इतिहास केवल अतीत नहीं होता, जिसे भुला दिया जाए। इतिहास का इस्तेमाल, विभिन्न राजनैतिक एजेण्डों को लागू करने के लिए किया जाता है। इस समय हिन्दू और मुसलमान, दोनों समुदायों के दक्षिणपंथी, इतिहास का इस्तेमाल अपने-अपने हितसाधन के लिए कर रहे हैं। भारत में हिन्दुत्ववादी राजनीति का बोलबाला है और हिन्दुत्ववादी षक्तियों द्वारा इतिहास के दुरूपयोग के अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। सन् 1981 में जब तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में बड़ी संख्या में दलितों ने इस्लाम को अंगीकार कर लिया तब यह कहा गया कि भारत में तेजी से फैलता इस्लाम, देश के लिए खतरा है। राममंदिर आंदोलन के उदय के साथ, इस बात पर जोर दिया जाने लगा कि मुस्लिम राजाओं द्वारा हिन्दू मंदिरों का विध्वंस किया गया और हिन्दू धर्म का अपमान भी। उसी समय यह नारा भी सामने आया ‘‘मुसलमान के दो ही स्थान-कब्रिस्तान या पाकिस्तान’’। इस नारे का अर्थ यह था कि भारत केवल हिन्दुओं का है।
सन् 2002 के गुजरात कत्लेआम के पहले और उसके तुरंत बाद, मुसलमानों को आतंकवाद से जोड़ा जाने लगा और मियां मुशर्रफ को भारतीय मुसलमानों के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने के योजनाबद्ध प्रयास हुए। महाराष्ट्र में शिवाजी की जीवनगाथा को बार-बार दोहराकर, मुस्लिम राजाओं की आक्रांता और क्रूर शासक की छवि बनाने की भरपूर कोषिश की गई। इस समय भी ‘‘भारत के महान सपूत राणाप्रताप’’ और ‘‘जोधा अकबर’’ जैसे टीवी सीरियल यही संदेश दे रहे हैं।
हाल के कुछ महिनों से, साम्प्रदायिक ताकतों ने भारत के आधुनिक इतिहास को अपनी राजनैतिक लड़ाई का अस्त्र बना लिया है। सरदार पटेल का महिमामंडन किया जा रहा है और बार-बार यह दोहराया जा रहा है कि पटेल, नेहरू-विरोधी थे। इस काल के बारे में कई मिथक प्रचारित किए जा रहे हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने ‘‘विभाजन को सुगम बनाने’’ में कोई कसर बाकी नहीं रखी (खेड़ा, गुजरात में बोलते हुए नरेन्द्र मोदी)। यह वक्तव्य न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है वरन् इसके पीछे सोची समझी चाल है। उस दौर में कांग्रेस की तरफ से वार्ताओं में भाग ले रहे थे पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल। जिन्ना पर जसवंत सिंह की पुस्तक में नेहरू व पटेल को देश के विभाजन के लिए दोषी ठहराया गया है। यह पुस्तक जसवंत सिंह की एकतरफा सोच को प्रतिबिंबित करती है। मोदी ने गुजरात में इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि वे सरदार पटेल की जरा सी भी आलोचना सुनने को तैयार नहीं हैं। संघ परिवार इन दिनों दो जुबानों में बात कर रहा है। एक ओर सरदार पटेल की शान में कसीदे काढ़े जा रहे हैं तो दूसरी और विभाजन के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया जा रहा है। ये बातें करने वाले यह भूल रहे हैं कि विभाजन के मामले में भारत की सोच का प्रतिनिधित्व, नेहरू और पटेल दोनों ने किया था।
