गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी, किसानों से लोहा इकट्ठा कर, गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल के एक विशाल स्मारक का निर्माण करना चाहते हैं। सरदार को ‘लौह पुरूष‘ की उपाधि इसलिए दी गई थी क्योंकि वे तनिक भी समझौतावादी नहीं थे, त्वरित और प्रभावकारी निर्णय लेते थे और उन्होंने पूर्ण निष्ठा और संकल्पबद्धता के साथ, नव-स्वतंत्र भारत की समस्याओं को सुलझाया। सरदार के प्रेरणास्त्रोत महात्मा गांधी थे। सरदार नेे खेड़ा, बोरसाड़ व बारडोली के किसानों को संगठित कर, अंग्रेजों की औपनिवेशिक नीतियों के खिलाफ अहिंसक, सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया। सरदार ने दांडी व नमक सत्याग्रह में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, उन्होंने गांधीजी का पूरी दृढ़ता से समर्थन किया। स्वतंत्रता के बाद वे देश के उपप्रधानमंत्री बने और राजे-रजवाड़ों का भारत में विलीनीकरण करवाने में उन्हांेने अभूतपूर्व योगदान दिया।
स्मारक इसलिए बनाए जाते हैं ताकि किसी महान आंदोलन या व्यक्ति की स्मृति जीवित रहे और लोगों को सद्कार्य करने की प्रेरणा दे। परंतु दमनकारी व अत्याचारी शासक भी स्मारक बनाते हैं ताकि वे लोगों पर अपनी धाक और रौब जमा सकें और उन्हें अपने सामने बौना दिखा सकें। सच तो यह है कि दमनकारी शासकों ने अत्यंत भव्य स्मारक बनाए ताकि वे दुनिया को दिखा सकें कि वे कितने शक्तिशाली हैं और अनंतकाल तक बने रहेंगे। अमेरिका की स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी पहली श्रेणी का स्मारक है जबकि पदानुक्रम पर आधारित सामंती समाजों के अत्याचारी शासकों द्वारा निर्मित भव्य धार्मिक स्मारक, दूसरी श्रेणी में आते हैं। मोदी जो स्मारक बनाने वाले हैं, वह किस श्रेणी में आएगा यह तो समय आने पर ही पता चल सकेगा। परंतु एक बात निर्विवाद है और वह यह कि सरदार पटेल का स्मारक बनाना एक बात है और उनके द्वारा दिखाए गए सुशासन के रास्ते पर चलना दूसरी बात।
संघ परिवार और विशेषकर मोदी, सरदार पटेल की छवि का दुरूपयोग मुख्यतः दो उद्धेश्यों से करते हैं।
1. सरदार, नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य नहीं थे और इसलिए संघ परिवार उनका इस्तेमाल, नेहरू और गांधी के स्वाधीनता संग्राम में योगदान को कम करके दिखाने और अंततः कांग्रेस का विरोध करने के लिए करना चाहता है। संघ परिवार को कांग्रेस के एक गैर नेहरू-गांधी नेता को अपना नायक इसलिए बनाना पड़ रहा है क्योंकि उसके पास स्वयं का कोई नायक है ही नहीं। आरएसएस ने तो स्वाधीनता आंदोलन का विरोध किया था और कांग्रेस द्वारा 1942 में दिए गए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो‘ के नारे से अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से व्यक्त की थी। मुस्लिम लीग की तरह, संघ ने भी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का साथ दिया था। हिन्दुत्ववादी नायक सावरकर ने तो अंग्रेजों से माफी तक मांगी थी। सावरकर ने ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में भाग लेने की अपनी ‘भूल‘ के लिए उन्हें अंडमान के सेल्यूलर जेल में दी गई कालेपानी की सजा माफ करने की अंगे्रज सरकार से भीख मांगी थी। निःसंदेह, सरदार के नेहरू से मतभेद थे; परंतु वे मतभेद उतने गहरे और मूलभूत नहीं थे जितने कि सरदार और संघ परिवार में थे। संघ परिवार, नेहरू और सरदार के मतभेदों का इस्तेमाल, उन्हें एक ऐसे नायक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए करना चाहता है जिसने नेहरू को चुनौती दी और उनका विरोध किया।
