25, जुलाई 2013 को बटला हाउस मुठभेड़ के समय पुलिस बल पर गोली चलाते हुए फरार होने और
अपराधमुक्त करने के लिए अपराधियों के चुनाव लड़ने के खिलाफ सख्त फैसला सुनाता है तो सभी राजनैतिक दल उस फैसले के खिलाफ एक स्वर में बोलने लगते हैं। सरकार इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाती है और सर्वसम्मति से यह तय होता है कि इस फैसले के खिलाफ संसद प्रभावी कदम उठाए। भा.ज.पा. उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ मोर्चा खोलने में सबसे आगे दिखाई देती है। भा.ज.पा. के धर्मेन्द्र यादव टेलीवीज़न पर पूरे देष के सामने यह तर्क देते हैं कि सत्ता पक्ष विरोधियों के खिलाफ इसका दुरुपयोग कर सकता है। यही आषंका अन्य राजनैतिक दलों ने भी जाहिर की। दूसरे शब्दों में सत्ता पक्ष न सिर्फ फर्जी मुकदमे कायम करवा सकता है बल्कि अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए न्यायालय के फैसलों को भी प्रभावित कर सकता है। इन दोनों परस्पर विरोधी विचारों के बीच कुल एक सप्ताह का अन्तर यह बताने के लिए काफी है कि बटला हाउस मामले में न्यायालय के फैसले पर राजनैतिक रोटी सेकने में अपने आपको सबसे आदर्षवादी पार्टी कहने वाली भा.ज.पा. भी अपने नेताओं के साथ होने वाली किसी नाइंसाफी की आषंका से वह तमाम मर्यादाएँ भूल गई जिसका वह प्रचार कर रही थी। निचले स्तर पर न्यायपालिका में कितनी राजनैतिक दखलअंदाज़ी होती है यह तो सत्ता में रह चुके या उसकी दहलीज़ पर खड़ी पार्टियों के राजनेता ही बता सकते हैं जिन्हें इस तरह की आषंका सताती रहती है। परन्तु इससे यह अवष्य जाहिर होता है कि कुछ होता तो ज़रूर है। इससे भी ज़्यादा आष्चर्य मुख्य धारा की उस मीडिया के रवैये पर होता है जो न्यायालय के फैसले से असहमति जताने वाले समाचारों को अवमानना से जोड़कर देखने का पाखंड करता है और इस प्रकार मात्र एक ही तरह की प्रतिक्रियाओं का प्रकाषन एंव प्रसारण कर दूसरे पक्ष के खिलाफ नकारात्मक वातावरण निर्मित करता है। जिस दिन शहज़ाद के मामले में फैसला सुनाया जाने वाला था, पूरे देष की मीडिया के लोग उसके गाँव खालिसपुर, आज़मगढ़ में मौजूद थे। वहाँ उपस्थित ग्राम प्रधान और गाँव के निवासियों समेत कई लोगों ने अपने विचार रखे। संजरपुर में भी प्रिन्ट और एलेक्ट्रानिक मीडिया से लोगों ने बात की। शाम को जब एन.डी. टी.वी. के लोग गाँव में आए तो पूरी भीड़ इकट्ठा हो गई, हालाँकि मौसम की खराबी के कारण जीवंत प्रसारण नहीं हो पाया। परन्तु अगले दिन समाचार पत्रों में यह भ्रामक खबर छपी कि खालिसपुर और संजरपुर में सन्नाटा पसरा रहा, गलियाँ सुनसान थीं, कोई रास्ता बताने वाला नहीं था आदि। शायद मीडिया के लोग एक पक्ष की ऐसी तस्वीर पेष करना चाहते थे जिससे अपराध बोध झलकता हो। इस संदर्भ में जब एक हिन्दी समाचार पत्र के ब्यूरो चीफ से बात की गई तो न्यायालय के फैसले से असहमति जताने वाले बयानों को अखबार में स्थान न मिल पाने का कारण पूछने पर उनका कहना था कि न्यायालय की अवमानना वाले समाचारों को नहीं छापा गया और यह नीति उच्चतम स्तर पर बनी थी। हालाँकि यह तर्क किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि मीडिया ने वास्तव में जान-बूझकर ऐसी कोई नीति अपनाई थी तो इसे असंवैधानिक और सुनियोजित दुष्प्रचार ही माना जाएगा। संविधान हमें न्यायालय के फैसलों से असहमति का पूरा अधिकार देता है। यदि ऐसा न होता तो एक अदालत के फैसले के खिलाफ अगली अदालत में अपील करने या पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का अधिकार कानून क्यों देता? अदालती फैसलों के खिलाफ असहमति को अवमानना की चादर उढ़ाना लोकतांत्रिक मूल्यों, मर्यादाओं और उसकी मूल भावनाओं के विरुद्व है। यदि यह निर्णय उच्चतम स्तर पर लिया गया है तो मीडिया का यह व्यवहार धार्मिक समुदायों के बीच भय और संदेह उत्पन्न करने वाले सुनियोजित कदम के तौर पर ही देखा जाएगा जो साम्प्रदायिक सौहार्द और स्वस्थ समाज के ताने-बाने को गहरा आघात पहुँचा सकता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर सर्वदलीय बैठक में सत्ता के दुरुपयोग के मामले में जो सवाल उठाए गए हैं वह स्वतः स्पष्ट करते हैं कि फैसलो को प्रभावित करने की मात्र आषंका ही नहीं होती बल्कि वास्तव में ऐसा होता भी है। उसका कारण भ्रष्टाचार भी हो सकता है, साम्प्रदायिकता या राजनैतिक सत्ता का दाँवपेच भी।
शहज़ाद के मामले में जो निर्णय आया है उसकी भूमिका में विद्वान न्यायाधीष ने पुलिस बल की सेवाओं के प्रति जो टिप्पणी की है कि ’पुलिस के कारण ही हम सुरक्षित हैं। पुलिस का हमारे जीवन में काफी महत्व है और वह जब जागती है तब हम सोते है’ सिद्वान्त रूप में बिल्कुल सही है। यदि ऐसा न होता तो पुलिस विभाग के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाता। कोई यह नहीं कहता कि देष को पुलिस बल की आवष्यक्ता नहीं है या कानून व्यवस्था बनाए रखने में उसकी भूमिका नहीं है। न इस बात से इनकार किया जा सकता है कि हमारे जवानों को बहुत ही विषम परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। परन्तु इसका एक और पहलू भी है। उसी पुलिस बल में ऐसे तत्व भी रहे हैं जिन्होंने वर्दी को शर्मसार किया है। सत्ता के इषारे पर राजनैतिक विरोधियों को झूठे मामलों में फँसाना, उनके साथ दुव्र्यवहार, महिलाओं के साथ बलात्कार, दलितों और आदिवासियों के साथ अत्याचार और रिष्वत, लालच और साम्प्रदायिक सोच के चलते दोषियों को बचाने और निर्दोषों को फँसाने का दुष्चक्र, ऐसे हजारों मामलों से आँखें बंद नहीं की जा सकतीं। पुरस्कार, नकद और पदोन्नति के लिए बेगुनाहों को सलाखों के पीछे पहुँचा देने और फर्जी मुठभेड़ों में मासूमों की हत्या तक कर देने के अनेक उदाहरण मौजूद हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। साम्प्रदायिक दंगों में सत्ता के इषारे और अपनी साम्प्रदायिक मानसिकता की तृप्ति के लिए सामूहिक हत्या और महिलाओं एवं दूध पीते बच्चों को कत्ल करने जैसी वारदातों को अंजाम देने और और ऐसी घटनाओं के होने पर मूक दर्षक बने देखते रहने की मिसालें भी मौजूद हैं। ऐसी काली भेड़ें भी हमारे पुलिस बल में मौजूद हैं और निष्चित रूप से उनके कारण आम जनता आराम से सोती नहीं बल्कि उसकी नींद हराम हो जाती है। शायद यही कारण रहा होगा कि विधि निर्माताओं ने पुलिस के सामने दिए गए बयान को न्याय की कसौटी नहीं माना था। प्रस्तुत मामले में बटला हाउस इंकाउन्टर की घटना को अंजाम देने वाली दिल्ली स्पेषल सेल की भूमिका आतंकवाद से सम्बंधित कई मामलों में बहुत ही संदिग्ध रही है। पत्रकार काज़मी से लेकर लियाकत अली शाह के मामले अभी ताज़ा हैं। स्वयं बटला हाउस मुठभेड़ के छापा मार दस्ते में शामिल स्पेषल सेल के कई
