बुधवार, 4 सितंबर 2013

प्रेमचन्द-फिर वही विवाद

प्रेमचन्द को लेकर एक बार फिर पुराने विवादों को जीवित करने के प्रयास हो रहे हैं, उनके सामाजिक दृष्टिकोण व प्रतिबद्धता के प्रति एक बार फिर शंकाएँ प्रकट की जा रही हैं। एक हिन्दी दैनिक की इस विवाद में विशेष रुचि है। प्रगतिशील आन्दोलन, सामाजिक समानता तथा बदलाव के चिंतन के प्रति उनके झुकाव पर संशय का आवरण डालने की कोशिश हो रही है। कहा जा रहा है कि प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े लोग गैरजरूरी तौर पर अपने हितों की पूर्ति के लिए उन्हें वामपंथी, कम्युनिस्ट और धर्म निरपेक्ष साबित करने के उद्देश्य से उनकी कुछ खास रचनाओं को महिमामंडित कर रहे हैं। उन्होंने प्रगतिशील लेखकों के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन की
अध्यक्षता क्या कर दी कि उन्हें सचेत रूप से पैदाइशी तरक्की पसंद और इस तहरीक का हिमायती साबित करने की मुहिम ही चला दी गई है। उहें अनावश्यक रूप से प्रगतिशील आन्दोलन का नायक बनाया जा रहा है, उनके मस्तक पर प्रगतिशीलता का ताज रखा जा रहा है। यानी कि प्रेमचन्द के व्यक्तित्व व कृतित्व के वृहत्तर प्रमुखता में प्रमाणित यथार्थ ही को झुठलाने की हठवादी कोशिशें हो रही हैं। कुछ उसी तरह जैसे कुछ विद्वान उन्हें घृणा का प्रचारक या दलित विरोधी रचनाकार के रूप में स्थापित करने का स्वप्न देखते हैं। अन्ततः उनका स्वप्न भंग होता है फिर भी वे सच्चाई को स्वीकार करने को तैयार नहीं होते। अब जबकि कथा सम्राट का लिखा एक-एक शब्द प्रकाशित हो चुका है, तब उन्हें प्रगतिशील अथवा वामपंथी झुकाव वाला रचनाकार साबित करने के लिए कोई पत्र, लेख, टिप्पणी, डायरी, इन्दिराज, सम्पादकीय या कहानी रच पाना तथा उसे प्रकाशित प्रसारित करा पाना किसी के लिए संभव नहीं हैं। जैसा कि प्रेमचन्द्र ने मित्र और जमाना के सम्पादक मुंशी दया नारायण निगम को एक पत्र में यह लिखा कि ‘‘मैं, अब करीब-करीब बोशेविक वसूलों का कायल हो गया हूँ। ‘‘या यह कि मैं उस आने वाली पार्टी का मेम्बर हूँ जो कोतहुन्निसा (विपन्नवर्ग) की सियासी तालीम को अपना दस्तूर उल-अमल बनाए।’’
    प्र्रश्न यह है कि इस प्रकार के विचारों को प्रगतिशीलों या वामपंथियों द्वारा महत्व देने और प्रचारित करने पर किसी को आपŸिा क्यों होनी चाहिए। बीसवीं सदी में मज़्ादूर वर्ग की उभरती हुई संगठित शक्ति से उत्साहित होकर यदि प्रेमचन्द्र समानता पर आधारित समाज के निर्माण को संभव मान पाए और यह कह पाए कि ‘‘यह काम बहुत मुश्किल नहीं। पूँजी और सम्पŸिा से खूनी लड़ाइयाँ लड़नी पड़ेंगी।’’ तो फिर आखिर इसका जोर देकर उल्लेख करने में हर्ज क्या है। यदि वे गांधीवादी आदर्शवाद से समाजवादी यथार्थवाद की ओर आते हुए बदलाव के संघर्ष की निर्णायक शक्तियों की पहचान कर सके। गांधी के प्रभाव के बावजूद शोषण एवम् उत्पीड़न के विरुद्ध आकार लेती किसानों में नई-नई पैदा हुई जनवादी चेतना को प्रतिबिम्बित करने वाला उपन्यास प्रेमाश्रम लिख पाए तो शोषण व लूट की नई शक्तियों के उभार, उनसे पैदा हुई प्रतिरोध की नई आँच तथा सामूहिक संघर्षों की नई स्थितियों को चिह्नित करते हुए