दरअसल, भारत के विभाजन की त्रासदी एक बहुत बड़े कैनवास की तरह है। विभिन्न टिप्पणीकार इस कैनवास के केवल उस हिस्से को देखते हैं, जो उनकी राजनीति के अनुरूप व अनुकूल हो और उसे ही सबसे महत्वपूर्ण बताने लगते हैं। कैनवास के केवल एक हिस्से पर फोकस करना, इन टिप्पणीकारों के राजनैतिक इरादों और समझ को इंगित करता है। परंतु अगर हम इस पूरी प्रक्रिया को समग्र रूप से देखें तब एक नई कहानी हमारे सामने आएगी।
विभाजन की त्रासदी केवल ब्रिटिष शासकों, मुस्लिम लीग व कांग्रेस के बीच अंतिम दौर में चली वार्ताओं की उपज नहीं थी। यह एक लंबी प्रक्रिया का नतीजा थी, जिसकी शुरूआत सन् 1857 की क्रान्ति से हुई थी। विभाजन के पीछे के मूल कारकों में से एक थी ब्रिटिश सरकार की फूट डालो और राज करो की नीति, जिसके अंतर्गत इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया गया। दूसरा कारक था औद्योगिकरण व आधुनिक षिक्षा के बावजूद, सामंती तत्वों का बोलबाला बना रहना। ये सामंती तत्व, जो डूबते हुए सामाजिक वर्ग के थे, को प्रजातांत्रिक राष्ट्रवाद के उभार से खतरा महसूस हो रहा था। इस राष्ट्रवाद के उभार के प्रतीक थे उद्योगपतियों, श्रमिकों और षिक्षित वर्गों के नए गठित हो रहे संगठन और अंततः, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अस्तित्व में आना। डूबते हुए ये दोनों वर्ग, जिनमें हिन्दू और मुसलमान जमींदार और राजा षामिल थे, पहले एक साथ थे। उनके बीच विभाजन के बीज बोये लाॅर्ड एल्फिंसटोन ने-मुस्लिम जमींदारों और नवाबों को प्रोत्साहन देकर। लाॅर्ड एल्फिंसटोन ने जमींदारों और नवाबों को मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी। इसका नतीजा था सन् 1906 में मुस्लिम लीग का गठन। इसके बाद, 1909 मंे पंजाब हिन्दू सभा बनी, 1915 में हिन्दू महासभा और 1925 में आरएसएस। इन साम्प्रदायिक संगठनों को षिक्षित श्रेष्ठि वर्ग के एक हिस्से के अलावा, ऊँची जातियों और खानदानी व्यवसायियों से भी समर्थन मिलने लगा। ये साम्प्रदायिक संगठन, प्रजातांत्रिक राष्ट्रवाद के विरूद्ध थे और धार्मिक राष्ट्रवाद के पैरोकार।
विभाजन का तीसरा और प्रमुख कारण था हिन्दू महासभा के विनायक दामोदर सावरकर का यह कथन कि भारत में दो राष्ट्र हैं-हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र। मुसलमानों के लिए अलग देश के निर्माण की मांग सबसे पहले चैधरी रहमत अली ने सन् 1930 में उठायी थी। इस मांग ने षनैः षनैः राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर लिया और सन् 1940 में जिन्ना ने पाकिस्तान (पष्चिमी व पूर्वी) नाम से मुसलमानों के लिए एक अलग देश की मांग कर दी। एक चैथा महत्वपूर्ण कारक यह था कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी भी चाहते थे कि देश का विभाजन हो जाए। उन्हंे दक्षिण एषिया में अपने लिए एक अड्डे की जरूरत थी। पूर्वी यूरोप में साम्यवाद तेजी से जड़ें पकड़ रहा था और ये देश उन्नति कर रहे थे। साम्यवाद और सोवियत संघ ने कई राष्ट्रीय आंदोलनों के नेताओं को प्रेरणा दी। इनमंे चीन और वियतनाम षामिल हैं। साम्राज्यवादी चाहते थे कि कम्युनिस्टों का मुकाबला करने के लिए उनके पास दक्षिण एषिया में एक सुरक्षित अड्डा उपलब्ध रहे। भारत में नेहरू, जयप्रकाश नारायण सहित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी-जो