दोस्तों-परिचितों से गपशप करते हुए कितनी बार बात आबादी पर आ रुकती है। यह हम सबका अनुभव है-पानी की समस्या, बिजली की समस्या, रोजी-रोटी की समस्या, गरीबी-बदहाली की समस्या, जरायम और तस्करी की समस्या आदि-आदि। ले-देकर सारी समस्या की जड़ हमारी विशाल आबादी है। इस बात पर कमोबेश एक आम राय सी बन जाती है और अगर आप भी इस तर्क से सहमत हैं, तो आप आश्वस्त रहिए आप बहुमत में हैं और हो भी क्यों नहीं, मानव जाति की आबादी आज तकरीबन साढ़े छः अरब (बिलियन) है, जो कि मानव इतिहास में पहली बार हुआ है। हमारी अपने देश की आबादी तकरीबन 110 करोड़ है-यानी हर छठा व्यक्ति भारतीय है। चारो तरफ जहाँ देखिए सरकार से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग, युवा पीढ़ी से लेकर वयोवृद्ध इस ‘‘विकराल’’ समस्या से भीषण चिंतित हैं और इससे निपटने की फिक्र में जुटे हुए हैं। देशी-विदेशी, गैर-सरकारी और सरकारी संस्थाएँ इस समस्या से जूझने के लिए परियोजनाएँ बना रही हैं, अरबों-खरबों रुपये उड़ेल रही हैं। यूएनएफपीए (यूनाइटेड नेशंस पापुलेशन फंड) एक पूरा संस्थान है जो 1967 से आबादी पर नियंत्रण के कार्यक्रमों में जुटा है। जाहिर है उनकी सारी परियोजनाएँ तीसरी दुनिया के देशों पर केन्द्रित हंै।
जानकारों में, कुछ तो नर्मी से इन बच्चा-पैदा करने वाली मशीनों से ग्रसित आबादी को प्यार पुचकार की भाषा से समझाने में विश्वास रखते हैं। पर कुछ हस्तियों को डर है कि पानी सर से ऊपर चला गया है और अब प्यार पुचकार की भाषा की विलासिता हम अफोर्ड नहीं कर सकते। अब तो इन नासमझों पर जबरन ही कुछ तौर तरीकों का इस्तेमाल करना पड़ेगा वरना यह
धरती ही संकट में आ जाएगी, और हम यह देख रहे हैं कि बुद्धिजीवियों और पालिसी बनाने वाले अहम तबके में यह दूसरा तरीका अपनाने वाले जोर पकड़ते जा रहे हैं।
अब यह तो हम आप भी मानेंगे कि इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने के बावजूद मानव समाज भीषण तंगी, बदहाली और गरीबी से जूझ रहा है। शहरों की मलिन बस्ती से लेकर गाँव तक, अफ्रीका से, एाशया से लेकर लातिनी अमरीका तक, यहाँ तक कि कई विकसित देश भी बुनियादी समस्याओं से ग्रसित हैं। अभी हाल ही की एक रिपोर्ताज के अनुसार अमरीका में भी 490 लाख लोग भूखे सोते हैं। (न्यूयार्क टाइम्स, 18 नवम्बर 2009) तो क्या हम भी यह मान लें कि आबादी ही सकल समस्या की जड़ है? आइए विस्तार से देखें-
आधुनिक इतिहास में, सुनियोजित तरह से बढ़ती आबादी के खतरे पर प्रकाश डालने वालों में शायद सबसे पहले शख्स हैं रेवरेंड थामस माल्थुस। यह अंग्रेज पादरी अपने आपको गणितज्ञ मानते थे और सामाजिक समस्याओं का गणितीय आधार खोजने में प्रयासरत रहते थे। अट्ठारहवीं सदी के अंत में इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति जोर पकड़ रही थी। इसका प्रभाव व्यावसायिक समाज पर तो बहुत लाभदायक था पर आम जनता की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। लोग भूख से बेहाल, मौसम से जूझने में नाकाम, मक्खियों की तरह मर रहे थे। शहरों का यह हाल था कि चारों तरफ गंदगी का मंजर, एक-एक कमरें में 20-25 लोग ठुंसे रहने को विवश, तीन चार साल के बच्चे भी फैक्ट्री और खदानों के दमघोंटू माहौल में काम करने पर मजबूर। आम बीमारी भी हर बार महामारी का रूप धारण करती। इस माहौल में हमारे रेवरेन्ड माल्थुस ने यह हिसाब लगाया कि आबादी तो 2, 4, 8, 16, 32 की रफ्तार से यानी ज्यामितीय प्रोग्रेसन से बढ़ रही है और खाद्यान्न का उत्पादन महज 2, 4, 6, 8, 10 की रफ्तार से यानी अरिथमेटिक प्रोग्रेशन में ही बढ़ सकता है। इसके चलते ही आबादी इतनी बढ़ जाएगी कि धरती पर खाद्यान्न का संकट हो जाएगा। माल्थुस साहब अपनी इस खोज से इतने आशंकित हो गये कि उन्होंने 1798 में एक किताब लिख डाली ‘‘एन एसे आॅन प्रिंसिपल आॅफ पापुलेशन’’ उस किताब में उन्होंने इस ‘‘विकराल’’ समस्या के बारे में विस्तार से लिखा, यह भी भविष्यवाणी की कि सन् 1890 में मानव आबादी समूचे खाद्यान्न उत्पादन को पार कर जाएगी। एक अच्छे शोधकर्ता की तर्ज पर उन्होंने इस भीषण संकट से उबरने का उपाय भी सुझाया। उपाय सीधा था, ‘‘अमीर तबके के हिस्से में पर्याप्त साधन बनाए रखने के लिए गरीबों को मारना होगा।’’ उन्हीं की किताब से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं:-
