पश्चिम बंगाल में जब से सारधा चिटफंड कांड सामने आया है यहाँ का सारा राजनैतिक माहौल गुस्से और गहरे अवसाद से भर गया है। अब तक 10 लोग आत्महत्या कर चुके हैं इनमें कई एजेंट हैं और कई अमानतगीर हैं। इसकांड से यहाँ के छोटे बचतकर्ताओं को बड़ा झटका लगा है और इससे राज्य की राजनीति अस्थिर हो उठी है। इसने राजनैतिक सामाजिक असंतुलन को भी जन्म दिया है। सारधा कंपनी का आना और बंद होना कई महत्वपूर्ण सवालों को छोड़ गया है। भावी राजनीति की दिशा इन सवालों के समाधान पर बहुत कुछ निर्भर करेगी।
पहला विचारणीय सवाल है कि लंबे समय से इस राज्य में वाम विचारधारा का राजनैतिक-सांगठनिक असर रहा है, वे जानते हैं चिटफंड कंपनियाँ किस तरह ठगती हैं, लोभ-लालच पैदा करती हैं, इसके बावजूद इन कंपनियों के खिलाफ वाम शासन के दौरान संगठित प्रचार अभियान क्यों नहीं चलाया गया? वामशासन ने इस समस्या को तदर्थभाव से कानूनी भाव से देखा।राज्य विधानसभा ने चिटफंड कंपनियों को कानूनी घेरे में बाँधने के लिए दो बार कानून बनाने का प्रस्ताव विधानसभा से पास कराकर अध्यादेष की शक्ल में क्रमषः 2003 और 2008 में विधेयक के रूप में राष्ट्रपति के पास मंजूरी के लिए भेजा था लेकिन केन्द्र सरकार ने उसे मंजूरी नहीं दी। मंजूरी न देने की वजह भी अंत तक नहीं बताई गई, हाल ही में जब चिटफंड घोटाला सामने आया और मुख्यमंत्री ने नए कानून बनाने की मंशा जाहिर की तो राष्ट्रपति के यहाँ से पुराने अध्यादेश का मसौदा बिना किसी टिप्पणी और कारण बताए वापस भेज दिया गया। वामदलों ने जानना चाहा कि आखिरकार क्या कारण हैं जिनके कारण उनके बनाए अध्यादेश को राष्ट्रपति ने मंजूरी नहीं दी? लेकिन राष्ट्रपति और राज्य सरकार दोनों ने कोई कारण नहीं बताया। इससे एक तथ्य साफ है कि केन्द्र सरकार की चिटफंड कंपनियों की ठगई के खिलाफ एक्षन लेने में कोई दिलचस्पी नहीं है। हाल ही में राज्य विधानसभा ने वामशासन में तैयार अध्यादेश को मात्र 3 नए संषोधनों के साथ फिर से राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज दिया है। देखना यह है कि इस बार के कानून से चिटफंड कंपनियों के खिलाफ राज्य सरकार सख्त कार्रवाई कर पाती है या नहीं ? राज्य सरकार ने चिटफंड घोटाले के पीडि़तों को न्याय दिलाने के लिए 5 सदस्यीय एक कमीशन बनाया है। इस कमीशन का अध्यक्ष कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक पूर्व जज को बनाया गया है। साथ ही 500 करोड़ रूपये की सहायता राषि देने की घोषणा भी की गई है।
सारधा चिटफंड घोटाले में तकरीबन 22 हजार करोड़ रूपये की ठगी का मामला बनता है। लाखों नागरिकों की संचित पूँजी को इस कंपनी ने 260 से ज्यादा कंपनियाँ बनाकर कई राज्यों में लूटा है। सारधा कंपनी का नेटवर्क पष्चिम बंगाल, उड़ीसा, त्रिपुरा, असम, झारखण्ड, बिहार आदि में सक्रिय रहा है।
