उक्त साक्ष्य के साथ सीबीआई ने उसे विवेचनाकर्ता टीम के सामने इस साजिश में शामिल होने या न होने के बारे में अपना ब्यान देने के लिए बुलाया था. वे इस से बहुत दिनों तक बचता रह और तब ही पेश हुआ जब उसे गिरफतार करने की धमकी दी गयी. आईबी के अधिकारीयों ने यह बहाना बनाया कि उस की भूमिका गुजरात पुलिस को सूचना देने कि ही थी न कि उसे मारन देने की. निदेशक आईबी ने यह भी वास्ता दिया कि यदि राजिंदर कुमार को इस मामले में गिरफतार किया गया तो इस से आईबी के अधिकारीयों का मनोबल टूट जायेगा और वे अपने आतंकवादियों के बारे में सूचना एकत्र करने और उसे राज्य पुलिस को देने के कर्तव्य को करने से डरने लगेंगे. उसने गृह मंत्रालय के माध्यम से भी सीबीआई पर दबाव डलवाने की कोशिश की. आईबी ने इशरत जहाँ के आतंवादी होने की बात को सिद्ध करने के लिए उसकी लश्करे-तैयबा के संचालकों से बातचीत की एक सीडी भी एक चैनल पर चलवाई जिस के सही होने का कोई प्रमाण नहीं है. यह भी उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय सरकार द्वारा गुजरात हाई कोर्ट में दाखिल किये गए हलफनामे में इशरत जहाँ के बारे में ऐसी कोई बात नहीं कही गयी है. इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि आईबी द्वारा राजिंदर कुमार को बचाने के लिए ये किये गए सभी दावे झूठे और बेबुनियाद हैं. उस के इस साजिश में शामिल होने की पुष्टि गुजरात पुलिस के उन अधिकारियों द्वारा भी की गयी है जो इस साजिश में स्वयं शामिल थे. इस से राजिंदर कुमार के इस साजिश में शामिल होने की पूरी तरह से पुष्टि होती है.
अब प्रशन यह पैदा होता है कि आईबी द्वारा एक गुप्तचर संस्था होने और अपराध करने पर पकडे जाने से मनोबल के गिरने का बहाना लेकर कानून से बचने का दावा करने का मतलब क्या है? हमारे देश में कानून के सामने समानता और कानून की प्रक्रिया अपनाने का सिद्धांत लागू है. क्या इस प्रकरण में राजिंदर कुमार केवल खुफिया संस्था के अधिकारी होने के नाते कानून से ऊपर होने का दावा कर सकता है? मेरे विचार में इस का उत्तर किसी भी हालत में हाँ में नहीं हो सकता. वह एक हत्या के अपराध की साजिश में लिप्त है और उससे कानूनी तौर पर पूछताछ की जानी चाहिए. जहाँ तक इस से आईबी के अधिकारियों का मनोबल गिरने का प्रशन है यह बहाना सभी पुलिस एजंसियों द्वारा गलती पर पकडे जाने पर बनाया जाता है और इस द्वारा अपने आकायों से संरक्षण प्राप्त किया जाता है. इस के विपरीत मेरे विचार में इस से सही काम करने वाले अधिकारियों का मनोबल बढ़ेगा क्योंकि प्राय: गलत काम करने वाले अधिकारी इस प्रकार के फर्जी काम करके वाहवाही लूटते रहते हैं और सही काम करने वाले अधिकारी नज़रंदाज़ कर दिए जाते हैं. इस से सही काम करने वाले अधिकारीयों का मनोबल गिरता है और गलत काम करने वाले अधिकारी मज़े लूटते हैं. पुलिस द्वारा फर्जी और गैर कानूनी काम करने से पुलिस से जनता का विश्वास भी उठता है जैसा कि वर्तमान में है. इस विश्वास को पुनर्स्थापित करने के लिए पुलिस का कानूनी, निष्पक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से काम करना ज़रूरी है.
जहाँ तक इशरत जहाँ और उस के साथियों के लश्करे-तैयबा से सम्बन्ध का प्रशन है, इस का अभी तक कोई पुख्ता सबूत नहीं है. आईबी पेशबंदी में इस बारे में तरह तरह की कहानियां घड रही है. अब यदि इस आरोप को सही भी मान लिया जाये तो क्या इस से पुलिस को उन्हें मारने का अधिकार मिल जाता है. वास्तव में यह आईबी के कुछ अधिकारियों की साम्प्रदायिक मानसिकता का परिणाम है जो उन द्वारा पुलिस से मिलकर मुस्लिम नौजवानों को शिकार बनाये जाने के लिए ज़िम्मेदार है. इन अधिकारियों ने कई बेकसूर मुस्लिम नौजवानों के बारे में आतंकवादी होने की झूठी सूचनायें पुलिस को देकर उन्हें फर्जी मुठभेड़ों में मरवाया है या झूठे केसों में फंसवाया है. आईबी के कुछ अधिकारीयों की मुस्लिम विरोधी मानसिकता इस से भी झलकती है कि अब तक वह मुसलमान आतंकवादी संगठनों के बारे में तो झूठी सच्ची सूचनाये देती रही है परन्तु उस ने आज तक किसी भी हिन्दुत्व आतंकवादी संगठन के बारे में कोई सूचना नहीं दी है. नेहरु ने ऐसे साम्प्रदायिक तत्वों के पुलिस संगठनों में होने की बात गाँधी जी की हत्या के तुरंत बाद 1948 में कही थी और कुछ साल पहले इस का उल्लेख तत्कालीन केन्द्रीय गृह मंत्री श्री चिन्द्रम ने भी किया था. परन्तु अब तक इस प्रकार के तत्वों को पहचानने और उनके विरुद्ध कार्रवाई करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया गया है.
