गुरुवार, 7 नवंबर 2013

स्टेच्यु आफ यूनिटी और अस्थिकलश यात्रा



अक्टूबर के अंतिम और नवंबर के प्रथम सप्ताह के बीचए दो परस्पर विरोधाभासी घटनाएं हुईं। एक ओर भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल की विशालकाय मूर्ति जिसे स्टेच्यु आफ यूनिटी कहा जा रहा हैए का गुजरात में शिलान्यास हुआ तो दूसरी ओर बिहार में भाजपा ने पटना बम धमाकों में मारे गए लोगों की अस्थिकलश यात्रा निकाली। ये लोग मोदी की हुंकार रैली में हुए धमाकों में मारे गए थे। जहां पटेल ने भारत को एक कर, उसे राष्ट्र का स्वरूप दिया, वहीं भाजपा ने अस्थिकलश यात्रा निकालकर भारत को बांटने की कोशिश की। संघ परिवार देश को बांटने की नई.नई तरकीबें खोजने में माहिर है। जाहिर है, ये सभी तरकीबें भारतीय संविधान में निहित बंधुत्व के मूल्य के विरूद्ध हैं।
मूल प्रश्न यह है कि भारत की एकता को हम किस रूप में देखें। भारत का एकीकरण शुरू हुआ अंग्रेज़ों के आने के बाद से। उसके पहले, उपमहाद्वीप ने आदिम सभ्यता से लेकर राजशाही तक की यात्रा पूरी कर ली थी। पशुपालक समाज का ढांचा एकदम अलग था। गरीब किसान कमरतोड़ मेहनत कर अनाज उगाता था, जिसका बड़ा हिस्सा जमींदारों के जरिए राजाओं द्वारा हड़प लिया जाता था। निर्धन किसान जमींदारों के गुलाम भर थे। आज की युवा पीढ़ी, उस दौर की जिंदगी की एक झलकए महान साहित्यकारों, विशेषकर मुंशी प्रेमचंद, के साहित्य में देख सकती है। अंग्रेजों ने इस देश को लूटने के लिए फूट डालो और राज करो  की नीति अपनाई। और इसके लिए उन्होंने सबसे पहले इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया। राजाओं, नवाबों और बादशाहों को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा। यहां तक कि इतिहास के जिस दौर में भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ हिस्से पर मुस्लिम राजाओं का शासन था, उसे मुगलकाल का नाम दे दिया गया। मुस्लिम राजा यहीं जिए और यहीं मरे, जबकि अंग्रेजों ने लंदन से भारत पर शासन किया और देश को जमकर लूटा खसोटा। राजाओं के काल में राष्ट्र.राज्य की अवधारणा नहीं थी। ढेर सारे राजा और बादशाह थे, जो अनवरत एक दूसरे से युद्धरत रहते थे और तलवार के दम पर अपने.अपने राज्यों की सीमाओं को बढ़ाने की जुगत में लगे रहते थे।
देश को लूटने में उन्हें सुविधा होए इसके लिए ही अंग्रेजों ने रेलवे, संचार माध्यमों और आधुनिक शिक्षा की नींव रखी। अंग्रेजों का असली इरादा चाहे जो भी रहा हो परन्तु रेलवे, संचार माध्यमों और आधुनिक शिक्षा के कारण देशए भौगोलिक दृष्टि से एक हुआ। आज हम भारत को जिस स्वरूप में देख रहे हैं उसका निर्माण, अंग्रेजों के राज में ही शुरू हुआ था। परंतु अनवरत युद्धरत बादशाहों के देश से भारतीय राज्य बनने की प्रक्रिया को अन्य कारकों से भी बल मिला। अंग्रेजों की नीतियों ने देशवासियों में असंतोष को जन्म दिया और ब्रिटिश शासन प्रणाली ने इस असंतोष को स्वर देने के रास्ते भी खोले। राजशाही के दौर के विपरीत, साम्राज्यवादी दौर में उद्योगपतियों, श्रमिकों और नए उभरते वर्गों के कई संगठन अस्तित्व में आए। इस तरह के संगठन, देश में पहले कभी नहीं थे। इनमें से कुछ थे मद्रास महाजन सभा, पुणे सार्वजनिक सभा व बाम्बे एसोसिएशन। उसी दौर में नारायण मेघाजी लोखण्डे और सिंगार वेल्लू ने श्रमिकों को संगठित करना शुरू किया। ये संगठन धर्म पर आधारित नहीं थे। इनका आधार था पेशा या व्यवसाय। इन संगठनों के सदस्य देश के सभी क्षेत्रों और सभी धर्मों के हमपेशा लोग थे। अंग्रेजों द्वारा डाली गई इस नींव पर  भारतीय पहचान ने आकार लेना शुरू किया और आगे चलकर, भौगोलिक एकताए भावनात्मक एकीकरण में बदल गई।
