भाजपा पर जब भी साम्प्रदायिक दंगों में संलिप्तता के आरोप लगते हंै वह प्रतिउत्तर मे यह तर्क देती है कि उसके शासन के दौरान, कांग्रेस शासन की तुलना में, बहुत कम दंगे हुए हैं। यह एक कुतर्क है क्योंकि केन्द्र और विभिन्न राज्यों में भाजपा की तुलना में कांग्रेस का शासनकाल बहुत लंबा रहा है। दूसरे, भाजपा के विपरीत, कांग्रेस ने देष के लगभग सभी राज्यों पर कभी न कभी शासन किया है। स्पष्टतः, कांग्रेस के अपेक्षाकृत लंबे समय और भौगोलिक दृष्टि से अधिक विस्तृत क्षेत्र में शासन की तुलना, भाजपा के कम अवधि के चुनिंदा राज्यों में शासनकाल से नहीं की जा सकती। यह संतरे और सेब की तुलना करने जैसा है।
इससे भी महत्वपूर्ण है भाजपा के प्रवक्ताओं का, संघ परिवार और भाजपा से जुड़े राजनेताओं द्वारा, देश में साम्प्रदायिक सोच को बढ़ावा देने और हर मुद्दे का इस्तेमाल सांप्रदायिक धु्रवीकरण करने के प्रयासों को नकारना है। अपने गठन के समय से ही, आरएसएस ने साम्प्रदायिक हिंसा का उपयोग, अपनी सांगठनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए किया है-ठीक उसी तरह, जिस तरह मुस्लिम लीग ने सन् 1946 में साम्प्रदायिक दंगे भड़का कर उनका इस्तेमाल पाकिस्तान के गठन के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए किया था। आरएसएस लगातार यह प्रचार करता रहता है कि हिन्दू खतरे में हैं और उनके साथ अन्याय हो रहा है। स्वतंत्रता के पूर्व, जिन्ना भी ठीक इसी तरह का प्रचार करते थे। वे कांग्रेस के हर कदम को साम्प्रदायिक चश्मे से देखते थे और उसे मुस्लिम-विरोधी बताते थे। हिन्दुत्व की विचारधारा के अनुयायी, अनवरत कहते आ रहे हैं कि सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं जबकि वे स्वयं यह जानते हैं कि यह बात गलत है। इसी तरह के मिथकों और इतिहास के तोड़े मरोड़े गए तथ्यों का इस्तेमाल, आडवाणी द्वारा उनकी रथयात्रा के दौरान किया गया था। उनका दावा था कि अयोध्या मंे बाबरी मस्जिद ठीक उसी स्थान पर बनी है जहां राम का जन्म हुआ था व यह कि उक्त स्थान पर बने रामजन्मभूमि मंदिर को बाबर ने ढहाया था। वे यह भी कहते थे कि बाबरी मस्जिद, हिन्दुओं की गुलामी का प्रतीक है। जिस तरह, दुर्भाग्यवश, जिन्ना धनी और जमींदार वर्ग के मुसलमानों को यह समझाने में सफल रहे कि अखण्ड भारत में उन्हें न्याय नहीं मिलेगा, उसी तरह, हिन्दुत्व की विचारधारा के अनुयायी, उच्च वर्ग व उच्च जातियों के हिन्दुओं के एक तबके को यह विष्वास दिलाने में सफल हो गए कि उनके हित, मुसलमानों के हितों के विरोधाभासी हैं (मानो कोई भी धार्मिक समुदाय एकसार होता है और उसके हित एक समान होते हैं)। वे हिन्दुओं के श्रेष्ठि वर्ग को यह विष्वास दिलाने में भी सफल रहे कि मुसलमान राष्ट्र विरोधी हैं, उनमें बहुपत्नि प्रथा का व्यापक प्रचलन है, उनमें से अधिकांश अपराधी हैं, वे स्वभाव से ही हिंसक हैं आदि, आदि।