इस पूरे प्रपंच का एक आयाम सामाजिक सचेतनता से जुड़ा है जिसकी ओर राजनैतिक दलों ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। विगत जितने भी चुनाव (लोकसभा विधानसभा) हुए हैं उनमें किसी भी दल ने चिटफंड कंपनियों की लूट को बंद कराने का चुनावी घोषणापत्र में वायदा तक नहीं किया।
उल्लेखनीय है जब भी चिटफंड कंपनियों के बारे में षिकायत हुई तब ही केन्द्र सरकार के मातहत चलने वाले संस्थान सक्रिय हुए हैं। अपनी निजी पहल पर किसी भी केन्द्रीय संस्थान ने कभी भी चिटफंड कंपनियों के खिलाफ कदम नहीं उठाए हैं।
चिटफंड कंपनियों की ठगी को राजनेताओं ने कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में ही देखा है। अभी भी जितना बहस और विवाद चल रहा है उसके केन्द्र में एक सख्त कानून बनाने की माँग प्रमुख माँगों में प्रथम है। हाल ही में सारधा कांड जब सामने आया तो पता चला कि तृणमूल कांग्रेस के कद्दावर सांसद सोमेन मित्र ने ही केन्द्र सरकार के कंपनी मंत्रालय को एक साल पहले लिखित चिट्ठी के माध्यम से षिकायत की थी और उनकी षिकायत पर सेबी, रिजर्व बैंक और कंपनी मंत्रालय सक्रिय हुआ और इसके बाद धीरे-धीरे केन्द्र सरकार के अन्य विभागों ने भी इस मामले में दिलचस्पी लेनी आरंभ की, लेकिन राज्य सरकार ने कोई पहल नहीं की। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को चिटफंड कंपनियों की लूट और ठगी के बारे में और भी कई तृणमूल नेताओं ने आगाह किया लेकिन मुख्यमंत्री ने इस दिषा में ध्यान ही नहीं दिया। इसके विपरीत चिटफंड कंपनी के मुखिया को हर स्तर पर संरक्षण दिया गया।
चिटफंड कंपनियों की राज्य में नेटवर्किंग और राजनैतिक संगठनों के साथ उनके व्यापक संबंधों की ओर पहले कभी
सारधा चिटफंड कंपनी और अन्य चिटफंड कंपनियों के द्वारा जिस तरह और जिन नामों से आम जनता से चालाकी से
धन वसूली की जा रही है उसकी वैधता पर कई केन्द्रीय संगठनों जैसे सेबी और कंपनी मंत्रालय ने सवाल खड़े किए हैं लेकिन कभी सीधे इन कंपनियों को धंधा बंद करने का आदेष नहीं दिया। ये संस्थान राज्य सरकार को पत्र लिखते रहे और राज्य सरकार उन पत्रों को छिपाए बैठी रही। कायदे से चिटफंड या लघु पूँजी के निजी संचय के कारोबार पर केन्द्रीय संस्थानों को निजी पहल पर रीयलटाइम में ही हस्तक्षेप करना चाहिए। लेकिन वे यह काम करने में असमर्थ रहे और चिटफंड कंपनियों ने सेबी और कंपनी मंत्रालय की निष्क्रियता का लाभ उठाकर अरबों रूपये आम जनता से ठग लिए।
यह सच है कि चिटफंड रोकने या चालू करने का कानून केन्द्र के अधीन है और यदि कोई राज्य सरकार चाहे तो इस मामले में अपना कानून बना सकती है। अभी तक पाँच राज्यों में कानून हैं, यह राज्य हैं- तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक आदि। जबकि चिटफंड के जरिए ठगने की समस्या राष्ट्रीय है और इसके लिए राष्ट्रीय कानून ही होना चाहिए।