2. सरदार के निजाम-शासित हैदराबाद राज्य को भारत में विलीन करवाने के सफल अभियान को संघ, मुसलमानों को उनकी औकात बताने वाले कदम के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है। सच यह है कि सरदार हैदराबाद ही नहीं, पूरे भारत के मुसलमानों की सुरक्षा और बेहतरी की गारंटी देने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे।
मोदी के पास सरदार के नाम का इस्तेमाल करने का एक अतिरिक्त कारण यह है कि सरदार गुजराती थे और मोदी स्वयं को गुजराती अस्मिता के एकमात्र प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। मोदी चाहते हैं कि उन्हें भी सरदार की तरह ‘लौह पुरूष‘ का दर्जा मिले। अक्सर समाज में अराजकता फैलने का भय दिखाकर, कमजोर वर्गों के मन में यह बैठा दिया जाता है कि देश को अब एक तानाशाह ही बचा सकता है।
सरदार व हिन्दू मुस्लिम एकता
सरदार को अपनी हिन्दू विरासत पर गर्व था परन्तु वे बहुत धार्मिक नहीं थे। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि उनका हिन्दू धर्म, संकीर्ण नहीं था और अन्य धर्मों का सम्मान करता था। उन्होंने भारत के मिलेजुले चरित्र को स्वीकार किया था। परन्तु वे अल्पसंख्यकों से यह अपेक्षा रखते थे कि उन्हें भी यह स्वीकार करना चाहिए कि वे इस देश का अभिन्न अंग हैं। सरदार, संघ परिवार के हिन्दू राष्ट्रवाद के राजनैतिक लक्ष्य के विरूद्ध थे। सन् 1949 में उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया कि हिन्दू राष्ट्र का विचार पागलपन है और वह भारत की आत्मा को मार देगा। उनका राष्ट्रवाद समावेशी था और उसमें जातिगत या नस्ल-आधारित संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं थी। गांधी जी ने एक बार सरदार के बारे में कहा था, ‘‘मैं सरदार को अच्छी तरह से जानता हूँ। हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न व कई अन्य मुद्दों पर उनकी सोच मुझसे और पंडित नेहरू से काफी अलग है। परन्तु यह कहना कि वे मुस्लिम-विरोधी हैं, सत्य का मखौल बनाना होगा। सरदार का दिल इतना बड़ा है कि उसमें सब समा सकते हैं।’’ एक बार इस आरोप के संदर्भ में कि उनके बहुत सारे मुसलमान दोस्त हैं, सरदार ने कहा कि ‘‘मैं अच्छे मुसलमानों के जितने करीब आता जाउंगा, मैं मुसलमानों और उनके कामों का उतना ही न्यायपूर्ण आंकलन कर सकूंगा। मुझे मुसलमानों को यह साबित करना होगा कि मैं उनसे उतना ही प्रेम करता हूँ जितना कि हिन्दुओं से’’।
जयप्रकाश नारायण और यहां तक कि राममनोहर लोहिया की ऐसी मान्यता थी कि सरदार, राजनैतिक दृष्टि से विशुद्ध हिन्दू थे। परन्तु हिन्दुत्व विचारधारा के समर्थक नाथूराम गोडसे द्वारा गांधीजी की हत्या के बाद सरदार में काफी परिवर्तन आया और उन्होंने अल्पसंख्यकों व विशेष रूप से मुसलमानों को, यह आश्वासन दिया कि वे उनके सच्चे मित्र हैं। नेहरू के साथ उनके मतभेद भी धीरे-धीरे समाप्त हो गए। सरदार ने पाकिस्तान और भारत के बीच नेहरू-लियाकत समझौते का समर्थन किया, जिसके अंतर्गत दोनों देशों ने अपनी अपनी अल्पसंख्यक आबादी की सुरक्षा की गारंटी दी थी।
संविधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधियों द्वारा पृथक मताधिकार की मांग छोड़ देने के बाद, सरदार ने हिन्दुओं को चेताया कि अल्पसंख्यकों ने उनमें एक पवित्र विश्वास व्यक्त किया है और उन्हें अल्पसंख्यको के इस भरोसे पर खरा उतरना चाहिए। उन्होंने चेतावनी भरे शब्दों में कहा, ‘‘असंतुष्ट अल्पसंख्यक एक बोझ और एक खतरा होते हैं और हमें तब तक अल्पसंख्यकों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला कोई काम नहीं करना चाहिए, जब तक कि उनका व्यवहार अत्यंत अनुचित न हो’’। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘बहुसंख्यक समुदाय का यह कर्तव्य है कि वह अपने उदारतापूर्ण आचरण से, अल्पसंख्यकों में विश्वास पैदा करे। अल्पसंख्यक समुदायों का यह कर्तव्य है कि वे गुजरी बातों को भूल जाएं’’। ‘‘हम बहुसंख्यकों को सोचना होगा कि अल्पसंख्यक क्या महसूस कर रहे हैं। हमें यह भी कल्पना करनी होगी कि उनके साथ जैसा व्यवहार हो रहा है, वैसा अगर हमारे साथ होता तो हम कैसा महसूस करते’’।
