यह आशंका तो अमरीकी साम्राज्यवाद पर नज़र रखने वालों को इराक में सद्दाम हुसैन को सूली पर लटकाने के बाद से बनी ही हुई थी कि अगला निशाना उत्तरी कोरिया नहीं, बल्कि सीरिया होगा और यही सच भी साबित होता दिख रहा है। हालाँकि हल्ला-गुल्ला जुलाई 2013 से दक्षिण कोरिया और अमरीका की फौजों के संयुक्त सैन्य अभ्यास से ही शुरू हो गया था लेकिन जानने वाले जान रहे थे कि अमरीका का निशाना उत्तरी कोरिया नहीं हो सकता। अगर उत्तरी कोरिया व उसके शेष विश्व के साथ तनाव को देखें तो यह साफ़ हो जाता है कि आत्मरक्षा के लिए परमाणु हथियार विकसित करने के सिवा अमरीका ने उत्तरी कोरिया के पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा था। उत्तरी कोरिया अस्सी के दशक में परमाणु अप्रसार संधि पर भी दस्तखत कर चुका था और उसने अपने परमाणु रिएक्टर भी संयुक्त राष्ट्र संघ की जाँच के लिए खोल दिए थे, लेकिन उसके बाद कोरियाई इलाके में बढ़ती अमरीकी सैन्य गतिविधियों और दबावों से आजिज आकर उत्तरी कोरिया ने पुनः अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाया।
अमरीकी पत्रकार आई0एफ0 स्टोन की किताब ‘हिडन हिस्ट्री आॅफ द कोरियन वार’ में बताया गया है कि किस तरह अमरीका व दक्षिणी कोरिया ने 1950 में उत्तरी कोरिया को युद्ध के लिए भड़काया था ताकि उत्तरी कोरिया दक्षिणी कोरिया पर हमला करने की गलती करे और उनके जाल में फँस जाए और हुआ भी यही। इसी आजमाई हुई रणनीति को फिर से दक्षिणी कोरिया और अमरीका मिलकर उत्तरी कोरिया के खिलाफ अपना रहे हैं। इस बार भी उत्तरी कोरिया दक्षिणी कोरिया और अमरीका की जुगलबंदी से झुँझलाया है। लेकिन इस बार न दक्षिण कोरिया उत्तरी कोरिया के साथ युद्ध छेड़ने का रिस्क ले सकता है और न ही अमरीका। कारण साफ है-उत्तरी कोरिया के पास मौजूद परमाणु हथियार।
हालाँकि हम सबके लिए, जो परमाणु हथियारों का विरोध करते हैं, यह कोई प्रषंसनीय बात नहीं है लेकिन यह देखना भी उतना ही ज़रूरी है कि परमाणु हथियार संपन्न अमरीका व अन्य साम्राज्यवादी देष उन्हीं पर अपनी दादागिरी चला रहे हैं जिनके पास परमाणु हथियार नहीं हैं, चाहे वह इराक रहा हो या लीबिया या अब सीरिया।
उत्तरी कोरिया का समाजवाद
उत्तरी कोरिया के भीतरी हालात क्या हैं और वे बाहरी दुनिया में हो रही हलचलों के बारे में क्या सोचते हैं, इस बारे में जो जानकारी विष्व का मुख्यधारा मीडिया देता है, ज्यादातर हम तक वही पहुँच पाती है और उस जानकारी का जरिया दक्षिणी कोरिया होता है अतः उसके पूर्वाग्रह निष्चित ही ख़बर के साथ जुड़े रहते होंगे। बुनियादी तौर पर यह माना जा सकता है कि विष्व की मौजूदा स्थिति को देखते हुए उत्तरी कोरिया के लिए यह ज़्यादा ज़रूरी है कि वह अपनी स्वतंत्रता, संप्रभुता और अपने लोगों की रक्षा करे, बजाए इसके कि वह अपने आपको समाजवादी और लोकतांत्रिक साबित करने के लिए अपनी सख़्त सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगने दे। हाल में जिस तरह साइबर
माध्यमों से जासूसी के मामले सामने आए हैं और ब्रैडले मैनिंग, जूलियन असांज और स्नोडेन की गिरफ्तारियों ने बताया है कि किस तरह विष्व की प्रमुख महाषक्तियाँ अपने ही नागरिकों के फोन, ई-मेल, एस.एम.एस. और निजी संचार के साधनों के जरिए चोरी छिपे जासूसी कर रही हैं तो यह समझना आसान है कि आज की दुनिया में अपने देष को, उसकी आज़ादी और संप्रभुता को और अपनी जनता की