आईबी द्वारा इस प्रकार की भूमिका उत्तर प्रदेश में भी निभाई गयी है. वर्ष 2007 के आतंकवाद के तीन मामले , वाराणसी, लखनऊ और फैजाबाद में कचेहरी बम्ब विस्फोट की प्रथम सूचना रिपोर्ट में आईबी द्वारा कुछ व्यक्तियों के इंडियन मुजाहिदीन के सदस्य होने की सूचना देने की बात दर्ज है. फैजाबाद और लखनऊ के मामलों में तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी को निमेश कमीशन ने गलत ठहराया है. इस में से खालिद की न्यायायिक हिरासत में मौत भी हो चुकी है जिस के सम्बन्ध में आईबी सहित 42 पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध अभियोग भी दर्ज हुआ है. हाल में आशीष खेतान, एक ख्याति प्राप्त पत्रकार द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गयी है जिस में यह आरोप लगाया गया है कि वर्ष 2005 से 2007 के दौरान के 7 आतंकवाद के मामलों में पुलिस ने गलत लोगों को हुजी के सदस्य कह कर फंसाया है जबकि यूपी पुलिस के पास बाद में पकडे गए तथाकथित इंडियन मुजाहिदीन के सदस्यों ने अपनी पूछताछ रिपोर्टों के अनुसार इन घटनायों को करने की बात स्वीकार की थी परन्तु पुलिस द्वारा बाद में प्रकाश में इन तथ्यों को अदालत के सामने नहीं रखा गया. इस प्रकार इन मामलों में अब तक फंसाए गए सभी अहियुक्त बेकसूर हैं. इन में से एक अभियुक्त वलीउल्लाह को दस वर्ष कि सजा भी हो चुकी है. आशीष खेतान ने पुलिस द्वारा गोपनीय करार दी गयी पूछताछ रिपोर्टों की प्रतिलिपियां हाई कोर्ट को उपलब्ध करायी गयी हैं. इन में से तीन मामलों में आईबी द्वारा ही सूचना दी गयी थी. अब अगर हाई कोर्ट द्वारा यह जनहित याचिका स्वीकार कर ली जाति है और इन मामलों की पुनर विवेचना किये गए अनुरोध के अनुसार मान ली जाती है तो इस से आईबी और पुलिस का सारा फरेब और झूठ सामने आ जायेगा.
जैसा कि हम जानते हैं कि आईबी इस देश में इस प्रकार का संदिग्ध कार्य करती रही है. सबसे पहले तो यह एक ऐसा संगठन है जिस का कोई वैधानिक आधार ही नहीं है और यह संस्था किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं है. इस के कर्तव्य और जिम्मेवारियों का कहीं भी निर्धारण नहीं किया गया है. इस के बजट पर कोई चर्चा नहीं होती है. आईबी के एक रिटायर्ड अधिकारी ने आईबी के वैधानिक आधार को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर रखी है जो अभी विचाराधीन है. अब तक आईबी बड़े मज़े से काम करती रही है. परन्तु जब यह गैर क़ानूनी काम करने के मामले में फंस गयी है तो इस के अधिकारी अब अपने काम और उत्तरदायित्व के निर्धारण की बात करने लगे है.
उपलब्ध जानकारी के अनुसार आईबी का मुख्य काम देश की आन्तरिक सुरक्षा के बारे में गोपनीय सूचनाएं एकत्र करके सरकार को उपलब्ध कराना है परन्तु इस का शासक पार्टी द्वारा अपने राजनीतिक हितों को बढावा अथवा संरक्षण देने तथा अपने विरोधियों की जासूसी करने के लिए खुला दुरूपयोग किया जाता रहा है. इस का इस्तेमाल चुनाव के समय शासक पार्टी द्वारा अपने प्रत्याशियों की जीत/हार का आंकलन करने के लिए किया जाता रहा है. आईबी को ऐसे कार्यों को करने के लिए भारी मात्रा में फंड भी मिलता है. इस प्रकार आईबी अपने सत्ताधारी मालिक के लिए निष्ठापूर्वक काम करती है और इस में जनता के धन का पार्टी हित में दुरूपयोग होता है.
इशरत जहाँ के मामले में आईबी द्वारा एक गोपनीय संगठन होने तथा उस के सदस्यों के अपराधिक कार्यों के लिए पकडे जाने और दण्डित किये जाने से अपने अधिकारियों का मनोबल गिरने की दुहाई दी गयी है. इस सम्बन्ध में हमारे देश में “कानून का राज” का सिद्धांत लागू है. किसी भी अधिकारी को अपने निर्धारित कर्तव्य से इतर गैर कानूनी कार्य करने की छूट नहीं है. अतः आईबी को कानून से ऊपर नहीं रखा जा सकता. आईबी का एक “पवित्र गाय” होने के दावे को नहीं माना जा सकता. हमारी अपराधिक-न्याययिक प्रणाली किसी के भी साथ कोई भेद भाव करने की अनुमति नहीं देती है. दोषी व्यक्तियों को अपने अपराधिक कृत्यों का परिणाम भुगतान ही होगा. अतः इस के साथ यह भी आवश्यक है कि आईबी को एक वैधानिक आधार दिया जाये और इसे अन्य देशों की ख़ुफ़िया एजंसियों की तरह पार्लियामेंट के प्रति जवाबदेह बनाया जाये. इस के कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों का सपष्ट निर्धारण भी किया जाना चाहिए ताकि इस के सत्ताधारी पार्टी द्वारा दुरुपयोग कि सम्भावना को रोका जा सके.
-एस. आर.दारापुरी
आई. पी. एस. (से. नि.)
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