आरगम -सांस्कृतिक मंच नही यह एक लोक जनान्दोलन, सांस्कृतिक आन्दोलन की धारा है
आरगम 2013 एक नया संकल्प --- लोक जन आन्दोलन , जन संस्कृति , लोक रंग , लोक भाषा का
ठेढ़े - मेढ़े कंकरीले , पथरीले जमीन पर लोक रंग , लोक नाट्य जैसी विलुप्त होतो विविध कलाओं को सहेजने के साथ ही भारतीय रंग पटल पर एक जन आन्दोलन , सांस्कृतिक आन्दोलन को दिशा और दशा देते हुए अबाध गति से '' सूत्रधार '' विगत दस वर्षो से सक्रिय लोक नाट्य व लोक रंग आन्दोलन के क्रम में '' आरगम '' 2013 ने स्त्री विमर्श पर प्रश्न खड़ा करने में सफल रहा है |
संस्कृति के आलोक को अपने चतुर्दिक प्रकाश फैलाता , घुमक्कड़ शास्त्र के रचयिता महा पंडित राहुल सांकृत्यायन , उर्दू - फ़ारसी अदब के तवारीख अल्लामा शिब्ली नोमानी , नुरजहा जैसा महाकाव्य के प्रणेता गुरु भक्त सिंह भक्त , प्रथम खड़ी बोली के महाकाव्य '' प्रिय प्रवास '' के सर्जक के नाम पर स्थापित '' सांस्कृतिक आन्दोलन '' के गौरवशाली इतिहास को अपने पन्नो पर दर्ज करता हुआ निरंतर जन आन्दोलन को प्रवाह देने वाला खण्डहर होता हरिऔध कला भवन के प्रागण में ''बाजारवादी -- उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्द लोक संस्कृति के विस्तार को गति देता '' आरगम '' का बसाया कला ग्राम बहुत से अनछुए प्रश्न भी छोड़ गया |
भारतवर्ष में प्रत्येक प्रदेश की अपनी सांस्कृतिक -- सामाजिक विशेषताए है जो मुख्यत: वहा के लोक - संगीत - लोक नाट्य के माध्यम से व्यक्त होती है |
परम्परा के प्रवाह में गतिशील लोक संगीत - लोक नाट्य से ही उस क्षेत्र -- विशेष की राष्ट्रीय - अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनती है | ये लोक विधाए ही किसी सर्जक हाथो में सवकर शास्त्रीय विधाओं का आकार ग्रहण कर लेती है |
यह एक बड़ी सच्चाई है कि लोक संगीत ही शास्त्रीय संगीत का प्रेरणा दाई आधारभूत उपादान है |
विद्यापति की पदावली लोक भाषा तथा लोक संगीत में रची - पगी है - जिससे वे मैथिल कोकिल बने |
जयदेव के गीत -- गोविन्द में भी लोक गीतों जैसी सहजता , मधूरता तथा लयात्मकता है | कबीर - सुर - तुलसी - मीरा - सभी के गीतों पर लोक शैली की स्पष्ट छाप विद्यमान है |
उत्तर प्रदेश में लोक कलाओ और लोक संगीत के अमूल्य धरोहर विद्यमान है |
भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है कविवर सुमित्रा नन्दन पन्त के शब्दों में '' भारतमाता ग्रामवासिनी '' है | दूसरे शब्दों में भारत की आत्मा गाँवों में बसती है |
उसका हृदय स्पन्दन गाँवों में धडकता है | उसकी उदात्त भावनाओं और उसके हर्षोउल्लास , आशाओं , आकक्षाओ के स्वर ग्राम वासियों के कोटि - कोटि कंठो से मुखरित होते है और इसी से जन्म होता है ''हमारी लोक कला और लोक संस्कृति का '' |
बाजारवादी संस्कृति के पश्चात लोगो में गाँवो से शहरों की ओर पलायन की प्रवृत्ति बढ़ी है और एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गाँवों से पूरी तरह कट गया है |
नगरो की ओर पलायन पर अंकुश लगाकर गाँवों के खुशाहली और सुख समृद्दी का पथ प्रशस्त करने के लिए गाँवों में पुष्पित और पल्लवित होने वाली लोक कलाओं और लोक संस्कृति के प्रति लोगो के अभिरुचि पुन: जागृत करने और अपनी इस विरासत को अधिक समृद्द बनाने के इस आन्दोलन में आरगम 2013 के लोक संस्कृति - लोक नाट्य भारत की आधी आबादी '' नारी '' पर समर्पित रहा |
