इन दिनों पहचान से जुड़े मुद्दे देश के मानस पर छाये हुए हैं। पहचान से जुड़े मुद्दों की राजनीति करने वालों की एक विशेषता यह होती है कि वे हमेशा ‘दूसरे’ को परिभाषित करने पर बहुत जोर देते हैं। इन ‘दूसरों’ को अपने धर्म और अपनी संस्कृति के झंडे तले लाने का प्रयास ये शक्तियां लगातार करती रहती हैं। वर्तमान में हमारे देश में धार्मिक राष्ट्रवाद का बोलबाला है और जाहिर है कि इस माहौल में धार्मिक पहचान, हमारी सभी अन्य पहचानों से अधिक महत्वपूर्ण बन गई है। इस सिलसिले में हम सब को आरएसएस-भाजपा से जुड़े मुरली मनोहर जोशी की याद आना स्वाभाविक है जिन्होंने मुसलमानों के लिए अहमदिया हिन्दू और ईसाईयों के लिए क्रीस्ती हिन्दू शब्दों को गढ़ा था। आरएसएस लंबे समय से कहता आ रहा है कि सिक्ख धर्म कोई अलग धर्म नहीं वरन् हिन्दू धर्म का एक पंथ मात्र है। इस संदर्भ में अलग-अलग समय पर अलग-अलग तरह की बातें कही जाती रही हैं परन्तु सभी का उद्देश्य वही रहा है-भारत के सभी नागरिकों को हिन्दू धर्म के झंडे तले लाना। धर्म अथवा संस्कृति के आधार पर सभी को हिन्दू बताने का प्रयास किया जाता रहा है। मुसलमानों से कहा जाता है कि उनके पूर्वज हिन्दू थे और केवल आराधना का तरीका बदल जाने से वे हिन्दू नहीं रहे, ऐसा मानना गलत है।
गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर परिक्कर के ताजा बयान को इसी प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिए। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने गोवा के कैथोलिक समुदाय की संस्कृति के विषय में अपने बहुमूल्य विचार जाहिर किए। न्यूयार्क टाईम्स इंडिया ब्लाग से बातचीत (06 सितम्बर 2013) करते हुए उन्होनंे फरमाया कि गोवा में रहने वाले कैथोलिक, सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दू हैं। उन्होंने यह भी कहा कि सांस्कृतिक अर्थों में भारत, हिन्दू राष्ट्र है।
परिक्कर किस हिन्दू संस्कृति की बात कर रहे हैं? हमें यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि देश में कोई एक हिन्दू संस्कृति नहीं है। हिन्दुओं में भारी सांस्कृतिक विभिन्नताएँ हैं, जिनका निर्धारण उनकी जाति, आर्थिक स्थिति व निवास के क्षेत्र के आधार पर होता रहा है। हर समाज में सांस्कृतिक विविधता होती है और आबादी के किसी भी समूह की संस्कृति, मूलतः उसके निवास के क्षेत्र पर निर्भर करती है। इसलिए संस्कृतियों पर धार्मिक लेबल चस्पा नहीं किए जाते। विविधता, संस्कृति का मूल तत्व है। परिक्कर कहते हैं कि गोवा के कैथोलिकों की संस्कृति, ब्राजील के कैथोलिकों से अलग है। हम उन्हें याद दिलाना चाहेंगे कि दुनिया के हर देश में रहने वाले कैथोलिकों की संस्कृति अलग-अलग है, बल्कि एक ही देश में रहने वाले कैथोलिकों में भी सांस्कृतिक विभिन्नताएं हैं। यह कहना कि सभी हिन्दू हैं, दरअसल, किसी एक संस्कृति को प्रधान्य देना है और देश की संस्कृति-जिसकी मूल आत्मा ही विविधता है-पर एकरूपता लादने की कोशिश है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि जब दो संस्कृतियों का मेल होता है तो उनमें एकरूपता आ जाती है। इसे ‘मेल्टिंग पाॅट’ माॅडल कहा जाता है। परन्तु असली दुनिया में ऐसा होता दिखता नहीं है। असली समाज, विभिन्न संस्कृतियों की ‘पच्चीकारी’ होता है। वह सलाद के कटोरे की तरह होता है, जिसे अलग-अलग गहरे और हल्के रंग खूबसूरती प्रदान करते हैं। दो संस्कृतियों के आपस में मिलने से दोनों में कुछ परिवर्तन जरूर आता है परंतु उनके विविध रंग फिर भी अलग-अलग बने रहते हैं। ऐसे कई हिन्दू हैं जो पीरों और सूफी संतों की दरगाहों पर जाते हैं। उसी तरह कई ऐसे मुसलमान हैं जो मध्यकालीन हिन्दू संतों के अनुयायी हैं। कब-जब खानपान संबंधी आदतें भी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाती हैं। ऐसा कहा जाता है कि गोमांस खाना हिन्दू धर्म के विरूद्ध है परन्तु अनेक हिन्दू समुदायों में गोमांस खाया जाता है। मैं स्वयं यूरोप की अपनी हालिया यात्रा के दौरान एक ऐसे हिन्दू परिवार से मिला जो गोमांस का स्वाद चखने के लिए बेचैन था। टूर आपरेटर ने भारतीय पर्यटकों के लिए शाकाहारी भोजन का इंतजाम किया था परन्तु इस परिवार ने अपने लिए किसी तरह गोमांस का जुगाड़ कर लिया। एक मानववैज्ञानिक सर्वेक्षण से यह सामने आया है कि कई हिन्दू समुदाय गोमांस खाते हैं। परिक्कर के पास इस बात का क्या उत्तर है कि गोवा के कैथोलिक, जो गाय व सुअर दोनों का मांस खाते हैं, को सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दू कैसे कहा जा सकता है? परिक्कर जिस ब्राण्ड की राजनीति करते हैं, गौमाता उसका प्रमुख प्रतीक है। ऐसे में गोमांस खाने वाले कैथोलिक, उनकी हिन्दू की परिभाषा में कैसे शामिल होंगे?