उपलब्धियों को अमरीकी आधिपत्य से बचाए रखने का सबसे बेहतर विकल्प खामोषी अख्तियार कर लेना ही है।
वर्ष 2012 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने मानवाधिकारों की स्थिति की जानकारी के लिए जो रैपर्टियर नियुक्त किया था, उन्हें इस बार भी उत्तरी कोरिया ने देष में प्रवेष की अनुमति नहीं दी। उन्होंने उत्तरी कोरिया में काम कर रहे अन्य संगठनों, प्रवासियों, एन.जी.ओ. आदि से बात करके जो रिपोर्ट तैयार की, उसमें इस बात का तो उल्लेख है कि आर्थिक मोर्चे पर उत्तरी कोरिया ने थोड़ा बेहतर प्रदर्षन किया है लेकिन लोगों के लोकतांत्रिक
अधिकारों के दमन की बातें भी उसमें काफी हैं। सोचने वाली बात यह है कि ऐसा दमन तो भारत और अमरीका जैसे लोकतांत्रिक देषों में और अमरीका के मित्र इजराइल या पाकिस्तान में भी खूब धड़ल्ले से होता है, तो क्या इस बिना पर इन देषों पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रतिबंधात्मक कार्रवाई की! चीन से लगे हुए इलाकों में उत्तरी कोरिया के रास्ते आने वाली नषीली दवाओं का भी बड़ा इल्जाम रहता है जिसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसीलिए ज़्यादा नहीं प्रचारित किया जाता ताकि संबंध खराब न हों। वैसे काफी मुमकिन है कि इसके पीछे भी विकसित देषों का संरक्षण प्राप्त माफिया काम करता हो जिस तरह वह अफगानिस्तान और अफ्रीका और कोलंबिया आदि तमाम देषों में फैला हुआ है।
बेषक यह कहना मुष्किल है कि उत्तरी कोरिया के बारे में सच क्या है, लेकिन फिर भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि उत्तरी कोरिया तमाम तरह की प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद अमरीकी दबाव के आगे तन कर खड़ा है। जहाँ तक ‘लोकतंत्र’ या ‘मानवाधिकारों’ की बात है तो वह उन देषों में भी कितना सुरक्षित है जो अपने आपको लोकतंत्र के झण्डाबरदार मानते हैं, यह हम सभी जानते हैं।
उत्तरी कोरिया के बारे में कोई चाहे तो भी उसके समाजवाद की दो कारणों से रक्षा नहीं कर सकता। पहला तो यह कि जिस तरह का वंषवाद उत्तर कोरिया में शासन के लिए स्वीकृत किया गया है वह किसी भी तरह समाजवादी राज्य के सिद्धांत को स्वीकार्य नहीं हो सकता। लेनिन, स्टालिन, या माओ में से किसी ने भी इस तरह के वंषवाद को बढ़ावा नहीं दिया। लोग फिदेल कास्त्रो और राउल कास्त्रो के बारे में जो इल्जाम लगाते हैं, वे दरअसल न तो क्यूबाई क्रांति को ठीक से जानते हैं न ही राउल कास्त्रो को, राउल पहले दिन से क्यूबाई क्रांति के अग्रणी नेता रहे हैं। किसी को इसलिए बेषक प्राथ्मिकता नहीं मिलनी चाहिए कि वह किसी का भाई-भतीजा या बेटा-बेटी है लेकिन इस वजह से किसी की काबिलियत को नजरंदाज करना कहाँ तक उचित है कि वह किसी का भाई-भतीजा या बेटा-बेटी है। लेकिन जो बात राउल कास्त्रो के बारे में कही जा सकती है वही उत्तरी कोरिया के नये और युवा राष्ट्र प्रमुख किम जोंग उन के बारे में नहीं कही जा सकती। किम की उम्र करीब तीस वर्ष है और उन्हें देष चलाने का इसके सिवाय कोई तजुर्बा नहीं है कि वे उस परिवार से