ब्रिटिश साम्राज्य के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए गवर्नर
जनरल ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 बनाया
था| यह स्वस्प्ष्ट है कि राज सिंहासन पर बैठे लोग ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि थे
और उनका उद्देश्य कानून बनाकर जनता को न्याय सुनिश्चित करना नहीं बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य
का विस्तार करना और उसकी पकड को मजबूत बनाए रखना था| आज भी हमारे देश में यही
न्यायप्रणाली-परिपाटी
प्रचलित है| आज भी देश के न्यायिक अधिकारी, अर्द्ध-पुलिस
अधिकारी की तरह व्यवहार करते हैं और गिरफ्तारी का औचित्य ठहराने के लिए वे
कहते हैं
कि जहां अभियुक्त का न्यायिक प्रक्रिया से भागने का भय हो उसे गिरफ्तार
करना उचित है
किन्तु जो पुलिस उसे पहले गिरफ्तार कर सकती वह उसे बाद में भी तो ढूंढकर
गिरफ्तार कर
सकती है| इसी प्रकार न्यायाधीशों का यह भी कहना होता है कि जहां अभियुक्त
द्वारा गवाहों
या साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना हो तो उसकी गिरफ्तारी उचित है| दूसरी ओर
राज्यों
के पुलिस नियम यह कहते हैं कि अपराध का पता लगने पर पुलिस को तुरंत घटना
स्थल पर जाना
चाहिए और सम्बंधित दस्तावेजों को बरामद कर लेना चाहिए| ऐसी स्थिति में यदि
पुलिस अपने
कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करे उसका दंड अभियुक्त को नहीं मिलना चाहिए| ठीक
उसी प्रकार
जहां साक्ष्यों से छेड़छाड़ की संभावना हो वहां कलमबंद बयान करवाए जा सकते
हैं| किन्तु देश का तंत्र हार्दिक रूप से यह कभी नहीं चाहता कि दोषी को
दंड मिले, अपराधों पर नियंत्रण
हो अपितु वे तो स्वयं शोषण करना चाहते हैं| दूसरा, जहां तक साक्षियों या
प्रलेखों के साथ छेड़छाड़
का प्रश्न है, अभियुक्त में हितबद्ध परिवारजन, मित्र आदि भी यह कार्य कर
सकते हैं और
यहाँ तक देखा गया है कि शक्तिशाली अभियुक्त होने परिवादी पर स्वयम पुलिस
दबाव डालती
है| तो फिर क्या प्रलेखों और साक्षियों के साथ छेड़छाड़ की संभावना के
मद्देनजर इन लोगों
को भी गिरफ्तार कर लिया जाए?
तत्कालीन गवर्नर जनरल का स्थान आज के राष्ट्रपति के समकक्ष था
और ये कानून जनता के चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा बनाए गए नहीं बल्कि जनता पर थोपे
गए एक तरफ़ा अनुबंध की प्रकृति के हैं| जिस प्रकार राष्ट्रपति द्वारा जारी कोई भी अध्यादेश
संसद की पुष्टि के बिना मात्र 6 माह तक ही वैध है उसी सिद्धांत पर ये कानून मात्र
6 माह की सीमित अवधि के लिए लागू रहने चाहिए थे और देश की संसद को चाहिए था कि इन सबकी
बारीबारी से समीक्षा करे कि क्या ये कानून जनतांत्रिक मूल्यों को प्रोत्साहित करते
हैं| खेद का विषय है कि आज स्वतंत्र भारत में
भी उन्हीं कानूनों को ढोया जा रहा है और उनकी समसामयिक प्रासंगिकता पर देश के संकीर्ण
सोचवाले जन प्रतिनिधि और न्यायविद कभी भी प्रश्न तक नहीं उठा रहे हैं| अभी हाल ही यशवंत
सिन्हा ने राजस्थान पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में कहा है कि दंड संहिता के आधार
पर तो अंग्रेज देश में सौ साल तक शासन कर गए किन्तु विद्वान् श्री सिन्हा यह भूल रहे
हैं कि शासन करने और सफल प्रजातंत्र के कार्य में जमीन-आसमान का अंतर होता है| शासन चलाने में जनता का हित-अहित