कि कांग्रेस के अंदर एक संगठन था-के नेताओं पर समाजवादी विचारधारा के गहरे प्रभाव को देखते हुए साम्राज्यवादी ताकतों की कतई यह इच्छा नहीं थी कि भारत एक बना रहे। उन्हें पता था कि अगर भारत एक रहा तो यहां के नेता, स्वतंत्रता के बाद, साम्राज्यवादियों को उनकी जमीन का इस्तेमाल अपने अड्डे बनाने के लिए नहीं करने देंगे। अतः उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण की मांग को प्रोत्साहित किया।
कांग्रेस के लिए एक तरफ कुंआ था तो दूसरी ओर खाई। एक ओर राष्ट्रीय आंदोलन के गांधी व मौलाना आजाद जैसे नेता विभाजन का कड़ा विरोध कर रहे थे तो दूसरी ओर नेहरू और पटेल ने अंतरिम सरकार के संचालन में मुस्लिम लीग द्वारा अटकाए गए रोड़ों को देखा-भोगा था। उनके पास दो ही रास्ते थे, या तो वे क्रिप्स मिशन को स्वीकार कर लेते, जिसके अन्तर्गत अविभाजित भारत की केन्द्र सरकार के पास बहुत सीमित अधिकार रहते या फिर विभाजन को मंजूरी देकर एक मजबूत केन्द्र वाले भारत के निर्माण की राह को प्रशस्त करते। नेहरू का सोचना यह था कि बिना केन्द्रीयकृत अर्थव्यवस्था के देश प्रगति नहीं कर सकेगा। उद्योगपतियों द्वारा देष के औद्योगिकरण के लिए तैयार की गई योजना, जिसे ‘बाम्बे प्लान’ का नाम दिया गया था, की भी राज्य से यह अपेक्षा थी कि भारी उद्योगों की स्थापना राज्य करे। उद्योगपतियों को यह ज्ञात था कि वे भारी उद्योगांे की स्थापना करने में सक्षम नहीं हैं। नेहरू भू-सुधारों और औद्योगिकरण के जरिए देश को आगे ले जाना चाहते थे। सरदार पटेल मजबूत केन्द्र के हामी थे और क्रिप्स मिशन द्वारा प्रस्तावित ढीला-ढाला संघीय ढांचा उन्हें कतई पसंद नहीं था।
भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस को दोष देना, तथ्यों के साथ खिलवाड़ करना है। यह सचमुच चिंताजनक है कि राजनैतिक हितसाधन के लिए इतिहास-यहां तक कि आधुनिक इतिहास-को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। हमारे साम्प्रदायिक नेताओं को सत्य की बलि चढ़ाकर भी सत्ता हासिल करने में कोई गुरेज नहीं है।
-राम पुनियानी
सन् 2002 के गुजरात कत्लेआम के पहले और उसके तुरंत बाद, मुसलमानों को आतंकवाद से जोड़ा जाने लगा और मियां मुशर्रफ को भारतीय मुसलमानों के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करने के योजनाबद्ध प्रयास हुए। महाराष्ट्र में शिवाजी की जीवनगाथा को बार-बार दोहराकर, मुस्लिम राजाओं की आक्रांता और क्रूर शासक की छवि बनाने की भरपूर कोषिश की गई। इस समय भी ‘‘भारत के महान सपूत राणाप्रताप’’ और ‘‘जोधा अकबर’’ जैसे टीवी सीरियल यही संदेश दे रहे हैं।
हाल के कुछ महिनों से, साम्प्रदायिक ताकतों ने भारत के आधुनिक इतिहास को अपनी राजनैतिक लड़ाई का अस्त्र बना लिया है। सरदार पटेल का महिमामंडन किया जा रहा है और बार-बार यह दोहराया जा रहा है कि पटेल, नेहरू-विरोधी थे। इस काल के बारे में कई मिथक प्रचारित किए जा रहे हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने ‘‘विभाजन को सुगम बनाने’’ में कोई कसर बाकी नहीं रखी (खेड़ा, गुजरात में बोलते हुए नरेन्द्र मोदी)। यह वक्तव्य न केवल तथ्यात्मक रूप से गलत है