इस एकीकरण को मजबूती दी साम्राज्यवाद.विरोधी व ब्रिटिश.विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन ने। राष्ट्रीय आंदोलन में सभी धर्मोंए क्षेत्रों व जातियों के नागरिकोंए विभिन्न भाषा.भाषियों, महिलाओं व पुरूषों ने हिस्सेदारी की। और  शनैः शनैः भारतीय पहचान, हमारी मानसिकता और नागरिक जीवन का हिस्सा बन गई। भारत को राष्ट्र में बदलने वाला यह आंदोलन, दुनिया का सबसे बड़ा जनांदोलन थाए जिसकी नींव स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्यों पर रखी गई थी.और यही मूल्य आगे चलकर भारतीय संविधान का हिस्सा बने। अतः हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश शासन के विरोध में चले आंदोलन ने देश को एक किया। इस एकता के पीछे थी धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक भारत के निर्माण की परिकल्पना.एक ऐसे भारत केए जिसकी सांझा संस्कृति हो। हम स्वतंत्र हुए परन्तु साथ में आई विभाजन की त्रासदी। इस प्रकार देश एक हुआ परन्तु कुछ काम अभी भी बाकी थे।
स्वतंत्रता के बाद लगभग 650 राजे.रजवाड़ों को यह तय करना था कि वे भारत का हिस्सा बनें, पाकिस्तान का या फिर स्वतंत्र रहें। इस मामले में सरदार पटेल ने भारत को एक करने में महती भूमिका निभाई। एक तरह से उन्होंने देश की एकता रूपी दीवार पर प्लास्टर किया। उन्होंने जिस राष्ट्रीय एकता को मजबूती दी, उसका चरित्र भावनात्मक, नागरिक और राष्ट्रीय था। इसमें सभी धर्मों के लोगों की हिस्सेदारी थी। और यही कारण था कि अपनी एकदम अलग पृष्ठभूमियों और भारतीय राष्ट्र के चरित्र के बारे मे अपने वैचारिक विभिन्नताओं के बावजूदए गांधी, नेहरू, पटेल व मौलाना आजाद एक टीम के रूप में काम कर सके। मोदी कुछ ऐसी टिप्पणियां करते रहे हैं जिनसे ऐसा ध्वनित होता है कि पटेलए मुसलमानों के साथ अलग तरह का व्यवहार करते। परंतु उनकी यह सोच गलत है। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के महान नेताओं में इस विषय पर मतविभिन्नता नहीं थी। पटेल ने ही अल्पसंख्यकों को उनकी शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित करने का अधिकार दिया था। पटेल के बारे में गांधी जी ने कहा था, ष्मैं सरदार को जानता हूं हिन्दू.मुस्लिम और कई अन्य मुद्दों पर उनकी सोच और तरीके, मेरे और पंडित नेहरू से अलग हैं। परंतु उन्हें मुस्लिम विरोधी बतानाए सत्य की हत्या करना होगा।
समाज के विभिन्न तबकों के संगठनों के निर्माण से शुरू हुई भावनात्मक और नागरिक एकीकरण की प्रक्रिया को आजादी के आंदोलन ने मजबूती दी और इसकी अंतिम परिणति थी भारत में राजे.रजवाडों का विलय। उस समय भी एक छोटा.सा तबका समाज को बांटने की साजिशें रचता रहता था। देश को बांटने की शुरूआत हुई मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा.आरएसएस के धार्मिक राष्ट्रवाद से। देश को बांटने वालों में शामिल थे जमींदार और नवाब और इनका नेतृत्व कर रहे थे ढाका के नवाब और काशी  के राजा। बाद में षिक्षित मध्यम वर्ग के कुछ लोग भी इनके साथ हो लिए। इनमें शामिल थे जिन्ना, सावरकर व आरएसएस के संस्थापक। जहां गांधी और राष्ट्रीय आंदोलन लोगों को एक कर रहे थे वहीं साम्प्रदायिक संगठन एक.दूसरे के खिलाफ नफरत फैला रहे थे। इसी नफरत से उपजी साम्प्रदायिक हिंसा, जिसके कारण कलकत्ता और नोआखली जैसे स्थानों पर भयावह खून खराबा हुआ। वे गांधी ही थे जो राजकाज को नेहरू और पटेल के हवाले कर, साम्प्रदायिकता की आग बुझाने के लिए अकेले ही निकल पड़े थे।
