सांप्रदायिक हिंसा हमारे देश का नासूर बनी हुई है, विशेष कर पिछले तीन दशकों से। सन् 1980 के बाद से इसने भयावह रूप अख्तियार कर लिया है। देश में समय-समय पर बड़ी संख्या में निर्दोष लोग सांप्रदायिक हिंसा की भेंट चढ़ते रहे हैं। परंतु इसके समानांतर एक अन्य प्रक्रिया भी चल रही है। और वह है दंगे करवाने वालों की सामाजिक स्वीकार्यता मंे बढ़ोत्तरी। हिंसा का स्त्रोत न तो हिंसा करने वाले के हाथ होते हैं और ना ही उसके हाथ में पकड़े हुए हथियार। हिंसा की शूरूआत दिमाग में होती है और इसके पीछे होती है नफरत-दूसरे समुदाय के हर सदस्य के प्रति घृणा का भाव। इस नफरत को पैदा किया जाता है इतिहास को तोड़-मरोड़कर और वर्तमान के बारे में झूठ की धुंध फैला कर। हिंसा की प्रकृति कभी एक सी नहीं रहती। वह समय और स्थान के साथ बदलती रहती है। पहले दंगे शहरों तक सीमित हुआ करते थे, अब उनकी पहुंच कस्बों और गांवों तक हो गई है। दंगे वे लोग भड़काते हैं जिन्हें उनसे राजनैतिक या चुनावी दृष्टि से लाभ होने की उम्मीद होती है। हिंसा करने के लिए लड़ाकों के दस्ते तैयार करने के लिए बहुसंख्यक समुदाय के मन में अल्पसंख्यकों के प्रति भय उत्पन्न किया जाता है। अल्पसंख्यक दानव हैं, हिंसक हैं और बहुसंख्यकों के खून के प्यासे हैं - इस झूठ को इतनी बार दोहराया जाता है कि वह सामूहिक सामाजिक सोच का हिस्सा बन जाता है। यही कारण है कि नफरत फैलाने वाले लोग यह दावा भी करते हैं कि वे ‘अपने समुदाय’ व ‘अपने धर्म’ की रक्षा कर रहे हैं। यही कारण है कि खून-खराबे और हिंसा के बाद उनके राजनैतिक कद में कुछ बढ़ोत्तरी हो जाती है।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी की 21 नवंबर 2013 को आयोजित एक आमसभा में भाजपा के दो ऐसे विधायकों का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया, जिन पर यह आरोप है कि उन्होंने ‘‘हमारी बहनों-माताओं की इज्जत खतरे में’’ की थीम पर नफरत फैलाने वाले भाषण दिए और बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यकों के विरूद्ध भड़काया। उनमें से एक ने दो युवकों को क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारे जाने की एक वीडियो क्लिप, फेसबुक पर अपलोड की। वह क्लिप पाकिस्तान की थी परंतु यह बताया गया कि संबंधित घटना मुजफ्फरनगर में हुई है। भाजपा के इन दो विधायकों संगीत सोम और सुरेश राणा, जिन पर मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का आरोप है, का आगरा में मोदी की सभा में सार्वजनिक अभिनंदन किया गया।
चतुर रणनीति के तहत, नफरत के इन सौदागरों का सम्मान, सभा स्थल पर मोदी के आने के पहले कर दिया गया। इन विधायकों को दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और वर्तमान में वे जमानत पर रिहा हैं। हम दंगे के आरोपियांे के सार्वजनिक अभिनंदन को किस रूप में देखें? क्या खून-खराबा करने वाले लोग स्वागत व अभिनंदन के अधिकारी होते हैं?
