मेरे एक मित्र, आसानी से हार मानना जिनके स्वभाव का हिस्सा नहीं है, अपनी वक्तृव्य कला का उपयोग कर मुझे यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि साम्प्रदायिक हिंसा के लिए भाजपा से कहीं ज्यादा कांग्रेस जिम्मेदार है। उन्होंने देश में हुए प्रमुख साम्प्रदायिक दंगों को गिनाया और यह बताया कि जब ये भीषण घटनाक्रम हुए तब कांग्रेस, संबंधित क्षेत्र में सत्ता में थी। वे पूछते हैं कि हम गुजरात हिंसा की एक घटना को इतना अधिक महत्व क्यों दे रहे हैं और उसे नरेन्द्र मोदी व भाजपा के खिलाफ एक बड़ा मुद्दा क्यों बना रहे हैं? कुछ अन्य लोग भी अक्सर कहते हैं कि मोदी की सरकार की सन् 2002 के कत्लेआम में जो भूमिका थी, लगभग वही भूमिका कांग्रेस की सन् 1984 के सिक्ख-विरोधी दंगों में थी। अगर मोदी ने यह कहकर गुजरात को सही ठहराया था कि ‘‘हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है‘‘ तो राजीव गांधी ने भी सिक्खांें की मारकाट को औचित्यपूर्ण बताते हुए कहा था कि ‘‘जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती कांपती है‘‘- तो फिर मोदी और भाजपा को हम किस तरह साम्प्रदायिक दंगों के लिए अधिक जिम्मेदार ठहरा सकते हैं?
भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत हुई अंगेेजों द्वारा ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति लागू किए जाने के साथ। इस नीति के अन्तर्गत ही उन्होंने इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया और शासकों को धर्म के चश्मे से देखना शुरू किया। इसी सोच को जमींदारों और राजाओं-नवाबों के अस्त होते वर्ग ने अपना लिया। इन्हीं अस्त होते वर्गों ने मुस्लिम और हिन्दू-दोनों ब्रांडों की साम्प्रदायिकता की नींव रखी। हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व मुस्लिम राजाओं पर मंदिर ढहाने और जबरन धर्मांतरण करवाने का आरोप लगाते थे जबकि मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्व यह दावा करते थे कि वे देश के शासक हैं। इतिहास के इस तोड़े-मरोड़े गए संस्करण के कारण, हिन्दुओं और मुसलमानों में आपसी घृणा बढ़ती गई। शनैः-शनैः साम्प्रदायिक पार्टियां उभर आईं जिनमें मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा शामिल हैं। विभिन्न साम्प्रदायिक दलों ने समाज में नफरत फैलाने में तो कामयाबी हासिल कर ली परंतु चुनाव के मैदान में उन्हें कभी सफलता न मिल सकी। ब्रिटिश दौर में एक समुदाय को दूसरे समुदाय का शत्रु बनाने में अंग्र्रेजों द्वारा तैयार किए गए इतिहास के साम्प्रदायिक संस्करण की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अंगे्रजों ने एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी परंतु उस वक्त भी सड़कों और चैराहों पर हिंसा करने वाले लोग तो साम्प्रदायिक संगठनों के सदस्य ही हुआ करते थे। उस समय पुलिस और प्रशासन तटस्थ प्रेक्षक की भूमिका निभाता था। यहां यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दू-मुस्लिम हिंसा के लंबी त्रासद सिलसिले के पीछे कई कारक थे, जिन्होंने अलग-अलग भूमिकाएं निभाईं। अंग्रेजों के दौर में साम्प्रदायिक दंगों के लिए ब्रिटिश सरकार की नीतियां (इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण और फूट डालो और राज करो की नीति) व साम्प्रदायिक तत्व जिम्मेदार थे। तत्कालीन पुलिस और प्रशासन को इस सिलसिले में कतई दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