‘‘आबादी को एक संतुलित मात्रा में बनाए रखने के लिए जितने बच्चे जरूरी हैं, उनके अतिरिक्त बच्चों को जरूरतन खत्म हो जाना होगा, नहीं तो वयस्कों को मारकर उनके लिए जगह बनानी पड़ेगी। इसलिए हमें प्राकृतिक नियमों से मौत आसान करनी होगी, ना कि बेवकूफीवश उसमें रोड़ा डालें, और अगर हमें बार-बार आने वाली भुखमरी से डर लगता है तो हमें पक्के लगन से दूसरी विनाशकारी ताकतों को बढ़ावा देना होगा जो प्रकृति को मजबूरन अपनानी पड़ती है। हमें गरीबों को साफ सफाई रखने के बजाए गंदगी की आदत डलवानी पड़ेगी। अपने शहरों में हमें और संकरी गलियाँ बनवानी पड़ेगी और घरों में और ज्यादा लोग ठूंसने पड़ेंगे, और हमें प्लेग जैसी महामारियों को खुले हाथों से आमंत्रण देना होगा। गाँव की तरह हमें पूरे-पूरे कस्बे गंदे सड़ते हुए तालाब, नाले के निकट बसाने होंगे, और लोगों से आग्रह करना होगा कि वह अपने घर अधिक से अधिक अस्वाथ्यकर परिवेश में बनाएँ।
(Book, IV, Chapter V, Essay on the Principle of Population)
माल्थुस सबसे ज्यादा नाराज डाक्टरों से थे। उनका कहना था कि ‘‘भले, पर गुमराह लोग मानव जाति की भलाई के नाम पर उसका पूरी तरह विनाश करने पर तुले हैं।’’
यह किताब बहुत लोकप्रिय रही, खासकर अमीर तबके में। याद रखिएगा कि माल्थुस और उनकी प्रशंसक-समर्थक मंडली पिछड़े देशों की नहीं, परन्तु उस जमाने के सबसे उन्नत, ताकतवर व अमीर देश इंगलैंड की बात कर रही थी। उनके बाद इन सवा दो सौ सालों में कई बार इस विचार ने तूल पकड़ा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में डारविन और फिर उनके बाद उन्हीं के रिश्तेदार फ्रांसिस गाल्टन ने इस विचार को वैज्ञानिक तर्क का जामा पहनाया। उनका मानना था कि गरीबों की बड़ी तादाद में बढ़ोत्तरी से मानव प्रजाति धीरे-धीरे मंदबुद्धि होती जा रही है (क्योंकि गरीब मंदबुद्धि होते हैं और उनकी संख्या ज्यादा होने पर, औसत बुद्धिमत्ता घट जाएगी) इस प्रक्रिया को रोकने के लिए गैल्टन साहब ने ‘युजैनिक्स’ की पद्धति सुझाई, साधारण भाषा में इसका मतलब है ‘अच्छे नस्ल का प्रजनन’। उनके बाद मार्गरेट सैंगर नाम की एक प्रसिद्ध समाजसेवी, महिला ने ‘प्लांड पेरेंटहुड’ की शुरुआत की। यानी योजनाबद्ध मातृत्व। उनका मानना था कि गरीबों की मदद करना मानवता के खिलाफ है और मानवजाति को उसका भीषण दाम देना पड़ सकता है। सैंगर का मानना था कि गरीबों को बच्चे पैदा ही नहीं करने चाहिए और जरूरत पड़ने पर उनकी नसबंदी करवा देनी चाहिए। उनका कहना था कि जैसे सुंदर बगीचे बनाने के लिए खर पतवार उखाड़ फेंकना जरूरी है वैसे ही गुणवत्ता बनाए रखने के लिए गरीब जनता को बच्चे पैदा करने से रोकना अनिवार्य है। उनका यह तर्क उस जमाने के धनी लोगों को खूब भाया, जैसे कि राॅकेफेलर, ड्यूक, लास्कर, डुपोंट आदि। बींसवी शताब्दी के बीचों बीच जर्मनों ने इसी तर्क के तहत एक पूरी प्रजाति को खत्म करने का प्रयास किया। इसके चलते तकरीबन साठ लाख यहूदियों की हत्या कर दी गई उसके बाद हर कुछ सालों में यह आबादी को जबरन कम करने वाला मुद्दा जोर पकड़ता आया है। इमरजेंसी के दौरान इस देश में संजय गांधी के नेतृत्व में जो अभियान छिड़ा था उसकी यादें अभी भी विभीषिका बनकर हमें सताती हैं और पिछले कुछ सालों से यह विचार फिर जोर शोर से वापस आ रहा है। कइयों को कहते सुना जाता है कि ‘‘साहब अब अच्छा लगे या बुरा, तरीका तो वही है। अब सर्जन की छुरी के नीचे आना किसे भाता है, पर जब अंग सड़ जाए या फिर कैंसर हो तो फिर उसके बिना चारा नहीं। अब चीन को ही देख लीजिए कितना आगे निकल गया। उसका सख्त एक बच्चा परिवार कानून ही इसका मुख्य कारण है।’’