साम्प्रदायिक तत्व, जिनमें हिन्दुत्ववादी शामिल हैं, किसी भी छोटी-मोटी या रोजमर्रा की घटना को लेकर दोनों समुदायों के बीच तनाव पैदा करने की कला में सिद्धहस्त हैं। उदाहरणार्थ, मंुबई में जनवरी 1993 में दो हिन्दू मथाडी कार्यकर्ताओं की हत्या को षिवसेना ने जमकर हवा दी और उसके मुखपत्र सामना ने ऐसा प्रचार किया मानो ये हत्याएं पूरे हिन्दू समुदाय के विरूद्ध अन्याय हैं। जबकि तथ्य यह है कि मुंबई जैसे शहर में रोजाना कई हत्याएं होती हैं और उनके पीछे साम्प्रदायिक कारण नहीं होते। हत्याओं की पुलिस जांच पूरी होने के पहले ही शिवसेना इस निष्कर्ष पर पहुंच गई कि हत्यारे मुसलमान हैं और हत्याओं के लिए सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय जिम्मेदार है। एक और उदाहरण हालिया मुजफ्फरनगर दंगों का है। ये दंगे समाजवादी पार्टी के षासन में हुए। परन्तु समाजवादी पार्टी को हम अधिक से अधिक इस बात का दोषी ठहरा सकते हैं कि उसकी सरकार ने वह नहीं किया, जो उसे करना चाहिए था। प्रशासन ने ‘जाट महापंचायतों’ का आयोजन होने दिया, जिनमें बड़ी संख्या में खतरनाक हथियारों से लैस लोगों ने भाग लिया और जिनमें उत्तेजक भाषण दिए गए। मुजफ्फरनगर दंगे, सचिन और गौरव की हत्या की स्वभाविक प्रतिक्रिया नहीं थे। सचिन, गौरव और उनके साथियों ने उसके पहले शाहनवाज की हत्या की थी। तथ्य यह है कि साम्प्रदायिक तनाव उत्पन्न करने की कोषिषें, इस घटना के पहले से जारी थीं। सचिन और गौरव की हत्या की घटना का इस्तेमाल, केवल तनाव बढ़ाने के लिए किया गया और इसके लिए पाकिस्तान में हुई एक वीभत्स घटना की वीडियो क्लिप को मोबाइल फोनों व इंटरनेट के जरिए बड़े पैमाने पर प्रसारित/प्रचारित किया गया। ऐसा आरोप है कि यह भाजपा के एक विधायक की कारगुजारी थी। इस नकली वीडियो से लोग भड़क उठे और फिर, जाट महापंचायत के बहाने उन्हें इकट्ठा कर बदला लेने के लिए उकसाया गया। नतीजे में दंगे शुरू हो गए। जाहिर है कि अगर नकली वीडियो प्रसारित नहीं किया जाता, जाट महापंचायतें नहीं होतीं, हथियार इकट्ठे कर उन्हें लोगों में नही बांटा जाता, गुस्से से भरे लोगों को इधर से उधर ले जाने के लिए वाहनों का इंतजाम नहीं किया जाता और दंगों के दौरान हमला करने के लिए घरों, दुकानों आदि की निषानदेही न की जाती तो दंगे नहीं होते। प्रष्न यह है कि दंगों के लिए कौन अधिक जिम्मेदार है-सपा सरकार, जिसने अपना कर्तव्य नहीं निभाया या दंगों की योजना बनाकर उन्हें अंजाम देने वाले लोग।
हाल के कुछ वर्षों में हिन्दू राष्ट्रवादी शक्तियां, अन्तर्धार्मिक प्रेम संबंधों को ‘लव जिहाद’ का नाम दे रही हैं, जबकि इस आरोप में तनिक भी सच्चाई नहीं है। परन्तु, जैसा कि कहा जाता है, एक झूठ को सौ बार दोहराने से वह सच लगने लगता है। जिन अन्य मुद्दों पर दंगे भड़के हैं उनमें षामिल हैं एक मुस्लिम सब्जी विक्रेता द्वारा गाय को भगाना, होटल का बिल नहीं चुकाया जाना, किसी विषेश रास्ते से धार्मिक जुलूस निकालने की जिद, धार्मिक जुलूसों के दौरान जानबूझकर आराधना स्थलों के पास जोर-जोर से संगीत बजाना इत्यादि।