चार दिनों के आरगम में प्रति दिन दो सत्र में बाटागया था पहला सत्र लोकसंगीत , लोकनृत्य व दूसरा सत्र नारी पर समर्पित और नारी शोषण पर आधारित विषय पर नाटको का मंचन - आरगम का प्रथम दिन के प्रथम सत्र में उदघाटन के पश्चात अपनी माटी के संस्कारो के साथ विरह की वेदना समेटे विरहा से इसकी शुरुआत हुई उसके बाद लोकपरम्परा में विलुप्त होती धोबिया व जाघिया नृत्य के गीतों ने आम जनमानस को एक बार फिर उसी पुरानी अपनी लोक शैली को उनके सामने जीवंत बना दिया और वो महसूस करते रहे हम किसी शहर में नही हम गाँव के किसी अमराई तले बैठे अपनी पुरानी मान्यताओं को देख रहे है | दूसरे सत्र में अभिषेक पंडित कृत व निर्देशित नाटक '' नजर लागी रामा '' का मंचन हुआ |
समय समाज के मूल्याकन में सांस्कृतिक स्थिति महत्वपूर्ण होती है इसमें बिखराव या संगठन पर इंसानी जेहन का अंदाजा किया जा सकता है आज की समस्या है कि इंसानों के व्यवहार का भरोसा टूट रहा है | वह स्टाक एक्सचेंज की तरह त्वरित लाभ - हानि के आकलन में गिरता उठता है ऐसे ही समस्याओ के प्रति संकेत करता नाटक '' नजर लागी रामा '' में निर्देशक ने ब्रेख्तियन शैली का प्रयोग बड़ी खूबसूरती से किया है | इसका मूल कथानक लोक कथा पर आधारित है वो कथा आज भी समाज में प्रासंगिक है एक चरवाहा अपनी पत्नी के लिए रजा के महल में घुसकर रानी के आभूषण चरता है | पर रानी की विद्वता पर वो चरवाहा मोहित हो जाता है उसके बाद अपनी पत्नी की मुर्खता पर उसे गुस्सा आता है वो पुन: राजा के दरबार में जाकर उन आभुष्ण को लौटाता है अंत में राजा चरवाहे को मौत की सजा सुनाता है | राजा की भूमिका में अरविन्द चौरसिया ने सहज अभिनय किया रानी के भूमिका में मनन पाण्डेय ने सार्थक भूमिका करके दर्शको का मन मोह लिया चरवाहा और उसकी पत्नी की भूमिका में हरिकेश मौर्या व अंकित सिंह थे नाटक अपनी प्रस्तुती में अपने प्रश्नों को दर्शको के सामने छोड़ने में सफल रहा इसका संगीत पक्ष बहुत प्रभावशाली रहा इस पक्ष को अंकित सिंह ' सनी ने सम्भाला था |
राजस्थान की माटी की सुगंध बिखेरी वहा के लोक कलाकारों ने कालबेलिया नृत्य के द्वारा उन्होंने खत्म हो रही हमारी पुरानी लोक परम्पराओं को जहा गीतों के माध्यम से प्रदर्शित किया वही अपने करतब से लोगो को आश्चर्य चकित कर दिया इसके साथ ही परदेशी बालम पधारो मारो देश के बोल के जरिये भारत की अपनी स्वागत की संस्कृति का बोध कराया आरगम का दूसरा दिन पहला सत्र संगोष्ठी '' आज की औरत और उसकी चुनौतिया '' के बाद मराठी लोक नृत्य व कौमी एकता पर नृत्य नाटिका के साथ ही हमारे हरियाणा से आये लोक कलाकारों ने हरियाणवी लोक कला के माध्यम से यह बताया कि हम अपनी परम्पराव , मान्यताओं को नही बदल सकते है उनको साथ लेकर हम आधुनिकता के साथ कदम से कदम मिलाकर चलेंगे पर हमारी संस्कृति ही हमारी पहचान है वही हमारा अस्तित्व है दूसरे सत्र में पटना की '' कला संगम '' द्वारा भीष्म साहनी की कहानी पर आधारित '' साग - मीट '' नाटक की चर्चा करते - करते एक महिला अपनी पड़ोसन को अपने नौकर '' जग्गा '' के बारे में बताती है जग्गा बचपन से ही उसके यहाँ नौकर था बहुत ईमानदार , सीधा और मेहनती बड़ा होकर वह शादी करके अपनी पत्नी के साथ ही रहता है , दोनों इस घर की सेवा करते है , घर का मालिक किसी दफ्तर का बड़ा अफसर है मालिक का भाई ' जग्गा ' की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उसकी पत्नी का योंन शोषण करता है , यह बात जब महिला को पता चलता है तो वह अपने पति से यह बात बताना चाहती है इसी बीच जग्गा मालिक के भाई को एक दिन अचानक अपनी कोठरी से निकलते देख लेता है यह घटना भी वो घर कि मालकिन अपनी आखो से देख लेती है वह फिर वह तय करती है कि वो अपने पति से इस घटना की चर्चा करेगी लेकिन इसी बीच जग्गा आत्महत्या कर लेता है , पुलिस को आत्महत्या के बारे में कुछ सुराग नही मिल पाता है और मामला रफा - दफा हो जाता है एक दिन वह अपने पति