ताल्लुक रखते हैं जिसकी दो पीढि़याँ उत्तरी कोरिया में शासन कर चुकी हैं। उनकी परिपक्वता का कोई सबूत नहीं है और उन्हें कोई विषेष प्रषिक्षण मिला हो, ऐसी भी जानकारी नहीं है। इसीलिए यह बहुत मुमकिन लगता है कि उत्तरी कोरिया की वर्कर्स पार्टी के प्रतिबद्ध वरिष्ठ नेताओं ने सोचा हो कि किम को आगे कर दिया जाए ताकि जनता का भावनात्मक जुड़ाव परिवार के साथ बना रहे और देष चलाने का काम जैसे वे पहले कर रहे थे, वैसे करते रहें। जो भी हो, कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर इस तरह का वंषवाद निर्विवाद कायम नहीं रह सकता। तो अव्वल तो यह कि पिछले क़रीब साठ वर्षों से उत्तरी कोरिया पर किम परिवार का शासन एक कारण के सिवाय किसी भी जनवादी तार्किकता से स्वीकार नहीं किया जा सकता और एक कारण हो सकता है कि उत्तर कोरियाई लोग ही ऐसा चाहते हों। यह समझना मुष्किल है कि कोरियाई लोग क्या चाहते हैं क्योंकि देष के भीतर से जो आवाज़ें छनकर बाहर आती हैं और लगभग विज्ञापन की शक्ल में होती हैं, इसलिए उनकी विष्वसनीयता पर विष्वास करना मुष्किल है। इसके अलावा जो अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाएँ और अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्थान समय-समय पर उत्तर कोरिया के बारे में अपनी रिपोर्ट जारी करते हैं उनका अमरीका के प्रति प्रेम चाहे हो न हो, लेकिन कम्युनिज़्म के प्रति द्वेष किसी से छिपा नहीं है।
दूसरी वजह यह है कि आप जिसके पक्ष में खड़े होते हैं उसके बारे में आप कुछ जानते तो हों! उन्होंने अपने देष-समाज में मज़दूरों व किसानों का राज कायम करने की दिषा में कितनी तरक्की की है, किस हद तक उन्होंने अपने समाज के भीतर उत्पादक शक्तियों को विकसित किया है और उत्पादन संबंधों को कितना समाजवादी बनाया है, कितने सहकारी समूह वहाँ किस तरह काम करते हैं, उत्पादन आधार और कृषि की अवस्था क्या है और षिक्षा व रोजगार में कैसा तालमेल है-इन सारे सवालों के जवाब इतने विरोधाभासी और एक-दूसरे को झुठलाते हुए आते हैं कि कहना मुष्किल है कि सच क्या है।
उत्तरी कोरिया एक ऐसा देष है जिस पर अपने आपको समाजवादी कहने वाले लोगों में भी दो तरह की भावनाएँ पैदा होती हैं। एक तो इस गौरव की भावना कि वह अमरीका के वारों से अब तक अपने आपको बचाये रखे है और दूसरी यह कि समाजवाद में जिस तरह की सामाजिक चेतना और लोगों की व्यक्तिगत व सामाजिक खुषहाली अभीष्ट होती है, वह दूर से देखने पर तो नज़र आती नहीं और पास से नजारे की अनुमति लोगों को वह देते नहीं। इस दूसरे भाव के हम बहुत सारे कारण सोवियत संघ के गिरने से लेकर देष के भीतर लगातार टूटे प्राकृतिक कहरों में बेषक खोज सकते हैं लेकिन उससे तस्वीर तो साफ या चमकदार नहीं होती।
मानवाधिकारोें के मामले में उत्तरी कोरिया का नाम किसी क्रूर तानाषाह राज्य की तरह ही लिया जाता है। उत्तर कोरिया की जेलों से निकल भागने में कामयाब हुए कुछ लोगों ने उत्तर कोरिया द्वारा कैदियों के साथ की जाने वाली बर्बरता के दिल दहला देने वाले वाकये हाल में संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकार समिति को बताए हैं जिनको आधार बनाकर उत्तर कोरिया के खिलाफ लगे प्रतिबंधों को और कड़ा करने पर विचार किया जा सकता है, ताकि दबाव बढ़ाया जा सके लेकिन उत्तरी कोरिया के कानों पर बाहर की दुनिया में उसके खिलाफ चलने वाली इन हवाओं की जँू भी नहीं रेंगती और वह सबको साम्राज्यवादी साजिष कहकर एक ही झटके में खारिज कर देता है।