मनोवैज्ञानिक सुधीर काकर के अनुसार, साम्प्रदायिक दंगे तभी शुरू होते हैं जब साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा दोनों समुदायों के बीच जबरदस्त तनाव और बैरभाव निर्मित कर दिया जाता है। दंगे एक तरह से किसी फोड़े के फूट जाने के समान है, जिसमें कई दिनों या हफ्तों से मवाद इकट्ठा हो रहा था। अहमदाबाद जैसे साम्प्रदायिक हिंसा के केन्द्रों में यह फोड़े से ज्यादा एक ऐसे पुराने घाव की तरह है, जिसमे पीप भरी हुई है। दंगों के मूल में जो कारण होते हैं, उनके अतिरिक्त, कोई न कोई घटना या अफवाह उनके शुरू होने का कारण बनती है। धार्मिक पहचान किसी भी व्यक्ति की सबसे महत्वपूर्ण पहचान तब बन जाती है जब उसे ऐसा लगता है कि उसकी इस पहचान को खतरा है। उदाहरणार्थ, यह दुष्प्रचार कि हिन्दुओं के साथ ‘‘उन्हीं के देश में’’ अन्याय हो रहा है या हिन्दुआंे के देश में अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण किया जा रहा है। एक समुदाय द्वारा उसकी धार्मिक पहचान के आक्रामक प्रदर्षन की प्रतिक्रिया स्वरूप, दूसरा समुदाय भी साम्प्रदायिक आधार पर संगठित होने लगता है। काल्पनिक भय और धार्मिक पहचान के महत्वपूर्ण बनने का यह दुष्चक्र चलता रहता है और समाज के सदस्य स्वयं को एक नागरिक की बजाय एक हिन्दू या मुसलमान या ईसाई बतौर देखने लगते हैं। व्यक्ति अपनी पंसद अथवा अपने व्यतित्व के अनुरूप व्यवहार करने की बजाय, वैसा व्यवहार करने लगता है जैसा कि, उसके विचार में, ‘हिन्दू’ या ‘मुसलमान’ को करना चाहिए। इस तरह, सामाजिक तनाव के दौर में धार्मिक पहचानों का बोलबाला हो जाता है।
अपनी पुस्तक ‘ट्रेमर्स आफ वायलेन्स-मुस्लिम सर्वाइवर्स आफ एथनिक स्ट्राइफ इन वेस्टर्न इंडिया’ में रोवेना राबिनसन ने गुजरात में 2002 की हिंसा के बाद, विष्व हिन्दू परिषद के महासचिव चिन्नू भाई पटेल के हस्ताक्षर से जारी, विहिप के पर्चों को उद्वत किया है। इनमें से एक पर्चा कहता है, ‘‘हम उन्हें काट डालेंगे और उनके खून की नदियां ंबहेंगी। हम मुसलमानों को उसी तरह मारेंगे, जैसे हमने बाबरी मस्जिद को नष्ट कर दिया’’। इसके बाद एक कविता है जिसकी चन्द पंक्तियां इस प्रकार हैं ‘‘वह ज्वालामुखी जो शांत था, अब फट गया है... उसने मियांओं की चूतड़ को जला दिया है और वे अब नंगे नाच रहे हैं’’।
कोई राजनैतिक दल कितना साम्प्रदायिक है अथवा नहीं, इसे केवल उसके शासनकाल में हुए दंगों या उनमें मरने वालों की संख्या से नहीं नापा जा सकता, जैसा कि भाजपा प्रवक्ता कहते हैं। इससे हम गलत नतीजों पर पहुंचेगें। जो लोग समाज का साम्प्रदायिकीकरण कर रहे हैं, वे भी दंगों के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं जितने कि वे जिनके शासनकाल में दंगे होते हैं।