से सारी घटना का जिक्र करती है परन्तु अपने पति के मुह से यह जाकर कि उसे पहले सी ही सारी बातो का पता है वह अवाक रह जाती है मालिक जग्गा के घर के लोगो को पैसा देता है वह यह सोचता है कि कुछ पैसे दे देने से गरीबो का मुह बंद हो जाता है | निर्देशक ने बड़ी ही बारीकी से महानगरो के अपसंस्कृति की ओर इशारा करते हुए यह बताने के कोशिश की है कि किस तरह ये नव धनाढ्य वर्ग आज भी नारी का शोषण करते चले आ रहे है | मोना झा ने अपने एकल अभिनय से सारे पात्रो को जीवंत बना दिया '' साग मीट '' दर्शको के समक्ष बड़ा सवाल छोड़ गया
आरगम का तीसरा दिन '' इस बार आरगम ने एक नया प्रयोग किया गया जिसमे हमारे भारतीय वाद्ययंत्रो का शास्त्रीय पक्ष भी लोगो के बीच लाने का प्रयास किया गया | एकल शहनाई ,, पखावज , तबला सितार बासुरी वादन के जरिये इस एकल कलाकारों ने आरगम के पूरे बौद्दिक समाज को अपने इस फन से बाधे रखा | पंजतन ने शहनाई से जब अपनी मधुर तान छेड़ी तो अनायास ही बिस्मिल्ला खा साहब याद आ गये |तबले ने भी अपनी थाप से लोगो को मोहित किया | अजय सिंह ने अपने बासुरी के स्वर से राधे कृष्ण के याद दिला दी दूसरा सत्र भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर को समर्पित था | बताते चले भिखारी ठाकुर अपने जीवन काल में ही ( भोजपुरी समाज के मिथक बन चुके थे ) पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की लोक संस्कृति के पहचान भिखारी ठाकुर से होती है उनके बिना भोजपुरी -- भाषी समाज की कल्पना असम्भव है | भिखारी ठाकुर उस दौर के उपज थे जब राजनीति के साथ आर्थिक विषमताओ और सामन्ती संस्कृति से जकड़े ग्रामीण समाज में एक तीव्र बेचैनी और छटपटाहट थी | उसी को भिखारी ठाकुर ने अपने गीतों और नाटको में रेखांकित किया है |
संकल्प बलिया की प्रस्तुति -- भिखारी ठाकुर की अमर कृति
'' गबरघिचोर'' , रोजगार के अभाव में युवाओं का गांव से शहर की ओर पलायन व स्त्रीसंघर्ष का जीवंत दस्तावेज है। गलीज नाम का पात्र अपनी पत्नी को छोड़कर शहर कमाने चला जाता है इधर ऊसकी पत्नी का गांव के एक युवक गलीज से संबंध हो जाता है जिससे उसको एक लड़का होता है जिसका नाम है गबरघिचोर । जब गलीज को इस बात का पता चलता है तो वह लड़के को ले जाने के लीए गांव आता है । लड़के को लेकर पत्नी से लड़ाई होती है तब तक गड़बड़ी आ जाता है और कहता है कि लड़का हमारा है तीनों में झगड़ होता है । लड़का किसका है इस बात का फैसला करने के लिए पंच को बुलाया जाता है पहले तो लालच में फंस कर पंच बेतुका फैसला दैता है कि लड़के को तीन टुकड़े में काट कर तीनों में बांट दिया जाय , यह फैसला सुनकर मां बिलख पड़ती है तब पंच का विवेक जागता है और वह फैसला सुनाता है कि वास्तव में लड़के पर मां का हक है जिसने इसे नौ माह तक अपने गर्भ में रखा और पैदा होने पर उसे पाल पोसकर बड़ा किया । इस तरह एक महिला संघर्ष करके जीतती है । इस पूरे नाटक में आज भी स्त्री पर हो रहे अनाचार को उद्घाटित करके दर्शको के मन मष्तिष्क को झकझोरने का काम किया
पंच की भुमिका रेनू सिंह , ने सार्थक अभिनय से दर्शको को सोचने पर मजबूर कर दिया | इसके साथ ही अन्य पात्रो ने भी अच्छा अभिनय किया नाटक का संगीत पक्ष बहुत ही मजबूत रहा जिससे नाटक के सम्प्रेषण को दर्शको तक पहुचाने में निर्देशक कामयाब रहा संगीत, गायन- ओम प्रकाश , सोनू । संगीत निर्देशन-शैलेन्द्र मिश्र ,इसका निर्देशन -रेनू सिंह . मंच परिकल्पऩा व निर्देशकीय सहयोग-आशीष त्रिवेदी ।
आरगम का आखरी दिन आजमगढ़ के एक मस्त मौला फकीर पेशे से दर्जी '' हादी आजमी '' के उन दर्द भरे नज्मो से कार्यक्रम की शुरुआत हुई जिसमे उन्होंने आम आदमी होने के दर्द को बया किया है और इसको अपना स्वर दिया पंडित विनम्र शुक्ल ने उनके रिदम ये एहसास दिला दिए हादी आजमी के उस दर्द को जो उन्होंने अपने नज्मो में उकेरी है | इसके साथ ही आजमगढ़ से उभरता एक सितारा अंकित सिंह '' सनी '' जो गजल , गीत हो या शास्त्रीय संगीत का ठुमरी हो , दादरा हो उसने अपने गायकी से यह सिद्द कर दिया कि वो आने वाले कल का बेहतरीन सितारा है \ लोक रंग के इस आखरी शाम को '' इन्द्रवती नाट्य समिति '' सीधी मध्य प्रदेश की प्रस्तुती नाटक '' स्वेच्छा '' स्वेच्छा एक ऐसी लडकी की कथा है जो लगातार अपने अस्तित्व के तलाश में संघर्षशील है | लडकी का बचपन तरह - तरह के चरित्रों को महसूस करता है उन्हें समझते या उनका रूप ग्रहण करते बीतता है यह बात और है कि इन दिनों वो अपनी मर्जी का ऐसा कुछ भी नही कर पाती लेकिन कही न कही उसके आगामी जीवन पर उन चरित्रों का गहरा प्रभाव पडा है | अब वो बड़ी हो गयी है उसके सारे बचपन के दिनों के कोमल चरित्र अब बड़े हो गये है वो तमाम दुनियावी उतार -- चढाव से वाफिक होने लगे है यह बात अब माँ बाप को ठीक नही लगती है लेकिन स्वेच्छा के चरित्र बुनने और उनके बीच रहना ही अच्छा लगता है स्वेच्छा सूरज की पहली किरण लाल अरुण के यात्रा से शुरू होकर अस्त होते सूरज तक का सफर है | सफर वो जो कभी न खत्म न हो अनंत के ओर उन्मुख हो जिसकी पैदाइश ही प्रेम हो | कुछ ऐसे ही विचारधारा और चाहत को प्रगट करती है श्वेच्छा | यू तो आदमी वास्तविक जीवन में हजारो चरित्रों को जीता रहता है | लेकिन जब इन चरित्रों के मध्य जिन्दगी जीने की बात आती है इन्ही चरित्रों के साथ सपने देखने की बात आती है तो हम कतराते है तब हमे रंगों से और रंगो में शामिल चरित्रों से उबन होने लगती है और न जाने किस जीवन दर्शन में डूबने उतराने लगते है |
जहा शब्दों के मायने बदल जाते है | जरा सोचे क्या हम नन्ही मासूम शक्लो को गुमराह नही कर रहे होते ऐसी स्थिति में सब कुछ अधूरा रह जाता है विशाल अधूरापन मुहँ फैलाए खड़ा होता है हमारा अस्तित्व लीलने को और हम बची -- खुची जिन्दगी न चाहते हुए भी जीते चले जाते है | घिसटते चले जाते है अनायास ही मौत के मुहाने तक इस नाटक को निर्देशक ने अपने सम्पूर्ण कला दर्शन के जरिये एक मूर्त रूप में आकृति सिंह के जरिये साकार किया इस छोटी सी कलाकार ने अपने शानदार अभिनय से इस पुरे कथानक को साकार स्वरूप देकर दर्शको को निशब्द: बाधे रखा यही उसकी बहुत बड़ी सफलता रही | नाटक का निर्देशन व संगीत निर्देशन नरेन्द्र बहादुर सिंह ने किया था वो अपने नाटक के माध्यम से आज के समय की त्रासदी को बखूबी कह गये | इन चार दिनों के कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ रंगकर्मी व स्वतंत्र पत्रकार , समीक्षक एस . के दत्ता ने सफलता पूर्वक सम्पन्न किया | कार्यक्रम के अंत में समाज के विभिन्न क्षेत्रो में कार्य करने वालो को सम्मानित किया गया | वर्ष 2013 आरगम के सयोजक ममता पंडित ने अपने कुशल संचालन से इसे सफलता की दिशा दी ,इसके साथ ही सूत्रधार संस्था के अध्यक्ष डा सी के त्यागी , सचिव अभिषेक पंडित , व डा बद्रीनाथ , डॉ स्वस्ति सिंह , श्रीमती विनीता श्रीवास्तव , प्रवीन सिंह , नित्यानंद मिश्र , दीप नारायण , मनीष तिवारी जनहित इंडिया के सम्पादक मदन मोहन पाण्डेय और साथ के सभी रंगकर्मीयो के समर्पण से ही यह जन आदोलन , रंग आन्दोलन निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है |
अश्वघोष की इन पक्तियों के साथ --------
अभी तो लड़ना है तब तक
जब तक मायूस रहेंगे फूल
तितलियों को नहीं मिलेगा हक़
जब तक अपनी जड़ों में नहीं लौटेंगे पेड़..........................
