बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

जल , जंगल जमीन के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को अपनाना जरूरी है

Inline image 1 कब किसी को तल्खिया अच्छी लगी भूख थी तो रोटिया अच्छी लगी
जल उठे मेरी मशक्कत के चिराग होठो की सख्तिया अच्छी लगी
क्यों रहे कमजोर पत्ते शाख पर पेड़ को भी अधिया अच्छी लगी |


समाज की वर्तमान दशा -- दिशा को एक ऐसे भंवर जाल में इस देश के नेता , देशी पुजीपतियो के साथ  विश्व बाजार के बड़े पुजीपतियो ने मिलकर उलझा दिया है | जहा पर आज के हालात में आम किसान , लघु किसान , दस्तकार व मजूर वर्ग के सारे अधिकारों को ये सततता -- शासन -- प्रशासन में बैठे लोग बड़े सलीके से छीनते जा रहे है | 1990 से पहले इस देश का आम किसान हो या मजदूर ये लोग आत्महत्या  नही करते थे पर आज स्थितिया पलट गयी है | आज यह वर्ग एक दो नही इनकी आत्महत्याओं की संख्या कई लाख पार कर चुकी है | ऐसे में आजमगढ़ में '' प्रतिरोध का सिनेमा '' ( फिल्मोत्सव ) की पहल  एक सार्थक दिशा देती है जहा वर्तमान समय में चैनलों के जरिये यह बताने की कोशिश की जा रही है कि देश विकास के पथ पर आगे बढ़ रहा है वही विज्ञापनों और सीरियलों के माध्यम से सपनों को उड़ान देने का भरपूर प्रयास भी किया जा रहा है पर वास्तविक धरातल पर भीषण अराजकता , भ्रष्टाचार और दमन का रास्ता अख्तियार करके शासन -- सत्ता अपना खेल रही है ऐसे समय में '' प्रतिरोध का सिनेमा '' प्रासगिक हो जाता है | आजमगढ़ में तीन दिवसीय फिल्मोत्सव ने जहा पर लोगो के संवेदनाओं को झकझोरा है वही पर यह उत्सव कुछ अनुतरित प्रश्न भी छोड़ गया कि यह '' प्रतिरोध का सिनेमा '' या '' सिनेमा का प्रतिरोध '' इस महोत्सव की शुरुआत '' प्रतिरोध  की संस्कृति और भारतीय चित्रकला '' विषय पर आधारित अशोक भौमिक के सिनेमा स्लाइड के माध्यम से  हुआ यह बताना कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने चित्रकला को अपने कब्जे में ले लिया है | प्रतिरोध की संस्कृति और चित्रकला पर ध्यान केन्द्रित करते हुए विजुअल के माध्यम से साफ़ शब्दों में कहा कि वर्तमान पूजीवादी व्यवस्था ने चित्रकला के द्वारा इस समाज में दो फाट  में कर दिया है |