यह सब कहने यह अर्थ नहीं है कि जिन कांग्रेस-शासित राज्यों में दंगें होते हैं वहां की सरकारें उसके लिए जरा भी जिम्मेदार नहीं हैं। सत्ताधारी दल का दोष अलग प्रकृति का होता है। प्रशसन का दोष यह होता है कि वह समय रहते दंगे न होने देने के लिए उपयुक्त और पर्याप्त कदम नहीं उठाता। यह दोष तब और बढ़ जाता है जब दंगें शुरू होने के बाद, उन पर नियंत्रण करने के पर्याप्त प्रयास नहीं किए जाते यथा गुंडा तत्वों को तुरंत हिरासत में नहीं लिया जाता, कफ्र्यू नहीं लगाया जाता या हिंसा कर रही भीड़ के खिलाफ न्यूनतम आवष्यक बल का प्रयोग नहीं किया जाता। परंतु गुजरात 2002 एक अलग तरह का दंगा था। इसमें दंगों की योजना बनाने वालों, षड़यंत्र रचने वालों और उन्हें अंजाम देने वालों के लक्ष्य और इरादे वही थे जो राज्य की सरकार के थे।
साम्प्रदायिक दंगा जांच आयोगों की रपटें
दंगों की जांच करने के लिए नियुक्त जांच आयोगांे ने उनके समक्ष प्रस्तुत गवाहों और सुबूतों की बिना पर जो निष्कर्ष निकाले हैं, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश मामलों में हिंदुत्व विचारधारा के अनुयायी संगठनों ने दंगे भड़काए और उनमें भाग लिया। जहां कांग्रेस सरकारों ने अपने कर्तव्यपालन में कोताही बरती वहीं भाजपा (उसके पूर्व जनसंघ) के सदस्य भी दंगों के लिए कम जिम्मेदार नहीं थे। आईये, स्थानाभाव के चलते, हम कुछ जांच आयोगों के निष्कर्षों पर अत्यंत संक्षिप्त नजर डालें।
महाराष्ट्र के शोलापुर में सितम्बर 1967 में हुए दंगों की जांच के लिए नियुक्त रघुबर दयाल आयोग ने अपने निष्कर्षाें में कहा कि हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने दंगे भड़काए क्योंकि उन्हें इसमें अपना राजनैतिक लाभ दिख रहा था।
इसी आयोग ने बिहार के मुजफ्फरपुर में 13-15 अक्टूबर 1967 को हुए दंगों की जांच की। आयोग ने पाया कि जनसंघ, हिन्दू महासभा व अन्य साम्प्रदायिक हिन्दू संगठनों ने जगन्नाथ मंदिर घटना के पहले चले आंदोलन में हिस्सेदारी की और साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाया। यह भी पाया गया कि जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने हिंसा में भाग लिया।
सन् 1970 में भिवण्डी, जलगांव और महाड़ में हुए दंगों की जांच करने वाले डीपी मादोन आयोग ने पाया कि निम्न संगठन भिवण्डी में सक्रिय थे और उन्होंने साम्प्रदायिक तनाव फैलायाः
1) आॅल इंडिया मजलिस तामीर-ए-मिल्लत
2) शिवसेना
3) भारतीय जनसंघ
4) भिवण्डी सेवा समिति
5) राष्ट्रीय उत्सव मंडल
मादोन आयोग की रिपोर्ट कहती है कि बाल ठाकरे ने ठाणे में 30 मई 1969 को आयोजित शिवसेना की एक आम सभा में अत्यंत साम्प्रदायिक व भड़काऊ भाषण दिया जिसमें उन्होंने भिवण्डी को दूसरा पाकिस्तान बताया और यह भी कहा कि वहां ऐसी षर्मनाक घटनाएं हो रहीं है जिनका वर्णन वे महिलाओं की उपस्थिति में नहीं कर सकते