अधिकारियों की इससे पहले के मामलों में अदालतों ने आलोचना की है। कुछ एक मामलों में तो फर्जी छापामारी एवं बरामदगी, सुबूत गढ़ने और बेकसूरों को फँसाने के लिए न्यायालय ने फटकार भी लगाई है। इस सम्बंध में जामिया टीचर्स सालिडैरिटी एसोसिएषन ;श्रज्ै।द्ध ने आतंकवाद से जुड़े मामलों में दिल्ली स्पेषल सेल की कार्रवाई और उसके द्वारा कायम किए गए 16 मुकदमों और उनके अदालती फैसलों का अध्ययन करने के बाद ’आरोपित, अभिषप्त और बरी’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है जो स्पेषल सेल के कई अधिकारियों के गैरकानूनी एवं आपराधिक कारनामों की पोल खोलने के लिए काफी है। संक्षिप्त में रिपोर्ट से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
राज्य बनाम गुलज़ार अहमद गने और मो0 अमीन हजाम एफ0आई0आर0 संख्या 95/06 तथा सेषन केस संख्या 13/2007 का फैसला 13 नवम्बर 2009 में आया। दिल्ली स्पेषल सेल की कहानी के मुताबिक पाक निवासी लष्कर का आतंकी, जम्मू कष्मीर के पट्टन क्षेत्र में काम कर रहा जिला कमांडर मो0 अकमल उर्फ अबू ताहिर, हथियार, गोला बारूद और फंड इकट्ठा करने के लिए अपने साथियों को दिल्ली व भारत के अन्य शहरों में भेज रहा है। ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा द्वारा एक दल का गठन किया गया, जिसमें इंस्पेक्टर संजय दत्त, मोहन चंद शर्मा, एस.आई. राहुल कुमार, कैलाष बिष्ट, पवन कुमार, राकेष मलिक, हरिन्दर, अषोक शर्मा, हेड कांस्टेबल सुषील, सतिन्दर कृष्ण राव, कांस्टेबल नरेन्दर, रन सिंह शामिल थे। स्पेषल सेल के छापामार दस्ते ने गुलज़ार अहमद गने उर्फ मुस्तफा और मो0 अमीन हजाम को महिपालपुर के बस स्टैंड से गिरफ्तार किया दिखाया। इस केस में स्पेषल सेल के अधिकारियों ने आर.डी.एक्स., रिवाल्वर, डेटोनेटर और ग्यारह लाख रूपये की बरामदगी दिखाई थी। इस मामले की विवेचना ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव ने की थी। इस केस में जिस बस पर आरोपियों को सवार दिखाया गया था उस बस के कंडक्टर सोनू दहिया ने अदालत को बताया कि उस दिन बताए गए स्थान पर बस की सेवा ही नहीं थी। विवेचक एसीपी संजीव कुमार यादव ने अदालत को बरामदगी का जो विवरण दिया वह चार्जषीट में दर्ज कहानी का उलटा था। सबसे बड़ी बात तो यह कि बरामदगियों के बारे में श्री शर्मा ने विवेचक को पहले ही बता दिया था। दरअसल अभियुक्तों ने अदालत को बताया कि उन्हें पुलिस के कहने के अनुसार 10 दिसम्बर को नहीं बल्कि 27 नवम्बर को ही गिरफ्तार किया गया था। इस केस का फैसला सुनाते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीष, उत्तरी दिल्ली
धर्मेष शर्मा ने यह टिप्पणी की ‘तो क्या मैं यह मान लूँ कि यह एक मानवीय गलती थी या कुछ और! मूल बात यह थी कि क्या उपरोक्त गलतियाँ वास्तविक थीं या जान-बूझकर पूरी कहानी को गढ़ने की कोषिष में हो गई थीं‘।
राज्य बनाम मुख्तार अहमद खान एफ.आई.आर. व सेषन केस संख्या 48/07, फैसला 21, अप्रैल 2012 में आया। अभियोजन की कहानी के अनुसार अबू मुसाब उर्फ ताहिर और अबू हमज़ा पाक निवासी तथा कुपवाड़ा और बारामुला के लष्कर के जिला कमांडर दिल्ली में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने की योजना बना रहे हैं। गुप्त सूचना के अनुसार कुपवाड़ा निवासी मुख्तार के हाथों घटना अंजाम दी जानी थी। एसीपी संजीव कुमार यादव के निरीक्षण और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के नेतृत्व में एक टीम गठित की गई। इस टीम में इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा, एस.आई. राहुल कुमार, रमेष लांबा, दिलीप कुमार, रवीन्दर त्यागी, धर्मेंद्र कुमार, ए.एस.आई. चरन सिंह, संजीव कुमार, हरिद्वारी, अनिल त्यागी, प्रहलाद, हेड कांस्टेबल उदयवीर, कृष्ण राम, संजीव, कांस्टेबल राजिंदर, राजीव, बलवंत, अमर सिंह और राम सिंह शामिल थे। खबरी से एस.आई. धर्मेन्द्र को सूचना मिली कि मुख्तार हथियारों का एक बड़ा कंसाइनमेन्ट अपने साथियों को सौंपने आज़ादपुर मंडी आ रहा है। चार सदस्यीय टीम को सीमा लाज जहाँ वह ठहरा हुआ था, की निगरानी के लिए भेज दिया गया, बाकी को हथियारों और गोला-बारूद, बुलेट प्रूफ जैकेटों और आई.ओ. किट से लैस करके निजी वाहनों में आज़ादपुर फल मंडी रवाना कर दिया गया। पुलिस बल ने उसे दबोच लिया। तलाषी लेने पर डेढ़ किलो आर.डी.एक्स., डेटोनेटर और टाइमर बरामद हुआ। ए.सी.पी. संजीव कुमार ने इस केस की तफतीष की। हकीकत यह थी कि मुख्तार को 7, जून 2007 को गिरफ्तार किया गया था और पाँच दिन गैर कानूनी हिरासत में रखने के बाद फर्जी तरीके से उसकी गिरफ्तारी व बरामदगी दिखाई गई थी। स्पेषल सेल की सारी कहानी फर्जी साबित हुई। यह रहस्य भी खुला कि फर्जी विस्फोटक विषेषज्ञ से बरामद वस्तुओं की जाँच करवा कर नियमों के विरुद्ध रिपोर्ट प्राप्त की गई थी। फोरेंसिक विषेषज्ञ ने भी माना कि आई.ओ. द्वारा निर्देषित पैरामीटरों पर ही उसने रिपोर्ट तैयार की थी। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीष-02, तीस हज़ारी कोर्ट, नई दिल्ली सुरेन्दर एस राठी ने मुख्तार को बरी कर दिया। अदालत ने यह टिप्पणी भी की ’स्पेषल सेल को मिलने वाली गुप्त सूचनाओं के दावों अथवा उसके काम करने के तरीकों में कुछ तो गम्भीर रूप से गड़बड़ है’।
