जामिया अरबिया ज़ैनतुलइस्लाम, कैम्प, लोनी
8 सितम्बर 2013 से ही इस कैम्प में ज़िला बाग़पत, शामली, मुज़फ्फरनगर और अन्य 15 गाँवों से लोग आने शुरू हो गए थे। इस कैम्प में 3,500 शरणार्थी थे, लेकिन अब 800 शरणार्थी रह रहे हैं। कैम्प चन्दे से ही चल रहा है। सरकार की ओर से किसी प्रकार की कोई मदद नहीं मिल रही। सभी प्रबन्ध स्थानीय या आसपास के क्षेत्रों के लोग ही कर रहे हैं। प्रबन्धन कमैटी : बाबू कुरैशी, हाजी मुनव्वर, ज़ाकिर अली और राशिद आदि।
मुज़फ़्फ़रनगर के लाँक गाँव निवासी 18 वर्षीय रेशमा और उसके भाई राशिद ने हमें बताया कि दंगे का अंदाज़ा तो हो गया था मगर इतनी बड़ी तबाही का अंदाज़ा नहीं था। हमारे गाँव में 8 सितम्बर को दंगा हो गया था जिसमें हमारे चचा, अम्मी, अब्बा, भाई और दादा को मार दिया गया। हमारे घर पर रेशमा की शादी थी जिसका सारा सामान लूट लिया गया। किसी तरह हम अपनी छोटी बहनों को बचाकर भागने में कामयाब हुए। हमारा पूरा गाँव खंडहर बन गया है। कोई डर से गाँव वापस जाने को तैयार नहीं।
हटरोली गाँव के निवासी सलीम ने बताया कि हमारे गाँव के लोगों को बल्लम मारमार कर खत्म करके उनके घरों को जला दिया गया। गाँव की मस्जिद भी शहीद कर दी गई। मैं अपनी 80 साल की माँ को लेकर गन्ने के खेत में चला गया। सुबह होने के बाद पास के ही गाँव साठू चला गया।
मुज़फ़्फ़रनगर के थाना बु़ाना के गाँव इटावा के कयामुद्दीन ने बताया कि हमारे गाँव में मुसलमानों का कुल 150 मकान हैं। हमारे यहाँ दंगे से एक रात पहले हमारे ऊपर ईंटें बरसाई गइंर्। गाँव के जाटों की दो गाड़ियाँ भर कर महाकवाल में आयोजित महापंचायत में शामिल होने के लिए गइंर्। फ़िर जब हम फ़ज्र की नमाज़ के लिए निकलने लगे तो उन्होंने हमारी तलाशी लेनी शुरू कर दी और हमें गाँव छोड़ कर जाने से भी मना कर दिया। इसके बाद हम अपनी औरतों को लेकर चुपके से बाहर निकल गए। उन्होंने हमारे कुछ जानवर मार दिए और कुछ छीन कर ले गए। फिलहाल गाँव की क्या सूरत है इस बारे में हमें कुछ भी मालूम नहीं।
मुज़फ़्फ़रनगर के गाँव कुटबा में सबसे ज़्यादा हिंसा हुई। इसी गाँव की रहने वाली 21 वर्षीय शाकिरा ने बताया है कि कुटबा के प्रधान ने पहले तो हमें यक़ीन दिलाया कि हम यहाँ पर दंगा हरगिज नहीं होने देंगे। मगर वह खुद आ कर दंगाइयों के साथ शामिल हो गया और अचानक हमला कर दिया। हम किसी तरह अपनी जान बचाकर कर भाग निकले। मेरे दो बच्चे, जेठ, जेठानी और उनके बच्चों की अब तक कोई ख़बर नहीं है। हमारे पूरे गाँव को जला दिया गया। हमारी सारी भैसें लोग अपने कब्ज़े में ले चुके और हमारे घर की गाड़ी भी लुट चुकी।
क्रमश:
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