एक तरफ वो पूजीपति जिनके पास यह क्षमता है कि किसी कलाकार की कलाकृति को खरीदकर बाजार में उसे बेचकर लम्बी रकम बना रहे है और दूसरी ओर ऐसे आमजन लोग इस घोर बाजारवाद के कारण कलाकृतियों को देखने से भी वंचित रह जाते है | प्रगतिशील भारतीय चित्रकारों -- चित्त्प्रसाद , जैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के योगदान को सुघड़ और प्रभावशाली चित्रों के माध्यम से  खासतौर पर चित्र शिल्पी चित्तप्रसाद द्वारा  बनाये गये रेखाकन चित्रों ने लोगो को सोचने पर विवश करती नजर आई | विशेष कर वो चित्र जिसमे माँ और बेटे के साथ माँ के हाथो में अनाज की बालिया दर्शाई गयी है वो प्रतीक है इस पृथ्वी की और वो बेटा आम जन की भाषा , संस्कृति और परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है यह चित्र सेमिनार में आये प्रबुद्ध वर्ग को एक चिन्तन और दिशा देने के साथ ही एक प्रश्न छोड़ता है ?  कि  क्या आम किसान आज इस बाजारवादी संस्कृति में सिर्फ लुटता रहेगा इसके साथ ही मशहूर चित्रकार  गोवा ,  पिकासो के चित्रों के माध्यम से उस काल  परिस्थितियों पर आधारित चित्रों के साथ ही आज के चित्रकारी तक आते हुए अशोक भौमिक कहते है कि आज पूरी चित्रकारी बाजारवाद के पंजे में फंसी है और उसके प्रभाव से पूजीवादी चित्रकारी बन गयी है | जैनुद्दीन के चित्रों पर चर्चा के साथ ही देश काल परिस्थिति और जन संघर्षो पर बनाये गये चित्र आकाल , तेभागा , तेलगाना व बागला देश के मुक्ति संग्राम के दौरान अपना प्रतिरोध दर्ज कराता है |
| ज स म के प्रदेश सचिव ने प्रतिरोध के सिनेमा पर अपना विचार रखते हुए बोला कि आज बालिऊड द्वारा परोसा जा रहा सिनेमा से आम आदमी का कोई सरोकार नही रह गया है आज का सिनेमा सिर्फ पैसा कमाने के लिए बनाया जा रहा है | पिछले देशको में बने सिनेमा को देखते हुए आम आदमी अपनी समस्याओं से रूबरू होता था | जब बालीउड़ जन सरोकारों से अपना नाता तोड़ने लगा तो बौद्धिक  वर्ग  इससे दूर होता गया ऐसी परिस्थितियों को मद्दे नजर रखते हुए आमजन को जनसरोकारो से जोड़ने के लिए ही ''प्रतिरोध के सिनेमा '' की शुरुआत की गयी है | इतिहासकार बद्री प्रसाद ने अपने विचार व्यक्त रखते हुए कहा कि आज के हालात को देखते हुए समस्याओं से लड़ने के लिए लघु वृत्त सिनेमा की आवश्यकता है ऐसी ही छोटी छोटी फिल्मो के माध्यम से आवाम में जन जागृति लायी जा सकती है | यह फिल्म उत्सव बलराज साहनी और सामाजिक  व अंध विश्वास के खिलाफ लड़ने वाले डा नरेंद्र दाभोलकर को समर्पित रहा | डा दाभोलकर ने अपने जीवन में अंध विश्वास और अंधे धर्मवाद के विरुद्ध अपना प्रतिरोध दर्ज किया दाभोलकर अंध श्रद्दा के जबर्दस्त मुहीम में लग गये महाराष्ट्र में दाभोलकर की जंग रंग लायी और लोगो का अंध विश्वास से नजरिया बदला समाज में वैज्ञानिक चेतना फैलाने के कार्य को किस तरह एक आन्दोलन की शक्ल दी जा सकती है इसकी एक मिसाल कायम किया डा दाभोलकर ने इसके साथ ही बलराज साहनी ने अपने पूरे जीवन प्रगतिशील धारा पर अडिग रहे | भारतीय जन नाट्य संघ के मंच से उन्होंने एक नई चेतना व फिल्मो के माध्यम से आमजन की भाषा , संस्कृति और परम्परा को सिनेमा के कैनवास पर उकेरा |

'' तकसीम हुआ मुल्क दिल हो गये टुकड़े
हर सीने में तूफ़ान वहा भी था यहाँ भी
हर घर में चिता जलती थी लहराते थे शोले
हर शहर में श्मशान वहा भी था यहाँ भी
गीता की कोई सुनता न कुरआन की सुनता
हैरान सा ईमान वहा भी था यहाँ भी ''


फिल्म '' गरम हवा '' के जरिये आजादी के वक्त की उन परिस्थितियों से दर्शको को अवगत कराते हुए उन दर्दो का एहसास कराया |