गोवा के कैथोलिकों और अन्य देशों के कैथोलिकांे में शायद बहुत कम समानताएं होंगी परन्तु इससे वे ‘हिन्दू संस्कृति’-यदि ऐसी कोई श्रेणी होती है तो - का भाग नहीं बन जाते। मूल मुद्दा यह है कि धर्म और संस्कृति का आपस में कोई सीधा संबंध नहीं है। दुनिया में लगभग 56 मुस्लिम-बहुल देश हैं परन्तु इन देशों मंे रहने वाले मुसलमानों की संस्कृतियां एकदम अलग-अलग हैं। हिन्दू धर्म मुख्यतः भारत तक सीमित रहा है। बेशक, बड़ी संख्या में हिन्दू दूसरे देशों में भी रहते हैं परन्तु फिर भी हिन्दू धर्म में उतनी सांस्कृतिक विविधता नहीं है जितनी अन्य धार्मिक समुदायों में है।
फिर, आरएसएस के स्वयंसेवक परिक्कर, कैथोलिकों को हिन्दू संस्कृति के बैनर तले क्यों लाना चाहते हैं? बात यह है कि आरएसएस और परिक्कर की राजनीति की आधारशिला इस मान्यता पर रखी गई है कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है। अतः यह आवश्यक है कि हर धार्मिक समुदाय से हिन्दू धर्म का नाता जोड़ा जाए ताकि उनके वोट कबाड़े जा सकें। संघ परिवार की अल्पसंख्यकों के प्रति नीति काफी जटिल है। चुनाव में उसे उनका समर्थन चाहिए इसलिए उन पर किसी भी तरह हिन्दू लेबल चस्पा करना आवश्यक है। उन्हें अहमदिया हिन्दू या क्रीस्ती हिन्दू कहकर उन पर हिन्दू रीतिरिवाज लादने की कोशिश भी इसके सामानांतर चलती रहती है। आरएसएस को उम्मीद है कि आज नहीं तो कल वह अल्पसंख्यकों को हिन्दू देवी-देवताओं को अपनाने पर मजबूर कर देगा। जब संघ परिवार सत्ता में होता है तब वह हिंसा के जरिए अल्पसंख्यकों का दमन करने की कोशिश करता है। ईसाईयों के बारे में कहा जाता है कि वे धर्म परिवर्तन करवा रहे हैं। मुसलमानों को गौमांसभक्षी बताया जाता है और यह आरोप लगाया जाता है कि वे भारत की बजाए हमारे एक पड़ोसी देश के प्रति अधिक वफादार हैं। ‘दूसरे से घृणा करो’ का यही प्रचार साम्प्रदायिक हिंसा का आधार बनता है। पास्टरों का जिंदा जलाया जाना, ननों के साथ बलात्कार, चर्चों में आगजनी व मुसलमानों व ईसाईयों के विरूद्ध एकतरफा हिंसा-यह सब इस देश ने देखा और भोगा है। संघ परिवार, धार्मिक अल्पसंख्यकों और सामाजिक रूप से वंचित वर्गों की भलाई के लिए सकारात्मक प्रयासों के भी खिलाफ है।
भारतीय संविधान और संयुक्त राष्ट्र संघ के मानदण्डों के अनुसार, हमें देश के नागरिकों की सांस्कृतिक विविधता को न सिर्फ स्वीकार करना चाहिए वरन् उसका सम्मान भी करना चाहिए। परिक्कर और उनके जैसे अन्य लोगों की रणनीति यह है कि पहले ‘दूसरों पर’ अपनी संस्कृति और राजनीति लादो और फिर एकाधिकारवादी शासन व्यवस्था स्थापित कर दो उनकी धूर्तता यहीं तक सीमित नहीं है। इसके समानांतर वे अल्पसंख्यकों के विरूद्ध दुष्प्रचार भी करते रहते हैं और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में उन्हें हाशिए पर पटकने का हर संभव प्रयास करते हैं।
-राम पुनियानी
1 टिप्पणी:
बेहतरीन आलेख !!
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