका अपना अपना रक्षा कवच है, सबके अपने अपने कवच कुंडल है और वे सारे देवता और देवियां अपराजेय हैं, उनका पाप उन्हें स्पर्श ही नहीं करता।
निहत्था तो आम जनगण हैं, जो मर मर कर जीने को अभिशप्त है। आज सार्वभौम गणतंत्र से इसके सिवाय कोई दूसरा तात्पर्य हो तो बतायें।
उनके पापों से सर्वानाश हो जाता राष्ट्र का, जनगण का। संविधान की बारंबार हत्या हो जाती । पर कातिलों का कहीं कोई सूराग नहीं होता। राजपथ पर खून की नदियां बहतीं। ग्लेशियर से लेकर समुंदर तक लहूलुहान, पर इस खून का कोई नामोनिशान नहीं है।
तमाम गैर जरुरी मुद्दों पर वक्त बमतलब जाया हो जाता है, बेहद जरुरी मुद्दों पर चर्चा ही नहीं होती। सूचना का अधिकार है, पर जनता को सूचनाएं होती ही नहीं।पारदर्शिता अपारदर्शी है। जनसमस्याएं फिर फिर इन सूर्यकिरणों से प्रत्यावर्तित होकर जनता के बीच ही सीमाबद्ध रहती है, जिनका कभी समाधान ही नहीं होता।फिर जनता जब विरोध प्रतिरोध पर उतर आती है,इसी संसदीय प्रमाली से निर्मित सैन्य राष्ट्रशक्ति जनता का निर्मम दमन करती है।
राजकाजका मतलब है जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों से निलंबन। जनता के विरुद्द इस अविराम युद्ध के विरुद्ध हमारी संसद में एक आवाज बुलंद नहीं होती।अंडरवर्ल्ड, माफिया, प्रोमोटर से लेकर हर असमाजिक असंवैधानिक तत्वों के नस्ली वर्चस्व में निहित है इसके प्राण, जिसमें भारतीय बहुसंख्य जनता के प्राणों का कोई स्पंदन प्रतिध्वनित नहीं होती।
-पलाश विश्वास
संसद ;पार्लियामेंट, भारत का सर्वोच्च विधायी निकाय है। भारतीय संसद में राष्ट्रपति तथा दो सदन . लोकसभा ;लोगों का सदन, एवं राज्यसभा ;राज्यों की परिषद, होते हैं। राष्ट्रपति के पास संसद के दोनों में से किसी भी सदन को बुलाने या स्थगित करने अथवा लोकसभा को भंग करने की शक्ति है। भारतीय संसद का संचालन "संसद भवन" में होता है। जो कि नई दिल्ली में स्थित है।लोक सभा में राष्ट्र की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिनकी अधिकतम संख्या ५५२ है। राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसमें सदस्य संख्या २५० है,राज्या सभा के सदस्यों का निर्वाचन, मनोनयन ६ वर्ष के लिए होता है। जिसके १.३ सदस्य प्रत्येक २ वर्ष में सेवानिवृत्त होते है।
यह पुस्तकीय तथ्य है और स्थितियां इसके विपरीत है। जो सरकार राजकाज चलाती है,वह नवउदारवादी बाजार नियंत्रित संसद में अल्पमत होकर भी अवैध जनादेश के तहत संसद की अवहेलना करके राजकाज चला रही है। आंखों में उंगली डालकर यह बताने की जरुरत नहीं है।
भारत सरकार अगर संसद के प्रति जिम्मेदार होती तो अचानक संसद कासत्रावसान समयपूर्व सिर्फ इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि सरकार संसद चलाने की हालत में नहीं है और संसद के सवालों का उसके पास कोई जवाब नहीं है।
सीबीआई पर सुप्रीम कोर्ट में जो खुलासा हुआए उसके बाद कटघरे में खड़े प्रधानमंत्री को भारतीय संसद में खड़े होकर देशवासियों की आस्था हासिल करके ही अपने पद पर रहना था। आज रेल गेट के कारण रेलमंत्री पवन बंसल और कोलगेट के लिए सीबीआई के दुरुपयोग के लिए कानून मंत्री की बलि चढ़ाने की ज कारवाई चालू है वह की गरदन बचाने की बेशर्म कवायद है। क्योंकि कोलगेट में तो मुख्य अभियुक्त भारत के प्रधानमंत्री स्वयं है।
संसद अगर भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व कर रही होती तो जनहित के प्रयोजन से उसकी कार्यवाही नियंत्रित होती न कि राजनीतिक हितों की आड़ में कारपरेट हितों दवारा। बेशर्म तरीके से भारतीय संसद को सर्वदलीय सहमति और मिलीभगत से अप्रासंगिक बना दिया गया है और यह सरकार जनविरोधी नीतियों पर चलते हुए सार्वभौम गणराज्य और इसके संविधान की दिन प्रतिदिन हत्या कर रही है।