दूसरा  दिन विश्व सिनेमा की लघु फिल्मो के महत्व व सहभागिता की चर्चा की गयी इसमें प्रिंटेड रेनबो नाम की फिल्म का प्रदर्शन किया गया | इस फिल्म की कहानी एक अकेली बूढी औरत के जीवन पर आधारित है उसके भीतरी अंतर्मन के साथ ही बाहरी दुनिया के विविध रंगों को ध्वनी के माध्यम  से सफल निर्देशित किया गया है | सुरभि शर्मा की निर्देशन में बनी फिल्म '' विदेशिया इन मुम्बई '' के माध्यम से मुंबई गये भोजपुरी भाषी लोगो के दर्द को एहसास कराती है कि अपने ही देश में दोहरी नागरिकता में जी रहे दंश को इसके साथ ही भोजपुरी भाषा महानगरी संस्कृति के बीच आज भी अपने श्रम शक्ति के साथ ही अपनी भाषा , कला और संस्कृति को बचाते हुए इसके प्रचार -- प्रसार के साथ ही व्यवसायिकता में अपने को उपयोग कर रहे है इन प्रवासी भोजपुरी समाज का बड़ा हिस्सा टैक्सी चालको , फैक्ट्री , और भवन निर्माण में लगे मजदूरो से मिलकर बना है | इसके साथ ही मुजफ्फर नगर के हालिया दंगो में पीड़ित उन मुसलमानों के दर्द को बया किया गया है इस फिल्म के निर्माता नकुल साहनी से दर्शको द्वारा अनेक प्रश्न भी पूछे गये |
इसके साथ ही युसूफ सईद की फिल्म '' ख्याल दर्पन '' के माध्यम से पाकिस्तान में शास्त्रीय  संगीत की खोज के मायने अपने आप में बेहद ही समवेदन  शील फिल्म रही | फिल्म '' प्यासा '' ने भी यह दर्शको को सोचने के लिए विवश किया
''   देंगे वही जो पायेगे इस जिन्दगी से
हम तंग आ चुके है कशमकशे  ''

 एक ऐसे नौजवान के जज्बात को उकेरती संवेदना को प्रस्तुत करती है |
तीसरा दिन अभिव्यक्ति की आजादी , लोकतंत्र की रक्षा और जल , जंगल जमीन के लिए प्रतिरोध की संस्कृति को अपनाना जरूरी है यही प्रतिरोध के सिनेमा का मकसद है | आयोजको द्वारा बच्चो के मनोभावों को उकेरने के लिए पेंटिग प्रतियोगिता के एक अच्छी पहल की गयी है जिससे यह तो पता चलेगा कि आज हमारे बच्चे किस दशा और दिशा के बारे में चिन्तन करते है | इसके साथ ही लुईस फाक्स की '' सामान की कहानी और राजन खोसा की बाल फिल्म '' गट्टू के साथ ही जल जंगल जमीन पर आधारित फिल्मे हमे आज सचेत कर रही है कि आज फिर से एक नई जंग की जरूरत है | यह फिल्म उत्सव अपनी सार्थकता जहा उपस्थित करा रहा था वही कुछ आयोजको के लिए प्रश्न भी छोड़ गया | इस बार इसके  बहुत से संस्थापक सदस्यों को किसी तरह की जानकारी नही दी गयी और इस फिल्म उत्सव का प्रचार आयोजको द्वारा नगण्य था साथ ही एक बड़ा प्रश्न यह भी छोड़ गया कि प्रतिरोध की आवाज उठाने वाले लोग तीन सौ चौसठ दिन में भी क्या अपना प्रतिरोध समाज में दर्ज कराते है या सिर्फ इन्ही दिनों में वो सीमित रहते है |
-सुनील दत्ता
स्वतंत्र पत्रकार व समीक्षक

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