स्वाधीनता के बाद, कुछ वर्षों तक साम्प्रदायिकता का दानव सुप्तावस्था में रहा। सन् 1961 में उसने अपना सिर फिर उठाया और जबलपुर में साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। साम्प्रदायिक हिंसा की जड़ में है दूसरे के प्रति घृणा, जिसे संघ की शाखाओंए स्कूली पाठ्यपुस्तकों और मुंहजबानी प्रचार के जरिए हवा दी जाती है। इससे एक सामूहिक सामाजिक सोच उपजती है, जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति नकारात्मकता का भाव निहित होता है। दंगे शुरू करवाने के लिए कई तरीके विकसित कर लिए गए हैं। कभी मस्जिद में सुअर का मांस फेंक दिया जाता है तो कभी मंदिर में गौमांस कभी गौहत्या की अफवाह फैलाई जाती है तो कभी मस्जिदों के सामने बैंड बजाए जाते हैं। हमारी महिलाओं  के साथ दुव्र्यवहार की अफवाहए दंगें भड़काने के अचूक तरीकों में से एक है।
अब एक नया तरीका भी सामने आ रहा है। बाबरी मस्जिद पर अक्टूबर 1990 में कारसेवकों के हमले को रोकने के लिए पुलिस ने गोलियां चलाईं, जिसमें कई कारसेवक मारे गए। विहिप ने इन कारसेवकों की अस्थिकलश यात्रा निकाली और यह यात्रा जहां जहां से गुजरी, वहां.वहां खून खराबा हुआ। गोधरा में ट्रेन में आग लगने की घटना के बाद भी इसी तकनीक का इस्तेमाल किया गया। कारसेवकों के शव विहिप को सौंप दिए गए, जिसने उनका जुलूस निकाला। इस जुलूस से समाज में उन्माद भड़क उठा। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह हम सब अच्छी तरह से जानते हैं। आज भी हमारा समाज धार्मिक आधार पर बंटा हुआ है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास की खाई है। गुजरात जैसे कुछ प्रदेशों में यह खाई बहुत चौड़ी  और बहुत गहरी है।
अब हम कंधमाल की बात करें। स्वामी लक्ष्मणानंद मारे गए। इस बात से किसी को मतलब नहीं था कि उन्हें किसने मारा। विहिप ने उनके मृत शरीर का जुलूस निकाला। उसके बाद ईसाईयों के खिलाफ हिंसा शुरू हो गई। ठीक यही तकनीक पटना बम धमाकों के बाद इस्तेमाल में लाई गई। वहां अस्थिकलश यात्रा निकाली गई जो अलग.अलग रास्तों से निकली। क्या इसका उद्देश्य उन गरीब, निर्दोष लोगों को श्रद्धांजली देना था, जो बम धमाकों के शिकार बने?यदि ऐसा था तो फिर धमाकों में लोगों की मौत के बाद भी रैली जारी क्यों रही? उसे श्रद्धांजलि सभा में परिवर्तित क्यों नहीं किया गया? सच यह है कि इस नाटक का उद्देश्य समाज को धर्म के आधार पर बांटना था। सरदार पटेल ने देश को एक किया। भाजपा और उसके साथी देश को बांट रहे हैं। यहां संघ परिवार का दोगलापन एकदम साफ नजर आता है। वे सरदार की स्मृति को अक्षुण्ण रखना चाहते हैं। सरदार ने केवल राजे.रजवाडों का देश में विलय कराकर, देश को एक नहीं किया था। उन्होंने उस स्वाधीनता आंदोलन में असरदार भूमिका अदा की थी जो देश को एक करने वाला आंदोलन था। केवल राजे.रजवाड़ों को देश में मिला देने से देश एक नहीं हो जाता। वह तो देश के एकीकरण की प्रक्रिया का अंतिम चरण था। दूसरी ओरए पटेल के तथाकथित भक्त, अस्थिकलश यात्रा निकालकर समाज और देश को बांट रहे हैं। क्या हमारे राजनेता, सत्ता की अपनी लिप्सा को पूरा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं?
.-राम पुनियानी

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