अस्तित्व का सवाल
अमरीकी साम्राज्यवाद के हमलों के बावजूद जो देष अपने आपको पूँजीवाद से बचाए रख सके, उनमें क्यूबा, चीन, वियतनाम के अलावा उत्तरी कोरिया का ही नाम आता है। चीन और वियतनाम का विस्तृत विष्लेषण यहाँ अभीष्ट नहीं है लेकिन इतना कहना ज़रूरी है कि इन देषों में समाजवाद का जो भी रूप मौजूद है वह अनेक समाजवादी विचारकों के मुताबिक काफी हद तक नाम का समाजवादी रह गया है और उसमें बाजार ने सेंध लगा ली है। यह किस हद तक सही है और किस हद तक नहीं, इसकी चर्चा हम कभी और करेंगे लेकिन क्यूबा और उत्तरी कोरिया के बारे में यह बात नहीं कही जाती। बेषक सोवियत संघ के विघटन के बाद दोनों ही देषों को अनेक किस्म की मुष्किलें आर्थिक, सैनिक व अंतर्राष्ट्रीय मोर्चों पर झेलनी पड़ीं, लेकिन दोनों ही मुल्कों ने बाज़ार को अपनी पकड़ से बाहर नहीं होने दिया। इस मामले में क्यूबा और उत्तरी कोरिया द्वारा जो रणनीति अपनाई गई वह एक-दूसरे से पूरी तरह विपरीत होते हुए भी अपने मक़सद में कामयाब रही। सोवियत संघ के विघटन के बाद क्यूबा ने जहाँ इस बात की तीव्र ज़रूरत समझी कि अपने पड़ोसियों में भी समाजवाद की चेतना और गर्माहट को फैलाया जाए ताकि उसके समाजवाद की रक्षा का बाहरी कवच विस्तृत व मजबूत हो, वहीं उत्तरी कोरिया ने कछुए की तरह अपने आपको खोल में समेट लिया। दोनों देषों के इतिहास व भूगोल को देखने पर यह फ़कऱ् आसानी से समझ में भी आ जाता है। यूँ तो चीन और रूस उत्तरी कोरिया के बिल्कुल नजदीक मौजूद हैं लेकिन यह बात अब सब समझते हैं कि जिस तरह सोवियत संघ अमरीका को काबू में कर सकता था, वैसी स्थिति में फिलहाल न रूस है और न ही चीन। इसलिए उत्तरी कोरिया यह बखूबी जानता है कि रूस और चीन उसके पक्ष में खुलकर नहीं आ सकते। वह यह भी बखूबी जानता है कि लड़ना उसे ही पड़ेगा और अगर यह लड़ाई होती है तो उसके नतीजे उत्तरी कोरिया के अस्तित्व के लिए भी निर्णायक हो सकते हैं। इसीलिए उसने जो रणनीति अपनायी वह अपने आपको परमाणु शक्ति संपन्न बना लेने की थी। इराक और लीबिया के उदाहरण सामने देखते हुए यह अपनी छाती पर बम
बाँध लेने जैसी आत्म सुरक्षा थी और अब तक तो यह रणनीति कामयाब ही साबित हुई है। न केवल परमाणु हथियार बल्कि छोटी, मध्यम व लंबी दूरी की मिसाइलों के अनेक नाकाम परीक्षणों के बाद उत्तर कोरिया ने कामयाब परीक्षण कर लिए हैं। अनेक अनाधिकारिक सूत्रों व भू-सामरिक अध्ययनों में संलग्न शोध संस्थाओं का मानना है कि भले ही यह मिसाइलें पूर्णतः विष्वसनीय न हों लेकिन इनकी मारक क्षमता अमरीका तक होने से इंकार नहीं किया जा सकता। अनेक असफल प्रयत्नों के बाद आखिरकार उत्तर कोरिया ने 2012 की दिसंबर में अपना उपग्रह भी प्रक्षेपित कर लिया है।
उपलब्धियाँ भी हैं