नहीं देखा जाता बल्कि कुर्सी पर अपनी पकड़ मात्र मजबूत करनी होती है| इससे हमारे जन
प्रतिनिधियों की दिवालिया और गुलाम मानसिकता का संकेत मिलता है|
सिद्धांतत: संविधान लागू होने के बाद देश के नागरिक ही इस प्रजातंत्र
के स्वामी हैं और सभी सरकारी सेवक जनता के नौकर हैं किन्तु इन नौकरों को नागरिक आज
भी रेत में रेंगनेवाले कीड़े-मकौड़े जैसे नजर आते हैं| इसी कूटनीति के सहारे ब्रिटेन
ने लगभग पूरे विश्व पर शासन किया है और एक समय ऐसा था जब ब्रिटिश साम्राज्य में कभी
भी सूर्यास्त नहीं होता था अर्थात उत्तर से दक्षिण व पूर्व से पश्चिम तक उनका साम्राज्य
विस्तृत था| उनके साम्राज्य में यदि पूर्व में सूर्यास्त हो रहा होता तो पश्चिम में
सूर्योदय होता था| यह बात अलग है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सम्पूर्ण विश्व स्तर
पर ही स्वतंत्राता की आवाज उठने लगी तो उन्हें धीरे- धीरे सभी राष्ट्रों को मुक्त करना
पड़ा जिसमें 1947 में संयोग से भारत की भी बारी आ गयी| किन्तु भारत की शासन प्रणाली
में आज तक कोई परिवर्तन नहीं आया है क्योंकि आज भी 80 प्रतिशत से ज्यादा वही कानून
लागू हैं जो ब्रिटिश सरकार ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए बनाए थे| ये कानून
जनतंत्र के दर्शन पर आधारित नहीं हैं और न ही हमारे सामाजिक ताने बाने और मर्यादाओं
से निकले हैं| कानून समाज के लिए बनाए जाते हैं न कि समाज कानून के लिए होता है|
दूसरा, एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि यदि यही कानून जनतंत्र
के लिए उपयुक्त होते तो ब्रिटेन में यही मौलिक कानून – दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता, दीवानी
प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य कानून आज भी लागू होते| किन्तु ब्रिटेन में समस्याओं को
अविलम्ब निराकरण किया जाता है और वहां इस बात की प्रतीक्षा नहीं की जाती कि चलती बस
में दुष्कर्म होने के बाद कानून बनाया जाएगा| कानून निर्माण का उद्देश्य समग्र और व्यापक
होता है तथा उसमें दूरदर्शिता होनी चाहिए व उनमें विद्यमान धरातल स्तर की सभी परिस्थितियों का
समावेश होना चाहिए| कानून मात्र आज की तात्कालिक समस्याओं का ही नहीं बल्कि संभावित
भावी और आने वाली पीढ़ियों की चुनौतियों से निपटने को ध्यान में रखते हुए बनाए जाने
चाहिए| इनमें सभी पक्षकारों के हितों का ध्यान
रखते हुए संतुलन के साथ दुरूपयोग की समस्या से निपटने की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए|
किसी भी कानून का दुरूपयोग पाए जाने पर बिना मांग किये दुरूपयोग से पीड़ित व्यक्ति को
उचित और वास्तविक क्षतिपूर्ति और दुरुपयोगकर्ता को समुचित दंड ही न्याय व्यवस्था में
वास्तविक सुधार और संतुलन ला सकता है|
भारत के विधि आयोग ने हिरासती हिंसा विषय पर दी गयी अपनी 152
वीं रिपोर्ट दिनांक 26.08.1994 में यह चिंता व्यक्त की है कि इसकी जड़ साक्ष्य कानून
की विसंगतिपूर्ण धारा 27 में निहित है| साक्ष्य कानून में यद्यपि यह प्रावधान है कि हिरासत में किसी व्यक्ति द्वारा की गयी कबुलियत
स्वीकार्य नहीं है| यह प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 के अनुरूप है किन्तु
उक्त धारा में इससे विपरीत प्रावधान है कि यदि हिरासत में कोई व्यक्ति किसी बरामदगी