पिछले दो-तीन दषकों में हमने तीन बड़े कत्लेआम देखे हैं-दिल्ली (सिक्ख-विरोधी), मंुबई व गुजरात (मुस्लिम-विरोधी) व कंधमाल (ईसाई-विरोधी)। जो दो नेता मुंबई और गुजरात की हिंसा के लिए जिम्मेदार थे, वे बाद में ‘‘हिन्दू ह्दय सम्राट’’ बनकर उभरे। पहले थे बाला साहब ठाकरे। मंुबई हिंसा में उनकी भूमिका का वर्णन श्रीकृष्ण आयोग की रपट में किया गया है। रपट कहती है कि ठाकरे ने एक जनरल की तरह हिंसा का नेतृत्व किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘जो बातचीत सुनाई दे रही थी (महानगर के संवाददाता युवराज मोहिते को, दंगों के दौरान, ठाकरे के घर पर) उससे यह साफ था कि ठाकरे, षिवसैनिकों, शाखा प्रमुखों और षिवसेना के अन्य कार्यकर्ताओं को मुसलमानों पर हमले करने के निर्देश दे रहे थे ताकि उन्हें उनकी करनी का फल मिल सके। वे यह भी कह रहे थे कि एक भी ‘लण्ड्या’ (मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला एक अपमानजनक शब्द) गवाही देने के लिए जीवित नहीं बचना चाहिए।’’ (खण्ड-2 पृष्ठ 173-174)। रिपोर्ट में जिस तरह से उनकी भूमिका का वर्णन किया गया है उससे किसी को भी ऐसा लगना स्वाभाविक है कि उन्हें कड़ी सजा मिलनी थी। सजा मिलना तो दूर रहा, उन्हें गिरफ्तार तक नहीं किया गया। उल्टे वे आम हिन्दुओं को यह संदेष देने में सफल रहे कि उनके व उनके लड़कों (षिवसैैनिकों) के कारण ही हिन्दू सुरक्षित हैं। और उन्हें हिन्दू ह्दय सम्राट कहा जाने लगा। हिंसा से उनकी पार्टी षिवसेना को बहुत लाभ हुआ और दंगों के बाद हुए चुनाव में वह महाराष्ट्र में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने में सफल हो गई।
जहां तक गुजरात कत्लेआम का प्रष्न है, उसके बारे में कोई आधिकारिक रपट अब तक सामने नहीं आई है परंतु ‘‘’सिटीजन फाॅर जस्टिस एण्ड पीस’ के प्रयासों से गुजरात में हुई जनसुनवाइयों से यह साफ हो गया है कि राज्य में हुई हिंसा में मोदी की भूमिका थी। ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला अधिकरण’ ने अपनी रपट में हालात का विवरण इन शब्दों में किया है ‘‘...राज्य के विभिन्न अंग, मुसलमानों पर हुए शुरूआती हमलों और उसके बाद लंबे समय तक चली हिंसा में भागीदार थे। राज्य व केन्द्र दोनों की सरकारों ने गुजरात हिंसा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस हिंसा में शामिल था मुस्लिम समुदाय के सदस्यों की जान लेना, उनकी संपत्ति को नष्ट करना और उनकी महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार करना। राज्यतंत्र की मिलीभगत के बगैर, न तो हिंसा लंबे समय तक चलती रह सकती थी और ना ही मुस्लिम समुदाय को उसके अधिकारों से वंचित किया जा सकता था। गुजरात सरकार की नीतियां और कार्यक्रम, दोनों पर संघ परिवार का गहरा असर है। और यह असर कत्लेआम के पहले और उसके तुरंत बाद की अवधि में, राज्य की एजेन्सियों के व्यवहार में स्पष्ट झलकता है’’।
इस व्यापक नरसंहार के बाद मोदी की सत्ता और मजबूत हुई। डांवाडोल हो रही गुजरात की भाजपा सरकार, मोदी के नेतृत्व में बहुत षक्तिषाली होकर उभरी। मोदी अपनी पार्टी के गुजरात के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण नेता बन गए। यहां भी विरोधाभास स्पष्ट नजर आता है। और इसके पीछे का कारण भी वही है जो मुंबई हिंसा के मामले में था। जहां निष्पक्ष प्रेक्षक हिंसा में मोदी एण्ड कंपनी की भूमिका को देख सकते हैं वहीं आम हिन्दू यही सोच रहा है कि मोदी के कारण ही हिन्दुओं व उसके धर्म की रक्षा हो सकी और अल्पसंख्यकों को उनकी औकात बता दी गई। इसी हिंसा के बाद से मोदी को भी हिंदू हृदय सम्राट कहा जाने लगा।