संघर्ष के नए नायक दे पाए, पराजित दमित जनता को रंग भूमि जैसा उपन्यास रचकर विजय का एक बोध दे सके, प्रेमाश्रम से होते हुए गोदान तक की वैचारिक विकास की यात्रा तय कर पाए जो अवश्य ही कला के विकास की भी यात्रा है, तो उन्हें दलित-दमित सताई गई जनता का पक्षधर लेखक क्यों नहीं कहा जाएगा, भारत के मुक्ति संघर्ष, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद तथा सामंतवाद के विरुद्ध संगठित हुए जनान्दोलनों का प्रतिबद्ध चित्रेता कहने में संकोच कैसा।
    उन्हें प्रगतिशील जनवादी, अवाम दोस्त, जनसंघर्षों के जबरदस्त हिमायती, वर्ग विभाजित समाज में वर्गीय यथार्थ की खरी पहचान, साम्प्रदायिकता व जातिवाद का प्रखर आलोचक, धर्मान्धता, रूढि़वाद और कूप मण्डूकता के विरुद्ध निरन्तर आक्रमण की भूमिका में रहने वाला रचनाकार साबित करने के लिए किसी बाहरी उपकरण की आवश्यकता नहीं, विराटता लिए हुए उनका विविध आयामी बृहŸार लेखन ही उन्हंे यह सब सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है। अप्रैल 1936 में वह प्रगतिशील लेखकों के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन (लखनऊ) की सदारत करते या नहीं, साहित्य का शिलालेख बन जाने वाला नितांत सारगर्भित, दिशा वाहक अध्यक्षीय सम्बोधन दे पाते या नहीं, इससे स्थितियों में कोई बड़ा अन्तर नहीं पड़ता क्योंकि सन् 36 आते-आते वह 1906, 1919-20 तथा 1930 के प्रेमचन्द्र से बहुत आगे आ चुके थे।
    अतार्किकता का अतिक्रमण करते हुए वे तार्किकता की ओर जाते हैं, उनके यहाँ कला और दृष्टिकोण दोनों स्तरों पर निरन्तर विकास दिखाई पड़ता है, प्रौढ़ता किसी सचेत प्रयास की अपेक्षा स्वाभाविक गति से आती दिखती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि वे अत्यन्त सजग रचनाकार थे, हालात और कला के बदलते स्वरूप पर उनकी गहरी नज़्ार थी। लेखन की सोद्देश्यता पर उनका विश्वास लगातार अधिक दृढ़ होता गया था, लेखन में वे सोशल ऐक्टिविस्ट की तरह सक्रिय थे, किसी दूसरे ने नहीं, स्वयम् अपनी चेता से उन्होंने अपने लिए कई जिम्मेदारियाँ निर्धारित कर रखी थीं। इस बात को वह समझ रहे थे कि व्यक्ति की परिवार के प्रति जिम्मेदारियों के मुकाबले लेखक के समाज के प्रति कहीं
अधिक गुरुतर दायित्व होते हैं। अपने लेखकीय सरोकारों मात्र के कारण ही नहीं बल्कि इन सरोकारों को व्यावहारिकता के स्तर पर घटित करने, इस कारण जीवन और सुविधाओं को संकट में डालने, ख़तरे मोल लेने, आर्थिक क्षति उठाते हुए भी, जनसंचार माध्यमों को जुटाने तथा उनका भरपूर इस्तेमाल करने के कारण भी वे विश्व के कई बड़े रचनाकारों के निकट जा पहुँचते हैं। उन रचनाकारों के निकट जिन्होंने विधाओं की सीमाएँ तोड़ीं, माध्यमों का अतिक्रमण किया और सामाजिक सक्रियता की मिसालंे पेश कीं। ठीक उसी तरह जैसे 1920 में गांधी जी के आवाह्न पर उन्होंने भविष्य को दाँव पर लगाते हुए, आर्थिक तंगी के बावजूद सरकारी नौकरी को ठोकर मार दी। अवश्य ही उन्होंने सरकारी नौकरी गांधी जी के प्रभाव में छोड़ी थी, गांधी जी के लिए नहीं। उन्होंने यह कुर्बानी देश के लिए, उसकी आजादी के लिए की थी। कुल मिलाकर यहाँ के