चिटफंड कंपनियाँ अपने नेटवर्क के जरिए आम लोगों में सघन प्रचार अभियान चलाकर ज्यादा से ज्यादा आर्थिक लाभ का भरोसा पैदा करती हैं और वे यह कोषिष करती हैं कि लोग पैसा उनके यहाँ जमा करें। इस काम में उन्होंने परंपरागत प्रचार के तरीकों की जमकर मदद ली है।
मसलन् इलाके में ईमानदार, कर्मठ या मेहनती, जरूरतमंद को एजेंट बनाकर अपनी साख जमाना, इलाके के राजनैतिक कार्यकर्ता को पटाकर रखना और संभव हो सके तो उसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन हासिल करना। सारधा कंपनी ने यह काम करने के लिए एक नया मैथड अपनाया, उसने सीधे लोकसभा-विधानसभा-पंचायत चुनाव में अपनी पूरी मषीनरी ही चुनावों में झोंक दी।
सन् 2008 में सम्पन्न पंचायत चुनावों में सारधा चिटफंड के अधिकांष एजेंट सीधे तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता बन गए और रातों-रात गाँवों में ममता का दल खड़ा हो गया। जिन इलाकों में कोई संभावना नहीं थी वहाँ तृणमूल कांग्रेस की शाखाएँ बन गईं और पंचायतों में उसने पचास फीसदी सीटें हासिल कर लीं।
सन् 2008 के पंचायत के चुनावों के पहले तक गाँवों में प्रवेष करना तृणमूल के लिए मुष्किल काम रहा है लेकिन 2008 में जिस तरह गाँवों में तृणमूल ने अपना संगठन विस्तार किया उसने समूची राजनैतिक प्रक्रिया को एक नए तत्व से भर दिया और वह था चिटफंड कंपनी का एजेंट। सारधा कंपनी के एजेंटों ने खुलकर वामविरोधी मुहिम में हिस्सा लिया और पंचायतों के चुनाव में 2008 में राज्य स्तर पर पहली बार तृणमूल कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली।
सवाल यह है कि वामदलों को ये सारधा चिटफंड एजेंट-तृणमूल कांग्रेस का सांगठनिक याराना नजर क्यों नहीं आया और उसने इस गठजोड़ को आम जनता के सामने नंगा क्यों नहीं किया? वामदलों ने उस समय चिटफंड कंपनी के एजेंटों की राजनैतिक भूमिका की पूरी तरह अनदेखी की। वे इन एजेंटों को अराजनैतिक तत्व मानकर चल रहे थे।
सच यह है कि तकरीबन एक लाख से ज्यादा सारधा कंपनी के एजेंट रातों-रात ममता के नेतृत्व में गाँवों में टी.एम.सी. के साथ मैदान में उतर गए। चिटफंड का एजेंट वैसा ही समर्पित व्यक्ति है जैसा कि कॉमरेड हुआ करते हैं। अंतर यह है कि वह चिटफंड कंपनी के लिए समर्पित है तो कॉमरेड अपने दल के लिए। लेकिन मेहनत करके आदमी को बहलाने-फुसलाने की कला में एजेंट माहिर होता है। इसके अलावा एक अन्य प्रवृत्ति यह भी नजर आई कि गाँवों में हठात हिंसाचार बढ़ गया। इसका प्रधान कारण यह है कि चिटफंड की वसूली में स्थानीय गुण्डों का बृहत्तर नेटवर्क काम कर रहा था और अब वह पंचायतों में चुनाव जीतने के साथ ही महज एजेंट नहीं था बल्कि वह राजनैतिक दादा-एजेंट था। उसे खुले तौर पर सत्ता का समर्थन मिल रहा था, सन् 2009 के संसद के चुनाव और 2011 के विधानसभा चुनाव में उसने सक्रिय रूप से ममता के साथ भूमिका अदा की।