वरन् इसके पीछे सोची समझी चाल है। उस दौर में कांग्रेस की तरफ से वार्ताओं में भाग ले रहे थे पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल। जिन्ना पर जसवंत सिंह की पुस्तक में नेहरू व पटेल को देश के विभाजन के लिए दोषी ठहराया गया है। यह पुस्तक जसवंत सिंह की एकतरफा सोच को प्रतिबिंबित करती है। मोदी ने गुजरात में इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा दिया था क्योंकि वे सरदार पटेल की जरा सी भी आलोचना सुनने को तैयार नहीं हैं। संघ परिवार इन दिनों दो जुबानों में बात कर रहा है। एक ओर सरदार पटेल की शान में कसीदे काढ़े जा रहे हैं तो दूसरी और विभाजन के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराया जा रहा है। ये बातें करने वाले यह भूल रहे हैं कि विभाजन के मामले में भारत की सोच का प्रतिनिधित्व, नेहरू और पटेल दोनों ने किया था।
दरअसल, भारत के विभाजन की त्रासदी एक बहुत बड़े कैनवास की तरह है। विभिन्न टिप्पणीकार इस कैनवास के केवल उस हिस्से को देखते हैं, जो उनकी राजनीति के अनुरूप व अनुकूल हो और उसे ही सबसे महत्वपूर्ण बताने लगते हैं। कैनवास के केवल एक हिस्से पर फोकस करना, इन टिप्पणीकारों के राजनैतिक इरादों और समझ को इंगित करता है। परंतु अगर हम इस पूरी प्रक्रिया को समग्र रूप से देखें तब एक नई कहानी हमारे सामने आएगी।
विभाजन की त्रासदी केवल ब्रिटिष शासकों, मुस्लिम लीग व कांग्रेस के बीच अंतिम दौर में चली वार्ताओं की उपज नहीं थी। यह एक लंबी प्रक्रिया का नतीजा थी, जिसकी शुरूआत सन् 1857 की क्रान्ति से हुई थी। विभाजन के पीछे के मूल कारकों में से एक थी ब्रिटिश सरकार की फूट डालो और राज करो की नीति, जिसके अंतर्गत इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया गया। दूसरा कारक था औद्योगिकरण व आधुनिक षिक्षा के बावजूद, सामंती तत्वों का बोलबाला बना रहना। ये सामंती तत्व, जो डूबते हुए सामाजिक वर्ग के थे, को प्रजातांत्रिक राष्ट्रवाद के उभार से खतरा महसूस हो रहा था। इस राष्ट्रवाद के उभार के प्रतीक थे उद्योगपतियों, श्रमिकों और षिक्षित वर्गों के नए गठित हो रहे संगठन और अंततः, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अस्तित्व में आना। डूबते हुए ये दोनों वर्ग, जिनमें हिन्दू और मुसलमान जमींदार और राजा षामिल थे, पहले एक साथ थे। उनके बीच विभाजन के बीज बोये लाॅर्ड एल्फिंसटोन ने-मुस्लिम जमींदारों और नवाबों को प्रोत्साहन देकर। लाॅर्ड एल्फिंसटोन ने जमींदारों और नवाबों को मुसलमानों के प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी। इसका नतीजा था सन् 1906 में मुस्लिम लीग का गठन। इसके बाद, 1909 मंे पंजाब हिन्दू सभा बनी, 1915 में हिन्दू महासभा और 1925 में आरएसएस। इन साम्प्रदायिक संगठनों को षिक्षित श्रेष्ठि वर्ग के एक हिस्से के अलावा, ऊँची जातियों और खानदानी व्यवसायियों से भी समर्थन मिलने लगा। ये साम्प्रदायिक संगठन, प्रजातांत्रिक राष्ट्रवाद के विरूद्ध थे और धार्मिक राष्ट्रवाद के पैरोकार।