अवाम के लिए वे देख रहे थे कि भारतीय सामंतों के गठजोड़ से किस क्रूरता से ब्रिटिश शासन यहाँ के सदियों के सताए गए अवाम का दमन कर रहा है। कुछ आधुनिक सुविधाओं शिक्षा और ज्ञान का अवदान देते हुए उसने सुनियोजित तरीके से भारतीय समाज के आधुनिकीकरण और समग्र विकास, सबकी तरक्की को संभव करने में बाधा पहुँचाई। संस्कृति व सभ्यता को आघात पहुँचाया है, भारतीय स्वाभिमान की धज्जियाँ उड़ाई हंै, साम्राज्य की मजबूती के लिए सामाजिक विभेद को उग्र किया है, कारणवश उन्हें औपनिवेशिक दासता से जल्द से जल्द मुक्ति आवश्यक महसूस होती थी। जिसे पाने के अभियान में सहयोगी की भूमिका में अपने को स्थापित करते हुए उन्होंने अपना समूचा लेखन अपने आलोचनात्मक विवेक को सक्रिय रखते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन को समर्पित कर दिया। इसी कारण वह राष्ट्रीय आन्दोलन का प्रतिबिम्ब होने का गौरव प्राप्त कर सका। समग्र इच्छा से भारतीय समाज की सामूहिक चेतना को पुरातन पंथी पिछड़ेपन, कूपमण्डूकता तथा अन्ध विश्वासों से मुक्त कराके आधुनिकता के रास्ते पर ले जाने का विशेष महत्व है। वे कहते हैं-‘‘जब जनता मूर्छित थी, तब उस पर धर्म और संस्कृति का मोह छाया हुआ था, ज्यों-ज्यों उसकी चेतना जागृत होती जाती है, वह देखने लगी है कि यह संस्कृति केवल लुटेरों की संस्कृति थी, राजा बनकर, विद्वान बनकर, जगत सेठ बनकर, जनता को लूटती थी। उसे आज अपने जीवन की रक्षा की ज्यादा चिंता है जो संस्कृति की रक्षा से कहीं ज्यादा आवश्यक है। (साम्प्रदायिकता और संस्कृति) इन सबका प्रगतिशील आन्दोलन से संलग्न रचनाकारों बुद्धिजीवियों के लिए विशेष महत्व है। आखिर प्रगतिशील आन्दोलन की चिन्ताएँ और सरोकार वही तो हैं जो प्रेमचन्द्र के थे। संयोग से जिसकी नितांत अर्थपूर्ण व्याख्या स्वयम् उन्होंने ही की:- 
    ‘‘कविता में अगर जागृति पैदा करने की शक्ति नहीं है, तो वह बेजान है... प्रेमिकाओं के सामने बैठकर आँसू बहाने का यह ज़्ामाना नहीं है। इस व्यापार में हमने कई सदियाँ खो दीं, विरह का रोना रोते-रोेते हम कहीं के नहीं रहे। अब हमें ऐसे कवि चाहिए, जो हज़्ारत इकबाल की तरह हमारी मरी हुई हड्डियों में जान डालें।’’
     अपनी पत्रिका ‘‘हंस’’ जारी करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘‘हंस भी उन्हीं उद्देश्यों को पाने के लिए जारी किया गया है’’ और बहुत स्वाभाविक तरीके से हंस’’ प्रगतिशील आन्दोलन का मुख पत्र बन गया। उन्होंने ही कहा था-साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है... वह संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है...पिछले दो सौ सालों से क्या सचमुच साम्प्रदायिकता संस्कृति की आड़ में जनशत्रुता के अपने लक्ष्य को पाने के लिए बार-बार शर्मनाक प्रपंच नहीं रचती रही है और क्या आज वह संस्कृति की आड़ में मुनाफ़ा व लूटख़ोरों की महत्वपूर्ण सेवक नहीं बनी हुई है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर लूटखोर कारपोरेट जगत के लिए पाँवड़े कौन बिछा रहा है और कारपोरेट जगत आखि़र क्यों सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के