से सम्बंधित कोई बयान देता है तो यह स्वीकार्य होगा | कूटनीतिक शब्दजाल से बनायी गयी
इस धारा को चाहे देश के न्यायालय शब्दश: असंवैधानिक न ठहराते हों किन्तु यह मौलिक भावना
और संविधान की आत्मा के विपरीत है|
पुलिस अधिकारी अपने अनुभव, ज्ञान, कौशल से इस बात को भलीभांति
जानते हैं कि इस प्रावधान के उपयोग से वे अनुचित तरीकों का प्रयोग करके ऐसा बयान प्राप्त
कर सकते हैं जो स्वयं अभियुक्त के विरुद्ध प्रभाव रखता हो| यह एक बड़ी अप्रिय स्थिति
है कि इस धारा के प्रभाव से शरारत की जा सकती है और इसके बल पर कबुलियत करवाई जा सकती
है| यदि हमें ईमानदार कानून की अवधारणा को आगे बढ़ाना हो तो इस कानून में आमूलचूल परिवर्तन
करना पडेगा| भारतीय न्याय प्रणाली का यह सिद्धांत रहा है कि चाहे हजार दोषी छूट जाएँ
लेकिन एक भी निर्दोष को को दंड नहीं मिलना चाहिए जबकि यह धारा इस सुस्थापित सिद्धांत
के ठीक विपरीत प्रभाव रखती है| भारत यू एन
ओ का सदस्य है और उसने उत्पीडन पर अंतर्राष्ट्रीय संधि पर हस्ताक्षर कर दिये हैं और
यह संधि भारत सरकार पर कानूनी रूप से बाध्यकारी प्रभाव रखती है तथा साक्ष्य कानून की
धारा 27 इस संधि के प्रावधानों के विपरीत होने के कारण भी अविलम्ब निरस्त की जानी चाहिए|
स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने डी के बासु के प्रसिद्ध मामले में कहा
है कि मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन अनुसंधान में उस समय होता है जब पुलिस कबूलियत
के लिए या साक्ष्य प्राप्त करने के लिए थर्ड डिग्री तरीकों का इस्तेमाल करती है| हिरासत
में उत्पीडन और मृत्यु इस सीमा तक बढ़ गए हैं कि
कानून के राज और आपराधिक न्याय प्रशासन की विश्वसनीयता दांव पर लग गयी है| विधि
आयोग ने आगे भी अपनी रिपोर्ट संख्या 185 में इस प्रावधान पर प्रतिकूल दृष्टिकोण प्रस्तुत
किया है| यद्यपि पुलिस के इन अत्याचारों को किसी भी कानून में कोई स्थान प्राप्त नहीं
है और स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने रामफल कुंडू
बनाम कमल शर्मा के मामले में कहा है कि कानून में यह सुनिश्चित है जब किसी कार्य के
लिए कोई शक्ति दी जाती है तो वह ठीक उसी प्रकार प्रयोग की जानी चाहिए अन्यथा बिलकुल
नहीं और अन्य तरीके आवश्यक रूप से निषिद्ध हैं|
यद्यपि पुलिस को हिरासत में अमानवीय कृत्य का सहारा लेने का कोई
अधिकार नहीं है किन्तु उक्त धारा की आड़ में पुलिस वह सब कुछ कर रही है जिसकी करने की
उन्हें कानून में कोई अनुमति नहीं है और पुलिस इसे अपना अधिकार मानती है| दूसरी ओर
भारत में पशुओं पर निर्दयता के निवारण के लिए 1960 से ही कानून बना हुआ है किन्तु मनुष्य
जाति पर निर्दयता के निवारण के लिए हमारी विधायिकाओं को कोई कानून बनाने के लिये आज
तक फुरसत नहीं मिली है| यह भी सुस्थापित है कि कोई भी व्यक्ति किसी प्रेरणा या भय के बिना
अपने विरुद्ध किसी भी तथ्य का रहस्योद्घाटन नहीं करेगा अत: पुलिस द्वारा अभियुक्त से
प्राप्त की गयी सूचना मुश्किल से ही किसी बाहरी प्रभाव के बिना हो सकती है| सुप्रीम
कोर्ट ने पंजाब राज्य बनाम बलबीर सिंह (1994 एआईआर 1872)
में
कहा है कि यदि अभिरक्षा में एक व्यक्ति से पूछताछ की जाती है तो उसे सर्वप्रथम स्पष्ट
एवं असंदिग्ध शब्दों में बताया जाना चाहिए उसे चुप रहने का अधिकार है। जो इस विशेषाधिकार