धीरे-धीरे समय बदलने लगा। स्वाधीनता के बाद प्रशासन और पुलिस तटस्थ नहीं रह गए। वे पक्षपात करने लगे। एक जानेमाने पुलिस अधिकार डाॅ व्ही. एन. राय द्वारा किए गए अनुसंधान से यह सामने आया है कि कोई भी साम्प्रदायिक हिंसा तब तक जारी नहीं रह सकती जब तक कि प्रशासन और राजनैतिक नेतृत्व ऐसा न चाहे। इसके लिए मुख्यतः दोषी हैं साम्प्रदायिक ताकतें, जो न केवल अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में दुष्प्रचार करती रहीं बल्कि उनके कुछ साथियों ने, साम्प्रदायिक हिंसा का इस्तेमाल, समाज को धार्मिक आधार पर धु्रवीकृत करने के लिए किया। धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण से साम्प्रदायिक ताकतों को सामाजिक, राजनैतिक और चुनावीे क्षेत्र में लाभ हुआ। अन्य पार्टियों के राजनेेताओं ने भी कबजब हिंसा का इस्तेमाल सत्ता में आने या उसमें बने रहने के लिए किया। उस समय हुए दंगों की जांच करने वाले विभिन्न आयोगों ने साम्प्रदायिक ताकतों की भूमिका को रेखांकित किया है। अहमदाबाद के 1969 के दंगों की जगमोहन रेड्डी न्यायिक आयोग द्वारा की गई जांच की रपट स्पष्ट कहती है कि दंगों के पीछे आरएसएस और जनसंघ के नेताओं की भूमिका थी। इस तरह, स्वतंत्रता के तुरंत बाद के वर्षों में, साम्प्रदायिक ताकतों ने सत्ता में न रहते हुए भी, दंगे भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
सन् 1970 के भिवंडी-जलगांव दंगों की जांच करने वाले न्यायमूर्ति डी. पी. मादौन आयोग की रपट कहती है कि ‘‘हिन्दू समुदाय के कुछ सदस्य, विशेषकर आरएसएस व पीएसपी के कार्यकर्ता, गड़बड़ी फैलाने के लिए आतुर थे और उन्हें इसमें सफलता इसलिए मिली क्योंकि पुलिस तटस्थ बनी रही।“ सन् 1971 के तेल्लीचेरी दंगों की न्यायमूर्ति जोसफ विथ्याथिल ने जांच की थी। इस रपट में यह कहा गया है कि मुस्लिम-विरोधी प्रचार की शुरूआत आरएसएस व जनसंघ ने की थी। इस सबसे सामाजिक वातावरण बिगड़ गया और समाज धार्मिक आधार पर धु्रवीकृत हो गया। सन् 1979 के जमशेदपुर दंगों की जांच करने वाले न्यायिक आयोग ने कहा कि ‘‘हिंसा की शुरूआत संयुक्त बजरंगबली अखाड़ा समिति-जो कि आरएसएस से जुड़ा संगठन था-ने की। इस संगठन ने जानबूझकर जुलूस के रास्ते को लेकर विवाद खड़ा किया और इसके सदस्यों ने मुस्लिम विरोधी नारे लगाए।‘‘ कन्याकुमारी के 1982 केे दंगों की जस्टिस वेणु गोपाल आयोग की जांच रपट उन अफवाहों को फैलाने में आरएसएस की भूमिका की चर्चा करती है, जिनके चलते हिंसा भड़की। जस्टिस श्रीकृष्ण जांच आयोग ने यह साफ कर दिया है कि मुंबई के दंगांे में भाजपा के साथी दल शिवसेना की अत्यंत कुत्सित भूमिका थी।
प्रश्न यह है कि क्या दंगों के लिए केवल शासक दल को दोषी ठहराया जाना उचित है? साम्प्रदायिक हिंसा, समाज को बांटने वाले साम्प्रदायिक प्रचार, पुलिस की भूमिका और शासक दल के दृष्टिकोण का मिलाजुला नतीजा होती है। अतः इन सभी को इस हिंसा के लिए दोषी ठहराया जा सकता है और ठहराया जाना चाहिए। शासक दल, जो कि अधिकांश दंगों के समय कांग्रेस रही है, को हिंसा से अपेक्षित कड़ाई से न निपटने, कई मौकों पर हिंसा को नजरअंदाज करने और कभी-कभी हिंसा को भड़काने-उदाहरणार्थ दिल्ली में-का दोषी ठहराया जा सकता है। इस सिलसिले में पुलिस की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। ब्रिटिश राज में साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस पूरी तरह तटस्थ रहती थी। परंतु आज वह दंगों में भाग लेती है। जैसा कि महाराष्ट्र के धुले में सन् 2012 में हुए दंगों से जाहिर है। यहां हिन्दू दंगाईयों की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि पुलिस ने खुद ही मुुसलमानों पर गोली चालन कर कई निर्दोष व्यक्तियों की जान ले ली।