अनेक पूँजीवादी मीडिया संस्थानों द्वारा उत्तरी कोरिया के नेताओं को विक्षिप्त, सिरफिरे युद्धोन्मादी और अपनी जनता के प्रति पूरी तरह गैर-जिम्मेदार दिखाया जाता है। लेकिन वास्तव में 1953 में कोरियाई युद्ध की समाप्ति के बाद से ही उत्तरी कोरिया ने जिस तरह का प्रदर्षन किया है वह वाकई काबिले तारीफ है। नब्बे के दषक में पड़े लगातार अकाल से कहा जाता है कि 6 से 10 लाख की उत्तर कोरियाई आबादी खत्म हो गई थी और राजनैतिक सहयोग के अभाव में फिर से अपने आपको इस काबिल बना लेना बगैर एक चेतना संपन्न जनता के सहयोग के संभव नहीं है। वर्ष 2012 के अंत में अपने पूर्व राष्ट्र प्रमुख किम जोंग इल की मृत्यु की पहली बरसी पर समृद्धि की श्रद्धांजलि देने की घोषणा की और आर्थिक स्थितियों का जो लेखा-जोखा प्रस्तुत किया वह अविष्वसनीय रूप से शानदार प्रदर्षन का था। इसके पीछे बेषक महज 30 वर्ष की उम्र में दुनिया के सबसे कम उम्र के नवनियुक्त राष्ट्र प्रमुख किम जोंग उन के नेतृत्व के प्रति विष्वास पैदा करना भी एक वजह रही होगी। हर क्षेत्र में लक्ष्य से अधिक उत्पादन किया बताया गया। वहीं दूसरी तरफ अनेक सूचना विस्फोट बताते हैं कि उत्तरी कोरिया के सामने गुआंतानामो की जेल या नर्क भी कुछ नहीं है। हाल में एक ख़बर यह आई कि उत्तरी कोरिया के बदनाम पाँच कैदी कैम्पों में से एक में एक महिला कैदी को अपने ही बच्चे की हत्या के लिए मजबूर किया गया। उसके सच-झूठ का पता कभी नहीं चल पाता। बताते हैं कि हर कैम्प में बीस हजार से लेकर पचास हजार तक ऐसे लोग कैदी बनाकर रखे गए हैं जिनका अपराध सिर्फ़ सवाल करना या शासन के प्रति असहमति जताना था। उत्तरी कोरिया की खामोषी को लोग अपने-अपने ढंग से परिभाषित करते रहते हैं। यह ज़रूर सच है कि उत्तरी कोरिया में ग़रीबी और कुपोषण है और काफी है। दुनिया के अनेक देषों से मदद लेकर वह अपने लोगों की अकाल और बाढ़ जन्य गरीबी और कुपोषण से रक्षा करने के प्रयास में है। लेकिन उसी के साथ सी.आई.ए. जैसी अमरीकी जासूसी संस्था भी मानती है कि उत्तरी कोरिया में साक्षरता का प्रतिषत अमरीका और इंग्लैण्ड जैसे देषों के बराबर है (देखें सी.आई.ए. वल्र्ड फैक्टबुक)। भीषण बाढ़ों और भयंकर अकालों से जूझने के बावजूद ‘सबको घर’ का संवैधानिक अधिकार निभाए रखा गया (देखें किताब नाॅर्थ कोरियाः एनादर कंट्री, न्यू प्रेस, 2003)। उत्तरी कोरिया के संविधान में अनुच्छेद 70 के तहत सभी स्वस्थ शरीर वाले नागरिकों को काम का अधिकार दिया गया है और अगर उत्तरी कोरिया के दावे को मानें तो वहाँ बेरोजगारी है ही नहीं। हालाँकि यह दुःख की बात है कि क़रीब ढाई करोड़ की आबादी वाले देष में क़रीब एक करोड़ लोग तो फौज में ही हैं। उत्तरी कोरिया में दुनिया की चैथी सबसे बड़ी फौज है और उसे दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य समाज कहा जाता है।
अमरीकी हस्तक्षेपः शांति की राह का सबसे बड़ा रोड़ा
हालाँकि उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया एक-दूसरे के खिलाफ लगातार अपने-अपने लोगों को वैसे ही भड़काते रहते हैं जैसे हमारे यहाँ हम हिंदुस्तान-पाकिस्तान के बीच देखते हैं। फिर भी बीच-बीच में कुछ मौके भावनात्मक जुड़ाव के भी बनते हैं। हमारी ही तरह उन्होंने भी विभाजन का दंष झेला है और अब तक उसका दर्द उनकी जिंदगियों में बाकी है। वर्ष 1950 से 1953 के दौरान हुए कोरियाई युद्ध में कितने ही लोग अपनों से बिछड़कर उत्तर और दक्षिण में बँट गए थे और तभी से दोनों देष एक-दूसरे के साथ लगातार युद्ध की मुद्रा में हैं। वर्ष 1953 में दोनों देषों के बीच युद्धविराम की संधि ही हो सकी थी न कि शांति की। वह भी इतने वर्षों में बेहतर होने के बजाय हालिया घटनाक्रमों से कमजोर हुई है। एक-दूसरे को खाक में मिला देने, सबक सिखाने, युद्ध में हराने जैसी बयानबाजियाँ दोनों ओर ही एक उन्मादी माहौल तैयार किए रखती हैं।