-- सुनील दत्ता --- स्वतंत्र पत्रकार ए समीक्षक
आरगम 2013 एक नया संकल्प --- लोक जन आन्दोलन , जन संस्कृति , लोक रंग , लोक भाषा का
ठेढ़े - मेढ़े कंकरीले , पथरीले जमीन पर लोक रंग , लोक नाट्य जैसी विलुप्त होतो विविध कलाओं को सहेजने के साथ ही भारतीय रंग पटल पर एक जन आन्दोलन , सांस्कृतिक आन्दोलन को दिशा और दशा देते हुए अबाध गति से '' सूत्रधार '' विगत दस वर्षो से सक्रिय लोक नाट्य व लोक रंग आन्दोलन के क्रम में '' आरगम '' 2013 ने स्त्री विमर्श पर प्रश्न खड़ा करने में सफल रहा है |
संस्कृति के आलोक को अपने चतुर्दिक प्रकाश फैलाता , घुमक्कड़ शास्त्र के रचयिता महा पंडित राहुल सांकृत्यायन , उर्दू - फ़ारसी अदब के तवारीख अल्लामा शिब्ली नोमानी , नुरजहा जैसा महाकाव्य के प्रणेता गुरु भक्त सिंह भक्त , प्रथम खड़ी बोली के महाकाव्य '' प्रिय प्रवास '' के सर्जक के नाम पर स्थापित '' सांस्कृतिक आन्दोलन '' के गौरवशाली इतिहास को अपने पन्नो पर दर्ज करता हुआ निरंतर जन आन्दोलन को प्रवाह देने वाला खण्डहर होता हरिऔध कला भवन के प्रागण में ''बाजारवादी -- उपभोक्तावादी संस्कृति के विरुद्द लोक संस्कृति के विस्तार को गति देता '' आरगम '' का बसाया कला ग्राम बहुत से अनछुए प्रश्न भी छोड़ गया |
भारतवर्ष में प्रत्येक प्रदेश की अपनी सांस्कृतिक -- सामाजिक विशेषताए है जो मुख्यत: वहा के लोक - संगीत - लोक नाट्य के माध्यम से व्यक्त होती है |
परम्परा के प्रवाह में गतिशील लोक संगीत - लोक नाट्य से ही उस क्षेत्र -- विशेष की राष्ट्रीय - अन्तराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनती है | ये लोक विधाए ही किसी सर्जक हाथो में सवकर शास्त्रीय विधाओं का आकार ग्रहण कर लेती है |
यह एक बड़ी सच्चाई है कि लोक संगीत ही शास्त्रीय संगीत का प्रेरणा दाई आधारभूत उपादान है |
विद्यापति की पदावली लोक भाषा तथा लोक संगीत में रची - पगी है - जिससे वे मैथिल कोकिल बने |
जयदेव के गीत -- गोविन्द में भी लोक गीतों जैसी सहजता , मधूरता तथा लयात्मकता है | कबीर - सुर - तुलसी - मीरा - सभी के गीतों पर लोक शैली की स्पष्ट छाप विद्यमान है |
उत्तर प्रदेश में लोक कलाओ और लोक संगीत के अमूल्य धरोहर विद्यमान है |
भारत की अस्सी प्रतिशत आबादी गाँवों में रहती है कविवर सुमित्रा नन्दन पन्त के शब्दों में '' भारतमाता ग्रामवासिनी '' है | दूसरे शब्दों में भारत की आत्मा गाँवों में बसती है |
उसका हृदय स्पन्दन गाँवों में धडकता है | उसकी उदात्त भावनाओं और उसके हर्षोउल्लास , आशाओं , आकक्षाओ के स्वर ग्राम वासियों के कोटि - कोटि कंठो से मुखरित होते है और इसी से जन्म होता है ''हमारी लोक कला और लोक संस्कृति का '' |
बाजारवादी संस्कृति के पश्चात लोगो में गाँवो से शहरों की ओर पलायन की प्रवृत्ति बढ़ी है और एक ऐसे वर्ग का उदय हुआ है जो गाँवों से पूरी तरह कट गया है |
नगरो की ओर पलायन पर अंकुश लगाकर गाँवों के खुशाहली और सुख समृद्दी का पथ प्रशस्त करने के लिए गाँवों में पुष्पित और पल्लवित होने वाली लोक कलाओं और लोक संस्कृति के प्रति लोगो के अभिरुचि पुन: जागृत करने और अपनी इस विरासत को अधिक समृद्द बनाने के इस आन्दोलन में आरगम 2013 के लोक संस्कृति - लोक नाट्य भारत की आधी आबादी '' नारी '' पर समर्पित रहा |
चार दिनों के आरगम में प्रति दिन दो सत्र में बाटागया था पहला सत्र लोकसंगीत , लोकनृत्य व दूसरा सत्र नारी पर समर्पित और नारी शोषण पर आधारित विषय पर नाटको का मंचन - आरगम का प्रथम दिन के प्रथम सत्र में उदघाटन के पश्चात अपनी माटी के संस्कारो के साथ विरह की वेदना समेटे विरहा से इसकी शुरुआत हुई उसके बाद लोकपरम्परा में विलुप्त होती धोबिया व जाघिया नृत्य के गीतों ने आम जनमानस को एक बार फिर उसी पुरानी अपनी लोक शैली को उनके सामने जीवंत बना दिया और वो महसूस करते रहे हम किसी शहर में नही हम गाँव के किसी अमराई तले बैठे अपनी पुरानी मान्यताओं को देख रहे है | दूसरे सत्र में अभिषेक पंडित कृत व निर्देशित नाटक '' नजर लागी रामा '' का मंचन हुआ |
समय समाज के मूल्याकन में सांस्कृतिक स्थिति महत्वपूर्ण होती है इसमें बिखराव या संगठन पर इंसानी जेहन का अंदाजा किया जा सकता है आज की समस्या है कि इंसानों के व्यवहार का भरोसा टूट रहा है | वह स्टाक एक्सचेंज की तरह त्वरित लाभ - हानि के आकलन में गिरता उठता है ऐसे ही समस्याओ के प्रति संकेत करता नाटक '' नजर लागी रामा '' में निर्देशक ने ब्रेख्तियन शैली का प्रयोग बड़ी खूबसूरती से किया है | इसका मूल कथानक लोक कथा पर आधारित है वो कथा आज भी समाज में प्रासंगिक है एक चरवाहा अपनी पत्नी के लिए रजा के महल में घुसकर रानी के आभूषण चरता है | पर रानी की विद्वता पर वो चरवाहा मोहित हो जाता है उसके बाद अपनी पत्नी की मुर्खता पर उसे गुस्सा आता है वो पुन: राजा के दरबार में जाकर उन आभुष्ण को लौटाता है अंत में राजा चरवाहे को मौत की सजा सुनाता है | राजा की भूमिका में अरविन्द चौरसिया ने सहज अभिनय किया रानी के भूमिका में मनन पाण्डेय ने सार्थक भूमिका करके दर्शको का मन मोह लिया चरवाहा और उसकी पत्नी की भूमिका में हरिकेश मौर्या व अंकित सिंह थे नाटक अपनी प्रस्तुती में अपने प्रश्नों को दर्शको के सामने छोड़ने में सफल रहा इसका संगीत पक्ष बहुत प्रभावशाली रहा इस पक्ष को अंकित सिंह ' सनी ने सम्भाला था |
राजस्थान की माटी की सुगंध बिखेरी वहा के लोक कलाकारों ने कालबेलिया नृत्य के द्वारा उन्होंने खत्म हो रही हमारी पुरानी लोक परम्पराओं को जहा गीतों के माध्यम से प्रदर्शित किया वही अपने करतब से लोगो को आश्चर्य चकित कर दिया इसके साथ ही परदेशी बालम पधारो मारो देश के बोल के जरिये भारत की अपनी स्वागत की संस्कृति का बोध कराया आरगम का दूसरा दिन पहला सत्र संगोष्ठी '' आज की औरत और उसकी चुनौतिया '' के बाद मराठी लोक नृत्य व कौमी एकता पर नृत्य नाटिका के साथ ही हमारे हरियाणा से आये लोक कलाकारों ने हरियाणवी लोक कला के माध्यम से यह बताया कि हम अपनी परम्पराव , मान्यताओं को नही बदल सकते है उनको साथ लेकर हम आधुनिकता के साथ कदम से कदम मिलाकर चलेंगे पर हमारी संस्कृति ही हमारी पहचान है वही हमारा अस्तित्व है दूसरे सत्र में पटना की '' कला संगम '' द्वारा भीष्म साहनी की कहानी पर आधारित '' साग - मीट '' नाटक की चर्चा करते - करते एक महिला अपनी पड़ोसन को अपने नौकर '' जग्गा '' के बारे में बताती है जग्गा बचपन से ही उसके यहाँ नौकर था बहुत ईमानदार , सीधा और मेहनती बड़ा होकर वह शादी करके अपनी पत्नी के साथ ही रहता है , दोनों इस घर की सेवा करते है , घर का मालिक किसी दफ्तर का बड़ा अफसर है मालिक का भाई ' जग्गा ' की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उसकी पत्नी का योंन शोषण करता है , यह बात जब महिला को पता चलता है तो वह अपने पति से यह बात बताना चाहती है इसी बीच जग्गा मालिक के भाई को एक दिन अचानक अपनी कोठरी से निकलते देख लेता है यह घटना भी वो घर कि मालकिन अपनी आखो से देख लेती है वह फिर वह तय करती है कि वो अपने पति से इस घटना की चर्चा करेगी लेकिन इसी बीच जग्गा आत्महत्या कर लेता है , पुलिस को आत्महत्या के बारे में कुछ सुराग नही मिल पाता है और मामला रफा - दफा हो जाता है एक दिन वह अपने पति से सारी घटना का जिक्र करती है परन्तु अपने पति के मुह से यह जाकर कि उसे पहले सी ही सारी बातो का पता है वह अवाक रह जाती है मालिक जग्गा के घर के लोगो को पैसा देता है वह यह सोचता है कि कुछ पैसे दे देने से गरीबो का मुह बंद हो जाता है | निर्देशक ने बड़ी ही बारीकी से महानगरो के अपसंस्कृति की ओर इशारा करते हुए यह बताने के कोशिश की है कि किस तरह ये नव धनाढ्य वर्ग आज भी नारी का शोषण करते चले आ रहे है | मोना झा ने अपने एकल अभिनय से सारे पात्रो को जीवंत बना दिया '' साग मीट '' दर्शको के समक्ष बड़ा सवाल छोड़ गया