मादौन आयोग ने यह भी पाया कि भिवंडी में हो रही हिंसा के संबंध में अतिष्योक्तिपूर्ण व झूठी खबरें जलगांव में फैलाई गईं जिसके कारण वहां के हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति गुस्से व घृृणा का भाव जागृत हुआ। जलगांव में तनाव बढ़ने लगा और रथ चैक पर 8 मई 1970 को 2.45 बजे एक मुसलमान और कुछ हिन्दुओं के बीच हुए साधारण से झगड़े के बाद दंगे भड़क उठे। मादौन आयोग ने जलगांव के दंगों के लिए जनसंघ की जलगांव शाखा व श्रीराम तरूण मंडल, जिसका संचालन जनसंघ करता था, को दोषी ठहराया।
-इरफान इंजीनियर
इससे भी महत्वपूर्ण है भाजपा के प्रवक्ताओं का, संघ परिवार और भाजपा से जुड़े राजनेताओं द्वारा, देश में साम्प्रदायिक सोच को बढ़ावा देने और हर मुद्दे का इस्तेमाल सांप्रदायिक धु्रवीकरण करने के प्रयासों को नकारना है। अपने गठन के समय से ही, आरएसएस ने साम्प्रदायिक हिंसा का उपयोग, अपनी सांगठनिक शक्ति को बढ़ाने के लिए किया है-ठीक उसी तरह, जिस तरह मुस्लिम लीग ने सन् 1946 में साम्प्रदायिक दंगे भड़का कर उनका इस्तेमाल पाकिस्तान के गठन के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए किया था। आरएसएस लगातार यह प्रचार करता रहता है कि हिन्दू खतरे में हैं और उनके साथ अन्याय हो रहा है। स्वतंत्रता के पूर्व, जिन्ना भी ठीक इसी तरह का प्रचार करते थे। वे कांग्रेस के हर कदम को साम्प्रदायिक चश्मे से देखते थे और उसे मुस्लिम-विरोधी बताते थे। हिन्दुत्व की विचारधारा के अनुयायी, अनवरत कहते आ रहे हैं कि सभी आतंकवादी मुसलमान होते हैं जबकि वे स्वयं यह जानते हैं कि यह बात गलत है। इसी तरह के मिथकों और इतिहास के तोड़े मरोड़े गए तथ्यों का इस्तेमाल, आडवाणी द्वारा उनकी रथयात्रा के दौरान किया गया था। उनका दावा था कि अयोध्या मंे बाबरी मस्जिद ठीक उसी स्थान पर बनी है जहां राम का जन्म हुआ था व यह कि उक्त स्थान पर बने रामजन्मभूमि मंदिर को बाबर ने ढहाया था। वे यह भी कहते थे कि बाबरी मस्जिद, हिन्दुओं की गुलामी का प्रतीक है। जिस तरह, दुर्भाग्यवश, जिन्ना धनी और जमींदार वर्ग के मुसलमानों को यह समझाने में सफल रहे कि अखण्ड भारत में उन्हें न्याय नहीं मिलेगा, उसी तरह, हिन्दुत्व की विचारधारा के अनुयायी, उच्च वर्ग व उच्च जातियों के हिन्दुओं के एक तबके को यह विष्वास दिलाने में सफल हो गए कि उनके हित, मुसलमानों के हितों के विरोधाभासी हैं (मानो कोई भी धार्मिक समुदाय एकसार होता है और उसके हित एक समान होते हैं)। वे हिन्दुओं के श्रेष्ठि वर्ग को यह विष्वास दिलाने में भी सफल रहे कि मुसलमान राष्ट्र विरोधी हैं, उनमें बहुपत्नि प्रथा का व्यापक प्रचलन है, उनमें से अधिकांश अपराधी हैं, वे स्वभाव से ही हिंसक हैं आदि, आदि।
साम्प्रदायिक तत्व, जिनमें हिन्दुत्ववादी शामिल हैं, किसी भी छोटी-मोटी या रोजमर्रा की घटना को लेकर दोनों समुदायों के बीच तनाव पैदा करने की कला में सिद्धहस्त हैं। उदाहरणार्थ, मंुबई में जनवरी 1993 में दो हिन्दू मथाडी कार्यकर्ताओं की हत्या को षिवसेना ने जमकर हवा दी और उसके मुखपत्र सामना ने ऐसा प्रचार किया मानो ये हत्याएं पूरे हिन्दू समुदाय के विरूद्ध अन्याय हैं। जबकि तथ्य यह है कि मुंबई जैसे शहर में रोजाना कई हत्याएं होती हैं और उनके पीछे