दूसरी ओर सारधा कंपनी के मालिक सुदीप्तसेन ने बड़े ही कौशल के साथ टी.एम.सी. के सभी नेताओं के साथ इस तरह का गठबंधन विकसित कर लिया कि यह अंतर ही खत्म हो गया कि सारधा चिटफंड कंपनी और टी.एम.सी. दो अलग संगठन हैं। आम लोगों में यह धारणा पुख्ता हो गई कि ममता के लोग ही सारधा के लोग हैं। चिटफंड और राजनीति का इस तरह का सम्मिश्रण पहले कभी कहीं पर भी नहीं देखा गया।
चिटफंड कंपनी के साथ ममता का याराना आरंभ होता है सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन के दौरान। पहलीबार खुले तौर पर भ्रष्ट तरीकों से अर्जित भ्रष्ट पूँजी की कोई राजनैतिक दल खुली मदद लेता है और यह तथ्य मीडिया से लेकर राजनैतिक दलों की आँखों से ओझल रहता है।
सारधा चिटफंड कंपनी के एजेंटों की सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन के दौरान अति सक्रियता और उसके पीछे तैयार हो रहे घृणित राजनैतिक-चिटफंड गठबंधन को कोई देख ही नहीं पाया। सभी ने यही माना कि सिंगूर-नंदीग्राम का मसला तो किसानों की जमीन के अधिग्रहण का मसला है। किसानों की जमीन बचाने के नाम पर ममता ने जिस तरह का उन्माद और राजनैतिक अराजकता पैदा की उस स्थिति का सारधा चिटफंड ने कौशल के साथ फायदा उठाया, सारधा कंपनी का सारा कारोबार मात्र पाँच सालों (2007-8 से 2012-13) में व्यापक स्तर पर फैला है। इस बीच राज्य प्रशासन और केन्द्र सरकार उसके खिलाफ कोई भी कदम नहीं उठा पाए। सन् 2008 के पंचायत चुनाव, 2009 के लोकसभा चुनाव और 2011 के विधानसभा चुनावों में सारधा कंपनी ने ममता बनर्जी के नेतृत्व वाले तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों के समर्थन में पानी की तरह पैसा बहाया। इस समूची प्रक्रिया में सारधा ग्रुप ने एक और काम किया। वह जानते थे कि पष्चिम बंगाल में आम जनता में राय बनाने वालों में यहाँ के बुद्धिजीवियों, संस्कृतिकर्मियों, फिल्मीकलाकारों आदि की बड़ी भूमिका रही है अतः उसने विभिन्न कार्यक्रमों, प्रकल्पों, समारोहों आदि के जरिए बंगाली सैलीब्रेटी संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों को अपने साथ ले लिया और इसके लिए उसने विभिन्न बहानों का इस्तेमाल किया। मसलन किसी के कार्यक्रम को स्पांसरषिप दे दी, किसी की पत्रिका को विज्ञापन दे दिया, किसी को सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बुलाकर सम्मानित किया, किसी के लिए पत्र-पत्रिका का प्रकाषन करके मोटी-मोटी पगार की व्यवस्था कर दी। इस तरह सारधा कंपनी ने बंगाली सैलीब्रिटी लोगों को सहज ही अपने मोहपाश में बाँध लिया।
दिलचस्प बात यह है कि पष्चिम बंगाल में लंबे समय से चिटफंड कंपनियां काम करती रही हैं, ठगी करती रही है, पकड़ी गई हैं लेकिन राजनीति और संस्कृति के साथ चिटफंड कंपनी का ऐसा बृहद गठबंधन पहलीबार सामने आया।