इतने सारे ज्ञानी गुणी सैंकड़ों सालों से जो बात कह रहे हैं, तो चलिए थोड़ी देर के लिए मान ही लेते हैं कि बहुजन की भलाई के लिए कुछ लोगों को कुर्बानी देनी पड़ेगी। अब मन मारकर यह कदम भी अगर उठाना पड़े तो देखते हैं उसका असर क्या होगा? अच्छा यह बताइए कितने लोग कम हो जाने से स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन नजर आएगा। दस प्रतिशत, बीस प्रतिशत, तीस प्रतिशत, चालीस प्रतिशत या पचास प्रतिशत? चलिए बीस प्रतिशत मानकर चलते हैं, आइए देखें बीस प्रतिशत आबादी कम होने से क्या फर्क पड़ेगा नीचे बने टेबुल में देखते हैं कि नीचे से बीस प्रतिशत आबादी कम करने से यानी 100 में सबसे गरीब 20 लोग और ऊपर से सबसे अमीर 20 लोग घटाने से संसाधनों की उपलब्धि में कितना अंतर आएगा?
जैसा कि टेबुल-1 से साफ जाहिर है कि 20 प्रतिशत आबादी कम होने पर निश्चित तौर पर संसाधन उपलब्धि में अंतर आएगा, पर यह नीचे के 20 प्रतिशत न होकर ऊपर के 20 प्रतिशत को घटाने से होगा। सकल निजी खपत या खर्च का 86 प्रतिशत, ऊपर के 20 प्रतिशत लोग उपभोग कर रहे हैं। अगर वे उसे कम करें तो बाकी बचे लोगों को औसतन वर्तमान में उपलब्ध सामान से (जो 14 प्रतिशत है) छः गुना ज्यादा मिल पाएगा। वैसे ही मांस मछली दोगुना ज्यादा मिलेगा, ऊर्जा तकरीबन दो गुना, वाहन छः गुना ज्यादा आदि, आदि। तो फिर कर दी जाए यह नीति लागू? क्या संजय गांधी का समर्थन करने वाले, बड़े-बड़े विद्वान इस नीति पर अपनी मुहर लगाएँगे? या फिर गरीब बेचारों पर, जो अपनी बात किसी गोष्ठी में रख नहीं सकते, आसानी से लागू होने वाले नियम, अमीरों पर आते ही डाँवाडोल हो जाते हैं? आखिर इन गरीबों को सफाया करने से कितना बचेगा? सौ में नीचे के बीस लोग कम होने पर महज 1 प्रतिशत, 1.5 प्रतिशत या ज्यादा से ज्यादा 4 प्रतिशत? हुआ न हिसाब टेढ़ा।
आइए, मरने मारने से थोड़ा हटकर ठण्डे दिमाग से यह पता लगाएँ कि आखिर हमारी धरती में कितने संसाधन है और सही ढंग से वितरण करने पर हरेक के हिस्से में कितना आता है। हम बुनियादी जरूरतों पर गौर करते हैं। पहले, रहने की जगह को लें। अब आपके हिसाब से एक व्यक्ति को रहने के लिए कितनी जगह चाहिए? अब रहने को तो सुना है, मुम्बई जैसे शहरों में एक 8 फुट गुना 8 फुट के कमरे में 6-8 आदमी रह लेते हैं। शिफ्टों में। हर दिन सामुदायिक शौचालयों में घण्टों लाइन में लगना पड़ता है। मलिन बस्तियों में तो पालिथिन छप्परों में करोड़ों आदमी गुजारा करते हैं, जहाँ भारतीय रेल की पटरी ही शौच के लिए एक मात्र स्थल है। पर मैं इसकी बात नहीं कर रही हूँ, मैं तो यह अनुमान लगाने की कोशिश कर रही हूँ कि इंसान की तरह जीने के लिए ठीक ठाक सुविधा आराम के लिए कितनी जगह की जरूरत है? अच्छा दूसरी तरह से हिसाब लगाते हैं। अभी इस धरती में जनसंख्या करीब 6.5 अरब (बिलियन) है। क्या आपको पता है कि प्रति व्यक्ति को अगर हम करीबन 1240 वर्ग फीट जगह दें (आपकी जानकारी के लिए बता दें शहरों में इतना क्षेत्रफल एचआईजी (हाई इंकम गु्रप) फ्लैट्स के होते हैं, यानी समाज के सबसे अमीर तबके के पास) तो इस हिसाब से धरती के सारे लोगों को बसाने के लिए कितनी जगह चाहिए? मैं बताती हूँ हमारे देश के दो राज्यों महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के क्षेत्रफल (कुल 8,000 अरब वर्ग फुट) जितनी जगह। अब थोड़ी ओर गणना। चूंकि अमूमन इंसान