सरदार ने अपने धर्म में आस्था रखने व उसका अनुपालन करने के अधिकार के अतिरिक्त, अपने धर्म का प्रचार करने के अधिकार को भी धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हिस्सा बनाने के लिए अपनी पूरी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी। धर्मप्रचार के अधिकार को मूल अधिकार बनाने के प्रस्ताव का बहुसंख्यक समुदाय के दक्षिणपंथियों द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा था। सरदार ने यह भी सुनिश्चित किया कि अल्पसंख्यकों को उनकी विशिष्ट भाषा, लिपि व संस्कृति का संरक्षण करने का अधिकार मिले और भाषायी व धार्मिक अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना करने और उन्हें चलाने का संवैधानिक हक उपलब्ध हो।
सरदार और सांप्रदायिक दंगे
जब सन् 1947 में दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़के, तब अपने असमझौतावादी व त्वरित निर्णय लेने के स्वभाव के अनुरूप, सरदार ने कड़ी कार्यवाही करने की वकालत की, फिर चाहे उसके नतीजे कुछ भी हों। अगर इस प्रयास में कुछ लोग मारे जाते हैं तो सरदार उसके लिए भी तैयार थे। हत्यारों, लुटेरों, चोरों और आगजनी करने वालों के खिलाफ प्रभावी कार्यवाही करने के प्रयास में यदि कुछ निर्दोषों की जान जाती है तो यह भी सरदार को स्वीकार्य था। अगर सरदार को गुजरात के सन् 2002 के दंगों से निपटना पड़ता, तो वे क्या करते? वे शायद कुछ ही घंटो के भीतर दंगाग्रस्त इलाकों में सेना की तैनाती कर देते। यह तो सुनिश्चित है कि साबरमती एक्सप्रेस में जलकर मरे लोगों की लाशों का जुलूस निकालने के लिए वे उन्हें विश्व हिन्दू परिषद को नहीं सौंपते और ना ही खुले में इन शवों का पोस्टमार्टम होने देते। मोदी ने दंगा पीडि़तों के किसी शिविर में जाने की जहमत नहीं उठाई। इसके ठीक विपरीत, सरदार को जैसे ही यह खबर मिली की हजरत निजामुद्दीन की दरगाह में शरण लिये हुए हजारों मुसलमान आतंकित और असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, वे तुरंत दरगाह पहंुचे। उन्होंने दरगाह में लगभग 45 मिनट बिताए। पूरी श्रद्धा से दरगाह में नमन किया और मुसलमानों की सुरक्षा के पूरे इंतजामात करके ही लौटे।
पूर्वी पंजाब में सिक्ख बहुत गुस्से में थे। उनकी आंखों में खून उतर आया था। सरदार इलाके के कई शहरों में स्वयं पहुंचे। इस यात्रा के दौरान, 30 सितम्बर 1947 को, उन्होंने सिक्खों से यह अपील की कि वे भारत की इज्जत पर बट्टा न लगाऐं और उसकी शान को कलंकित न करें। उन्होंने कहा ‘‘वीरों को यह शोभा नहीं देता कि वे निर्दोष और निहत्थे पुरूषों, महिलाओं और बच्चों का कत्ल करें’’। उनके प्रयास का अपेक्षित नतीजा निकला और पूर्वी पंजाब के मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षित पश्चिमी पंजाब जाने दिया गया। इसकी तुलना करंे मोदी से, जिन्होंने सन् 2002 के गुजरात दंगों को क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत के आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराया और कफ्र्यू लगाने में देरी की।