राज्य बनाम खोंगबेन्तबम ब्रोजेन सिंह एफ.आई.आर. संख्या 93/02 का फैसला 12, मई 2009 को सुनाया गया। ए.सी.पी. राजबीर सिंह को आई.बी. से सूचना मिली कि पी.एल.ए. के आतंकवादी ब्रोजेन सिंह व उसका साथी पी.एल.ए. के लिए हथियार जुटाने दिल्ली आए हैं। स्पेषल सेल की एक टीम गठित की गई जिसमें ए.सी.पी. राजबीर सिंह, इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा, एस.आई. हृदय भूषण, बद्रीषदत्त, शरद कोहली और माहताब सिंह शामिल थे। उसके पास से रिवाल्वर, सी.पी.यू. और लैपटाप बरामद दिखाया गया। मुकदमे के दौरान यह पाया गया कि 15, मार्च 2002 को ए.सी.पी. राजबीर द्वारा गिरफ्तारी के समय लिया गया ब्रोजेन का खुलासा बयान और उपायुक्त उज्ज्वल मिश्रा द्वारा 23, अप्रैल 2002 को पोटा की धारा 32 के तहत दर्ज किया गया हलफनामा एक ही था। अदालत ने कहा कि ’कामा और पूर्ण विराम सहित पूरा का पूरा बयान ज्यों का त्यों है ़ ़ ़ ़ इससे पता चलता है कि इंसानी तौर पर ऐसा हलफनामा देने वाले और दर्ज करने वाले दोनों व्यक्तियों के लिए एक जैसा हूबहू शब्द दर शब्द हलफिया बयान दर्ज करना असंभव है’। यह भी पाया गया कि कंप्यूटर में कई फाइलें ऐसी भी थीं जो जब्त किए जाने के महीनो बाद का समय दर्षाती थीं और ऐसी फाइलों को आपत्तिजनक सबूतों के तौर पर दिखाया गया था। वास्तविकता यह है कि ब्रोजेन सिंह ने अफसपा के खिलाफ आन्दोलनों मे हिस्सा लिया था जिससे रुष्ट होकर मणिपुर पुलिस ने उसे फर्जी मुकदमों मे फँसाया था, जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। उसके बावजूद उसे गैर कानूनी तौर पर बंद रखा गया। उसने सरकार के खिलाफ अवमानना का मुकदमा कायम किया जिसमें अधिकारियों को सजा और जुर्माना हुआ। दिल्ली में वह अपना इलाज करवाने के लिए आया तो खुफिया एजेंसी की साजिष के तहत उसे यहाँ फँसा दिया गया। अतिरिक्त सत्र
न्यायाधीष, दिल्ली जे0आर0 आर्यन ने उसे मुक्त करने का फैसला सुनाते समय यह टिप्पणी की ’राज्य अधिकारियों को आतंकी होने का शक था और वह पहले से ही अवमानना के मामले में राज्य अधिकारियों को सजा दिलवाकर क्रोधित कर चुका था। पुलिस ने उसे इस अपराध के लिए टार्गेट बनाया’।
ऐसे कई और मामले सामने आ चुके हैं जब न्यायालय ने दिल्ली स्पेषल सेल के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियाँ की हैं और ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव समेत बटला हाउस छापामार दस्ते में शामिल शायद ही ऐसा कोई पुलिस अधिकारी हो जो इन टिप्पणियों की परिधि में पहले न आ चुका हो। राज्य बनाम साकिब रहमान, बषीर अहमद शाह, नज़ीर अहमद सोफी आदि एफ.आई.आर. संख्या 146/05 सेषन केस नम्बर 24/10 में 2, फरवरी 2011 को फैसला सुनाते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीष, द्वारका कोर्ट, नई दिल्ली वीरेन्द्र भट्ट ने न सिर्फ स्पेषल सेल के पुलिस अधिकारियों को कड़ी फटकार लगाई बल्कि एस.आई. विरेन्दर, एस.आई. निराकार, एस.आई. चरन सिंह एस.आई. महेन्दर सिंह के खिलाफ कानूनी कारवाई सुनिष्चित करने की संस्तुति भी की। उन्होंने कहा ’ये चारो अधिकारी दिल्ली पुलिस बल के लिए शर्मनाक साबित हुए हैं। मेरी राय में किसी पुलिस
अधिकारी द्वारा किसी बेगुनाह नागरिक को झूठे आपराधिक मामले में फँसाए जाने से और कोई गम्भीर और संगीन अपराध नहीं हो सकता। पुलिस अधिकारियों में ऐसी प्रवृत्ति को हल्के तौर पर नहीं देखा और डील किया जाना चाहिए, बल्कि इस पर सख्त हाथों लगाम कसी जानी चाहिए’। अन्य मामलों में विद्वान न्यायाधीषों ने भले ही ऐसी कठोर टिप्पणी नहीं की हों परन्तु न्याय की कसौटी पर उन मामलों में शामिल पुलिस अधिकारियों की गवाही किसी भी स्थिति में खरी नहीं मानी जा सकती। उपर्युक्त मामलों में शामिल दिल्ली स्पेषल सेल के छापामार दस्तों की सूची का अध्ययन करने से पता चलता है कि बटला हाउस इंकाउन्टर में शामिल और शहज़ाद केस के 6 प्रत्यक्षदर्षी अधिकारियों के साथ-साथ आपरेषन में शामिल ज़्यादातर अधिकारियों पर न्यायालय द्वारा एक से
अधिक बार उँगली उठाई जा चुकी है। मज़े की बात तो यह है कि इन अधिकारियों को सरकार और प्रषासन की तरफ से पुरस्कार और अदालतों की ओर से फटकार मिलती रही और यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा।
शहज़ाद मामले में न्यायालय ने यदि उसके द्वारा इंस्पेक्टर एमसी शर्मा को गोली मारने और फायर करते हुए भागने के तर्कों को स्वीकार किया है तो उसके पीछे निष्चित रूप से पुलिस के प्रति उसकी उसी भावना की भूमिका है जो उसने निर्णय सुनाते समय व्यक्त की थी। लेकिन इससे बटला हाउस इंकाउन्टर के समय उठने वाले सवालों के जवाब नहीं मिलते बल्कि सच्चाई तो यह है कि कई और नए सवाल जन्म लेते हैं। शहज़ाद के गोली चलाते हुए फरार होने के मामले में फैसले में यह संभावना व्यक्त की गई है कि हो सकता है कि उसने किसी अन्य फ्लैट में शरण ले ली हो या अपने आपको स्थानीय जाहिर करते हुए वहाँ से निकल गया हो। परन्तु ऐसा कैसे सम्भव हुआ कि अपने साथी को गोली मार कर फरार होने वाले की तलाष उन सम्भावित स्थानों पर भी पुलिस ने नहीं की जो उसी इमारत में थी! या क्या यह मुमकिन है कि इतने बड़े आपरेषन के दौरान जबकि गोलियाँ चल रही हों उसकी निगरानी के लिए तैनात पुलिस कर्मी वहाँ से किसी को बगैर तलाषी के आसानी से निकल जाने दें और हथियार समेत वहाँ से कोई भाग निकले? इससे भी अधिक आष्चर्य की बात यह कि बचाव पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया गया कि आतिफ और साजिद के शरीर पर चोट के निषान हैं जिससे साबित होता है कि पहले उनके साथ मार पीट की गई फिर गोली मारी गई। फैसले में कहा गया है कि आतिफ और साजिद के शरीर पर आई चोट गोली लगने के बाद फर्ष पर गिरने के कारण आई। फैसले में आतिफ के शरीर पर गन शाट के अलावा मात्र एक चोट का उल्लेख है जो उसके पैर के सामने के हिस्से पर आई है। जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उसकी पीठ और कूल्हे के पिछले हिस्से पर चोटों के कई निषान हैं जो फर्ष पर गिरने से चोट आने के तर्क को नकारते हैं। परन्तु एमसी शर्मा के शरीर पर गोली लगने के बाद ज़मीन पर गिरने से चोट आने का कोई उल्लेख नहीं है जबकि भारी भरकम शरीर के कारण साजिद और आतिफ के मुकाबले में उनके लिए यह सम्भावना अधिक थी? एमसी शर्मा को जिस समय गोली लगी वह खड़े थे यह बात हेड कांस्टेबल बलवंत ने अपनी गवाही में भी कही है। परन्तु साजिद यदि खड़ी मुद्रा में था तो उसके सिर के ऊपरी हिस्से पर आमने-सामने की मुठभेड़ में गोलियाँ कैसे लगीं और यदि वह खड़ा नहीं था तो गिरने के कारण शरीर पर चोट आने का सवाल कहाँ पैदा होता है। ऐसी हालत में उसके शरीर पर चोटें कैसे आईं?