पहलीबार ऐसा होता है कि कोई चिटफंड कंपनी आक्रामक ढंग से किसी दलविषेष के लिए काम करने के लिए अपने पूरे तंत्र को झोंक देती है। मजेदार बात यह है ममता का दल सारधा कंपनी के साथ अपनी मित्रता को छिपाता नहीं था बल्कि गर्व से कहता था कि वे हमारे साथ हैं। इस समूची प्रक्रिया को आँखों से ओझल रखने के लिए फेक राजनैतिक एजेण्डे को केन्द्र में रखा गया। फेक मसले और फेक उन्मादना के जरिए वामदलों की सत्ता को चुनौती दी गई।
सारधा कंपनी के राज्य-राजनीति में सक्रिय होते ही स्थानीय राजनीति का चरित्रबदल जाता है। विवाद के मसले बदल जाते हैं। फेकमसले, कम्युनिस्टों पर हमले, उनके खिलाफ झूठे मुकदमे, तरह-तरह से मा.क.पा. और अन्य वामदलों पर हमले और भाड़े के लठैतों की एक फौज हमेशा चंद घंटों के नोटिस पर ममता के साथ सड़कों पर हंगामा करने के लिए तैयार रहती थी। यह भाड़े की फौज आज भी सक्रिय है। ममता के शासन में आने के बाद तकरीबन चार हजार से ज्यादा मा.क.पा. कार्यकर्ताओं पर झूठे मुकदमे लादे गए हैं, उनकी गिरफ्तारी हुई है। कई हजार कार्यकर्ता अभी तक अपने घरों से बाहर अन्यत्र शरण लेकर रह रहे हैं। कई हजार पार्टी ऑफिसों पर हमले किए गए, तोड़-फोड़ की गई और पुलिस ने एक भी हमलावर को नहीं पकड़ा। कहने का तात्पर्य यह कि चिटफंड कंपनी के राजनैतिक मैदान में आने के साथ अराजकता में इजाफा हुआ और आम जीवन में असुरक्षा बढ़ी। इस असुरक्षा के माहौल को लोभ-लालच के सघन अभियान के जरिए भरने की कोषिष की गई। इसके परिणाम स्वरूप सारधा कंपनी ने तेजी से अरबों-खरबों रूपये की वसूली करने में सफलता हासिल कर ली।
आक्रामक राजनीति और चिटफंड कंपनियों का अन्तस्संबंध पुख्ता हुआ। पहले यह संबंध क्षीणरूप में मौजूद था लेकिन सारधा कंपनी के अस्तित्व में आने के बाद से इसने प्रत्यक्ष तौर पर राजनैतिक ताकतों को मदद देने का फैसला किया। इसके अलावा पष्चिम बंगाल के ओपिनियन मेकर बुद्धिजीवियों को भी विभिन्न तरीकों से गोलबंद किया और मंच पर अपने साथ एकत्रित करके अपनी साख में इजाफा किया।
कुछ तथ्य हैं जिनको ध्यान में रखा जाना चाहिए। पहला, सारधा कंपनी ने राजनेता, बुद्धिजीवी, फिल्मी अभिनेता आदि के पीछे खुलकर पूँजी निवेष किया। पहले मा.क.पा. के प्रकाशनों में सारधा कंपनी के विज्ञापन निरंतर छपते रहे हैं। लेकिन खुलकर राजनैतिक निवेश से यह कंपनी किनाराकषी करती रही है, लेकिन 2008 से इस कंपनी ने ममता बनर्जी और उनके साथ जुड़े राजनैतिक संगठनों और संस्कृतिकर्मियों को खुलकर स्पांसरषिप दी।
दूसरा, तथ्य यह कि पष्चिम बंगाल में चिटफंड और पूँजीनिवेष का धंधा देष के सभी मान्य कानूनों की अवहेलना करके चल रहा था, पहले वामषासन इसे जानता था लेकिन उसने इसे न्यायिक प्रक्रिया में उलझाकर रख दिया। विचारणीय बात यह है कि जब सरकार जानती थी कि चिटफंड कंपनियाँ जो धंधा कर रही हंै वह अवैध है तो राज्य सरकार ने पहल करके उनके खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं की?