विभाजन का तीसरा और प्रमुख कारण था हिन्दू महासभा के विनायक दामोदर सावरकर का यह कथन कि भारत में दो राष्ट्र हैं-हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र। मुसलमानों के लिए अलग देश के निर्माण की मांग सबसे पहले चैधरी रहमत अली ने सन् 1930 में उठायी थी। इस मांग ने षनैः षनैः राजनीतिक स्वरूप ग्रहण कर लिया और सन् 1940 में जिन्ना ने पाकिस्तान (पष्चिमी व पूर्वी) नाम से मुसलमानों के लिए एक अलग देश की मांग कर दी। एक चैथा महत्वपूर्ण कारक यह था कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी भी चाहते थे कि देश का विभाजन हो जाए। उन्हंे दक्षिण एषिया में अपने लिए एक अड्डे की जरूरत थी। पूर्वी यूरोप में साम्यवाद तेजी से जड़ें पकड़ रहा था और ये देश उन्नति कर रहे थे। साम्यवाद और सोवियत संघ ने कई राष्ट्रीय आंदोलनों के नेताओं को प्रेरणा दी। इनमंे चीन और वियतनाम षामिल हैं। साम्राज्यवादी चाहते थे कि कम्युनिस्टों का मुकाबला करने के लिए उनके पास दक्षिण एषिया में एक सुरक्षित अड्डा उपलब्ध रहे। भारत में नेहरू, जयप्रकाश नारायण सहित कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी-जो कि कांग्रेस के अंदर एक संगठन था-के नेताओं पर समाजवादी विचारधारा के गहरे प्रभाव को देखते हुए साम्राज्यवादी ताकतों की कतई यह इच्छा नहीं थी कि भारत एक बना रहे। उन्हें पता था कि अगर भारत एक रहा तो यहां के नेता, स्वतंत्रता के बाद, साम्राज्यवादियों को उनकी जमीन का इस्तेमाल अपने अड्डे बनाने के लिए नहीं करने देंगे। अतः उन्होंने पाकिस्तान के निर्माण की मांग को प्रोत्साहित किया।
कांग्रेस के लिए एक तरफ कुंआ था तो दूसरी ओर खाई। एक ओर राष्ट्रीय आंदोलन के गांधी व मौलाना आजाद जैसे नेता विभाजन का कड़ा विरोध कर रहे थे तो दूसरी ओर नेहरू और पटेल ने अंतरिम सरकार के संचालन में मुस्लिम लीग द्वारा अटकाए गए रोड़ों को देखा-भोगा था। उनके पास दो ही रास्ते थे, या तो वे क्रिप्स मिशन को स्वीकार कर लेते, जिसके अन्तर्गत अविभाजित भारत की केन्द्र सरकार के पास बहुत सीमित अधिकार रहते या फिर विभाजन को मंजूरी देकर एक मजबूत केन्द्र वाले भारत के निर्माण की राह को प्रशस्त करते। नेहरू का सोचना यह था कि बिना केन्द्रीयकृत अर्थव्यवस्था के देश प्रगति नहीं कर सकेगा। उद्योगपतियों द्वारा देष के औद्योगिकरण के लिए तैयार की गई योजना, जिसे ‘बाम्बे प्लान’ का नाम दिया गया था, की भी राज्य से यह अपेक्षा थी कि भारी उद्योगों की स्थापना राज्य करे। उद्योगपतियों को यह ज्ञात था कि वे भारी उद्योगांे की स्थापना करने में सक्षम नहीं हैं। नेहरू भू-सुधारों और औद्योगिकरण के जरिए देश को आगे ले जाना चाहते थे। सरदार पटेल मजबूत केन्द्र के हामी थे और क्रिप्स मिशन द्वारा प्रस्तावित ढीला-ढाला संघीय ढांचा उन्हें कतई पसंद नहीं था।
भारत के विभाजन के लिए कांग्रेस को दोष देना, तथ्यों के साथ खिलवाड़ करना है। यह सचमुच चिंताजनक है कि राजनैतिक हितसाधन के लिए इतिहास-यहां तक कि आधुनिक इतिहास-को तोड़ा मरोड़ा जा रहा है। हमारे साम्प्रदायिक नेताओं को सत्य की बलि चढ़ाकर भी सत्ता हासिल करने में कोई गुरेज नहीं है।
-राम पुनियानी
1 टिप्पणी:
झूठ, प्रपंच, धूर्तता की पोल जल्दी खुल जाती है.
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