साम्प्रदायिक कारण नहीं होते। हत्याओं की पुलिस जांच पूरी होने के पहले ही शिवसेना इस निष्कर्ष पर पहुंच गई कि हत्यारे मुसलमान हैं और हत्याओं के लिए सम्पूर्ण मुस्लिम समुदाय जिम्मेदार है। एक और उदाहरण हालिया मुजफ्फरनगर दंगों का है। ये दंगे समाजवादी पार्टी के षासन में हुए। परन्तु समाजवादी पार्टी को हम अधिक से अधिक इस बात का दोषी ठहरा सकते हैं कि उसकी सरकार ने वह नहीं किया, जो उसे करना चाहिए था। प्रशासन ने ‘जाट महापंचायतों’ का आयोजन होने दिया, जिनमें बड़ी संख्या में खतरनाक हथियारों से लैस लोगों ने भाग लिया और जिनमें उत्तेजक भाषण दिए गए। मुजफ्फरनगर दंगे, सचिन और गौरव की हत्या की स्वभाविक प्रतिक्रिया नहीं थे। सचिन, गौरव और उनके साथियों ने उसके पहले शाहनवाज की हत्या की थी। तथ्य यह है कि साम्प्रदायिक तनाव उत्पन्न करने की कोषिषें, इस घटना के पहले से जारी थीं। सचिन और गौरव की हत्या की घटना का इस्तेमाल, केवल तनाव बढ़ाने के लिए किया गया और इसके लिए पाकिस्तान में हुई एक वीभत्स घटना की वीडियो क्लिप को मोबाइल फोनों व इंटरनेट के जरिए बड़े पैमाने पर प्रसारित/प्रचारित किया गया। ऐसा आरोप है कि यह भाजपा के एक विधायक की कारगुजारी थी। इस नकली वीडियो से लोग भड़क उठे और फिर, जाट महापंचायत के बहाने उन्हें इकट्ठा कर बदला लेने के लिए उकसाया गया। नतीजे में दंगे शुरू हो गए। जाहिर है कि अगर नकली वीडियो प्रसारित नहीं किया जाता, जाट महापंचायतें नहीं होतीं, हथियार इकट्ठे कर उन्हें लोगों में नही बांटा जाता, गुस्से से भरे लोगों को इधर से उधर ले जाने के लिए वाहनों का इंतजाम नहीं किया जाता और दंगों के दौरान हमला करने के लिए घरों, दुकानों आदि की निषानदेही न की जाती तो दंगे नहीं होते। प्रष्न यह है कि दंगों के लिए कौन अधिक जिम्मेदार है-सपा सरकार, जिसने अपना कर्तव्य नहीं निभाया या दंगों की योजना बनाकर उन्हें अंजाम देने वाले लोग।
हाल के कुछ वर्षों में हिन्दू राष्ट्रवादी शक्तियां, अन्तर्धार्मिक प्रेम संबंधों को ‘लव जिहाद’ का नाम दे रही हैं, जबकि इस आरोप में तनिक भी सच्चाई नहीं है। परन्तु, जैसा कि कहा जाता है, एक झूठ को सौ बार दोहराने से वह सच लगने लगता है। जिन अन्य मुद्दों पर दंगे भड़के हैं उनमें षामिल हैं एक मुस्लिम सब्जी विक्रेता द्वारा गाय को भगाना, होटल का बिल नहीं चुकाया जाना, किसी विषेश रास्ते से धार्मिक जुलूस निकालने की जिद, धार्मिक जुलूसों के दौरान जानबूझकर आराधना स्थलों के पास जोर-जोर से संगीत बजाना इत्यादि।
मनोवैज्ञानिक सुधीर काकर के अनुसार, साम्प्रदायिक दंगे तभी शुरू होते हैं जब साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा दोनों समुदायों के बीच जबरदस्त तनाव और बैरभाव निर्मित कर दिया जाता है। दंगे एक तरह से किसी फोड़े के फूट जाने के समान है, जिसमें कई दिनों या हफ्तों से मवाद इकट्ठा हो रहा था। अहमदाबाद जैसे साम्प्रदायिक हिंसा के केन्द्रों में यह फोड़े से ज्यादा एक