मैं 22 साल से कोलकाता में रह रहा हूँ मैंने कभी कोई पोस्टर-पैम्फलेट आदि चिटफंड कंपनियों के खिलाफ प्रकाषित रूप में नहीं देखा। किसी भी दल को इन कंपनियों के खिलाफ सक्रिय भूमिका अदा करते नहीं देखा। खासकर वामदलों की निष्क्रियता परेशानी पैदा करती है। वामदलों का राज्य में हर स्तर पर वर्चस्व है। गाँव से शहर तक इकाइयाँ हैं लेकिन चिटफंड कंपनियो की ठगी के खिलाफ संगठित प्रचार अभियान चलाने में वे असफल रहे हैं। इस समस्या का एक अन्य पहलू है ममता बनर्जी का राजनैतिक चरित्र और भविष्य।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इन दिनों आम जनता में अ-लोकप्रिय हैं। इतनी अ-लोकप्रिय वे कभी नहीं रहीं। हम सबने ममता को आक्रामकभाषा, लोकप्रियता और मर्दानगी के राजनैतिक पर्याय के रूप में देखा है। ममता की राजनैतिक भाषा की धुरी है आक्रामकता और छद्म विष्वास। आक्रामक भाषा के जरिए वे वैसे ही उन्माद पैदा करती हैं जैसे किसी प्रोडक्ट की बिक्री के समय कंपनी पैदा करती है। राजनीति में विज्ञापन की आक्रामक मार्केटिंग रणनीति के पुरस्कृता के रूप में वे हमेशा मानक रहेंगी। आक्रामक भाषा को उन्होंने पश्चिम बंगाल के राजनैतिक विमर्ष का हिस्सा बनाया है।
ममता और उनके दल का सारधा चिटफंड कंपनी से गहरा नजदीकी संबंध है। तृणमूल के अनेक नेताओं और हजारों कार्यकर्ताओं को सारधा चिटफंड कंपनी ने अपने धंधे के विस्तार में इस्तेमाल किया है। सारधा चिटफंड कंपनी ममता की पोषक है और ममता उनकी संरक्षक हैं।
ममता और सारधा का गठजोड़ भारत में विरल घटना है। दोनों लोभी हैं। ममता में सत्तालोभ और सारधा का धनलोभ मिलकर आम जनता की दमित भावनाओं का दोहन करते रहे हैं। दोनों के निशाने पर आम नागरिक और उनका विष्वास है।
ममता और सारधा का साझा लक्ष्य है विवेक और ईमानदारी की विदाई। दोनों पापुलिज्म के हथकंडे अपनाते रहे हैं। पापुलिज्म तात्कालिक लाभ देता है लेकिन एक अवधि के बाद स्वयं को ही खाने लगता है। आज ममता और सारधा दोनों की साख रसातल में है।
लोकप्रियता या पापुलिज्म बेहद खतरनाक खेल है इसको खेलने वाला हमेशा खतरों से घिरा होता है, वह उन्हीं मोहरों का षिकार होता है जो उसने बनाए होते हैं। वह अपने ही लोगों के हाथों लोकप्रियता खोता है।
ममता का सबसे बड़ा संबल था ईमानदारी और आज सारधा चिटफंड घोटाला कांड के बाद ममता बनर्जी दागदार मुख्यमंत्री की कोटि में आ गई हैं। ममता की ईमानदारी को और किसी ने नहीं उनके सहयोगी नेताओं, दलालों, भाड़े के बुद्धिजीवियों और ठगों ने कलंकित किया। कल तक जो ममता ईमानदारी की प्रतीक थीं आज वे अपनी इमेज को विलोम में बदल चुकी हैं। वे जानती हैं उनके नेताओं के पास ईमानदारी का पैसा कम है, चिटफंड और अन्य अवैध वसूली के स्रोतों से वसूला गया धन ज्यादा है।
सारधा चिटफंड घोटाला एक दिन में तैयार नहीं हुआ। यह सालों से चल रहा था। सारधा कंपनी के कर्णधार सुदीप्तसेन ने सुनियोजित ढंग से अपने चिटफंड नेटवर्क के विकास में तृणमूल कांग्रेस के नेताओं-सदस्यों का व्यापक इस्तेमाल किया। कमीषनखोर एजेण्टों की एक साखदार टीम कोलकाता से लेकर गाँवों तक बनाई।
सारधा कंपनी के एजेंट दो तरह के काम करते थे, पहला वे चिटफंड कंपनी के ग्राहक जुगाड़ करते और दूसरा, हर समय तृणमूल कांग्रेस का बैनर उठाए ममता के पीछे सक्रिय रहते थे। ममता का बैनर स्थानीय एजेंट की साख का प्रतीक था और इससे सारधा कंपनी को आम नागरिकों में खासकर निम्नवर्ग और मध्यवर्ग के लोगों में तेजी से अपने कारोबार को फैलाने में मदद मिली।