तो साम्प्रदायिक हिंसा के मसले पर हम भाजपा और कांगे्रस की तुलना किस रूप में कर सकते हैं? भाजपा, दरअसल, आरएसएस की राजनैतिक शाखा है। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार, अफवाहें फैलाने, साम्प्रदायिक धु्रवीकरण करने, भड़काऊ भाषणबाजी और हिंसा करने का आरएसएस का कई दशकों का अनुभव है। उसने इस कौशल से अपने अनुषांगिक संगठनों और अपनी विभिन्न शाखाओं को भी लैस कर दिया है। गुजरात के कत्लेआम में संघ ने ये सभी भूमिकाएं निभाईं। परंतु बाकी दंगों में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सत्ता में न रहने का अर्थ यह नहीं है कि आरएसएस ने दंगे भड़काने में प्रमुख भूमिका अदा नहीं की। यह तर्क कि चूंकि अधिकांश दंगे कांग्रेस के राज में हुए इसलिए दंगों के लिए कांग्रेस ही दोषी है, दरअसल, साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा कुटिलतापूर्वक गढ़े गए कई मिथकों में से एक है। यद्यपि साम्प्रदायिक हिंसा के संदर्भ में कांग्रेस का दामन पूरी तरह पाकसाफ नहीं है परंतु उसकी भूमिका की तुलना भाजपा की भूमिका से करना घोर अनुचित होगा। सिक्ख-विरोधी दंगों को छोड़कर कांग्रेस ने कभी दंगे करवाने में केन्द्रीय भूमिका नहीं निभाई। हां, उसने अपने कर्तव्य पालन में कोताही अवश्य बरती। परंतु भाजपा की तो अधिकांश दंगे भड़काने में केन्द्रीय भूमिका रही है।
सन् 1984 के सिक्ख कत्लेआम में कांग्रेस की भूमिका उसकी बहुवादी व धर्मनिरपेक्ष विरासत पर एक बदनुमा दाग है। उसने इस दाग को मिटाने की काफी कोशिशें की हैं। कांग्रेस ने दंगों के लिए माफी मांगी है और उसकी सरकार का प्रधानमंत्री एक सिक्ख है, जो पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद सबसे लंबे समय तक लगातार इस पद पर आसीन रहने वाले व्यक्ति हैं। भाजपा की किसी और पार्टी से इसलिए भी तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि भाजपा, आरएसएस की राजनैतिक संतान है और आरएसएस का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है। समाजविज्ञानियों ने कांग्रेस और भाजपा की राजनीति के बीच के विरोधाभास को स्पष्ट किया है। एजाज अहमद कहते हैं कि जहां भाजपा का कार्यक्रम ही साम्प्रदायिक है वहीं कांग्रेस की साम्प्रदायिकता, अवसरवादी है। मुकुल केसवन ने अपने एक हालिया लेख में कहा कि कांग्रेस मूलतः बहुवादी और मौका पड़ने पर साम्प्रदायिक है जबकि भाजपा विचारधारा के स्तर पर साम्प्रदायिक और मौका पड़ने पर धर्मनिरपेक्ष है।
इस तथ्य के बावजूद कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे कई कारक होते हैं, दो गलत चीजें मिलकर एक सही नहीं बन सकतीं। कांगे्रस को ऊपर से नीचे तक व्यापक सुधार लाने होंगे ताकि साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाया जा सके। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार का प्रभावी खण्डन होना चाहिए और कानूनों में इस तरह के परिवर्तन होने चाहिए की न केवल दंगाई बल्कि दंगों को रोकने के अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले अधिकारियों को भी सजा मिल सके। जहां तक आरएसएस और उसके साथियों का सवाल है, उनसे यह उम्मीद करना बेकार है कि वे साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाने में देश की कोई मदद करेंगे।
-राम पुनियानी
भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरूआत हुई अंगेेजों द्वारा ‘फूट डालो और राज करो‘ की नीति लागू किए जाने के साथ। इस नीति के अन्तर्गत ही उन्होंने इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया और शासकों को धर्म के चश्मे से देखना शुरू किया। इसी सोच को जमींदारों और राजाओं-नवाबों के अस्त होते वर्ग ने अपना लिया। इन्हीं अस्त होते वर्गों ने मुस्लिम और हिन्दू-दोनों ब्रांडों की साम्प्रदायिकता की नींव रखी। हिन्दू साम्प्रदायिक तत्व मुस्लिम राजाओं पर मंदिर ढहाने और जबरन धर्मांतरण करवाने का आरोप लगाते थे जबकि मुस्लिम साम्प्रदायिक तत्व यह दावा करते थे कि वे देश के शासक हैं। इतिहास के इस तोड़े-मरोड़े गए संस्करण के कारण, हिन्दुओं और मुसलमानों में आपसी घृणा बढ़ती गई। शनैः-शनैः साम्प्रदायिक पार्टियां उभर आईं जिनमें मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा शामिल हैं। विभिन्न साम्प्रदायिक दलों ने समाज में नफरत फैलाने में तो कामयाबी हासिल कर ली परंतु चुनाव के मैदान में उन्हें कभी सफलता न मिल सकी। ब्रिटिश दौर में एक समुदाय को दूसरे समुदाय का शत्रु बनाने में अंग्र्रेजों द्वारा तैयार किए गए इतिहास के साम्प्रदायिक संस्करण की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अंगे्रजों ने एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी परंतु उस वक्त भी सड़कों और चैराहों पर हिंसा करने वाले लोग तो साम्प्रदायिक संगठनों के सदस्य ही हुआ करते थे। उस समय पुलिस और प्रशासन तटस्थ प्रेक्षक की भूमिका निभाता था। यहां यह महत्वपूर्ण है कि हिन्दू-मुस्लिम हिंसा के लंबी त्रासद सिलसिले के पीछे कई कारक थे, जिन्होंने अलग-अलग भूमिकाएं निभाईं। अंग्रेजों के दौर में साम्प्रदायिक दंगों के लिए ब्रिटिश सरकार की नीतियां (इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण और फूट डालो और राज करो की नीति) व साम्प्रदायिक तत्व जिम्मेदार थे। तत्कालीन पुलिस और प्रशासन को इस सिलसिले में कतई दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
धीरे-धीरे समय बदलने लगा। स्वाधीनता के बाद प्रशासन और पुलिस तटस्थ नहीं रह गए। वे पक्षपात करने लगे। एक जानेमाने पुलिस अधिकार डाॅ व्ही. एन. राय द्वारा किए गए अनुसंधान से यह सामने आया है कि कोई भी साम्प्रदायिक हिंसा तब तक जारी नहीं रह सकती जब तक कि प्रशासन और राजनैतिक नेतृत्व ऐसा न चाहे। इसके लिए मुख्यतः दोषी हैं साम्प्रदायिक ताकतें, जो न केवल अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में दुष्प्रचार करती रहीं बल्कि उनके कुछ साथियों ने, साम्प्रदायिक हिंसा का इस्तेमाल, समाज को धार्मिक आधार पर धु्रवीकृत करने के लिए किया। धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण से साम्प्रदायिक ताकतों को सामाजिक, राजनैतिक और चुनावीे क्षेत्र में लाभ हुआ। अन्य पार्टियों के राजनेेताओं ने भी कबजब हिंसा का इस्तेमाल सत्ता में आने या उसमें बने रहने के लिए किया। उस समय हुए दंगों की जांच करने वाले विभिन्न आयोगों ने साम्प्रदायिक ताकतों की भूमिका को रेखांकित किया है। अहमदाबाद के 1969 के दंगों की जगमोहन रेड्डी न्यायिक आयोग द्वारा की गई जांच की रपट स्पष्ट कहती है कि दंगों के पीछे आरएसएस और जनसंघ के नेताओं की भूमिका थी। इस तरह, स्वतंत्रता के तुरंत बाद के वर्षों में, साम्प्रदायिक ताकतों ने सत्ता में न रहते हुए भी, दंगे भड़काने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
सन् 1970 के भिवंडी-जलगांव दंगों की जांच करने वाले न्यायमूर्ति डी. पी. मादौन आयोग की रपट कहती है कि ‘‘हिन्दू समुदाय के कुछ सदस्य, विशेषकर आरएसएस व पीएसपी के कार्यकर्ता, गड़बड़ी फैलाने के लिए आतुर थे और उन्हें इसमें सफलता इसलिए मिली क्योंकि पुलिस तटस्थ बनी रही।