अकेला घर पर नहीं रहता, परिवार में रहता है, यह मान लें कि चार चार व्यक्तियों का परिवार है, तो फिर उसी क्षेत्रफल में एक-एक परिवार को करीब 5,000 वर्गफीट जगह मिलेगी, यानी एक बड़ा घर सारी सुविधाओं समेत, सामने फूलों का बगीचा, पीछे सब्जी की क्यारियाँ, शायद थोड़ी खेती भी, एक आध मवेशी बांधने/चरने की जगह भी निकल आएगी। सोचिए, सारी दुनिया की आबादी महज दो राज्यों के बराबर क्षेत्रफल में समा सकती है। हालाँकि यहाँ यह मान लिया गया है कि वह सपाट जमीन होगी, नदी, नाला, टीला, पहाड़ जगल, कुछ नहीं, पर फिर भी बाकी पूरी धरती खाली। लगता है जगह की तो कोई कमी नहीं है।
आइए, अब खाद्यान्न पर चलते हैं, जिसके बारे में माल्थुस से लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी चिंतित होती आई है। अभी हाल ही में सन् 2007 में पूरी दुनिया में भीषण खाद्यान्न संकट आन पड़ा था। विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान में दुनिया के करीब एक अरब लोग भूखे सोते हैं, यानी हर छठे या सातवें व्यक्ति को जरूरत से कम खाना मिल पाता है। यह वाकई में गंभीर समस्या है। आइए, थोड़ी और गहराई से जांच करें। खाद्य पदार्थ कई तरह के होते हैं, जैसे गल्ला, फिर दालें, साग, सब्जी, फल, बादाम, जड़ें, मांस मछली आदि। मांस हमें उन जानवरों से मिलता है जो या तो घास चरते हैं या फिर गल्ला खाते हैं। पर गौर करने वाली बात यह है कि करीब एक किग्रा. मुर्गी के मांस उत्पादन के लिए दो किग्रा. गल्ले की खपत होती है, एक किग्रा. सुअर के मांस के लिए 3.5 किग्रा., भेड़ या बकरी के मांस के लिए 1.8 किग्रा. (क्योंकि वह ज्यादातर घास खाती हैं और तीसरी दुनिया के देशों में पलती हैं) और बड़े जानवरों के लिए 5 किग्रा.। सम्पन्न देशों में ज्यादा मांस खाया जाता है, बल्कि मांस की खपत सम्पन्नता का मानक माना जाता है। जैसा कि अंदाजा लगाया जा सकता है कि मांस की खपत कम होने पर ज्यादा गल्ला इंसानों को आहार के लिए उपलब्ध होगा। पर इन सब की गणना अगर न भी जाए, तो भी जितना गल्ला उपलब्ध होता है उसे अगर पूरी दुनिया में सभी में बराबर बांट दिया जाए तो हर व्यक्ति के हिस्से (प्रतिदिन के हिसाब में) तकरीबन 3000 से 4000 कैलोरी सिर्फ गल्ला से आएगा। इसमें फल, सब्जी, मांस, दूध, अण्डा, मछली आदि को तो जोड़ा भी नहीं। अब आपको यह बता दें कि विशेषज्ञों के अनुसार एक स्वस्थ वयस्क इंसान को दिन में तकरीबन 2,200 से 2,400 कैलोरी तक खाद्य की जरूरत होती है। यानी उपलब्ध गल्ले का महज आधा या दो तिहाई। कोई व्यक्ति, अगर उत्पादन को बराबर बांटने पर जितना उपलब्ध होता है (3,500 कैलोरी) उतना खा लें तो जल्द ही उसे मोटापे की शिकायत हो जाएगी। (World Hunger : 12 Mythe) रू 12 डलजीमद्ध गौर करने की बात है कि जहाँ दुनिया में 1,00,00,00,000 लोग आधे पेट खाकर सोते हैं वही तकरीबन उतने ही लोग अधिक मोटापे (ओबेसिटी) की बीमारी से ग्रस्त हैं।
चलिए, यह बात तो साबित हुई कि ऊपरी तौर पर खाद्यान्न उत्पादन में कोई कमी नहीं है। पर पर्याप्त से कहीं ज्यादा उपलब्ध होने के बावजूद दुनिया में इतनी भुखमरी क्यों है? खैर, यह एक अलग सवाल है- बहुत ही प्रांसगिक, पर यहाँ उस पर और बात करने की गुंजाइश नहीं है।