किसी भी चिटफंड कंपनी के लिए एजेंट की साख महत्वपूर्ण होती है। सारधा कंपनी के कर्णधार सुदीप्तसेन ने चिटफंड, संस्कृति और राजनीति का सम्मिश्रित गठजोड़ तैयार किया। तेजी से स्थानीय स्तर पर नेताओं और बुद्धिजीवियों-संस्कृतिकर्मियों- फिल्मी अभिनेता- अभिनेत्रियों-चित्रकारों को स्पांसरषिप देनी शुरू की। एजेंटों को स्थानीय पूजा कमेटियों में सक्रिय किया और स्थानीय जनता का संपर्क और विष्वास अर्जित किया।
उल्लेखनीय है ठग हमेशा ईमानदारी और भरोसे का इस्तेमाल मुखौटे के रूप में करते हैं। ईमानदार नेता की इमेज के भ्रष्ट लोग राजनैतिक कवच की तरह इस्तेमाल करते हैं। भ्रष्टाचार कभी भ्रष्ट इमेज में नहीं आता। ईमानदार नेता और राजनैतिक भ्रष्टाचार का आदर्ष उदाहरण हैं केन्द्र सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। निजी तौर पर मनमोहन ईमानदार हैं लेकिन सरकार में भ्रष्टाचार गहरे जड़ें जमाए है। उसी तरह ज्योति बाबू की ईमानदार इमेज का भ्रष्टाचार पर पर्दादारी के लिए वाम भ्रष्टाचार मंडली इस्तेमाल करती रही है। एक जमाने में ज्योति बाबू के इर्द-गिर्द किस तरह भ्रष्ट लोगों ने घेराबंदी की हुई थी उसकी ओर तत्कालीन मंत्रियों विनय कृष्ण चैधरी और बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपने बयानों में ध्यान खींचा था। ठीक उसी तरह ममता की ईमानदार और सादगी भरी इमेज का 4 सालों से भ्रष्ट और ठग किस्म के लोग जमकर इस्तेमाल करते रहे हैं।
ममता की राजनैतिक भाषा और चिटफंड कंपनी के एजेंट की भाषा में विलक्षण साम्य है। चिटफंड एजेंट विष्वास करो और भूल जाओ की भाषा का इस्तेमाल करता है। यही भाषा ममता भी बोलती हैं। ममता कभी राजनेता की भाषा नहीं बोलतीं, वह चिटफंड एजेंट की भाषा बोलती हैं। चिटफंड एजेंट झूठे सपने दिखाता है ,सतह पर पूँजी की लाभकारी वापसी का सपना जगाता है, लोभ पैदा करता है और विवेक छीन लेता है। ममता ने भी यही काम किया है। उन्होंने पष्चिम बंगाल में राजनैतिक लोभ पैदा किया है। राजनैतिक लोभ की पहली उपलब्धि है राजनैतिक विवेक की हत्या।
यह त्रासद है कि सारधा चिटफंड कंपनी के बंद होते ही ममता की चमक फीकी पड़ गई है। उनकी ईमानदारी संदेह के घेरे में आ गई है। कल तक ममता संदेह से परे थीं, इन दिनो संदेहों से घिरी हैं। नेता जब संदेहों में घिरता है तो समझो उसका राजनैतिक अवसान समीप है।
-जगदीश्वर चतुर्वेदी
मोबाइल: 09331762360
ध्यान ही नहीं गया। राजनेताओं और चिटफंड कंपनियों के बीच में बने गठबंधन का ही परिणाम है कि सारधा चिटफंड कंपनी ने सन् 2008 के बाद पष्चिम बंगाल के विभिन्न जिलों में सैंकडों एकड़ जमीन वैध-अवैध ढंग से खरीदी और कहीं पर भी उसे किसी प्रतिवाद का सामना नहीं करना पड़ा, जबकि पष्चिम बंगाल में कोई व्यक्ति इतनी आसानी से कहीं पर जमीन नहीं खरीद सकता। हर इलाके में गुण्डों से लेकर राजनेताओं तक के विरोध का सामना करना पड़ता है। स्थिति की भयावहता का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि कहीं पर भी फ्लैट या दुकान तक खरीदना आसान काम नहीं है। लेकिन सारधा ग्रुप को कहीं पर भी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें