शनिवार, 14 दिसंबर 2013

मुज़़फ्फरनगर का सांप्रदायिक दंगा - भाग-5

                                                                      ईदगाह कैम्प, कांधला

इस कैम्प में 80009000 दंगा पीड़ित शरणार्थी हैं। इसके अलावा मुस्तफ़ाबाद कैम्प में 500, इस्माईल कैम्प में 800 और बिजलीघर कैम्प में 2500 शरणार्थी इस समय रह रहे हैं। सभी कैम्प मुस्लिम समुदाय के द्वारा लगाए गए हैं। इन कैम्पों में न पानी की सप्लाई और न ही टायलेट का कोई प्रबन्ध सरकार की ओर से किया गया है। 810 दिन के बाद राशन सरकार की ओर से आता है, लेकिन जितनी ज़रूरत होती है उसका सिफ़र 10 प्रतिशत राशन आता है, जो कि पूरा नहीं हो पाता है। प्रबन्धन कमेटी : मौलाना अरशद, हाजी सलीम, इस्तिखार और मौलाना राशिद आदि।
ईदगाह कैम्प में हमारी बात गाँव लिसा़ निवासी यासीन से हुई। वे कहते हैं, ’’मेरी बीवी के पेट में बच्चा था, लात मारकर खत्म कर दिया गया। मुझे पता नहीं वह बच्ची थी या बच्चा। किसी के तबल मार दिया। एक नब्बे साल के वृद्ध को ज़िंदा जला दिया। उसे क्यों मारा? वह तो चार दिन रोटी न मिलती तो खुद ही मर जाता। ये क्या था कि हमारे बच्चों और बुजु़र्गो को हमारी ही नज़रों के सामने क़त्ल कर दिया गया। उनकी आवाज़ में दर्द था सब कुछ खो देने का। अपनी बात को जारी रखते हुए उन्होंने हमें बताया कि हमें सोतेसोते रात को अपने घरों को छोड़कर भागना पड़ा। बस ये ही आवाज़ आ रही थी कि ’’मार डालो’’ ’’लगा दो आग इनमें’’ ’’पकड़ो इन्हें भागने न पाएँ’’ आदि। हमारे घरों में आग लगा दी। भले ही मेरा घर बच गया हो, लेकिन वह मेरा कहाँ रह गया। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि अपने घर को अपना कह दूँ। ये कह दूँ कि ये मेरा घर है, मेरा गाँव है, क्यों छीन लिया मेरा अधिकार, मेरी नागरिकता? बस इतना बता दो?’’
सिम्भालका निवासी रुख़साना ने बताया 8 सितम्बर की सुबह जाट समुदाय के लोगों ने हमारे घर पर हमला बोला। उनके हाथों में हथियार थे। उन्होंने गड़ासे से गला काटकर मेरे ससुर हमीद की हत्या कर दी। घर का सब सामान लूट लिया गया और घर को आग लगा दी। हम किसी तरह अपनी जान बचाकर वहाँ से निकले।
लिसा़ निवासी भूरो ने बताया कि 8 सितम्बर की ही सुबह 8:30 बजे दंगाइयों ने हमारे घर पर हमला किया उनके हाथों में गड़ासे, तलवारें और डीज़ल था। उन्होंने सबसे पहले मेरी सास और ससुर हकीमु को गड़ासे से काट दिया और फिर उन पर तेल डालकर आग लगा दी। सब सामान और नकदी लूट कर घर को जला दिया।
इसी क्षेत्र के एक दलित कार्यकर्ता ने हमें बताया, ’’बाबरी मस्जिद के गिराए जाने के बाद 1992 में चरम साम्प्रदायिक तनाव के समय भी राज्य स्तर पर सेना नहीबुलानी पड़ी थी। साम्प्रदायिक तनाव के समय पहली बार यहाँ सेना को बुलाना पड़ा।’’ इसका अर्थ है कि राज्य सरकार को लगता है कि स्थानीय पुलिस और पी.ए.सी. की जगह किसी और की ज़रुरत है। राज्य सरकार को स्थाीनय पुलिस और पी.ए.सी. पर भरोसा नहीं है। ताज़ा हिंसा में मारे गए और लापता लोगों के आँकड़ों की तुलना करें तो दोनो में बहुत अंतर है। आधिकारिक तौर पर 5060 मरे हैं, सैंकड़ों लापता हैं। हमें पता है कि लापता कौन लोग हैं और कहाँ हैं।
राजकुमार के अनुसार, ’’ हालिया तनाव जाटों और मुसलमानों के बीच है, दूसरे समुदाय चुपचाप बैठे हैं और तमाशा देख रहे हैं। मुसलमानों को उनकी औक़ात दिखाने की सोच हावी है। पहले यह शहरी इलाके में होता था, अब गाँव के इलाकों में हिंसा फैलने से पता चलता है कि ये भावना हमारी सोच से ज़्यादा गहरी होती जा रही है।’’
वहीं पर हमारी बात नसरुद्दीन पुत्र कमालुद्दीन से हुई उन्होंने हमें बताया कि हमारे बच्चों को मार दिया गया। घरों से सारा माल और दौलत लूट लिया गया और हमारी बेटियों के साथ शर्मनाक खेल खेला गया। जिसको बयान करना मुश्किल है। अभी तक एफ़.आई.आर. दर्ज नहीं हुई।
इसके बाद गाँव बहावड़ी निवासी शमशाद, फ़ैज़ान, अयूब, सद्दाम, कादिर और शाहबाज़ ने हमें बताया कि रविवार की रात दंगाइयों ने उनके मकानों में आग लगा दी। किसी तरह जान बचाकर जंगल के रास्ते बाहर निकले ओर वहाँ से शामली अस्पताल पहुँचे। उनके परिवार से दिलशाद नाम का एक लड़का लापता है।
-डा0 मोहम्मद आरिफ




क्रमश:
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित

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