25 अक्टूबर, 1947 को छत्तारी के नवाब को लिखे अपने पत्र से सरदार ने उनका दिल जीत लिया। उन्होंने नवाब को यह आश्वासन दिया कि भारत में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की जाएगी और यह कि भारत कभी धर्म-आधारित राष्ट्र नहीं बनेगा। विभाजन के कारण पैदा हुई कटुता और मुस्लिम लीग द्वारा फैलाये गए साम्प्रदायिकता के जहर के बावजूद, न तो सरदार और ना ही कांग्रेस, भारत को धर्म-आधारित राष्ट्र बनाने पर विचार तक करने को तैयार थे। हैदराबाद और जूनागढ़ के जिद्दी नवाबों ने जब प्रेम और तर्क की भाषा सुनने से इंकार कर दिया तब सरदार ने बलप्रयोग कर उनके राज्यों को भारत में मिलाया। परंतु बलप्रयोग करने के पहले, उन्होंने इन राज्यों के आम मुस्लिम रहवासियों का भरोसा जीता और इसलिए आमजनों ने भारत सरकार द्वारा बलप्रयोग का स्वागत किया।
एक और घटना का हम यहां संक्षिप्त विवरण देना चाहेंगे। नेहरू की तरह, सरदार भी बाबरी मस्जिद में रात के अंधेरे में भगवान राम की मूर्तियां स्थापित किए जाने से अत्यंत उद्वेलित थे। उन्होंने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्दबल्लभ पंत को बल के एकतरफा प्रयोग का मुकाबला बल से करने की सलाह दी। इसके विपरीत, संघ परिवार ने बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए आक्रामकता और एकतरफा बल प्रयोग को तवज्जो दी।
अतः हम बिना किसी दुविधा के यह कह सकते हैं कि सरदार के विचार, मोदी और संघ परिवार की सोच से कतई नहीं मेल खाते। बल्कि, सरदार और संघ परिवार के विचार परस्पर विरोधी हैं। सरदार धर्मनिरपेक्ष भारत और सांझा भारतीय राष्ट्रवाद के हामी थे। यही कारण है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद, सरदार ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया और यह प्रतिबंध तभी उठाया गया जब आरएसएस ने वायदा किया कि वह अपनी गतिविधियां केवल संस्कृति के क्षेत्र तक सीमित रखेगा। आरएसएस पर अन्य कड़ी शर्ते भी लगाई गईं। आरएसएस ने न तो इन शर्तों को निभाया और ना ही सरदार से किए गए अपने वायदों को। इस सब से यह संदेह होना स्वभाविक है कि सरदार का स्मारक बनाने के पीछे संघ परिवार व मोदी का कुछ और ही उद्देश्य है। यह तो स्पष्ट है कि संघ परिवार सरदार के आदर्शों पर नहीं चलना चाहता। वह तो केवल यह चाहता है कि लोग संघ परिवार के नकली लौह पुरूषों के झांसे में फंसे रहें।
-इरफान इंजीनियर
स्मारक इसलिए बनाए जाते हैं ताकि किसी महान आंदोलन या व्यक्ति की स्मृति जीवित रहे और लोगों को सद्कार्य करने की प्रेरणा दे। परंतु दमनकारी व अत्याचारी शासक भी स्मारक बनाते हैं ताकि वे लोगों पर अपनी धाक और रौब जमा सकें और उन्हें अपने सामने बौना दिखा सकें। सच तो यह है कि दमनकारी शासकों ने अत्यंत भव्य स्मारक बनाए ताकि वे दुनिया को दिखा सकें कि वे कितने शक्तिशाली हैं और अनंतकाल तक बने रहेंगे। अमेरिका की स्टेच्यू आॅफ लिबर्टी पहली श्रेणी का स्मारक है जबकि पदानुक्रम पर आधारित सामंती समाजों के अत्याचारी शासकों द्वारा निर्मित भव्य धार्मिक स्मारक, दूसरी श्रेणी में आते हैं। मोदी जो स्मारक बनाने वाले हैं, वह किस श्रेणी में आएगा यह तो समय आने पर ही पता चल सकेगा। परंतु एक बात निर्विवाद है और वह यह कि सरदार पटेल का स्मारक बनाना एक बात है और उनके द्वारा दिखाए गए सुशासन के रास्ते पर चलना दूसरी बात।
संघ परिवार और विशेषकर मोदी, सरदार पटेल की छवि का दुरूपयोग मुख्यतः दो उद्धेश्यों से करते हैं।