छद्मनायक को महानायक बनाने के अभियान में जुटा हुआ है। स्त्री की पुरानी यातनाप्रद, अमानवीय लक्षणों से युक्त दासता का समर्थन करने वाला कोई व्यक्ति आज क्या अपने को शिक्षित, आधुनिक या संवेदनशील कह सकता है? वह कहे न कहे क्या लोग उसे इस रूप में स्वीकार कर सकते है, यदि नहीं तो उसे इस विविध रंगी समाज के साथ प्रेमचन्द्र का कृतज्ञ होना ही चाहिए क्योंकि पिछले कई सौ वर्षों के सांस्कृतिक इतिहास में वे एक ऐसे रचनाकार के रूप में सामने आते हैं जिसने स्त्री की यातनामयी दासता के प्रश्न को गहरी संवेदनशीलता तथा प्रखर दृष्टि सम्पन्नता से अपने लेखन की अन्तर्वस्तु में शामिल किया और कई यादगार रचनाएँ दीं। सम्पादकीय टिप्पणियाँ कीं, उŸोजक लेख लिखे, इसे याद रखा जाना चाहिए कि स्त्री सरोकार प्रगतिशील लेखक संघ तथा आन्दोलन के बुनियादी सरोकारों में प्रमुख रहा है। यह संयोग या सहसा घटित घटना नहीं है कि प्रगतिशील आन्दोलन की पूर्व पीठिका के रूप में पहचाना जाने वाला नवम्बर 1932 में प्रकाशित चार कहानीकारों का संयुक्त संग्रह ‘अंगारे’ कहानियों में स्त्री प्रश्न को प्रमुखता प्राप्त थी, कहानीकार थे-सज्जाद जहीर, अहमद अली, डाॅ. रशीद जहाँ तथा महमूदुज़्ज़फ़र। यह भी कोई संयोग नहीं है, कि भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली इकाई के गठन, प्रगतिशील लेखकों के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन (1936) के आयोजन तथा प्रगतिशील आन्दोलन के विस्तार में इन कहानीकारों ने सक्रिय भूमिका निभाई, ख़तरे भी उठाए। स्त्री के प्रश्न, प्रगतिशील आन्दोलन की सैद्धांतिकी में अनिवार्य रूप से शामिल रहा है। वैसे ही जैसे प्रेमचन्द्र के लेखकीय सरोकारों में। कारणवश प्रगतिशील आन्दोलन अथवा सोच से जुड़े लोगों के लिए प्रेमचंद्र अत्यंत सम्मानीय रचनाकार हैं, उनकी इन विशिष्टताओं की निरन्तर चर्चा प्रगतिशील आन्दोलन की अनिवार्य ज़्ारूरत है।
    इसी प्रकार हज़्ाारों वर्षों से दलितों पर होते आए अत्याचार, दमन तथा उनके प्रति अन्य प्रकार के अमानवीय व्यवहार से तीव्र असहमति, उसकी आलोचना, प्रतिकार तथा उनकी नितांत कारुणिक सामाजिक अवस्था में परिवर्तन के लिए सामाजिक आकांक्षा और संकल्प जगाना भी प्रगतिशील आन्दोलन की सैद्धंतिकी में शामिल रहा है। वर्गीय यथार्थ को और संघर्ष को महत्वपूर्ण मानते हुए जाति का प्रश्न भी निरन्तर महत्वपूर्ण बना रहा है। प्रगतिशील आन्दोलन से एकदम आरंभ से जुड़े रचनाकारों के रचना सरोकारों ही को देखिए, लन्दन में प्रलेस के संस्थापकों में प्रमुख मुल्क राज आनन्द के उपन्यास ‘‘अछूत’’ ही को लीजिए। यह एकदम आरम्भ की घटना है। डाॅ0 रशीद जहाँ, सज्जाद ज़्ाहीर, कृश्न चन्दर, इस्मत चुग़ताई की भी ऐसी कहानियाँ शुरुआती दौर की हैं।
  