आरगम का तीसरा दिन '' इस बार आरगम ने एक नया प्रयोग किया गया जिसमे हमारे भारतीय वाद्ययंत्रो का शास्त्रीय पक्ष भी लोगो के बीच लाने का प्रयास किया गया | एकल शहनाई ,, पखावज , तबला सितार बासुरी वादन के जरिये इस एकल कलाकारों ने आरगम के पूरे बौद्दिक समाज को अपने इस फन से बाधे रखा | पंजतन ने शहनाई से जब अपनी मधुर तान छेड़ी तो अनायास ही बिस्मिल्ला खा साहब याद आ गये |तबले ने भी अपनी थाप से लोगो को मोहित किया | अजय सिंह ने अपने बासुरी के स्वर से राधे कृष्ण के याद दिला दी दूसरा सत्र भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर को समर्पित था | बताते चले भिखारी ठाकुर अपने जीवन काल में ही ( भोजपुरी समाज के मिथक बन चुके थे ) पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की लोक संस्कृति के पहचान भिखारी ठाकुर से होती है उनके बिना भोजपुरी -- भाषी समाज की कल्पना असम्भव है | भिखारी ठाकुर उस दौर के उपज थे जब राजनीति के साथ आर्थिक विषमताओ और सामन्ती संस्कृति से जकड़े ग्रामीण समाज में एक तीव्र बेचैनी और छटपटाहट थी | उसी को भिखारी ठाकुर ने अपने गीतों और नाटको में रेखांकित किया है |
संकल्प बलिया की प्रस्तुति -- भिखारी ठाकुर की अमर कृति
'' गबरघिचोर'' , रोजगार के अभाव में युवाओं का गांव से शहर की ओर पलायन व स्त्रीसंघर्ष का जीवंत दस्तावेज है। गलीज नाम का पात्र अपनी पत्नी को छोड़कर शहर कमाने चला जाता है इधर ऊसकी पत्नी का गांव के एक युवक गलीज से संबंध हो जाता है जिससे उसको एक लड़का होता है जिसका नाम है गबरघिचोर । जब गलीज को इस बात का पता चलता है तो वह लड़के को ले जाने के लीए गांव आता है । लड़के को लेकर पत्नी से लड़ाई होती है तब तक गड़बड़ी आ जाता है और कहता है कि लड़का हमारा है तीनों में झगड़ होता है । लड़का किसका है इस बात का फैसला करने के लिए पंच को बुलाया जाता है पहले तो लालच में फंस कर पंच बेतुका फैसला दैता है कि लड़के को तीन टुकड़े में काट कर तीनों में बांट दिया जाय , यह फैसला सुनकर मां बिलख पड़ती है तब पंच का विवेक जागता है और वह फैसला सुनाता है कि वास्तव में लड़के पर मां का हक है जिसने इसे नौ माह तक अपने गर्भ में रखा और पैदा होने पर उसे पाल पोसकर बड़ा किया । इस तरह एक महिला संघर्ष करके जीतती है । इस पूरे नाटक में आज भी स्त्री पर हो रहे अनाचार को उद्घाटित करके दर्शको के मन मष्तिष्क को झकझोरने का काम किया
पंच की भुमिका रेनू सिंह , ने सार्थक अभिनय से दर्शको को सोचने पर मजबूर कर दिया | इसके साथ ही अन्य पात्रो ने भी अच्छा अभिनय किया नाटक का संगीत पक्ष बहुत ही मजबूत रहा जिससे नाटक के सम्प्रेषण को दर्शको तक पहुचाने में निर्देशक कामयाब रहा संगीत, गायन- ओम प्रकाश , सोनू । संगीत निर्देशन-शैलेन्द्र मिश्र ,इसका निर्देशन -रेनू सिंह . मंच परिकल्पऩा व निर्देशकीय सहयोग-आशीष त्रिवेदी ।