1. सरदार, नेहरू-गांधी परिवार के सदस्य नहीं थे और इसलिए संघ परिवार उनका इस्तेमाल, नेहरू और गांधी के स्वाधीनता संग्राम में योगदान को कम करके दिखाने और अंततः कांग्रेस का विरोध करने के लिए करना चाहता है। संघ परिवार को कांग्रेस के एक गैर नेहरू-गांधी नेता को अपना नायक इसलिए बनाना पड़ रहा है क्योंकि उसके पास स्वयं का कोई नायक है ही नहीं। आरएसएस ने तो स्वाधीनता आंदोलन का विरोध किया था और कांग्रेस द्वारा 1942 में दिए गए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो‘ के नारे से अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से व्यक्त की थी। मुस्लिम लीग की तरह, संघ ने भी ब्रिटिश साम्राज्यवादियों का साथ दिया था। हिन्दुत्ववादी नायक सावरकर ने तो अंग्रेजों से माफी तक मांगी थी। सावरकर ने ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में भाग लेने की अपनी ‘भूल‘ के लिए उन्हें अंडमान के सेल्यूलर जेल में दी गई कालेपानी की सजा माफ करने की अंगे्रज सरकार से भीख मांगी थी। निःसंदेह, सरदार के नेहरू से मतभेद थे; परंतु वे मतभेद उतने गहरे और मूलभूत नहीं थे जितने कि सरदार और संघ परिवार में थे। संघ परिवार, नेहरू और सरदार के मतभेदों का इस्तेमाल, उन्हें एक ऐसे नायक के रूप में प्रस्तुत करने के लिए करना चाहता है जिसने नेहरू को चुनौती दी और उनका विरोध किया।
2. सरदार के निजाम-शासित हैदराबाद राज्य को भारत में विलीन करवाने के सफल अभियान को संघ, मुसलमानों को उनकी औकात बताने वाले कदम के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है। सच यह है कि सरदार हैदराबाद ही नहीं, पूरे भारत के मुसलमानों की सुरक्षा और बेहतरी की गारंटी देने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे।
मोदी के पास सरदार के नाम का इस्तेमाल करने का एक अतिरिक्त कारण यह है कि सरदार गुजराती थे और मोदी स्वयं को गुजराती अस्मिता के एकमात्र प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं। मोदी चाहते हैं कि उन्हें भी सरदार की तरह ‘लौह पुरूष‘ का दर्जा मिले। अक्सर समाज में अराजकता फैलने का भय दिखाकर, कमजोर वर्गों के मन में यह बैठा दिया जाता है कि देश को अब एक तानाशाह ही बचा सकता है।
सरदार व हिन्दू मुस्लिम एकता
सरदार को अपनी हिन्दू विरासत पर गर्व था परन्तु वे बहुत धार्मिक नहीं थे। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि उनका हिन्दू धर्म, संकीर्ण नहीं था और अन्य धर्मों का सम्मान करता था। उन्होंने भारत के मिलेजुले चरित्र को स्वीकार किया था। परन्तु वे अल्पसंख्यकों से यह अपेक्षा रखते थे कि उन्हें भी यह स्वीकार करना चाहिए कि वे इस देश का अभिन्न अंग हैं। सरदार, संघ परिवार के हिन्दू राष्ट्रवाद के राजनैतिक लक्ष्य के विरूद्ध थे। सन् 1949 में उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह घोषित किया कि हिन्दू राष्ट्र का विचार पागलपन है और वह भारत की आत्मा को मार देगा। उनका राष्ट्रवाद समावेशी था और उसमें जातिगत या नस्ल-आधारित संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं थी। गांधी जी ने एक बार सरदार के बारे में कहा था, ‘‘मैं सरदार को अच्छी तरह से जानता हूँ। हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न व कई अन्य मुद्दों पर उनकी सोच मुझसे और पंडित नेहरू से काफी अलग है। परन्तु यह कहना कि वे मुस्लिम-विरोधी हैं, सत्य का मखौल बनाना होगा। सरदार का दिल इतना बड़ा है कि उसमें सब समा सकते हैं।’’ एक बार इस आरोप के संदर्भ में कि उनके बहुत सारे मुसलमान दोस्त हैं, सरदार ने कहा कि ‘‘मैं अच्छे मुसलमानों के जितने करीब आता जाउंगा, मैं मुसलमानों और उनके कामों का उतना ही न्यायपूर्ण आंकलन कर सकूंगा। मुझे मुसलमानों को यह साबित करना होगा कि मैं उनसे उतना ही प्रेम करता हूँ जितना कि हिन्दुओं से’’।