से अनभिज्ञ हो उन्हें यह चेतावनी प्रारम्भिक स्तर पर ही दी जानी चाहिए। ऐसी चेतावनी
की अन्तर्निहित आवश्यकता पूछताछ के दबावयुक्त वातावरण पर काबू पाने के लिए है। किन्तु
इन निर्देशों की अनुपालना किस प्रकार सुनिश्चित की जा रही है कहने की आवश्यकता नहीं
है|
साक्ष्य कानून के उक्त प्रावधान से पुलिस को बनावटी कहानी गढ़ने
और फर्जी साक्ष्य बनाने के लिए खुला अवसर उपलब्ध होता है| कुछ वर्ष पहले ऐसा ही एक
दुखदायी मामला नछत्र सिंह का सामने आया जिसमें पंजाब पुलिस ने फर्जीतौर पर खून से रंगे
हथियार, कपडे और गवाह खड़े करके 5 अभियुक्तों को एक ऐसे व्यक्ति की ह्त्या के जुर्म
में सजा करवा दी जो जीवित था और कालान्तर में पंजाब उच्च न्यायालय में उपस्थित था|
पुलिस की बाजीगरी की कहानी यहीं समाप्त नहीं होती अपितु अन्य भी ऐसे बहुत से मामले
हैं जहां बिलकुल निर्दोष व्यक्ति को फंसाकर दोषी ठहरा दिया जाता है और तथाकथित रक्त
से रंगे कपड़ों आदि की जांच में पाया जाता है
कि वह मानव खून ही नहीं था अपितु किसी जानवर का खून था अथवा लोहे के जंग के निशान थे|
इसी प्रकार पुलिस (जो सामान उनके पास उचंती तौर पर जब्ती से पडा रहता है) अन्य मामलों
में भी अवैध हथियार, चोरी आदि के सामान की फर्जी बरामदगी दिखाकर अपनी करामत दिखाती
है, वाही वाही लूटती है और पदोन्नति और प्रतिवर्ष पदक भी पाती है| नछत्र सिंह के उक्त
मामले में पाँचों अभियुक्तों को रिहा करते हुए उन्हें एक करोड़ रुपये का मुआवजा दिया
गया किन्तु इस धारा के दुरुपयोग को रोकने के लिए न ही तो यह कोई स्वीकार्य उपाय है
और स्वतंत्रता के अमूल्य अधिकार को देखते हुए किसी भी मौद्रिक क्षतिपूर्ति से वास्तव
में हुई हानि की पूर्ति नहीं हो सकती| इस प्रकरण में एक अभियुक्त ने तो सामाजिक बदनामी के कारण आत्म ह्त्या भी कर ली थी|
पुलिस के अनुचित कृत्यों से एक व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण भाग इस प्रकार बर्बाद
हो जाता है, व्यक्ति आर्थिक रूप से जेरबार हो जाता है, परिवार छिन्नभिन्न हो जता है,
उसका भविष्य अन्धकार में लीन हो जाता है और
दोष मुक्त होने के बावजूद भी यह झूठा कलंक उसका जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता है| समाज में
उसे अपमान की दृष्टि से देखा जाता है महज इस कारण की कि साक्ष्य कानून के उक्त प्रावधान
ने पुलिस के क्रूर हाथों में इसका दुरूपयोग करने का हथियार उपलब्ध करवाया|
वर्तमान कानून में परीक्षण पूर्ण होने पर दंड प्रक्रिया संहिता
की धारा 313 के अंतर्गत न्यायाधीश अभियुक्त से स्पष्टीकरण माँगता है और अभियुक्त अपना
पक्ष रख सकता है किन्तु उसकी यह परीक्षा न तो शपथ पर होती है और न ही उसकी प्रतिपरीक्षा
की जा सकती | अत: यह बयान सामान्य बयान की तरह नहीं पढ़ा जाता और न ही बयान की तरह मान्य
होता है | एक अभियुक्त भी सक्षम साक्षी होता है और जहां वह बिलकुल निर्दोष हो वहां
स्वयं को साक्षी के तौर पर प्रस्तुत कर अपनी निर्दोषिता सिद्ध कर सकता है| चूँकि साक्षी
के तौर पर दिए गए उसके बयान पर प्रतिपरीक्षण हो सकता है अत; यह बयान मान्य है| किन्तु
भारत में इस प्रावधान का उपयोग करने के उदाहरण ढूढने से भी मिलने मुश्किल हैं
|
दंड प्रक्रिया संहिता की
धारा 161 के अंतर्गत पुलिस को दिए गए बयानों