ऐसे पुराने घाव की तरह है, जिसमे पीप भरी हुई है। दंगों के मूल में जो कारण होते हैं, उनके अतिरिक्त, कोई न कोई घटना या अफवाह उनके शुरू होने का कारण बनती है। धार्मिक पहचान किसी भी व्यक्ति की सबसे महत्वपूर्ण पहचान तब बन जाती है जब उसे ऐसा लगता है कि उसकी इस पहचान को खतरा है। उदाहरणार्थ, यह दुष्प्रचार कि हिन्दुओं के साथ ‘‘उन्हीं के देश में’’ अन्याय हो रहा है या हिन्दुआंे के देश में अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण किया जा रहा है। एक समुदाय द्वारा उसकी धार्मिक पहचान के आक्रामक प्रदर्षन की प्रतिक्रिया स्वरूप, दूसरा समुदाय भी साम्प्रदायिक आधार पर संगठित होने लगता है। काल्पनिक भय और धार्मिक पहचान के महत्वपूर्ण बनने का यह दुष्चक्र चलता रहता है और समाज के सदस्य स्वयं को एक नागरिक की बजाय एक हिन्दू या मुसलमान या ईसाई बतौर देखने लगते हैं। व्यक्ति अपनी पंसद अथवा अपने व्यतित्व के अनुरूप व्यवहार करने की बजाय, वैसा व्यवहार करने लगता है जैसा कि, उसके विचार में, ‘हिन्दू’ या ‘मुसलमान’ को करना चाहिए। इस तरह, सामाजिक तनाव के दौर में धार्मिक पहचानों का बोलबाला हो जाता है।
अपनी पुस्तक ‘ट्रेमर्स आफ वायलेन्स-मुस्लिम सर्वाइवर्स आफ एथनिक स्ट्राइफ इन वेस्टर्न इंडिया’ में रोवेना राबिनसन ने गुजरात में 2002 की हिंसा के बाद, विष्व हिन्दू परिषद के महासचिव चिन्नू भाई पटेल के हस्ताक्षर से जारी, विहिप के पर्चों को उद्वत किया है। इनमें से एक पर्चा कहता है, ‘‘हम उन्हें काट डालेंगे और उनके खून की नदियां ंबहेंगी। हम मुसलमानों को उसी तरह मारेंगे, जैसे हमने बाबरी मस्जिद को नष्ट कर दिया’’। इसके बाद एक कविता है जिसकी चन्द पंक्तियां इस प्रकार हैं ‘‘वह ज्वालामुखी जो शांत था, अब फट गया है... उसने मियांओं की चूतड़ को जला दिया है और वे अब नंगे नाच रहे हैं’’।
कोई राजनैतिक दल कितना साम्प्रदायिक है अथवा नहीं, इसे केवल उसके शासनकाल में हुए दंगों या उनमें मरने वालों की संख्या से नहीं नापा जा सकता, जैसा कि भाजपा प्रवक्ता कहते हैं। इससे हम गलत नतीजों पर पहुंचेगें। जो लोग समाज का साम्प्रदायिकीकरण कर रहे हैं, वे भी दंगों के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं जितने कि वे जिनके शासनकाल में दंगे होते हैं।
यह सब कहने यह अर्थ नहीं है कि जिन कांग्रेस-शासित राज्यों में दंगें होते हैं वहां की सरकारें उसके लिए जरा भी जिम्मेदार नहीं हैं। सत्ताधारी दल का दोष अलग प्रकृति का होता है। प्रशसन का दोष यह होता है कि वह समय रहते दंगे न होने देने के लिए उपयुक्त और पर्याप्त कदम नहीं उठाता। यह दोष तब और बढ़ जाता है जब दंगें शुरू होने के बाद, उन पर नियंत्रण करने के पर्याप्त प्रयास नहीं किए जाते यथा गुंडा तत्वों को तुरंत हिरासत में नहीं लिया जाता, कफ्र्यू नहीं लगाया जाता या हिंसा कर रही भीड़ के खिलाफ न्यूनतम आवष्यक बल का प्रयोग नहीं किया जाता। परंतु गुजरात 2002 एक अलग तरह का दंगा था। इसमें दंगों की योजना बनाने वालों, षड़यंत्र रचने वालों और उन्हें अंजाम देने वालों के लक्ष्य और इरादे वही थे जो राज्य की सरकार के थे।