जयप्रकाश नारायण और यहां तक कि राममनोहर लोहिया की ऐसी मान्यता थी कि सरदार, राजनैतिक दृष्टि से विशुद्ध हिन्दू थे। परन्तु हिन्दुत्व विचारधारा के समर्थक नाथूराम गोडसे द्वारा गांधीजी की हत्या के बाद सरदार में काफी परिवर्तन आया और उन्होंने अल्पसंख्यकों व विशेष रूप से मुसलमानों को, यह आश्वासन दिया कि वे उनके सच्चे मित्र हैं। नेहरू के साथ उनके मतभेद भी धीरे-धीरे समाप्त हो गए। सरदार ने पाकिस्तान और भारत के बीच नेहरू-लियाकत समझौते का समर्थन किया, जिसके अंतर्गत दोनों देशों ने अपनी अपनी अल्पसंख्यक आबादी की सुरक्षा की गारंटी दी थी।
संविधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधियों द्वारा पृथक मताधिकार की मांग छोड़ देने के बाद, सरदार ने हिन्दुओं को चेताया कि अल्पसंख्यकों ने उनमें एक पवित्र विश्वास व्यक्त किया है और उन्हें अल्पसंख्यको के इस भरोसे पर खरा उतरना चाहिए। उन्होंने चेतावनी भरे शब्दों में कहा, ‘‘असंतुष्ट अल्पसंख्यक एक बोझ और एक खतरा होते हैं और हमें तब तक अल्पसंख्यकों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला कोई काम नहीं करना चाहिए, जब तक कि उनका व्यवहार अत्यंत अनुचित न हो’’। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘बहुसंख्यक समुदाय का यह कर्तव्य है कि वह अपने उदारतापूर्ण आचरण से, अल्पसंख्यकों में विश्वास पैदा करे। अल्पसंख्यक समुदायों का यह कर्तव्य है कि वे गुजरी बातों को भूल जाएं’’। ‘‘हम बहुसंख्यकों को सोचना होगा कि अल्पसंख्यक क्या महसूस कर रहे हैं। हमें यह भी कल्पना करनी होगी कि उनके साथ जैसा व्यवहार हो रहा है, वैसा अगर हमारे साथ होता तो हम कैसा महसूस करते’’।
सरदार ने अपने धर्म में आस्था रखने व उसका अनुपालन करने के अधिकार के अतिरिक्त, अपने धर्म का प्रचार करने के अधिकार को भी धार्मिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हिस्सा बनाने के लिए अपनी पूरी प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी। धर्मप्रचार के अधिकार को मूल अधिकार बनाने के प्रस्ताव का बहुसंख्यक समुदाय के दक्षिणपंथियों द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा था। सरदार ने यह भी सुनिश्चित किया कि अल्पसंख्यकों को उनकी विशिष्ट भाषा, लिपि व संस्कृति का संरक्षण करने का अधिकार मिले और भाषायी व धार्मिक अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना करने और उन्हें चलाने का संवैधानिक हक उपलब्ध हो।
सरदार और सांप्रदायिक दंगे
जब सन् 1947 में दिल्ली में सांप्रदायिक दंगे भड़के, तब अपने असमझौतावादी व त्वरित निर्णय लेने के स्वभाव के अनुरूप, सरदार ने कड़ी कार्यवाही करने की वकालत की, फिर चाहे उसके नतीजे कुछ भी हों। अगर इस प्रयास में कुछ लोग मारे जाते हैं तो सरदार उसके लिए भी तैयार थे। हत्यारों, लुटेरों, चोरों और आगजनी करने वालों के खिलाफ प्रभावी कार्यवाही करने के प्रयास में यदि कुछ निर्दोषों की जान जाती है तो यह भी सरदार को स्वीकार्य था। अगर सरदार को गुजरात के सन् 2002 के दंगों से निपटना पड़ता, तो वे क्या करते? वे शायद कुछ ही घंटो के भीतर दंगाग्रस्त इलाकों में सेना की तैनाती कर देते। यह तो सुनिश्चित है कि साबरमती एक्सप्रेस में जलकर मरे लोगों की लाशों का जुलूस निकालने के लिए वे उन्हें विश्व हिन्दू परिषद को नहीं सौंपते और ना ही खुले में इन शवों का पोस्टमार्टम होने देते। मोदी ने दंगा पीडि़तों के किसी शिविर में जाने की जहमत नहीं उठाई। इसके ठीक विपरीत, सरदार को जैसे ही यह खबर मिली की हजरत निजामुद्दीन की दरगाह में शरण लिये हुए हजारों मुसलमान आतंकित और असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, वे तुरंत दरगाह पहंुचे। उन्होंने दरगाह में लगभग 45 मिनट बिताए। पूरी श्रद्धा से दरगाह में नमन किया और मुसलमानों की सुरक्षा के पूरे इंतजामात करके ही लौटे।