8 सितम्बर 2013 से ही इस कैम्प में ज़िला बाग़पत, शामली, मुज़फ्फरनगर और अन्य 15 गाँवों से लोग आने शुरू हो गए थे। इस कैम्प में 3,500 शरणार्थी थे, लेकिन अब 800 शरणार्थी रह रहे हैं। कैम्प चन्दे से ही चल रहा है। सरकार की ओर से किसी प्रकार की कोई मदद नहीं मिल रही। सभी प्रबन्ध स्थानीय या आसपास के क्षेत्रों के लोग ही कर रहे हैं। प्रबन्धन कमैटी : बाबू कुरैशी, हाजी मुनव्वर, ज़ाकिर अली और राशिद आदि।
मुज़फ़्फ़रनगर के लाँक गाँव निवासी 18 वर्षीय रेशमा और उसके भाई राशिद ने हमें बताया कि दंगे का अंदाज़ा तो हो गया था मगर इतनी बड़ी तबाही का अंदाज़ा नहीं था। हमारे गाँव में 8 सितम्बर को दंगा हो गया था जिसमें हमारे चचा, अम्मी, अब्बा, भाई और दादा को मार दिया गया। हमारे घर पर रेशमा की शादी थी जिसका सारा सामान लूट लिया गया। किसी तरह हम अपनी छोटी बहनों को बचाकर भागने में कामयाब हुए। हमारा पूरा गाँव खंडहर बन गया है। कोई डर से गाँव वापस जाने को तैयार नहीं।
हटरोली गाँव के निवासी सलीम ने बताया कि हमारे गाँव के लोगों को बल्लम मारमार कर खत्म करके उनके घरों को जला दिया गया। गाँव की मस्जिद भी शहीद कर दी गई। मैं अपनी 80 साल की माँ को लेकर गन्ने के खेत में चला गया। सुबह होने के बाद पास के ही गाँव साठू चला गया।
मुज़फ़्फ़रनगर के थाना बु़ाना के गाँव इटावा के कयामुद्दीन ने बताया कि हमारे गाँव में मुसलमानों का कुल 150 मकान हैं। हमारे यहाँ दंगे से एक रात पहले हमारे ऊपर ईंटें बरसाई गइंर्। गाँव के जाटों की दो गाड़ियाँ भर कर महाकवाल में आयोजित महापंचायत में शामिल होने के लिए गइंर्। फ़िर जब हम फ़ज्र की नमाज़ के लिए निकलने लगे तो उन्होंने हमारी तलाशी लेनी शुरू कर दी और हमें गाँव छोड़ कर जाने से भी मना कर दिया। इसके बाद हम अपनी औरतों को लेकर चुपके से बाहर निकल गए। उन्होंने हमारे कुछ जानवर मार दिए और कुछ छीन कर ले गए। फिलहाल गाँव की क्या सूरत है इस बारे में हमें कुछ भी मालूम नहीं।
मुज़फ़्फ़रनगर के गाँव कुटबा में सबसे ज़्यादा हिंसा हुई। इसी गाँव की रहने वाली 21 वर्षीय शाकिरा ने बताया है कि कुटबा के प्रधान ने पहले तो हमें यक़ीन दिलाया कि हम यहाँ पर दंगा हरगिज नहीं होने देंगे। मगर वह खुद आ कर दंगाइयों के साथ शामिल हो गया और अचानक हमला कर दिया। हम किसी तरह अपनी जान बचाकर कर भाग निकले। मेरे दो बच्चे, जेठ, जेठानी और उनके बच्चों की अब तक कोई ख़बर नहीं है। हमारे पूरे गाँव को जला दिया गया। हमारी सारी भैसें लोग अपने कब्ज़े में ले चुके और हमारे घर की गाड़ी भी लुट चुकी।
-डा0 मोहम्मद आरिफ
क्रमश:
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
1 टिप्पणी:
अखिलेश सरकार की नाकामी और संवेदन हीनता है |
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