आरगम का आखरी दिन आजमगढ़ के एक मस्त मौला फकीर पेशे से दर्जी '' हादी आजमी '' के उन दर्द भरे नज्मो से कार्यक्रम की शुरुआत हुई जिसमे उन्होंने आम आदमी होने के दर्द को बया किया है और इसको अपना स्वर दिया पंडित विनम्र शुक्ल ने उनके रिदम ये एहसास दिला दिए हादी आजमी के उस दर्द को जो उन्होंने अपने नज्मो में उकेरी है | इसके साथ ही आजमगढ़ से उभरता एक सितारा अंकित सिंह '' सनी '' जो गजल , गीत हो या शास्त्रीय संगीत का ठुमरी हो , दादरा हो उसने अपने गायकी से यह सिद्द कर दिया कि वो आने वाले कल का बेहतरीन सितारा है \ लोक रंग के इस आखरी शाम को '' इन्द्रवती नाट्य समिति '' सीधी मध्य प्रदेश की प्रस्तुती नाटक '' स्वेच्छा '' स्वेच्छा एक ऐसी लडकी की कथा है जो लगातार अपने अस्तित्व के तलाश में संघर्षशील है | लडकी का बचपन तरह - तरह के चरित्रों को महसूस करता है उन्हें समझते या उनका रूप ग्रहण करते बीतता है यह बात और है कि इन दिनों वो अपनी मर्जी का ऐसा कुछ भी नही कर पाती लेकिन कही न कही उसके आगामी जीवन पर उन चरित्रों का गहरा प्रभाव पडा है | अब वो बड़ी हो गयी है उसके सारे बचपन के दिनों के कोमल चरित्र अब बड़े हो गये है वो तमाम दुनियावी उतार -- चढाव से वाफिक होने लगे है यह बात अब माँ बाप को ठीक नही लगती है लेकिन स्वेच्छा के चरित्र बुनने और उनके बीच रहना ही अच्छा लगता है स्वेच्छा सूरज की पहली किरण लाल अरुण के यात्रा से शुरू होकर अस्त होते सूरज तक का सफर है | सफर वो जो कभी न खत्म न हो अनंत के ओर उन्मुख हो जिसकी पैदाइश ही प्रेम हो | कुछ ऐसे ही विचारधारा और चाहत को प्रगट करती है श्वेच्छा | यू तो आदमी वास्तविक जीवन में हजारो चरित्रों को जीता रहता है | लेकिन जब इन चरित्रों के मध्य जिन्दगी जीने की बात आती है इन्ही चरित्रों के साथ सपने देखने की बात आती है तो हम कतराते है तब हमे रंगों से और रंगो में शामिल चरित्रों से उबन होने लगती है और न जाने किस जीवन दर्शन में डूबने उतराने लगते है |
जहा शब्दों के मायने बदल जाते है | जरा सोचे क्या हम नन्ही मासूम शक्लो को गुमराह नही कर रहे होते ऐसी स्थिति में सब कुछ अधूरा रह जाता है विशाल अधूरापन मुहँ फैलाए खड़ा होता है हमारा अस्तित्व लीलने को और हम बची -- खुची जिन्दगी न चाहते हुए भी जीते चले जाते है | घिसटते चले जाते है अनायास ही मौत के मुहाने तक इस नाटक को निर्देशक ने अपने सम्पूर्ण कला दर्शन के जरिये एक मूर्त रूप में आकृति सिंह के जरिये साकार किया इस छोटी सी कलाकार ने अपने शानदार अभिनय से इस पुरे कथानक को साकार स्वरूप देकर दर्शको को निशब्द: बाधे रखा यही उसकी बहुत बड़ी सफलता रही | नाटक का निर्देशन व संगीत निर्देशन नरेन्द्र बहादुर सिंह ने किया था वो अपने नाटक के माध्यम से आज के समय की त्रासदी को बखूबी कह गये | इन चार दिनों के कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ रंगकर्मी व स्वतंत्र पत्रकार , समीक्षक एस . के दत्ता ने सफलता पूर्वक सम्पन्न किया | कार्यक्रम के अंत में समाज के विभिन्न क्षेत्रो में कार्य करने वालो को सम्मानित किया गया | वर्ष 2013 आरगम के सयोजक ममता पंडित ने अपने कुशल संचालन से इसे सफलता की दिशा दी ,इसके साथ ही सूत्रधार संस्था के अध्यक्ष डा सी के त्यागी , सचिव अभिषेक पंडित , व डा बद्रीनाथ , डॉ स्वस्ति सिंह , श्रीमती विनीता श्रीवास्तव , प्रवीन सिंह , नित्यानंद मिश्र , दीप नारायण , मनीष तिवारी जनहित इंडिया के सम्पादक मदन मोहन पाण्डेय और साथ के सभी रंगकर्मीयो के समर्पण से ही यह जन आदोलन , रंग आन्दोलन निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है |
अश्वघोष की इन पक्तियों के साथ --------
अभी तो लड़ना है तब तक
जब तक मायूस रहेंगे फूल
तितलियों को नहीं मिलेगा हक़
जब तक अपनी जड़ों में नहीं लौटेंगे पेड़..........................
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