छापामार टीम के मात्र एक सदस्य हेड कांस्टेबल राजबीर ने ही बुलेट प्रूफ जैकेट पहन रखी थी। आष्चर्य की बात तो यह है कि उस पुलिस बल के दो जवानों के पास कोई असलहा भी नहीं था जिसके लिए न्यायालय ने फटकार भी लगाई है। परन्तु क्या इस बात को आसानी से हज़म किया जा सकता है जबकि छापामार दल के पास यह सूचना थी कि दिल्ली धमाकों को अंजाम देने वाला आतिफ अपने साथियों के साथ वहाँ मौजूद है। एस0आई0 धर्मेन्द्र कुमार ने पहले ही वहाँ कई लोगों के मौजूद होने की तस्दीक भी कर दी थी। ऐसे में दल में शामिल मात्र एक बुलेट प्रूफ जैकेट पहने हुए हेड कांस्टेबल राजबीर को कमरे में दाखिल होने वाली टीम में शामिल क्यों नहीं किया गया। सच्चाई तो यह है कि बिना बुलेट प्रूफ जैकेट और दो सदस्यों का बगैर हथियार के आतंकवादियों को पकड़ने के लिए चले जाने की थ्योरी विष्वसनीय नहीं हो सकती। राज्य बनाम मुख्तार अहमद केस में स्पेषल सेल की टीम के जवानों ने अदालत को बताया था कि छापामार दल ने खुफिया खबरी की सूचना पर कार्रवाई करने से पहले अपने आपको हथियारों और गोला, बारूद, बुलेटप्रूफ जैकेटों और आई.ओ. किट से लैस किया था। बटला हाउस इंकाउन्टर में शामिल इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा, एस.आई. राहुल कुमार, एस.आई. रविन्दर त्यागी, एस.आई धर्मेन्द्र कुमार, ए.एस.आई. अनिल त्यागी, उदयवीर और बलवंत मुख्तार को घेरने वाली टीम में भी थे। आखिर इन अधिकारियों ने वही तैयारी बटला हाउस मामले में भी क्यों नहीं की जो मुख्तार के मामले में की थी जबकि यह मामला उससे ज़्यादा संगीन भी था। क्या इससे निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि पुलिस बल को पहले से मालूम था कि यह बच्चे खतरनाक आतंकवादी नहीं हैं और वह उन्हें आसानी से टार्गेट कर लेंगे। पुरस्कार, पदक और पदोन्नति के आभास से ही अति उत्साहित कार्रवाई में शामिल टीम के सदस्यों को न तो बुलेट प्रूफ जैकेटों का ध्यान रहा और न हथियारों की फिक्र। कुल मिलाकर इस इंकाउन्टर को सही साबित करने के लिए इंस्पेक्टर शर्मा और बलवंत को लगी गोलियों के अलावा दूसरा कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य शहज़ाद के फैसले के बाद भी सामने नहीं आया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पुरस्कार और पदक की दौड़ में हमेषा आगे निकल जाने वाले इंस्पेक्टर शर्मा किसी अंदरूनी ईष्र्या का षिकार हो गए हों! कुल मिलाकर यह जाँच का विषय था जिसके लिए लगातार माँग भी होती रही परन्तु हर स्तर पर इसे ठुकरा कर पारदर्षिता के सभी रास्ते बंद कर दिए गए।
अदालत ने अभियोजन पक्ष की इस दलील को भी स्वीकार किया, जिसमें कहा गया था ’छापमार दल को दिल्ली धमाके के संदिग्धों को पकड़ने की जल्दी थी। इसके अलावा उस क्षेत्र के अधिकतर रहवासियों का धर्म वही था जो उन संदिग्धों का था। यदि पुलिस अधिकारी ऐसे स्थानीय लोगों को शामिल करने की कोषिष करते तो इससे क्षेत्र में सामाजिक बेचैनी उत्पन्न हो जाती जो पुलिस वालों की जान के लिए भी खतरे का कारण बन जाती’। अभियोजन ने इस सिलसिले में आजमगढ़ प्रशासन के बारे में कहा है कि कानून व्यवस्था का हवाला देते हुए छापामार दल को शहजाद के गाँव जाने की प्रषासन ने अनुमति नहीं दी थी। इस पर अदालत ने यह तो कहा कि कोई धर्म अपराध करने की आज्ञा नही देता परन्तु उसका यह भी कहना था ’विभिन्न धर्मों के बीच टकराव की घटनाओं को देखते हुए जैसा कि पुलिस वालों के टारगेट किए जाने के भय की आषंका अभियोजन ने जताई, को साफ तौर पर नकारा नहीं जा सकता’। अभियोजन की यह दलील घोर आपत्तिजनक और पूरी तरह से साम्प्रदायिक है। यह पूरे मुस्लिम समुदाय को कलंकित करने के सुनियोजित प्रयास और उस मुस्लिम विरोधी मानसिकता का विस्तार है जो आतंक विरोधी अभियान के नाम पर मालेगाँव, मक्का मस्जिद, अजमेर, समझौता एक्सप्रेस आदि मामलों में पहले ही बेनकाब हो चुकी है। उससे भी अधिक चिन्ता का विषय विद्वान न्यायाधीष का अभियोजन की इस दलील से सहमति जताना है। इस सहमति के पीछे जो तर्क दिया गया वह यह है कि आज़मगढ़ प्रषासन ने कानून व्यवस्था का हवाला देते हुए शहजाद के घर छापामारी की अनुमति देने से इंकार कर दिया था। परन्तु इस बात का संज्ञान नहीं लिया गया कि शहजाद को उसके घर से ही गिरफ्तार किया गया था और कोई तनाव नहीं पैदा हुआ और न ही छापामार दल के सदस्यों की जान को कोई खतरा ही। जब मिजऱ्ा शादाब बेग के घर पर कुड़की के आदेष का पालन करने के लिए गोरखपुर पुलिस आई तो आज़मगढ़ शहर के मुस्लिम बाहुल्य मुहल्ले में मात्र चार पुलिस कर्मियों ने सैकड़ांे स्थानीय निवासियों की मौजूदगी में शान्तिपूर्वक अपना काम सम्पन्न किया और स्थानीय लोगों ने उन्हें पूरा सहयोग दिया। यह बात सही है कि आज़मगढ़ के लोगों ने बड़े पैमाने पर आन्दोलन किया, आतंकवाद के नाम पर बेगुनाहों को फँसाने को लेकर यहाँ के लोगो में व्यापक असंतोष था, बगैर नम्बर प्लेट की गाडि़यों में आकर सादे कपड़ों में कार्रवाई करने समेत एस.टी.एफ. और ए.टी.एस. की गैर कानूनी कार्यषैली से लोगों में गुस्सा भी था परन्तु इसका यह अर्थ कतई नहीं निकाला जा सकता कि यहाँ कोई साम्प्रदायिक तनाव या कानून व्यवस्था की कोई समस्या उत्पन्न हो गई थी। यदि आज़मगढ़ प्रषासन स्थिति का सही आंकलन नहीं कर सका तो यह उसकी समस्या थी परन्तु उस आधार पर स्पेषल सेल के स्थानीय गवाहों को शामिल न करने की थ्योरी को सही नहीं ठहराया जा सकता। बटला हाउस इंकाउन्टर के बाद उसकी न्यायिक जाँच की माँग को सरकार ने ठुकरा दिया था। लेफटीनेंट गवर्नर दिल्ली ने मानवाधिकार आयोग के दिषा निर्देष के अनुसार इंकाउन्टर में मौत के बाद मजिस्ट्रेट द्वारा नियमित जाँच को भी रद कर दिया था। मानवाधिकार आयोग ने अपनी जाँच में पहले तो मुठभेड़ को सही बताया और दिल्ली विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस को उसका लाभ भी मिला। बाद में आयोग ने उसे फजऱ्ी मुठभेड़ों की सूची में डाल दिया। बटला हाउस इंकाउन्टर को वैधता प्रदान करने और शहज़ाद को दोषी करार देने के अदालती फैसले से एक बार फिर 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को लाभ मिल सकता है। यदि बाद में उच्च न्यायालय के निर्णय में बदलाव आता है तो आयोग की वह सूची और सर्वदलीय बैठक में अन्य राजनैतिक दलों की आषंका जनता के दिमाग़ को अवष्य झिंझोड़ेगी। मो0-09455571488