अब यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर गरीब परिवारों में ही ज्यादा बच्चे क्यों होते हैं? सुनने में आया है कि हमारे मौजूदा स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद का मानना है कि बच्चे जनना या उसकी बुनियादी प्रक्रिया में शामिल होना गरीब जनता के लिए एक सस्ता और उत्तेजक मनोरंजन का साधन है। एक संवेदनशील प्रगतिवादी नेता होने के कारण उन्होंने इस पर काबू पाने का एक अभिनव तरीका ढूँढ लिया है, गाँव-गाँव में बिजली। लोग देर रात तक टीवी का आनन्द उठाएँगे और फिर चैन की नींद सो जाएँगे तो मसला जड़ से सुलझ जाएगा। वाह री कल्पना शक्ति की उड़ान। बिजली के बड़े सारे उपयोग सुने हैं पर यह तो लीक से मीलों हटकर है। माननीय स्वास्थ्य मंत्री पुरूष हैं, सौभाग्यवशः वह कभी माँ नहीं बन सकते, इसलिए बच्चा पैदा करने का सबसे आसान विकल्प उनके लिए मनोरंजन हो सकता है। पर जिस माँ ने एक भी बच्चा अपने गर्भ में धारण किया है, नौ महीने तक तिल तिल कर उसका पोषण किया है, प्रसव पीड़ा सही है और फिर अपने खून को दुग्ध सुधा के रूप में बच्चे के नन्हें भूखे हलक में उतारा है, वह उसे महज मनोरंजन नहीं मान सकती, और मैं तो उन माँओं की बात कर रही हूँ जो कि अक्सर अपना पहला बच्चा सोलह सत्रह साल की कच्ची उम्र में जनती हैं और फिर जनती चली जाती हैं, साल दर साल। कुपोषित देह, खून की भीषण कमी, यह तो हमारे जैसे देश में माँओं के लिए आम बात है। गर्भ में शिशु पलने के बावजूद जहँा पर वह माँ सबसे आखिर में परिवार का बचा खुचा निगलती है और उस बेस्वाद निवाले से भी सारी पौष्टिकता उसके गर्भ में पलने वाला कुल का चिराग, अपने हिस्से कर लेता है। जन्म के बाद भी वह बच्चा अपनी माँ की सूखी छातियों को चूसकर मानो उसकी रही सही जीवन शक्ति ही निचोड़ लेता है। मातृत्व का यह काव्यात्मक रूप जिन्हें हमने कविताओं, कहानियों और चित्रों में जाना है, इस प्रक्रिया में कहीं नजर नहीं आता। बल्कि गहराई पर जाने पर यह समझ बनती है कि साल दर साल बच्चे जनना तो एक गंभीर राजनैतिक मसला है। वह है हमारे समाज में स्त्री पुरूष के अधिकारों में मौलिक असमानता।
एक स्त्री का अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं। हमारे जैसे पिछड़े समाज में वह भोग्य वस्तु है, इस्तेमाल की वस्तु है और उसका इस्तेमाल इस पुरुष शासित समाज के नियमों के आधार पर होता है, हाँ शिक्षा का अभाव भी उसमें निर्णायक भूमिका अदा करता है, जो कि स्त्री पुरुष दोनों पर लागू होता है। दुनिया में जब और जहाँ-जहाँ नारी को समान दर्जा और उसको उचित शिक्षा पाने का अवसर मिला है वहाँ इस तरह शोषण लगभग समाप्त हो गया है पर क्या सिर्फ यह शिक्षा की कमी है जो हरेक परिवार में इतने सारे बच्चे जनने का कारण है? नहीं, हमारा मानना है कि इसका ठोस आर्थिक आधार भी है। आइए, देखते हैं।
सुना है सारी जीव जातियों में शायद एक इंसान का बच्चा ही है जिसकी सालों तक देखभाल करनी पड़ती है। मध्यम वर्ग और अमीर वर्ग में तो बच्चे बड़े ही नहीं होते, युवावस्था तक वे अपने मां, पिता और परिजनों से सहारे की उम्मीद रखते हैं। अपने हाथ-पाँव मारकर कुछ कर दिखाने की जगह वे विरासत में मिली सम्पत्ति या जान पहचान से मिली नौकरी पर ज्यादा भरोसा रखते हैं। बल्कि इसे अपनी शान समझते हैं। मैं टाटा का भतीजा हूँ, मैं बिड़ला का भांजा हूँ, मैं फलां खानदान का हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ आदि, आदि। यह सारे कुल दीपक सही मायने में एक भारी बोझ हैं जिन्हें समाज सदियों से ढो रहा है। पर गरीब तबके का बच्चा तो अपनी पहली सांस लेने के पहले से ही जिन्दा रहने की जद्दोजहद में फंस जाता है, कुपोषित कमजोर माँओं के ज्यादातर बच्चे भी कुपोषित होते हैं। ह्यूमन डेवलमेंट रिपोर्ट 2009 के अनुसार भारत में 47 प्रतिशत बच्चे, यानी हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। भारत में हर साल पाँच साल से कम उम्र के 23.5 लाख बच्चे मर जाते हैं। यहाँ हर 15 सेंकेंड में एक बच्चे की मौत हो जाती है। चार लाख से ज्यादा बच्चे तो जन्म के 24 घण्टे के भीतर बिल्कुल साधारण बीमारियों (डायरिया, निमोनिया) के चलते मर जाते हैं। मतलब यह कि गरीब तबके के मां-बाप को इस बात का कोई भरोसा नहीं कि उनके कितने बच्चे वयस्क होने तक बच पाएँगे। छः साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते गरीब परिवार का बच्चा परिवार की आमदनी में योगदान करना शुरू कर देता है, और महज 12 साल की उम्र या उससे भी कम में पारिवारिक आय में उनका योगदान, जितना उन पर खर्च होता है उससे ज्यादा होता है। इसका तात्पर्य यह है कि बच्चा एक और मुँह नहीं बल्कि दो और हाथ होता है, परिवार के लिए। अब आप ही बताइए कि असंगठित मजदूरों पर अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में बनी सरकारी कमेटी के अनुसार अगर 78 प्रतिशत भारतीयों को 20 रूपये या फिर उससे भी कम में गुजारा करना पड़ता है तो फिर सिर्फ दिन में दो जून खाना जुटाने के लिए ही परिवार के 7-8 लोगों को रोजगार में जुटना पड़ेगा या नहीं? आखिर चावल, आटा, चीनी, दाल, नमक, तेल, आलू, प्याज के दाम पिछले कुछ सालों में आसमान को भी चीरकर मानों किसी और नक्षत्र में पहुँच चुके हैं। इसके अलावा कपड़ा, मकान और अन्य चीजें भी तो चाहिए। इसमें बीमार पड़ना विलासिता है, जो कि एक छः साल के बच्चे के लिए भी वर्जित है। इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो समझ बनती है कि आज के विकसित देशों में भी तो सवा-सौ साल पहले तक परिवारों में औसतन दर्जनों बच्चे होते थे। पर जैसे-जैसे आध्ुानिक चिकित्सा में विकास के चलते मृत्युदर में गुणात्मक कमी आई और उसके साथ साथ मजदूर आंदोलनों की बदौलत पगार बढ़ी और काम के घण्टों और परिवेश में कानूनी नियंत्रण लागू हुए, परिवार छोटे होते गए। सदी की शुरूआत आते-आते कई यूरोपीय देशों में सरकारी सोशल सिक्युरिटी (सामाजिक सुरक्षा) की व्यवस्था हो जाने पर लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा आवास और बेरोजगारी भत्ता जैसी बुनियादी जरूरतें अधिकार के तौर पर मिलने लगीं और परिवार छोटे और खुशहाल नजर आने लगे। दूर जाने की जरूरत नहीं, हमारे ही देश के केरल राज्य को ले लीजिए। आबादी के घनत्व (एक वर्ग किलोमीटर में बसने वाली औसत आबादी) के हिसाब से यह प्रदेश देश के औसत से तकरीबन तीन गुना ज्यादा बैठता है। पर बेहतर स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा की सुविधा और कारगर खाद्यान्न सब्सिडी के चलते यहाँ बच्चों की मृत्युदर देश के औसत से आधा है। यहाँ स्त्री शिक्षा की दर देश के औसत से तकरीबन दो गुना ज्यादा है (केरल में 87 प्रतिशत औरतें शिक्षित हैं) और, शायद इसी के चलते जन्मदर सर्वभारतीय औसत की एक तिहाई है, जो कि अमरीका जैसे देश से थोड़ा ही ज्यादा हैं। अब जिस इंगलैंड को देखकर माल्थुस साहब शंकित हो गये थे, उसकी आबादी माल्थुस साहब के समय करीब 83 लाख की थी। आज इंगलैंड की आबादी करीब 512 लाख की है यानी माल्थुस साहब के समय से साढ़े छह गुना ज्यादा। पर क्या आज कोई इंगलैंड के बारे में वह शंका जताएगा जो कि आज से दो सौ साल पहले जताई गई थी? कदापि नहीं। फिर से यह बात साबित होती है कि महज बढ़ती आबादी ही गरीबी और बदहाली जैसी समस्याओं का मुख्य कारण नहीं है।
अच्छा चलिए, अब यह पता लगाते हैं कि इज्जतदार आरामदायक जिंदगी बसर करने के लिए कौन-कौन सी बुनियादी जरूरते हैं और उन्हें सबको मुहैया करवाने में कितना खर्च आएगा? मेरे हिसाब से आम सम्मति इस पर बनेगी की सभी को एक न्यूनतम स्तर तक की शिक्षा मिलनी चाहिए, पीने और अन्य दैनिक कार्य के लिए स्वच्छ पानी और स्वच्छ परिवेश, सभी को पर्याप्त पोषण और स्वास्थ्य सुविधा और चूँकि प्रजाति को बनाए रखने और मानव जाति के सर्वांगीण प्रगति के लिए आने वाली पीढ़ी का स्वस्थ होना सर्वोत्तम महत्व रखता है, प्रजनन और मातृत्व सहायक चिकित्सा सबको अधिकार के रूप में मिलनी चाहिए। पर इसमें तो बहुत खर्च आएगा। जाहिर है पूरी दुनिया की आबादी की बात हो रही है। यूएनडीपी ने 1998 की अपनी रिपोर्ट में इस खर्च का एक मोटा मोटा अंदाजा लगाया है उन्होंने तमाम शोध के जरिए इस बात का अनुमान लगाया है कि इन सुविधाओं पर वर्तमान में हो रहे खर्च से कितना अधिक खर्च करने पर सबको यह बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जा सकती हैं।