उत्तरी व दक्षिणी कोरिया, दोनों में ही एकीकरण एक भावनात्मक और जोषीला नारा है लेकिन अमरीकी सेनाओं की लगातार साठ से भी ज्यादा वर्षों से दक्षिणी कोरिया की जमीन पर मौजूदगी और समूचे पूँजीवादी मीडिया द्वारा उत्तरी कोरिया को खलनायक बनाने की मुहिम और साजिषों की वजह से यह हमेषा नारा ही बना रहा है। उत्तरी कोरिया के प्रति अमरीका की सोच का मुलम्मा 11 सितंबर 2001 में वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमलों के बाद से उतर चुका है। जाॅर्ज बुष ने उस वक़्त ‘षैतान की धुरी’ बताने वाले मुल्कों में ईरान और इराक के बाद उत्तर कोरिया का ही नाम लिया था हालाँकि आज तक अमरीका 11 सितंबर या अन्य किसी आतंकवादी घटना के साथ उत्तरी कोरिया का नाम जोड़ नहीं पाया है लेकिन वहाँ ‘लोकतंत्र’ की गैर मौजूदगी ही अमरीका को बहाना बनाने के लिए काफी है। करीब तीस हजार अमरीकी सैनिक 1953 के बाद से लगातार दक्षिणी कोरिया में मौजूद हैं और कहने के लिए तो वे वहाँ दक्षिणी कोरिया की रक्षा और दोनों देषों में युद्ध न होने देने के लिए हैं लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि उनकी मौजूदगी दोनों देषों के बीच कभी शांति कायम होने देगी, इसमें संदेह है। दूसरे विष्व युद्ध के बाद और शीत युद्ध के दौरान दक्षिणी कोरिया और जापान में अपनी फौजों की मौजूदगी से सोवियत संघ व चीन की मौजूदगी वाले एषिया में अमरीका अपना हस्तक्षेप बनाए रखता था। सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद से न केवल अमरीका ने उत्तरी कोरिया पर दबाव बढ़ाया बल्कि तरह-तरह से उसे उकसाने की कार्रवाई भी करता रहा है। यह 1950 के इतिहास को दोहराने जैसा है। इसी सिलसिले में यह भी उल्लेखनीय है कि 1960 से जापान के साथ अमरीका की पारस्परिक सैन्य सहयोग संधि का अमरीका व जापान ने हाल में विस्तार किया है। पहले जहाँ यह
संधि दो देषों के आपसी रिष्ते तक सीमित थी वहीं 1978 व 1996 में अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों का हवाला देते हुए जापान व अमरीका ने इसका विस्तार एषिया-प्रषांत क्षेत्र से सुदूर पूर्व तक किया और अब इसे ‘जापान-अमरीकी वैष्विक संधि’ नाम दिया गया है। इस संधि के मुताबिक जापान अपने मिलिटरी बेस को किसी भी आपात स्थिति में विष्व के किसी भी हिस्से में अमरीका को इस्तेमाल करने देगा और वह उसे अपनी सेना भी मुहैया कराएगा। अमरीका की पक्षपातपूर्ण नीति स्पष्ट है, लेकिन खुद अमरीकी नागरिकों को भी एकतरफा प्रचार के चलते सिक्के का दूसरा पहलू पता नहीं। अमरीका एक ओर जहाँ दक्षिणी कोरिया को लंबी दूरी मार करने वाली मिसाइलें बनाने के लिए प्रोत्साहन और मदद दे रहा है वहीं उत्तरी कोरिया पर 50 वर्षों से लगे प्रतिबंधों को और सख्त बना रहा है।