मोहन चन्द्र शर्मा की हत्या आदि आरोपों का दोषी मानते हुए दिल्ली साकेत न्यायालय ने 30 जुलाई को खालिसपुर, आज़मगढ़ निवासी शहजाद अहमद को आजीवन कारावास और 95000 हजार रूपये जुर्माना की सजा सुनाई। फैसला आते ही भा.ज.पा. प्रवक्ताओं ने कांग्रेस पर बटला हाउस मामले में राजनीति करने को लेकर हल्ला बोल दिया। दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्षीद को पहले इस इंकाउन्टर पर सवाल उठाने के लिए न्यायालय के फैसले से सीख लेने और उसी आधार पर देष से माफी माँगने की माँग कर डाली। भा.ज.पा. प्रवक्ताओं ने उन मानवाधिकार संगठनों को भी निषाना बनाया जिन्होंने पहले इंकाउन्टर को फर्जी कहा था। हालाँकि यह फैसला निचली अदालत का है। यदि मामला ऊपर की अदालतों में जाएगा तो फैसला इससे उलट भी आ सकता है। लेकिन हैरत की बात है कि माननीय उच्चतम न्यायालय जब राजनीति को
-मसीहुद्दीन संजरी
अपराधमुक्त करने के लिए अपराधियों के चुनाव लड़ने के खिलाफ सख्त फैसला सुनाता है तो सभी राजनैतिक दल उस फैसले के खिलाफ एक स्वर में बोलने लगते हैं। सरकार इस विषय पर सर्वदलीय बैठक बुलाती है और सर्वसम्मति से यह तय होता है कि इस फैसले के खिलाफ संसद प्रभावी कदम उठाए। भा.ज.पा. उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ मोर्चा खोलने में सबसे आगे दिखाई देती है। भा.ज.पा. के धर्मेन्द्र यादव टेलीवीज़न पर पूरे देष के सामने यह तर्क देते हैं कि सत्ता पक्ष विरोधियों के खिलाफ इसका दुरुपयोग कर सकता है। यही आषंका अन्य राजनैतिक दलों ने भी जाहिर की। दूसरे शब्दों में सत्ता पक्ष न सिर्फ फर्जी मुकदमे कायम करवा सकता है बल्कि अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए न्यायालय के फैसलों को भी प्रभावित कर सकता है। इन दोनों परस्पर विरोधी विचारों के बीच कुल एक सप्ताह का अन्तर यह बताने के लिए काफी है कि बटला हाउस मामले में न्यायालय के फैसले पर राजनैतिक रोटी सेकने में अपने आपको सबसे आदर्षवादी पार्टी कहने वाली भा.ज.पा. भी अपने नेताओं के साथ होने वाली किसी नाइंसाफी की आषंका से वह तमाम मर्यादाएँ भूल गई जिसका वह प्रचार कर रही थी। निचले स्तर पर न्यायपालिका में कितनी राजनैतिक दखलअंदाज़ी होती है यह तो सत्ता में रह चुके या उसकी दहलीज़ पर खड़ी पार्टियों के राजनेता ही बता सकते हैं जिन्हें इस तरह की आषंका सताती रहती है। परन्तु इससे यह अवष्य जाहिर होता है कि कुछ होता तो ज़रूर है। इससे भी ज़्यादा आष्चर्य मुख्य धारा की उस मीडिया के रवैये पर होता है जो न्यायालय के फैसले से असहमति जताने वाले समाचारों को अवमानना से जोड़कर देखने का पाखंड करता है और इस प्रकार मात्र एक ही तरह की प्रतिक्रियाओं का प्रकाषन एंव प्रसारण कर दूसरे पक्ष के खिलाफ नकारात्मक वातावरण निर्मित करता है। जिस दिन शहज़ाद के मामले में फैसला सुनाया जाने वाला था, पूरे देष की मीडिया के लोग उसके गाँव खालिसपुर, आज़मगढ़ में मौजूद थे। वहाँ उपस्थित ग्राम प्रधान और गाँव के निवासियों समेत कई लोगों ने अपने विचार रखे। संजरपुर में भी प्रिन्ट और एलेक्ट्रानिक मीडिया से लोगों ने बात की। शाम को जब एन.डी. टी.वी. के लोग गाँव में आए तो पूरी भीड़ इकट्ठा हो गई, हालाँकि मौसम की खराबी के कारण जीवंत प्रसारण नहीं हो पाया। परन्तु अगले दिन समाचार पत्रों में यह भ्रामक खबर छपी कि खालिसपुर और संजरपुर में सन्नाटा पसरा रहा, गलियाँ सुनसान थीं, कोई रास्ता बताने वाला नहीं था आदि। शायद मीडिया के लोग एक पक्ष की ऐसी तस्वीर पेष करना चाहते थे जिससे अपराध बोध झलकता हो। इस संदर्भ में जब एक हिन्दी समाचार पत्र के ब्यूरो चीफ से बात की गई तो न्यायालय के फैसले से असहमति जताने वाले बयानों को अखबार में स्थान न मिल पाने का कारण पूछने पर उनका कहना था कि न्यायालय की अवमानना वाले समाचारों को नहीं छापा गया और यह नीति उच्चतम स्तर पर बनी थी। हालाँकि यह तर्क किसी भी हालत में स्वीकार्य नहीं हो सकता। यदि मीडिया ने वास्तव में जान-बूझकर ऐसी कोई नीति अपनाई थी तो इसे असंवैधानिक और सुनियोजित दुष्प्रचार ही माना जाएगा। संविधान हमें न्यायालय के फैसलों से असहमति का पूरा अधिकार देता है। यदि ऐसा न होता तो एक अदालत के फैसले के खिलाफ अगली अदालत में अपील करने या पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का अधिकार कानून क्यों देता? अदालती फैसलों के खिलाफ असहमति को अवमानना की चादर उढ़ाना लोकतांत्रिक मूल्यों, मर्यादाओं और उसकी मूल भावनाओं के विरुद्व है। यदि यह निर्णय उच्चतम स्तर पर लिया गया है तो मीडिया का यह व्यवहार धार्मिक समुदायों के बीच भय और संदेह उत्पन्न करने वाले सुनियोजित कदम के तौर पर ही देखा जाएगा जो साम्प्रदायिक सौहार्द और स्वस्थ समाज के ताने-बाने को गहरा आघात पहुँचा सकता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर सर्वदलीय बैठक में सत्ता के दुरुपयोग के मामले में जो सवाल उठाए गए हैं वह स्वतः स्पष्ट करते हैं कि फैसलो को प्रभावित करने की मात्र आषंका ही नहीं होती बल्कि वास्तव में ऐसा होता भी है। उसका कारण भ्रष्टाचार भी हो सकता है, साम्प्रदायिकता या राजनैतिक सत्ता का दाँवपेच भी।
शहज़ाद के मामले में जो निर्णय आया है उसकी भूमिका में विद्वान न्यायाधीष ने पुलिस बल की सेवाओं के प्रति जो टिप्पणी की है कि ’पुलिस के कारण ही हम सुरक्षित हैं। पुलिस का हमारे जीवन में काफी महत्व है और वह जब जागती है तब हम सोते है’ सिद्वान्त रूप में बिल्कुल सही है। यदि ऐसा न होता तो पुलिस विभाग के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाता। कोई यह नहीं कहता कि देष को पुलिस बल की आवष्यक्ता नहीं है या कानून व्यवस्था बनाए रखने में उसकी भूमिका नहीं है। न इस बात से इनकार किया जा सकता है कि हमारे जवानों को बहुत ही विषम परिस्थितियों में काम करना पड़ता है। परन्तु इसका एक और पहलू भी है। उसी पुलिस बल में ऐसे तत्व भी रहे हैं जिन्होंने वर्दी को शर्मसार किया है। सत्ता के इषारे पर राजनैतिक विरोधियों को झूठे मामलों में फँसाना, उनके साथ दुव्र्यवहार, महिलाओं के साथ बलात्कार, दलितों और आदिवासियों के साथ अत्याचार और रिष्वत, लालच और साम्प्रदायिक सोच के चलते दोषियों को बचाने और निर्दोषों को फँसाने का दुष्चक्र, ऐसे हजारों मामलों से आँखें बंद नहीं की जा सकतीं। पुरस्कार, नकद और पदोन्नति के लिए बेगुनाहों को सलाखों के पीछे पहुँचा देने और फर्जी मुठभेड़ों में मासूमों की हत्या तक कर देने के अनेक उदाहरण मौजूद हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। साम्प्रदायिक दंगों में सत्ता के इषारे और अपनी साम्प्रदायिक मानसिकता की तृप्ति के लिए सामूहिक हत्या और महिलाओं एवं दूध पीते बच्चों को कत्ल करने जैसी वारदातों को अंजाम देने और और ऐसी घटनाओं के होने पर मूक दर्षक बने देखते रहने की मिसालें भी मौजूद हैं। ऐसी काली भेड़ें भी हमारे पुलिस बल में मौजूद हैं और निष्चित रूप से उनके कारण आम जनता आराम से सोती नहीं बल्कि उसकी नींद हराम हो जाती है। शायद यही कारण रहा होगा कि विधि निर्माताओं ने पुलिस के सामने दिए गए बयान को न्याय की कसौटी नहीं माना था। प्रस्तुत मामले में बटला हाउस इंकाउन्टर की घटना को अंजाम देने वाली दिल्ली स्पेषल सेल की भूमिका आतंकवाद से सम्बंधित कई मामलों में बहुत ही संदिग्ध रही है। पत्रकार काज़मी से लेकर लियाकत अली शाह के मामले अभी ताज़ा हैं। स्वयं बटला हाउस मुठभेड़ के छापा मार दस्ते में शामिल स्पेषल सेल के कई
अधिकारियों की इससे पहले के मामलों में अदालतों ने आलोचना की है। कुछ एक मामलों में तो फर्जी छापामारी एवं बरामदगी, सुबूत गढ़ने और बेकसूरों को फँसाने के लिए न्यायालय ने फटकार भी लगाई है। इस सम्बंध में जामिया टीचर्स सालिडैरिटी एसोसिएषन ;श्रज्ै।द्ध ने आतंकवाद से जुड़े मामलों में दिल्ली स्पेषल सेल की कार्रवाई और उसके द्वारा कायम किए गए 16 मुकदमों और उनके अदालती फैसलों का अध्ययन करने के बाद ’आरोपित, अभिषप्त और बरी’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है जो स्पेषल सेल के कई अधिकारियों के गैरकानूनी एवं आपराधिक कारनामों की पोल खोलने के लिए काफी है। संक्षिप्त में रिपोर्ट से कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
राज्य बनाम गुलज़ार अहमद गने और मो0 अमीन हजाम एफ0आई0आर0 संख्या 95/06 तथा सेषन केस संख्या 13/2007 का फैसला 13 नवम्बर 2009 में आया। दिल्ली स्पेषल सेल की कहानी के मुताबिक पाक निवासी लष्कर का आतंकी, जम्मू कष्मीर के पट्टन क्षेत्र में काम कर रहा जिला कमांडर मो0 अकमल उर्फ अबू ताहिर, हथियार, गोला बारूद और फंड इकट्ठा करने के लिए अपने साथियों को दिल्ली व भारत के अन्य शहरों में भेज रहा है। ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा द्वारा एक दल का गठन किया गया, जिसमें इंस्पेक्टर संजय दत्त, मोहन चंद शर्मा, एस.आई. राहुल कुमार, कैलाष बिष्ट, पवन कुमार, राकेष मलिक, हरिन्दर, अषोक शर्मा, हेड कांस्टेबल सुषील, सतिन्दर कृष्ण राव, कांस्टेबल नरेन्दर, रन सिंह शामिल थे। स्पेषल सेल के छापामार दस्ते ने गुलज़ार अहमद गने उर्फ मुस्तफा और मो0 अमीन हजाम को महिपालपुर के बस स्टैंड से गिरफ्तार किया दिखाया। इस केस में स्पेषल सेल के अधिकारियों ने आर.डी.एक्स., रिवाल्वर, डेटोनेटर और ग्यारह लाख रूपये की बरामदगी दिखाई थी। इस मामले की विवेचना ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव ने की थी। इस केस में जिस बस पर आरोपियों को सवार दिखाया गया था उस बस के कंडक्टर सोनू दहिया ने अदालत को बताया कि उस दिन बताए गए स्थान पर बस की सेवा ही नहीं थी। विवेचक एसीपी संजीव कुमार यादव ने अदालत को बरामदगी का जो विवरण दिया वह चार्जषीट में दर्ज कहानी का उलटा था। सबसे बड़ी बात तो यह कि बरामदगियों के बारे में श्री शर्मा ने विवेचक को पहले ही बता दिया था। दरअसल अभियुक्तों ने अदालत को बताया कि उन्हें पुलिस के कहने के अनुसार 10 दिसम्बर को नहीं बल्कि 27 नवम्बर को ही गिरफ्तार किया गया था। इस केस का फैसला सुनाते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीष, उत्तरी दिल्ली
धर्मेष शर्मा ने यह टिप्पणी की ‘तो क्या मैं यह मान लूँ कि यह एक मानवीय गलती थी या कुछ और! मूल बात यह थी कि क्या उपरोक्त गलतियाँ वास्तविक थीं या जान-बूझकर पूरी कहानी को गढ़ने की कोषिष में हो गई थीं‘।
राज्य बनाम मुख्तार अहमद खान एफ.आई.आर. व सेषन केस संख्या 48/07, फैसला 21, अप्रैल 2012 में आया। अभियोजन की कहानी के अनुसार अबू मुसाब उर्फ ताहिर और अबू हमज़ा पाक निवासी तथा कुपवाड़ा और बारामुला के लष्कर के जिला कमांडर दिल्ली में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने की योजना बना रहे हैं। गुप्त सूचना के अनुसार कुपवाड़ा निवासी मुख्तार के हाथों घटना अंजाम दी जानी थी। एसीपी संजीव कुमार यादव के निरीक्षण और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के नेतृत्व में एक टीम गठित की गई। इस टीम में इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा, एस.आई. राहुल कुमार, रमेष लांबा, दिलीप कुमार, रवीन्दर त्यागी, धर्मेंद्र कुमार, ए.एस.आई. चरन सिंह, संजीव कुमार, हरिद्वारी, अनिल त्यागी, प्रहलाद, हेड कांस्टेबल उदयवीर, कृष्ण राम, संजीव, कांस्टेबल राजिंदर, राजीव, बलवंत, अमर सिंह और राम सिंह शामिल थे। खबरी से एस.आई. धर्मेन्द्र को सूचना मिली कि मुख्तार हथियारों का एक बड़ा कंसाइनमेन्ट अपने साथियों को सौंपने आज़ादपुर मंडी आ रहा है। चार सदस्यीय टीम को सीमा लाज जहाँ वह ठहरा हुआ था, की निगरानी के लिए भेज दिया गया, बाकी को हथियारों और गोला-बारूद, बुलेट प्रूफ जैकेटों और आई.ओ. किट से लैस करके निजी वाहनों में आज़ादपुर फल मंडी रवाना कर दिया गया। पुलिस बल ने उसे दबोच लिया। तलाषी लेने पर डेढ़ किलो आर.डी.एक्स., डेटोनेटर और टाइमर बरामद हुआ। ए.सी.पी. संजीव कुमार ने इस केस की तफतीष की। हकीकत यह थी कि मुख्तार को 7, जून 2007 को गिरफ्तार किया गया था और पाँच दिन गैर कानूनी हिरासत में रखने के बाद फर्जी तरीके से उसकी गिरफ्तारी व बरामदगी दिखाई गई थी। स्पेषल सेल की सारी कहानी फर्जी साबित हुई। यह रहस्य भी खुला कि फर्जी विस्फोटक विषेषज्ञ से बरामद वस्तुओं की जाँच करवा कर नियमों के विरुद्ध रिपोर्ट प्राप्त की गई थी। फोरेंसिक विषेषज्ञ ने भी माना कि आई.ओ. द्वारा निर्देषित पैरामीटरों पर ही उसने रिपोर्ट तैयार की थी। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीष-02, तीस हज़ारी कोर्ट, नई दिल्ली सुरेन्दर एस राठी ने मुख्तार को बरी कर दिया। अदालत ने यह टिप्पणी भी की ’स्पेषल सेल को मिलने वाली गुप्त सूचनाओं के दावों अथवा उसके काम करने के तरीकों में कुछ तो गम्भीर रूप से गड़बड़ है’।