कंधमाल में ईसाई-विरोधी हिंसा में दो भाजपा नेताओं मनोज प्रधान और अशोक साहू की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने वहां हिंसा भड़काई थी। चमत्कारिक रूप से, इसके तुरंत बाद वे राजनीति की सीढि़यां तेजी से चढ़ने लगे और चुनाव जीतकर विधायक बन गए। माया कोडनानी, जो इन दिनों गुजरात कत्लेआम में अपनी भूमिका के लिए जेल में हैं, को भी मंत्री पद, कत्लेआम में उनकी भूमिका के इनाम बतौर मिला था। अपराध करो और इनाम पाओ।
आगरा में हुए सार्वजनिक अभिनंदन का एक अन्य पहलू भी महत्वपूर्ण है। मुजफ्फरनगर के आरोपियों का स्वागत मोदी के मंच पर आने से पहले किया गया। यह एक धूर्ततापूर्ण चाल थी। इसके दो उद्देष्य थे। पहला था हिन्दू समुदाय को यह विष्वास दिलाना कि संघ व भाजपा अपने सांप्रदायिक एजेण्डे पर चलते रहेंगे। दूसरी ओर, परिवार मोदी की छवि विकास पुरूष की बनाए रखना चाहता है। आम चुनाव नजदीक हैं और संघ-भाजपा-मोदी बहुआयामी रणनीति अपना रहे हैं। वे ‘विकास’ की बात कर रहे हैं। गुजरात हिंसा में मोदी की भूमिका को परे रखकर, वे ‘गुजरात माॅडल’ और गुजरात के विकास के मिथक की चुनाव के बाजार में आक्रामक मार्केटिंग कर रहे हैं। इसके साथ ही वे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक हिंसा का सहारा भी ले रहे हैं। मुजफ्फरनगर इसका एकमात्र उदाहरण नहीं है। नीतीश सरकार से भाजपा के अलग होने के बाद से बिहार में भी सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हुई हैं। दूसरी ओर, बिहार और अन्य स्थानों पर हुए आतंकी हमलों का इस्तेमाल भी समाज को ध्रुवीकृत करने के लिए किया जा रहा है। पृष्ठभूमि में राममंदिर की फिल्म तो चल ही रही है।
स्पष्टतः सांप्रदायिक ताकतें सत्ता में आने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं। उनकी रणनीति स्पष्ट है। परंतु हमें न तो धार्मिक धु्रवीकरण की आवष्यकता है और ना ही नफरत फैलाने वालांे की। और ऐसे लोगों को सम्मानित करना तो किसी भी दृष्टि से हमारे हित में नहीं है। हमें चाहिए कि हम सांप्रदायिक हिंसा और भड़काऊ भाषणबाजी को अपने मानस पर हावी न होने दें। हम नफरत की बात न करें और न सोचें। दूसरे समुदायों के साथ बेहतर और सौहार्दपूर्ण रिष्तों का निर्माण हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, तभी हम नफरत की तिजारत करने वालों के नापाक इरादों को नाकाम कर सकेंगे।
-राम पुनियानी
भाजपा के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी की 21 नवंबर 2013 को आयोजित एक आमसभा में भाजपा के दो ऐसे विधायकों का सार्वजनिक अभिनंदन किया गया, जिन पर यह आरोप है कि उन्होंने ‘‘हमारी बहनों-माताओं की इज्जत खतरे में’’ की थीम पर नफरत फैलाने वाले भाषण दिए और बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यकों के विरूद्ध भड़काया। उनमें से एक ने दो युवकों को क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारे जाने की एक वीडियो क्लिप, फेसबुक पर अपलोड की। वह क्लिप पाकिस्तान की थी परंतु यह बताया गया कि संबंधित घटना मुजफ्फरनगर में हुई है। भाजपा के इन दो विधायकों संगीत सोम और सुरेश राणा, जिन पर मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने का आरोप है, का आगरा में मोदी की सभा में सार्वजनिक अभिनंदन किया गया।
चतुर रणनीति के तहत, नफरत के इन सौदागरों का सम्मान, सभा स्थल पर मोदी के आने के पहले कर दिया गया। इन विधायकों को दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और वर्तमान में वे जमानत पर रिहा हैं। हम दंगे के आरोपियांे के सार्वजनिक अभिनंदन को किस रूप में देखें? क्या खून-खराबा करने वाले लोग स्वागत व अभिनंदन के अधिकारी होते हैं?
पिछले दो-तीन दषकों में हमने तीन बड़े कत्लेआम देखे हैं-दिल्ली (सिक्ख-विरोधी), मंुबई व गुजरात (मुस्लिम-विरोधी) व कंधमाल (ईसाई-विरोधी)। जो दो नेता मुंबई और गुजरात की हिंसा के लिए जिम्मेदार थे, वे बाद में ‘‘हिन्दू ह्दय सम्राट’’ बनकर उभरे। पहले थे बाला साहब ठाकरे। मंुबई हिंसा में उनकी भूमिका का वर्णन श्रीकृष्ण आयोग की रपट में किया गया है। रपट कहती है कि ठाकरे ने एक जनरल की तरह हिंसा का नेतृत्व किया। रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘जो बातचीत सुनाई दे रही थी (महानगर के संवाददाता युवराज मोहिते को, दंगों के दौरान, ठाकरे के घर पर) उससे यह साफ था कि ठाकरे, षिवसैनिकों, शाखा प्रमुखों और षिवसेना के अन्य कार्यकर्ताओं को मुसलमानों पर हमले करने के निर्देश दे रहे थे ताकि उन्हें उनकी करनी का फल मिल सके। वे यह भी कह रहे थे कि एक भी ‘लण्ड्या’ (मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला एक अपमानजनक शब्द) गवाही देने के लिए जीवित नहीं बचना चाहिए।’’ (खण्ड-2 पृष्ठ 173-174)। रिपोर्ट में जिस तरह से उनकी भूमिका का वर्णन किया गया है उससे किसी को भी ऐसा लगना स्वाभाविक है कि उन्हें कड़ी सजा मिलनी थी। सजा मिलना तो दूर रहा, उन्हें गिरफ्तार तक नहीं किया गया। उल्टे वे आम हिन्दुओं को यह संदेष देने में सफल रहे कि उनके व उनके लड़कों (षिवसैैनिकों) के कारण ही हिन्दू सुरक्षित हैं। और उन्हें हिन्दू ह्दय सम्राट कहा जाने लगा। हिंसा से उनकी पार्टी षिवसेना को बहुत लाभ हुआ और दंगों के बाद हुए चुनाव में वह महाराष्ट्र में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने में सफल हो गई।
जहां तक गुजरात कत्लेआम का प्रष्न है, उसके बारे में कोई आधिकारिक रपट अब तक सामने नहीं आई है परंतु ‘‘’सिटीजन फाॅर जस्टिस एण्ड पीस’ के प्रयासों से गुजरात में हुई जनसुनवाइयों से यह साफ हो गया है कि राज्य में हुई हिंसा में मोदी की भूमिका थी। ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला अधिकरण’ ने अपनी रपट में हालात का विवरण इन शब्दों में किया है ‘‘...राज्य के विभिन्न अंग, मुसलमानों पर हुए शुरूआती हमलों और उसके बाद लंबे समय तक चली हिंसा में भागीदार थे। राज्य व केन्द्र दोनों की सरकारों ने गुजरात हिंसा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस हिंसा में शामिल था मुस्लिम समुदाय के सदस्यों की जान लेना, उनकी संपत्ति को नष्ट करना और उनकी महिलाओं के साथ दुव्र्यवहार करना। राज्यतंत्र की मिलीभगत के बगैर, न तो हिंसा लंबे समय तक चलती रह सकती थी और ना ही मुस्लिम समुदाय को उसके अधिकारों से वंचित किया जा सकता था। गुजरात सरकार की नीतियां और कार्यक्रम, दोनों पर संघ परिवार का गहरा असर है। और यह असर कत्लेआम के पहले और उसके तुरंत बाद की अवधि में, राज्य की एजेन्सियों के व्यवहार में स्पष्ट झलकता है’’।