साम्प्रदायिक दंगा जांच आयोगों की रपटें
दंगों की जांच करने के लिए नियुक्त जांच आयोगांे ने उनके समक्ष प्रस्तुत गवाहों और सुबूतों की बिना पर जो निष्कर्ष निकाले हैं, उनसे ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश मामलों में हिंदुत्व विचारधारा के अनुयायी संगठनों ने दंगे भड़काए और उनमें भाग लिया। जहां कांग्रेस सरकारों ने अपने कर्तव्यपालन में कोताही बरती वहीं भाजपा (उसके पूर्व जनसंघ) के सदस्य भी दंगों के लिए कम जिम्मेदार नहीं थे। आईये, स्थानाभाव के चलते, हम कुछ जांच आयोगों के निष्कर्षों पर अत्यंत संक्षिप्त नजर डालें।
महाराष्ट्र के शोलापुर में सितम्बर 1967 में हुए दंगों की जांच के लिए नियुक्त रघुबर दयाल आयोग ने अपने निष्कर्षाें में कहा कि हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग ने दंगे भड़काए क्योंकि उन्हें इसमें अपना राजनैतिक लाभ दिख रहा था।
इसी आयोग ने बिहार के मुजफ्फरपुर में 13-15 अक्टूबर 1967 को हुए दंगों की जांच की। आयोग ने पाया कि जनसंघ, हिन्दू महासभा व अन्य साम्प्रदायिक हिन्दू संगठनों ने जगन्नाथ मंदिर घटना के पहले चले आंदोलन में हिस्सेदारी की और साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाया। यह भी पाया गया कि जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने हिंसा में भाग लिया।
सन् 1970 में भिवण्डी, जलगांव और महाड़ में हुए दंगों की जांच करने वाले डीपी मादोन आयोग ने पाया कि निम्न संगठन भिवण्डी में सक्रिय थे और उन्होंने साम्प्रदायिक तनाव फैलायाः
1) आॅल इंडिया मजलिस तामीर-ए-मिल्लत
2) शिवसेना
3) भारतीय जनसंघ
4) भिवण्डी सेवा समिति
5) राष्ट्रीय उत्सव मंडल
मादोन आयोग की रिपोर्ट कहती है कि बाल ठाकरे ने ठाणे में 30 मई 1969 को आयोजित शिवसेना की एक आम सभा में अत्यंत साम्प्रदायिक व भड़काऊ भाषण दिया जिसमें उन्होंने भिवण्डी को दूसरा पाकिस्तान बताया और यह भी कहा कि वहां ऐसी षर्मनाक घटनाएं हो रहीं है जिनका वर्णन वे महिलाओं की उपस्थिति में नहीं कर सकते
मादौन आयोग ने यह भी पाया कि भिवंडी में हो रही हिंसा के संबंध में अतिष्योक्तिपूर्ण व झूठी खबरें जलगांव में फैलाई गईं जिसके कारण वहां के हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति गुस्से व घृृणा का भाव जागृत हुआ। जलगांव में तनाव बढ़ने लगा और रथ चैक पर 8 मई 1970 को 2.45 बजे एक मुसलमान और कुछ हिन्दुओं के बीच हुए साधारण से झगड़े के बाद दंगे भड़क उठे। मादौन आयोग ने जलगांव के दंगों के लिए जनसंघ की जलगांव शाखा व श्रीराम तरूण मंडल, जिसका संचालन जनसंघ करता था, को दोषी ठहराया।
-इरफान इंजीनियर
1 टिप्पणी:
भाजपा की कथनी और करनी में यही तो फर्क है ,,,!
-: हमने कितना प्यार किया था.
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