    साम्प्रदायिकता, जातिभेद, अमानवीय शोषण के लिए धार्मिक सिद्धान्तों के इस्तेमाल, अन्याय के पक्ष में गुंजाइश पैदा करने वाली पुरातन सोच पर आधारित सामाजिक व्यवस्था, नए जमाने की बदली हुई प्रवृŸिायों तथा लूट व मुनाफे की असंवेदनशील व्यवस्था प्रचलित करने वाली महाजनी सभ्यता के ख़तरों को समझते हुए पाठकों को उससे आगाह कर रहे थे तथा नई सामाजिक व्यवस्था के प्रबल पक्षधर के रूप में प्रस्तुत हो रहे थे तो इसका मतलब वे आने वाली पीढि़यों, विशेष रूप से प्रगतिशील, जनवादी, आधुनिक सोच के लोगों के लिए सीखने के विपुल अवसर प्रदान कर रहे थे। प्रगतिशील सोच आन्दोलन से सबद्ध रचनाकार, बुद्धिजीवी इसी रूप में उन्हें देखते हुए आदर देते हैं, ऐसी विभूति की निरन्तर चर्चा करना उनकी लेखकीय, वैचारिक व सामाजिक जि़्ाम्मेदारी है।
    महाजनी सभ्यता ही में उन्होंने आगाह किया है कि नई सामाजिक व्यवस्था का महाजनी सभ्यता के गुर्गे हर संभव विरोध करेंगे, उसके बारे में भ्रान्तियाँ फैलाएँगे, अवाम को गुमराह करेंगे, उनकी आँखों में धूल झोंकेंगे, लेकिन जो हक है उसे आखिरकार एक न एक दिन फतह होगी और जरूर होगी। पाठक स्वयं तय करें ऐसे में प्रगतिशीलों को उन्हें अलग से समाजवादी, सामाजिक व्यवस्था का हिमायती व प्रचारक साबित करने के लिए कोशिश करने की क्या आवश्यकता, लेनिन के तोलस्ताय के बारे में कहे गए यह शब्द क्या प्रेम चन्द्र पर भी लागू नहीं होते। ‘गहराई से उद्वेलित सारा जन समुद्र अपने समी दुर्बल व सबल पक्षों के साथ उनकी रचनाओं से साकार हो उठा है’’।

प्रेमचन्द्र की सद्गति, दूध का दाम, ठाकुर का कुआँ, कफ़न इत्यादि कहानियाँ अपने कालजयी संवेदनात्मक आवेग और विषयगत ईमानदारी के कारण लगातार चर्चा में बनी ही रहेंगी। गोदान व रंगभूमि में बृहŸार सन्दर्भों में कथानक का हिस्सा बना यह प्रश्न हो या उनकी कहानियाँ ये सब लगभग प्रगतिशील आन्दोलन की शुरूआत से पहले की कृतियाँ हैं। बाद के वर्षों में हिन्दी व उर्दू में इस चिंता को गंभीर सरोकार के रूप में प्रतिपादित करने वाली अधिकांश कृतियाँ प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़े रचनाकारों ही ने दी हैं। उदाहरण देना लेख को लम्बा करना होगा, प्रगतिशील-जनवादी रचनाकारों के लिए तथा प्रगतिशील आधुनिक सोच से परोक्ष रूप से प्रभावित कलमकारों के लिए प्रेमचन्द्र की हैसियत दिशा वाहक की है। वे रास्ता दिखाते हैं। यही कारण है अनेक प्रयासों के बावजूद उनकी कथा एवं चिन्तन परम्परा को केन्द्रीय हैसियत प्राप्त है, उसे अप्रासंगिक नहीं बनाया जा सका। इस तथ्य को समझिए कि उनके समय के समस्याग्रस्त, रूढि़ग्रस्त, विसंगतिपूर्ण, अन्याय व दमन को परिश्रय देने वाले समाज में बुनियादी परिवर्तनों को संभव नहीं किया जा सका। तब्दीलियाँ भीतरी से ज्यादा ऊपरी हैं। कल के प्रश्न आज भी मुँह बाये खड़े हैं। यथार्थ के प्रति नुकीली निर्ममता तथा दृष्टि सम्पन्नता का उदाहरण प्रस्तुत करने वाला आज विपुल मात्रा में जो दलित लेखन हो रहा है, क्या वह उसी परम्परा का विकास नहीं है। काल विशेष के उपरान्त प्रेमचन्द्र का सभी तरह का लेखन प्रगतिशील आन्दोलन का प्रतिबिम्ब बनते हुए, अवश्य ही वह राष्ट्रीय आन्दोलन का भी प्रतिबिम्ब था, दलितों, स्त्रियों, समाज के दूसरे दबे कुचले वर्गों, मेहनतकशों, एवं शोषित किसानों के पक्ष में क्या वातावरण नहीं बनाया। आखिर वह किसानों के एक मजबूत संगठन के आकांक्षी क्यों थे?
-शकील सिद्दीक़ी

मोबाइल: 09839123525

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