इस व्यापक नरसंहार के बाद मोदी की सत्ता और मजबूत हुई। डांवाडोल हो रही गुजरात की भाजपा सरकार, मोदी के नेतृत्व में बहुत षक्तिषाली होकर उभरी। मोदी अपनी पार्टी के गुजरात के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण नेता बन गए। यहां भी विरोधाभास स्पष्ट नजर आता है। और इसके पीछे का कारण भी वही है जो मुंबई हिंसा के मामले में था। जहां निष्पक्ष प्रेक्षक हिंसा में मोदी एण्ड कंपनी की भूमिका को देख सकते हैं वहीं आम हिन्दू यही सोच रहा है कि मोदी के कारण ही हिन्दुओं व उसके धर्म की रक्षा हो सकी और अल्पसंख्यकों को उनकी औकात बता दी गई। इसी हिंसा के बाद से मोदी को भी हिंदू हृदय सम्राट कहा जाने लगा।
कंधमाल में ईसाई-विरोधी हिंसा में दो भाजपा नेताओं मनोज प्रधान और अशोक साहू की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने वहां हिंसा भड़काई थी। चमत्कारिक रूप से, इसके तुरंत बाद वे राजनीति की सीढि़यां तेजी से चढ़ने लगे और चुनाव जीतकर विधायक बन गए। माया कोडनानी, जो इन दिनों गुजरात कत्लेआम में अपनी भूमिका के लिए जेल में हैं, को भी मंत्री पद, कत्लेआम में उनकी भूमिका के इनाम बतौर मिला था। अपराध करो और इनाम पाओ।
आगरा में हुए सार्वजनिक अभिनंदन का एक अन्य पहलू भी महत्वपूर्ण है। मुजफ्फरनगर के आरोपियों का स्वागत मोदी के मंच पर आने से पहले किया गया। यह एक धूर्ततापूर्ण चाल थी। इसके दो उद्देष्य थे। पहला था हिन्दू समुदाय को यह विष्वास दिलाना कि संघ व भाजपा अपने सांप्रदायिक एजेण्डे पर चलते रहेंगे। दूसरी ओर, परिवार मोदी की छवि विकास पुरूष की बनाए रखना चाहता है। आम चुनाव नजदीक हैं और संघ-भाजपा-मोदी बहुआयामी रणनीति अपना रहे हैं। वे ‘विकास’ की बात कर रहे हैं। गुजरात हिंसा में मोदी की भूमिका को परे रखकर, वे ‘गुजरात माॅडल’ और गुजरात के विकास के मिथक की चुनाव के बाजार में आक्रामक मार्केटिंग कर रहे हैं। इसके साथ ही वे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक हिंसा का सहारा भी ले रहे हैं। मुजफ्फरनगर इसका एकमात्र उदाहरण नहीं है। नीतीश सरकार से भाजपा के अलग होने के बाद से बिहार में भी सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनाएं हुई हैं। दूसरी ओर, बिहार और अन्य स्थानों पर हुए आतंकी हमलों का इस्तेमाल भी समाज को ध्रुवीकृत करने के लिए किया जा रहा है। पृष्ठभूमि में राममंदिर की फिल्म तो चल ही रही है।
स्पष्टतः सांप्रदायिक ताकतें सत्ता में आने के लिए पूरा जोर लगा रही हैं। उनकी रणनीति स्पष्ट है। परंतु हमें न तो धार्मिक धु्रवीकरण की आवष्यकता है और ना ही नफरत फैलाने वालांे की। और ऐसे लोगों को सम्मानित करना तो किसी भी दृष्टि से हमारे हित में नहीं है। हमें चाहिए कि हम सांप्रदायिक हिंसा और भड़काऊ भाषणबाजी को अपने मानस पर हावी न होने दें। हम नफरत की बात न करें और न सोचें। दूसरे समुदायों के साथ बेहतर और सौहार्दपूर्ण रिष्तों का निर्माण हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, तभी हम नफरत की तिजारत करने वालों के नापाक इरादों को नाकाम कर सकेंगे।
-राम पुनियानी
1 टिप्पणी:
बेहतर होता पहले लेखक महोयदा स्वयं खुद को पूर्वाग्रहों से मुक्त कर लेते. सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसे एकपक्षीय विचार लिखना सार्वजनिक मंचों पर उपयुक्त प्रतीत नहीं होता. जो भी किसी के सोचने कहने लिखने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं,बाकि आपका लेख किसी दल विशेष के सदस्य के रूप में ज्यादा झुका प्रतीत नहीं. स्पष्टवादिता के लिए खेद.
एक टिप्पणी भेजें