पूर्वी पंजाब में सिक्ख बहुत गुस्से में थे। उनकी आंखों में खून उतर आया था। सरदार इलाके के कई शहरों में स्वयं पहुंचे। इस यात्रा के दौरान, 30 सितम्बर 1947 को, उन्होंने सिक्खों से यह अपील की कि वे भारत की इज्जत पर बट्टा न लगाऐं और उसकी शान को कलंकित न करें। उन्होंने कहा ‘‘वीरों को यह शोभा नहीं देता कि वे निर्दोष और निहत्थे पुरूषों, महिलाओं और बच्चों का कत्ल करें’’। उनके प्रयास का अपेक्षित नतीजा निकला और पूर्वी पंजाब के मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षित पश्चिमी पंजाब जाने दिया गया। इसकी तुलना करंे मोदी से, जिन्होंने सन् 2002 के गुजरात दंगों को क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत के आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराया और कफ्र्यू लगाने में देरी की।
25 अक्टूबर, 1947 को छत्तारी के नवाब को लिखे अपने पत्र से सरदार ने उनका दिल जीत लिया। उन्होंने नवाब को यह आश्वासन दिया कि भारत में अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की जाएगी और यह कि भारत कभी धर्म-आधारित राष्ट्र नहीं बनेगा। विभाजन के कारण पैदा हुई कटुता और मुस्लिम लीग द्वारा फैलाये गए साम्प्रदायिकता के जहर के बावजूद, न तो सरदार और ना ही कांग्रेस, भारत को धर्म-आधारित राष्ट्र बनाने पर विचार तक करने को तैयार थे। हैदराबाद और जूनागढ़ के जिद्दी नवाबों ने जब प्रेम और तर्क की भाषा सुनने से इंकार कर दिया तब सरदार ने बलप्रयोग कर उनके राज्यों को भारत में मिलाया। परंतु बलप्रयोग करने के पहले, उन्होंने इन राज्यों के आम मुस्लिम रहवासियों का भरोसा जीता और इसलिए आमजनों ने भारत सरकार द्वारा बलप्रयोग का स्वागत किया।
एक और घटना का हम यहां संक्षिप्त विवरण देना चाहेंगे। नेहरू की तरह, सरदार भी बाबरी मस्जिद में रात के अंधेरे में भगवान राम की मूर्तियां स्थापित किए जाने से अत्यंत उद्वेलित थे। उन्होंने उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्दबल्लभ पंत को बल के एकतरफा प्रयोग का मुकाबला बल से करने की सलाह दी। इसके विपरीत, संघ परिवार ने बाबरी मस्जिद को ढहाने के लिए आक्रामकता और एकतरफा बल प्रयोग को तवज्जो दी।
अतः हम बिना किसी दुविधा के यह कह सकते हैं कि सरदार के विचार, मोदी और संघ परिवार की सोच से कतई नहीं मेल खाते। बल्कि, सरदार और संघ परिवार के विचार परस्पर विरोधी हैं। सरदार धर्मनिरपेक्ष भारत और सांझा भारतीय राष्ट्रवाद के हामी थे। यही कारण है कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद, सरदार ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया और यह प्रतिबंध तभी उठाया गया जब आरएसएस ने वायदा किया कि वह अपनी गतिविधियां केवल संस्कृति के क्षेत्र तक सीमित रखेगा। आरएसएस पर अन्य कड़ी शर्ते भी लगाई गईं। आरएसएस ने न तो इन शर्तों को निभाया और ना ही सरदार से किए गए अपने वायदों को। इस सब से यह संदेह होना स्वभाविक है कि सरदार का स्मारक बनाने के पीछे संघ परिवार व मोदी का कुछ और ही उद्देश्य है। यह तो स्पष्ट है कि संघ परिवार सरदार के आदर्शों पर नहीं चलना चाहता। वह तो केवल यह चाहता है कि लोग संघ परिवार के नकली लौह पुरूषों के झांसे में फंसे रहें।
-इरफान इंजीनियर
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