को धारा 162 में न्यायालयों में मान्यता नहीं दी गयी है| देश की विधायिका को भी इस
बात का ज्ञान है कि पुलिस थानों में नागरिकों के साथ किस प्रकार अभद्र व्यवहार किया
जाता है इस कारण धारा 161 के बयानों के प्रयोजनार्थ महिलाओं और बच्चों के बयान लेने
के लिए उन्हें थानों में बुलाने पर 1973 की संहिता में प्रतिबन्ध लगाया गया है जोकि
1898 की अंग्रेजी संहिता में नहीं था| प्रश्न यह है कि जिस पुलिस से महिलाओं और बच्चों
के साथ सद्व्यवहार की आशा नहीं है वह अन्य नागरिकों के साथ कैसे सद्व्यवहार कर सकती
है या उन्हें पुलिस के दुर्व्यवहार को झेलने के लिए क्यों विवश किया जाए| इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश आनंद नारायण
मुल्ला ने पुलिस को देश का सबसे बड़ा अपराधी समूह बताया था और हाल ही तरनतारन (पंजाब)
में एक महिला के साथ सरेआम मारपीट के मामले
में स्वयं सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने
टिपण्णी की थी कि पुलिस में सभी नियुक्तियां पैसे के दम पर होती हैं| सुप्रीम
कोर्ट ने दिल्ली ज्युडीसियल सर्विस के मामले
में भी कहा है कि पुलिस अधिकारियों पर कोई कार्यवाही नहीं करने से यह संकेत मिलता है
कि गुजरात राज्य में पुलिस हावी है अत; दोषी पुलिस कर्मियों पर कार्यवाही करने से प्रशासन
हिचकिचाता है| कमोबेश यही स्थिति सम्पूर्ण भारत की है और इससे पुलिस की कार्यवाहियों
की विश्वसनीयता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है|
महानगरों में फुटपाथों, रेलवे आदि पर मजदूरी करनेवाले, कचरा बीनने वाले गरीब बच्चे
इस धारा के दुरूपयोग के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं| अत: इस धारा को अविलम्ब निरस्त
करने की आवश्यकता है जबकि पुलिस और अभियोजन यह कुतर्क दे सकते हैं कि एक अभियुक्त को
दण्डित करने के लिए यह एक कारगर उपाय है| किन्तु वास्तविक स्थिति भिन्न है| आस्ट्रेलिया
के साक्ष्य कानून में इस प्रकार का कोई प्रावधान
नहीं है फिर भी वहां दोष सिद्धि की दर- मजिस्ट्रेट मामलों में 6.1 प्रतिशत और जिला
न्यायालयों के मामलों में 8.2 प्रतिशत है वहीँ भारतीय विधि आयोग अपनी 197 वीं रिपोर्ट
में भारत में मात्र 2 प्रतिशत दोषसिद्धि की दर पर चिंता व्यक्त कर चुका है| इस प्रकार
पुलिस और अभियोजन की यह अवधारणा भी पूर्णत: निराधार और बेबुनियाद है| पुलिस को अब साक्ष्य
और अनुसन्धान के आधुनिक एवं उन्नत तरीकों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए| न्यायशास्त्र
का यह भी सिद्धांत है कि साक्ष्यों को गिना नहीं अपितु उनकी गुणवता देखी जानी चाहिए|
ऐसी स्थिति में पुलिस द्वारा इस प्रकार गढ़ी गयी साक्ष्यों का मूल्याङ्कन किया जाना
चाहिए| वर्तमान में 1872 का विद्यमान भारतीय साक्ष्य कानून समयातीत हो गया है और यह समसामयिक
चुनौतियों का सामना करने में विफल है|
- मनीराम शर्मा
1 टिप्पणी:
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवारीय चर्चा मंच पर ।।
चरखा चर्चा चक्र चल, सूत्र कात उत्कृष्ट ।
पट झटपट तैयार कर, पलटे नित-प्रति पृष्ट ।
पलटे नित-प्रति पृष्ट, आज पलटे फिर रविकर ।
डालें शुभ शुभ दृष्ट, अनुग्रह करिए गुरुवर ।
अंतराल दो मास, गाँव में रहकर परखा ।
अतिशय कठिन प्रवास, पेश है चर्चा-चरखा ।
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