राज्य बनाम खोंगबेन्तबम ब्रोजेन सिंह एफ.आई.आर. संख्या 93/02 का फैसला 12, मई 2009 को सुनाया गया। ए.सी.पी. राजबीर सिंह को आई.बी. से सूचना मिली कि पी.एल.ए. के आतंकवादी ब्रोजेन सिंह व उसका साथी पी.एल.ए. के लिए हथियार जुटाने दिल्ली आए हैं। स्पेषल सेल की एक टीम गठित की गई जिसमें ए.सी.पी. राजबीर सिंह, इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा, एस.आई. हृदय भूषण, बद्रीषदत्त, शरद कोहली और माहताब सिंह शामिल थे। उसके पास से रिवाल्वर, सी.पी.यू. और लैपटाप बरामद दिखाया गया। मुकदमे के दौरान यह पाया गया कि 15, मार्च 2002 को ए.सी.पी. राजबीर द्वारा गिरफ्तारी के समय लिया गया ब्रोजेन का खुलासा बयान और उपायुक्त उज्ज्वल मिश्रा द्वारा 23, अप्रैल 2002 को पोटा की धारा 32 के तहत दर्ज किया गया हलफनामा एक ही था। अदालत ने कहा कि ’कामा और पूर्ण विराम सहित पूरा का पूरा बयान ज्यों का त्यों है ़ ़ ़ ़ इससे पता चलता है कि इंसानी तौर पर ऐसा हलफनामा देने वाले और दर्ज करने वाले दोनों व्यक्तियों के लिए एक जैसा हूबहू शब्द दर शब्द हलफिया बयान दर्ज करना असंभव है’। यह भी पाया गया कि कंप्यूटर में कई फाइलें ऐसी भी थीं जो जब्त किए जाने के महीनो बाद का समय दर्षाती थीं और ऐसी फाइलों को आपत्तिजनक सबूतों के तौर पर दिखाया गया था। वास्तविकता यह है कि ब्रोजेन सिंह ने अफसपा के खिलाफ आन्दोलनों मे हिस्सा लिया था जिससे रुष्ट होकर मणिपुर पुलिस ने उसे फर्जी मुकदमों मे फँसाया था, जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था। उसके बावजूद उसे गैर कानूनी तौर पर बंद रखा गया। उसने सरकार के खिलाफ अवमानना का मुकदमा कायम किया जिसमें अधिकारियों को सजा और जुर्माना हुआ। दिल्ली में वह अपना इलाज करवाने के लिए आया तो खुफिया एजेंसी की साजिष के तहत उसे यहाँ फँसा दिया गया। अतिरिक्त सत्र
न्यायाधीष, दिल्ली जे0आर0 आर्यन ने उसे मुक्त करने का फैसला सुनाते समय यह टिप्पणी की ’राज्य अधिकारियों को आतंकी होने का शक था और वह पहले से ही अवमानना के मामले में राज्य अधिकारियों को सजा दिलवाकर क्रोधित कर चुका था। पुलिस ने उसे इस अपराध के लिए टार्गेट बनाया’।
ऐसे कई और मामले सामने आ चुके हैं जब न्यायालय ने दिल्ली स्पेषल सेल के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणियाँ की हैं और ए.सी.पी. संजीव कुमार यादव समेत बटला हाउस छापामार दस्ते में शामिल शायद ही ऐसा कोई पुलिस अधिकारी हो जो इन टिप्पणियों की परिधि में पहले न आ चुका हो। राज्य बनाम साकिब रहमान, बषीर अहमद शाह, नज़ीर अहमद सोफी आदि एफ.आई.आर. संख्या 146/05 सेषन केस नम्बर 24/10 में 2, फरवरी 2011 को फैसला सुनाते हुए अतिरिक्त सत्र न्यायाधीष, द्वारका कोर्ट, नई दिल्ली वीरेन्द्र भट्ट ने न सिर्फ स्पेषल सेल के पुलिस अधिकारियों को कड़ी फटकार लगाई बल्कि एस.आई. विरेन्दर, एस.आई. निराकार, एस.आई. चरन सिंह एस.आई. महेन्दर सिंह के खिलाफ कानूनी कारवाई सुनिष्चित करने की संस्तुति भी की। उन्होंने कहा ’ये चारो अधिकारी दिल्ली पुलिस बल के लिए शर्मनाक साबित हुए हैं। मेरी राय में किसी पुलिस
अधिकारी द्वारा किसी बेगुनाह नागरिक को झूठे आपराधिक मामले में फँसाए जाने से और कोई गम्भीर और संगीन अपराध नहीं हो सकता। पुलिस अधिकारियों में ऐसी प्रवृत्ति को हल्के तौर पर नहीं देखा और डील किया जाना चाहिए, बल्कि इस पर सख्त हाथों लगाम कसी जानी चाहिए’। अन्य मामलों में विद्वान न्यायाधीषों ने भले ही ऐसी कठोर टिप्पणी नहीं की हों परन्तु न्याय की कसौटी पर उन मामलों में शामिल पुलिस अधिकारियों की गवाही किसी भी स्थिति में खरी नहीं मानी जा सकती। उपर्युक्त मामलों में शामिल दिल्ली स्पेषल सेल के छापामार दस्तों की सूची का अध्ययन करने से पता चलता है कि बटला हाउस इंकाउन्टर में शामिल और शहज़ाद केस के 6 प्रत्यक्षदर्षी अधिकारियों के साथ-साथ आपरेषन में शामिल ज़्यादातर अधिकारियों पर न्यायालय द्वारा एक से
अधिक बार उँगली उठाई जा चुकी है। मज़े की बात तो यह है कि इन अधिकारियों को सरकार और प्रषासन की तरफ से पुरस्कार और अदालतों की ओर से फटकार मिलती रही और यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा।
शहज़ाद मामले में न्यायालय ने यदि उसके द्वारा इंस्पेक्टर एमसी शर्मा को गोली मारने और फायर करते हुए भागने के तर्कों को स्वीकार किया है तो उसके पीछे निष्चित रूप से पुलिस के प्रति उसकी उसी भावना की भूमिका है जो उसने निर्णय सुनाते समय व्यक्त की थी। लेकिन इससे बटला हाउस इंकाउन्टर के समय उठने वाले सवालों के जवाब नहीं मिलते बल्कि सच्चाई तो यह है कि कई और नए सवाल जन्म लेते हैं। शहज़ाद के गोली चलाते हुए फरार होने के मामले में फैसले में यह संभावना व्यक्त की गई है कि हो सकता है कि उसने किसी अन्य फ्लैट में शरण ले ली हो या अपने आपको स्थानीय जाहिर करते हुए वहाँ से निकल गया हो। परन्तु ऐसा कैसे सम्भव हुआ कि अपने साथी को गोली मार कर फरार होने वाले की तलाष उन सम्भावित स्थानों पर भी पुलिस ने नहीं की जो उसी इमारत में थी! या क्या यह मुमकिन है कि इतने बड़े आपरेषन के दौरान जबकि गोलियाँ चल रही हों उसकी निगरानी के लिए तैनात पुलिस कर्मी वहाँ से किसी को बगैर तलाषी के आसानी से निकल जाने दें और हथियार समेत वहाँ से कोई भाग निकले? इससे भी अधिक आष्चर्य की बात यह कि बचाव पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया गया कि आतिफ और साजिद के शरीर पर चोट के निषान हैं जिससे साबित होता है कि पहले उनके साथ मार पीट की गई फिर गोली मारी गई। फैसले में कहा गया है कि आतिफ और साजिद के शरीर पर आई चोट गोली लगने के बाद फर्ष पर गिरने के कारण आई। फैसले में आतिफ के शरीर पर गन शाट के अलावा मात्र एक चोट का उल्लेख है जो उसके पैर के सामने के हिस्से पर आई है। जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उसकी पीठ और कूल्हे के पिछले हिस्से पर चोटों के कई निषान हैं जो फर्ष पर गिरने से चोट आने के तर्क को नकारते हैं। परन्तु एमसी शर्मा के शरीर पर गोली लगने के बाद ज़मीन पर गिरने से चोट आने का कोई उल्लेख नहीं है जबकि भारी भरकम शरीर के कारण साजिद और आतिफ के मुकाबले में उनके लिए यह सम्भावना अधिक थी? एमसी शर्मा को जिस समय गोली लगी वह खड़े थे यह बात हेड कांस्टेबल बलवंत ने अपनी गवाही में भी कही है। परन्तु साजिद यदि खड़ी मुद्रा में था तो उसके सिर के ऊपरी हिस्से पर आमने-सामने की मुठभेड़ में गोलियाँ कैसे लगीं और यदि वह खड़ा नहीं था तो गिरने के कारण शरीर पर चोट आने का सवाल कहाँ पैदा होता है। ऐसी हालत में उसके शरीर पर चोटें कैसे आईं?