किम जोंग उन के गद्दीनषीन होने के चंद महीनों के भीतर ही मार्च 2012 में उत्तरी कोरिया ने अपने परमाणु कार्यक्रम को स्थगित करने का निर्णय भी ले लिया था और अपने योंगग्याॅन स्थित परमाणु संयंत्र के संयुक्त राष्ट्र संघ के निरीक्षकों द्वारा निगरानी के लिए भी राजी हो गया था लेकिन दिसंबर 2012 में जब अमरीका ने उसके उपग्रह लाॅन्च करने के लिए प्रतिबंधात्मक कदम उठाए तो उसने भी फरवरी 2013 में तीसरा परमाणु परीक्षण कर अपने तेवर दिखा दिए। उत्तरी कोरिया के परमाणु कार्यक्रम का खुला समर्थन तो कोई भी देष नहीं कर सकता है, इसलिए चीन भी यह कहने पर मजबूर हुआ कि ‘उत्तरी कोरिया को अपने बच्चों को अच्छा खाना और अपने लोगों के लिए अच्छी जिंदगी बनाने की कोषिष करनी चाहिए बजाय परमाणु हथियार विकसित करने, ऐसी स्थिति में चीन उत्तरी कोरिया का सहयोग नहीं कर पाएगा।’ लेकिन उत्तरी कोरिया को अपनी स्थिति स्पष्ट करने में कोई दुविधा नहीं है। दिसंबर 2012 में उत्तरी कोरिया के राॅकेट लाॅन्च करने से नाराज अमरीका ने नए प्रतिबंधों की घोषणा की थी, जिसके जवाब में जनवरी 2013 में उत्तरी कोरिया के शीर्ष सैन्य निकाय नेषनल डिफेंस काउंसिल ने अमरीकी प्रतिबंधों की भत्र्सना करते हुए कहा, ‘हम यह छिपाते नहीं हैं कि तरह-तरह के उपग्रह और लंबी दूरी की मारक क्षमता वाले राॅकेट उत्तरी कोरिया लाॅन्च करेगा और एक के बाद एक पहले से कहीं बेहतर परमाणु परीक्षण भी करेगा। यह उस अमरीका के खिलाफ चलने वाली हमारी लड़ाई का नया दौर होगा जो कोरियाई लोगों का दुष्मन है। अमरीका के साथ हिसाब-किताब शब्दों से नहीं बल्कि ताकत से ही करना होगा क्योंकि यह अस्तित्व के नियम के तौर पर जंगल का कानून ही समझता है।’ कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो सच यह है कि 1953 के बाद से अब तक लड़ाई सिर्फ जुबानी चल रही है और उसके साथ लड़ाई के लिए तैयार रहने की परिस्थितियों की वजह से हथियारों का जखीरा दोनों तरफ बढ़ाया जा रहा है। परमाणु हथियारों के साथ यह मामला अब पेचीदा हो गया है। जरा सी दूरी पर मौजूद जापान, दक्षिणी कोरिया, रूस और चीन, कोई नहीं चाहेगा कि परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की नौबत आए। सबसे ज्यादा तो खुद उत्तरी कोरिया यह नहीं चाहेगा क्योंकि इसका अर्थ उसके अस्तित्व की समाप्ति होगा। जाहिर है कि जब तक उसे अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस नहीं होगा, वह इन हथियारों का इस्तेमाल सिर्फ अमरीका को अपने से दूर रखने के लिए ही करेगा। लेकिन यथार्थ में जो होता है, वह सब गण्ति के समीकरणों की तरह ही नहीं होता। अप्रत्याषित हादसे भी होते हैं जैसे फुकुषिमा में हुआ और परमाणु ऊर्जा इस्तेमाल न भी की जाए तो भी वह बारूद का ढेर तो है ही। एषिया और दुनिया में अमन चाहने वालों को तमाम रुखाई और संदेहों के बावजूद उत्तरी कोरिया को विष्व समुदाय का विष्वास व सुरक्षा देने के लिए अमरीकी वर्चस्व को हाषिए पर धकेलते हुए परस्पर शांतिपूर्ण गतिविधियों को तेज करना चाहिए।
-विनीत तिवारी
मो0-09893192740
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अभी जो हत्यायेँ कराई हैं उनके बारे में कौन सा वाद लागू होता है। मानवाधिकार लागू होता होगा उत्तरी कोरिया का।
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