जैसा कि टेबुल-2 से समझ बनती है कि बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए 40 अरब डॉलर की विशाल राशि खर्च करनी पड़ेगी। यह वाकई में एक बड़ी राशि है। यह आएगी कहाँ से? जिस पर ये आंकड़े 1995 के दामों के आधार पर आंके गए हैं। जाहिर है इन 15 सालों में वह कुछ और बढ़ गई होगी। देखते हैं दुनिया में हो रहे तमाम जरूरी गैर जरूरी खर्चें में से कुछ कटौती करके इन बुनियादी जरूरतों को पूरा किया जा सकता है या नहीं नीचे दिए गये टेबुल-3 में कुछ विशेष मदों के साथ उन पर सलाना व्यय का विवरण दिया गया है यहाँ यह बताना जरूरी है कि ये आंकड़े भी 1995 के हैं और इनमें तो पिछले दशक में गजब की बढ़ोत्तरी हुई है।
दब गई न दाँतों तले उँगली? अब आप अपना सर खुजला रहे होंगे कि इतनी गंभीर जरूरतों के रहते आम आबादी की शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी, जैसी मामूली जरूरतों के लिए कैसे पैसे निकलेंगे।? अब अगर हम सौंदर्य वर्धक सामग्री को छोड़ दें, या फिर आइसक्रीम खाने की ललक को बने रहने दें, पालतू जानवर की खुराक पर हस्तक्षेप न भी करें तब भी महज यूरोप में सिगरेट पर सालाना खर्च से बुनियादी सारी जरूरतें दुनियाभर में उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। अगर विकसित देशों में शराब के बिना काम चले तो इन सबके साथ सबके लिए पर्याप्त आवास भी बन सकता है। मादक पेय के सेवन में महज 10 प्रतिशत कटौती करने पर सारी बुनियादी सुविधाएँ सबको उपलबध करवाई जा सकती हैं। है न ताज्जुब की बात। अच्छा छोडि़ए, भोग विलास की वस्तुओं को अगर छोड़ भी दिया जाए तो दुनिया भर में जहाँ सबसे ज्यादा खर्च होता है वह है सैन्य बल और अस्त्र शस्त्र में। वर्तमान में तकरीबन 13,00,00,00,00,000 (13 खरब) डालर सिर्फ मरने मारने पर खर्च हो जाता है। वह भी सरकारी खर्च। आम लोगों के खून पसीने से उपजा पैसा। इसमें निजी, गैर सरकारी अस्त्र, बल शामिल भी नहीं। इस रकम का अगर सिर्फ तीन प्रतिशत खर्च किया जाए तो दुनिया की पूरी मौजूदा आबादी तमाम बुनियादी सुविधाओं के साथ जी पाएगी। क्या यह एक नाजायज कटौती है? और क्या पता जीवन स्तर बेहतर होने पर शायद इतनी बड़ी तादाद में मरने मारने की जरूरत ही खत्म हो जाए।
आइए एक और विशाल खर्च-शेयर बाजार, उसका भी थोड़ा विश्लेषण करें। ज्यादा गहराई में न जाते हुए बस यह समझें कि शेयर बाजार की सट्टेबाजी के चलते पिछले साल दुनिया की अर्थव्यवस्था में हजारों, अरबों रूपयों का नुकसान हुआ। करोड़ों लोग बेघर हो गए, दसियों लाख की नौकरी चली गई, सैकड़ों साल पुराने बैंक ढह गए, दसियों करोड़ लोगों की जीवन भर की पूँजी साफ हो गई। दुनिया भर में आर्थिक मंदी का यह विकराल प्रकोप किसी विश्वयुद्ध से कम विनाशकारी न था। अब आप ही बताइए कि खर्च की सूची क्या साफ-साफ यह नहीं दर्शाती कि दुनिया के कर्णधारों की प्राथमिकताओं में गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, खराब स्वास्थ्य, बेरोजगारी, बदहाली जैसी समस्याएँ हैं ही नहीं। मुँह से यह प्रतापी तबका चाहे कुछ भी बोले, उनकी कथनी और करनी में खाई काफी चैड़ी है। शायद इसीलिए जब-जब गरीब बहुजन इनके खिलाफ थोड़ी सी भी आवाज उठाते हैं, या रत्ती भर भी जवाबदेही की उम्मीद करते हैं, ताकतवर लोग उनको कुचलने का कार्यक्रम बनाते हैं। इराक, अफगानिस्तान के युद्ध में अमरीका ने अब तक 7,000 लाख डॉलर खर्च कर दिया और तमाम आश्वासनों के बाद भी वहीं जमे हुए हैं। गरीबी हटाने के बजाए अरबों रूपये और डालर गरीबों को हटाने में लगा देते हैं। पर दुनिया में असमानता की गहरी खाई रत्ती भर भी नहीं भरती बल्कि और विकराल होती जाती है। आप ही बताइए, थोड़ा खून खराबा कम करने का प्रयास और बस थोड़ा ही सट्टेबाजी कम करने का आग्रह, क्या एक नाजायज मांग है? जवाब देने से पहले उस जन्म लेते ही मौत की तैयारी कराने वाले बच्चे का चेहरा याद कर लीजिए, शायद जवाब देना फिर उतना मुश्किल न हो।