छापामार टीम के मात्र एक सदस्य हेड कांस्टेबल राजबीर ने ही बुलेट प्रूफ जैकेट पहन रखी थी। आष्चर्य की बात तो यह है कि उस पुलिस बल के दो जवानों के पास कोई असलहा भी नहीं था जिसके लिए न्यायालय ने फटकार भी लगाई है। परन्तु क्या इस बात को आसानी से हज़म किया जा सकता है जबकि छापामार दल के पास यह सूचना थी कि दिल्ली धमाकों को अंजाम देने वाला आतिफ अपने साथियों के साथ वहाँ मौजूद है। एस0आई0 धर्मेन्द्र कुमार ने पहले ही वहाँ कई लोगों के मौजूद होने की तस्दीक भी कर दी थी। ऐसे में दल में शामिल मात्र एक बुलेट प्रूफ जैकेट पहने हुए हेड कांस्टेबल राजबीर को कमरे में दाखिल होने वाली टीम में शामिल क्यों नहीं किया गया। सच्चाई तो यह है कि बिना बुलेट प्रूफ जैकेट और दो सदस्यों का बगैर हथियार के आतंकवादियों को पकड़ने के लिए चले जाने की थ्योरी विष्वसनीय नहीं हो सकती। राज्य बनाम मुख्तार अहमद केस में स्पेषल सेल की टीम के जवानों ने अदालत को बताया था कि छापामार दल ने खुफिया खबरी की सूचना पर कार्रवाई करने से पहले अपने आपको हथियारों और गोला, बारूद, बुलेटप्रूफ जैकेटों और आई.ओ. किट से लैस किया था। बटला हाउस इंकाउन्टर में शामिल इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा, एस.आई. राहुल कुमार, एस.आई. रविन्दर त्यागी, एस.आई धर्मेन्द्र कुमार, ए.एस.आई. अनिल त्यागी, उदयवीर और बलवंत मुख्तार को घेरने वाली टीम में भी थे। आखिर इन अधिकारियों ने वही तैयारी बटला हाउस मामले में भी क्यों नहीं की जो मुख्तार के मामले में की थी जबकि यह मामला उससे ज़्यादा संगीन भी था। क्या इससे निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि पुलिस बल को पहले से मालूम था कि यह बच्चे खतरनाक आतंकवादी नहीं हैं और वह उन्हें आसानी से टार्गेट कर लेंगे। पुरस्कार, पदक और पदोन्नति के आभास से ही अति उत्साहित कार्रवाई में शामिल टीम के सदस्यों को न तो बुलेट प्रूफ जैकेटों का ध्यान रहा और न हथियारों की फिक्र। कुल मिलाकर इस इंकाउन्टर को सही साबित करने के लिए इंस्पेक्टर शर्मा और बलवंत को लगी गोलियों के अलावा दूसरा कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य शहज़ाद के फैसले के बाद भी सामने नहीं आया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि पुरस्कार और पदक की दौड़ में हमेषा आगे निकल जाने वाले इंस्पेक्टर शर्मा किसी अंदरूनी ईष्र्या का षिकार हो गए हों! कुल मिलाकर यह जाँच का विषय था जिसके लिए लगातार माँग भी होती रही परन्तु हर स्तर पर इसे ठुकरा कर पारदर्षिता के सभी रास्ते बंद कर दिए गए।
अदालत ने अभियोजन पक्ष की इस दलील को भी स्वीकार किया, जिसमें कहा गया था ’छापमार दल को दिल्ली धमाके के संदिग्धों को पकड़ने की जल्दी थी। इसके अलावा उस क्षेत्र के अधिकतर रहवासियों का धर्म वही था जो उन संदिग्धों का था। यदि पुलिस अधिकारी ऐसे स्थानीय लोगों को शामिल करने की कोषिष करते तो इससे क्षेत्र में सामाजिक बेचैनी उत्पन्न हो जाती जो पुलिस वालों की जान के लिए भी खतरे का कारण बन जाती’। अभियोजन ने इस सिलसिले में आजमगढ़ प्रशासन के बारे में कहा है कि कानून व्यवस्था का हवाला देते हुए छापामार दल को शहजाद के गाँव जाने की प्रषासन ने अनुमति नहीं दी थी। इस पर अदालत ने यह तो कहा कि कोई धर्म अपराध करने की आज्ञा नही देता परन्तु उसका यह भी कहना था ’विभिन्न धर्मों के बीच टकराव की घटनाओं को देखते हुए जैसा कि पुलिस वालों के टारगेट किए जाने के भय की आषंका अभियोजन ने जताई, को साफ तौर पर नकारा नहीं जा सकता’। अभियोजन की यह दलील घोर आपत्तिजनक और पूरी तरह से साम्प्रदायिक है। यह पूरे मुस्लिम समुदाय को कलंकित करने के सुनियोजित प्रयास और उस मुस्लिम विरोधी मानसिकता का विस्तार है जो आतंक विरोधी अभियान के नाम पर मालेगाँव, मक्का मस्जिद, अजमेर, समझौता एक्सप्रेस आदि मामलों में पहले ही बेनकाब हो चुकी है। उससे भी अधिक चिन्ता का विषय विद्वान न्यायाधीष का अभियोजन की इस दलील से सहमति जताना है। इस सहमति के पीछे जो तर्क दिया गया वह यह है कि आज़मगढ़ प्रषासन ने कानून व्यवस्था का हवाला देते हुए शहजाद के घर छापामारी की अनुमति देने से इंकार कर दिया था। परन्तु इस बात का संज्ञान नहीं लिया गया कि शहजाद को उसके घर से ही गिरफ्तार किया गया था और कोई तनाव नहीं पैदा हुआ और न ही छापामार दल के सदस्यों की जान को कोई खतरा ही। जब मिजऱ्ा शादाब बेग के घर पर कुड़की के आदेष का पालन करने के लिए गोरखपुर पुलिस आई तो आज़मगढ़ शहर के मुस्लिम बाहुल्य मुहल्ले में मात्र चार पुलिस कर्मियों ने सैकड़ांे स्थानीय निवासियों की मौजूदगी में शान्तिपूर्वक अपना काम सम्पन्न किया और स्थानीय लोगों ने उन्हें पूरा सहयोग दिया। यह बात सही है कि आज़मगढ़ के लोगों ने बड़े पैमाने पर आन्दोलन किया, आतंकवाद के नाम पर बेगुनाहों को फँसाने को लेकर यहाँ के लोगो में व्यापक असंतोष था, बगैर नम्बर प्लेट की गाडि़यों में आकर सादे कपड़ों में कार्रवाई करने समेत एस.टी.एफ. और ए.टी.एस. की गैर कानूनी कार्यषैली से लोगों में गुस्सा भी था परन्तु इसका यह अर्थ कतई नहीं निकाला जा सकता कि यहाँ कोई साम्प्रदायिक तनाव या कानून व्यवस्था की कोई समस्या उत्पन्न हो गई थी। यदि आज़मगढ़ प्रषासन स्थिति का सही आंकलन नहीं कर सका तो यह उसकी समस्या थी परन्तु उस आधार पर स्पेषल सेल के स्थानीय गवाहों को शामिल न करने की थ्योरी को सही नहीं ठहराया जा सकता। बटला हाउस इंकाउन्टर के बाद उसकी न्यायिक जाँच की माँग को सरकार ने ठुकरा दिया था। लेफटीनेंट गवर्नर दिल्ली ने मानवाधिकार आयोग के दिषा निर्देष के अनुसार इंकाउन्टर में मौत के बाद मजिस्ट्रेट द्वारा नियमित जाँच को भी रद कर दिया था। मानवाधिकार आयोग ने अपनी जाँच में पहले तो मुठभेड़ को सही बताया और दिल्ली विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस को उसका लाभ भी मिला। बाद में आयोग ने उसे फजऱ्ी मुठभेड़ों की सूची में डाल दिया। बटला हाउस इंकाउन्टर को वैधता प्रदान करने और शहज़ाद को दोषी करार देने के अदालती फैसले से एक बार फिर 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को लाभ मिल सकता है। यदि बाद में उच्च न्यायालय के निर्णय में बदलाव आता है तो आयोग की वह सूची और सर्वदलीय बैठक में अन्य राजनैतिक दलों की आषंका जनता के दिमाग़ को अवष्य झिंझोड़ेगी। मो0-09455571488
मोहन चन्द्र शर्मा की हत्या आदि आरोपों का दोषी मानते हुए दिल्ली साकेत न्यायालय ने 30 जुलाई को खालिसपुर, आज़मगढ़ निवासी शहजाद अहमद को आजीवन कारावास और 95000 हजार रूपये जुर्माना की सजा सुनाई। फैसला आते ही भा.ज.पा. प्रवक्ताओं ने कांग्रेस पर बटला हाउस मामले में राजनीति करने को लेकर हल्ला बोल दिया। दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्षीद को पहले इस इंकाउन्टर पर सवाल उठाने के लिए न्यायालय के फैसले से सीख लेने और उसी आधार पर देष से माफी माँगने की माँग कर डाली। भा.ज.पा. प्रवक्ताओं ने उन मानवाधिकार संगठनों को भी निषाना बनाया जिन्होंने पहले इंकाउन्टर को फर्जी कहा था। हालाँकि यह फैसला निचली अदालत का है। यदि मामला ऊपर की अदालतों में जाएगा तो फैसला इससे उलट भी आ सकता है। लेकिन हैरत की बात है कि माननीय उच्चतम न्यायालय जब राजनीति को
-मसीहुद्दीन संजरी
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