“ सन् 1971 के तेल्लीचेरी दंगों की न्यायमूर्ति जोसफ विथ्याथिल ने जांच की थी। इस रपट में यह कहा गया है कि मुस्लिम-विरोधी प्रचार की शुरूआत आरएसएस व जनसंघ ने की थी। इस सबसे सामाजिक वातावरण बिगड़ गया और समाज धार्मिक आधार पर धु्रवीकृत हो गया। सन् 1979 के जमशेदपुर दंगों की जांच करने वाले न्यायिक आयोग ने कहा कि ‘‘हिंसा की शुरूआत संयुक्त बजरंगबली अखाड़ा समिति-जो कि आरएसएस से जुड़ा संगठन था-ने की। इस संगठन ने जानबूझकर जुलूस के रास्ते को लेकर विवाद खड़ा किया और इसके सदस्यों ने मुस्लिम विरोधी नारे लगाए।‘‘ कन्याकुमारी के 1982 केे दंगों की जस्टिस वेणु गोपाल आयोग की जांच रपट उन अफवाहों को फैलाने में आरएसएस की भूमिका की चर्चा करती है, जिनके चलते हिंसा भड़की। जस्टिस श्रीकृष्ण जांच आयोग ने यह साफ कर दिया है कि मुंबई के दंगांे में भाजपा के साथी दल शिवसेना की अत्यंत कुत्सित भूमिका थी।
प्रश्न यह है कि क्या दंगों के लिए केवल शासक दल को दोषी ठहराया जाना उचित है? साम्प्रदायिक हिंसा, समाज को बांटने वाले साम्प्रदायिक प्रचार, पुलिस की भूमिका और शासक दल के दृष्टिकोण का मिलाजुला नतीजा होती है। अतः इन सभी को इस हिंसा के लिए दोषी ठहराया जा सकता है और ठहराया जाना चाहिए। शासक दल, जो कि अधिकांश दंगों के समय कांग्रेस रही है, को हिंसा से अपेक्षित कड़ाई से न निपटने, कई मौकों पर हिंसा को नजरअंदाज करने और कभी-कभी हिंसा को भड़काने-उदाहरणार्थ दिल्ली में-का दोषी ठहराया जा सकता है। इस सिलसिले में पुलिस की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। ब्रिटिश राज में साम्प्रदायिक दंगों में पुलिस पूरी तरह तटस्थ रहती थी। परंतु आज वह दंगों में भाग लेती है। जैसा कि महाराष्ट्र के धुले में सन् 2012 में हुए दंगों से जाहिर है। यहां हिन्दू दंगाईयों की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि पुलिस ने खुद ही मुुसलमानों पर गोली चालन कर कई निर्दोष व्यक्तियों की जान ले ली।
तो साम्प्रदायिक हिंसा के मसले पर हम भाजपा और कांगे्रस की तुलना किस रूप में कर सकते हैं? भाजपा, दरअसल, आरएसएस की राजनैतिक शाखा है। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार, अफवाहें फैलाने, साम्प्रदायिक धु्रवीकरण करने, भड़काऊ भाषणबाजी और हिंसा करने का आरएसएस का कई दशकों का अनुभव है। उसने इस कौशल से अपने अनुषांगिक संगठनों और अपनी विभिन्न शाखाओं को भी लैस कर दिया है। गुजरात के कत्लेआम में संघ ने ये सभी भूमिकाएं निभाईं। परंतु बाकी दंगों में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सत्ता में न रहने का अर्थ यह नहीं है कि आरएसएस ने दंगे भड़काने में प्रमुख भूमिका अदा नहीं की। यह तर्क कि चूंकि अधिकांश दंगे कांग्रेस के राज में हुए इसलिए दंगों के लिए कांग्रेस ही दोषी है, दरअसल, साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा कुटिलतापूर्वक गढ़े गए कई मिथकों में से एक है। यद्यपि साम्प्रदायिक हिंसा के संदर्भ में कांग्रेस का दामन पूरी तरह पाकसाफ नहीं है परंतु उसकी भूमिका की तुलना भाजपा की भूमिका से करना घोर अनुचित होगा। सिक्ख-विरोधी दंगों को छोड़कर कांग्रेस ने कभी दंगे करवाने में केन्द्रीय भूमिका नहीं निभाई। हां, उसने अपने कर्तव्य पालन में कोताही अवश्य बरती। परंतु भाजपा की तो अधिकांश दंगे भड़काने में केन्द्रीय भूमिका रही है।
सन् 1984 के सिक्ख कत्लेआम में कांग्रेस की भूमिका उसकी बहुवादी व धर्मनिरपेक्ष विरासत पर एक बदनुमा दाग है। उसने इस दाग को मिटाने की काफी कोशिशें की हैं। कांग्रेस ने दंगों के लिए माफी मांगी है और उसकी सरकार का प्रधानमंत्री एक सिक्ख है, जो पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद सबसे लंबे समय तक लगातार इस पद पर आसीन रहने वाले व्यक्ति हैं। भाजपा की किसी और पार्टी से इसलिए भी तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि भाजपा, आरएसएस की राजनैतिक