सीबीआई का मामला तो प्रक्षेपित है और कोई अचरज नहीं कि इस मामले को प्रधानमंत्री को बचाने के लिए इतना तुल दिया जा रहा है। क्योंकि ऐसा पहलीबार नहीं हो रहा है कि सीबीआई केंद्र सरकार के कहे मुताबिक काम कर रही है।कोई भी केंद्रीय एजंसी स्वायत्त नहीं है।
यह तो सेकेंडरी मामला है। असली मामला तो कोलगेट घोटाला का है।पर प्रधानमंत्री संसद का सामना करने को तैयार नहीं है और न ही भारत के तमाम राजनीतिक दलों के निर्वाचित जनप्रतिनिधि संसदीय कार्यवाही जारी रखकर प्रधानमंत्री से जवाबतलब करने के लिए तैयार थे।
दरअसल संसद में हंगामा और वाकआउट के जरिये राजनीति जनप्रतिबद्धता का प्रदर्शन तो करता है, लेकिन संसदीय कार्यवाही ठप करके कारपोरेट नीति निर्धारण और बिना बहस के विधेयक पारित कराने के अलोकतांत्रिक राष्ट्रविरोधी कार्य संपादन में उनकी अप्रतिम दक्षता प्रश्नातीत है।
संसद में विधेयकों को पारित कराने का खेल किसी आईपीएल से कम नहीं है।गुपचुप कानून बनकर लागूहो जाता है। कानोंकान खबर नहीं होती। या फिर खूब हंगामा और वाकआउट के बीच सत्तापक्ष एतरफा तौर पर कानून पास कर देता है विपक्ष की अनुपस्थिति में। विपक्ष का यह खेल सिर अपनी जिम्मेवारी टालने का है।इसमें कोई जनसरोकार है ही नहीं।
इसीतरह अल्पमत सरकार से सहयोग के बहाने जो असंसदीय सौदेबाजी होती है, उसीके गर्भ में तमाम घोटाले होते हैं। जनादेश में मिलावट की कीमत वसूलते हुए पूरी राजनीतिक जमात भ्रष्ट हो गयी है।मसलन, अभी बंगाल में शारदा कांड के खुलासे से पक्ष विपक्ष के तमाम पवित्र चेहरों की गंदगी सड़कों पर उछलने लगी है।
यह विडंबना ही है कि संसदीय व्यवस्था का नियंत्रक जो राष्ट्रपतिपद है, उसकी गरिमा भी भूलुंठित है। तमाम घोटालों के तार सर्वोच्च पदों तक पहुंचते है। यही अनंत प्रक्रिया ही हमारी संसदीय प्रणाली बन गयी है। जिसमें सबका अपना अपना रक्षा कवच है, सबके अपने अपने कवच कुंडल है और वे सारे देवता और देवियां अपराजेय हैं, उनका पाप उन्हें स्पर्श ही नहीं करता।
निहत्था तो आम जनगण हैं, जो मर मर कर जीने को अभिशप्त है। आज सार्वभौम गणतंत्र से इसके सिवाय कोई दूसरा तात्पर्य हो तो बतायें।
उनके पापों से सर्वानाश हो जाता राष्ट्र का, जनगण का। संविधान की बारंबार हत्या हो जाती । पर कातिलों का कहीं कोई सूराग नहीं होता। राजपथ पर खून की नदियां बहतीं। ग्लेशियर से लेकर समुंदर तक लहूलुहान, पर इस खून का कोई नामोनिशान नहीं है।
तमाम गैर जरुरी मुद्दों पर वक्त बमतलब जाया हो जाता है, बेहद जरुरी मुद्दों पर चर्चा ही नहीं होती। सूचना का अधिकार है, पर जनता को सूचनाएं होती ही नहीं।पारदर्शिता अपारदर्शी है। जनसमस्याएं फिर फिर इन सूर्यकिरणों से प्रत्यावर्तित होकर जनता के बीच ही सीमाबद्ध रहती है, जिनका कभी समाधान ही नहीं होता।फिर जनता जब विरोध प्रतिरोध पर उतर आती है,इसी संसदीय प्रमाली से निर्मित सैन्य राष्ट्रशक्ति जनता का निर्मम दमन करती है।
राजकाजका मतलब है जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका मौलिक अधिकारों और मानवाधिकारों से निलंबन। जनता के विरुद्द इस अविराम युद्ध के विरुद्ध हमारी संसद में एक आवाज बुलंद नहीं होती।अंडरवर्ल्ड, माफिया, प्रोमोटर से लेकर हर असमाजिक असंवैधानिक तत्वों के नस्ली वर्चस्व में निहित है इसके प्राण, जिसमें भारतीय बहुसंख्य जनता के प्राणों का कोई स्पंदन प्रतिध्वनित नहीं होती।
-पलाश विश्वास
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