संतान है और आरएसएस का लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है। समाजविज्ञानियों ने कांग्रेस और भाजपा की राजनीति के बीच के विरोधाभास को स्पष्ट किया है। एजाज अहमद कहते हैं कि जहां भाजपा का कार्यक्रम ही साम्प्रदायिक है वहीं कांग्रेस की साम्प्रदायिकता, अवसरवादी है। मुकुल केसवन ने अपने एक हालिया लेख में कहा कि कांग्रेस मूलतः बहुवादी और मौका पड़ने पर साम्प्रदायिक है जबकि भाजपा विचारधारा के स्तर पर साम्प्रदायिक और मौका पड़ने पर धर्मनिरपेक्ष है।
इस तथ्य के बावजूद कि साम्प्रदायिक हिंसा के पीछे कई कारक होते हैं, दो गलत चीजें मिलकर एक सही नहीं बन सकतीं। कांगे्रस को ऊपर से नीचे तक व्यापक सुधार लाने होंगे ताकि साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाया जा सके। साम्प्रदायिक दुष्प्रचार का प्रभावी खण्डन होना चाहिए और कानूनों में इस तरह के परिवर्तन होने चाहिए की न केवल दंगाई बल्कि दंगों को रोकने के अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले अधिकारियों को भी सजा मिल सके। जहां तक आरएसएस और उसके साथियों का सवाल है, उनसे यह उम्मीद करना बेकार है कि वे साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पाने में देश की कोई मदद करेंगे।
-राम पुनियानी
6 टिप्पणियां:
lekh bahut adhik spast nahi hai
यहां हिन्दू दंगाईयों की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि पुलिस ने खुद ही मुुसलमानों पर गोली चालन कर कई निर्दोष व्यक्तियों की जान ले ली।
aap police ke virudh dusprachar kar rahe hain , jab log nalayaki par utar ayen to police ko goli chalani padti hai ,,,, main apko kitne case bata sakta hun jahan police ne hinduon par goli chalayi , police dharam ke adhar par karya nahi karti sahab , jab log police par hamla karenge to police kya unki pooja karegi
कांग्रेस ने दंगों के लिए माफी मांगी है और उसकी सरकार का प्रधानमंत्री एक सिक्ख है,
maafi kya hoti hai sahab , pidito ko nyaya do maafi ka jhunjhuna mat thamao ,,,,,,,, pradhanmantri sikh hai isse dango ka kya matlab ,,,,,, bekar ki bat karte hain aap,,,,,,,,,,,,,,,,, doshi ko dand do chahahe modi ho chahahe koi aur maafi aur chhama se kuch nahi hota ,,,,,, mafi mangte ho to jail jaao ,,,,,,,,,,,,,,
गुजरात के कत्लेआम में संघ ने ये सभी भूमिकाएं निभाईं। परंतु बाकी दंगों में भी उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
to f.i.r darz karo , baten kyun banate ho ram ji , kya nyayalaya par vishwas nahi hai ,
बहुत ही असंतुलित और आँखों पर पट्टी बाँधकर लिखा गया मूर्खतापूर्ण आलेख है। हास्यास्पद। आर.एस.एस. में सौ बुराइयाँ हो सकती हैं लेकिन बाकी सब दूध के धुले कैसे हो गये?
वी.एन.राय साहब का निष्कर्ष उद्धरित तो कर दिया लेकिन उसका विश्लेषण बिल्कुल उल्टा कर दिया।
“कोई भी साम्प्रदायिक हिंसा तब तक जारी नहीं रह सकती जब तक कि प्रशासन और राजनैतिक नेतृत्व ऐसा न चाहे।” ,आर.एस.एस. के पास तो न प्रशासन रहा और न ही राजनैतिक नेतृत्व। फिर यह कैसे हो गया?
अधूरा सत्य बयान करता हुआ राम पुनियानी सार्थक लेख
साम्प्रदायिक का जहर भारत के बच्चों को शिक्षा और संसेकारों मे परोसा जा रहा है। आरएसएस का शाखाओं में, शिशु मंदिरों में साथ की मदरतों की धर्मान्ध तालीम में और कुछ कथित सैकुलर ताकतों की वोट बैंक राजनीति की कुटिल चालों में. साम्प्रदायिकता ने देश का, देशभक्ति का, राष्ट्रवाद का बंटाधार करके रख दिया है।
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