इतने सारे तर्कों की बिना पर क्या हम यह निष्कर्ष निकालें कि आबादी समस्या है ही नहीं? आइए, सफर के इस आखिरी पड़ाव में इस पर भी चर्चा करते हैं। सबसे पहले हम यह समझ बनाएँ कि आबादी बढ़ती क्यों है? जन्म दर के बारे में तो हम लोगों ने पर्याप्त चर्चा की है पर उसके अलावा मृत्युदर में कमी, या फिर दूसरी तरह कहें तो औसत संभावित आयु में वृद्धि से भी आबादी बढ़ती है। ज्यादातर लोग लम्बी आयु तक जीवित रहेंगे तो जाहिर है कि आबादी स्वतः बढ़ेगी। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 1950-55 में दुनिया भर का औसत संभावित जीवन काल तकरीबन 46 साल हुआ करता था। एक अर्ध शताब्दी के अन्तराल में ही यह 20 साल बढ़कर 2000-2005 में 65 साल हो गया है। विकसित देशों में तो औसत संभावित आयु 80 साल को छू रही है, विकासशील देशों में भी यह तकरीबन 63-65 वर्ष है इसके मुकाबले 1850 के आसपास इंगलैंड के सूती मिलों के गढ़ लंकाशायर में औसत मृत्यु की उम्र महज 17 साल हुआ करती थी ;ब्ंचपजंस टवसण्1द्ध। दुनिया की आबादी में सालाना बढ़ोत्तरी की दर पिछले चालीस-पैंतालीस सालों में लगातार घटी है। 1965 में सलाना आबादी में बढ़ोत्तरी की दर तकरीबन 2.1 प्रतिशत थी जो अब घटकर महज 1.14 रह गई है। भारत में यह दर सन 1986 में 2.16 प्रतिशत हुआ करती थी जो घटकर सन 2008 में 1.34 प्रतिशत हो गई, (World Bank World Development Indicators) यानी आबादी बढ़ने का मुख्य कारण यह नहीं है कि हम लोग बेलगाम खरगोशों की तरह झुंड के झुंड जनते जा रहे हैं, शायद कीड़े, मकोड़े, मक्खियों की तरह बेमौत मर नहीं रहे हैं। किसी भी समूह के लिए यह एक शानदार उपलब्धि है, एक अपार खुशी और गर्व की बात। पर ताज्जुब की बात है कि हमारी सरकार, नीति बनाने वाले विशेषज्ञ, अमीर तबका, बुद्धिजीवी वर्ग और काफी संख्या में मध्यमवर्गीय लोग भी इसका मातम मना रहे हैं। क्या वे इस बात से उल्लसित नहीं है कि जहाँ हमारे दादा नाना, 40-42 साल में ही मृत्यु की तैयारी में जुट जाते थे वहीं आज ज्यादातर लोग 65-70 वर्ष तक तत्पर और पूर्णतः परिपूर्ण जीवन जीने की संभावना रखते हैं?
बल्कि हमारा मानना है कि इन समझदारों को आबादी से जुड़ी आसन्न एक और विकराल समस्या पर गौर करना चाहिए। किसी भी समाज का सबसे महत्वपूर्ण संसाधन, मानव संसाधन है। स्वस्थ, सबल बच्चे और युवा वर्ग। अब यह गहन चिंता की बात है कि दुनिया के कई देशों में जन्मदर इतनी भी नहीं है कि आबादी आज के स्तर तक भी बनी रहे। रूस, जर्मनी, चेक रिपब्लिक, पोलैंड, इटली, जापान, आस्ट्रिया जैसे देशों में तो आबादी की बढ़ोत्तरी दर शून्य से कम है। यानी उनकी आबादी क्रमशः घटती जा रही है। विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया की आबादी जो आज तकरीबन 6.5 अरब (बिलियन) है, 2040 तक तो रेंगती हुई बढ़ेगी और करीब 7.6 अरब तक पहुंच जायेगी। पर उसके बाद साल दर साल घटेगी और इक्कीसवीं सदी के अंत तक वह घटकर पाँच अरब रह जाएगी। पर चिंता का विषय यह है कि उस आबादी में बच्चे और युवा वर्ग के लोगों का अनुपात आज के मुकाबले कहीं कम होगा।
आज भी कई देशों में आबादी की औसत उम्र 35 से 50 वर्ष है पर इस सदी के अंत तक बहुसंख्यक लोग 65 या उससे ज्यादा उम्र के होंगे और यह हाल सिर्फ यूरोप, अमरीका में ही नहीं, अपितु चीन, भारत और अफ्रीकी देशों में भी होगा। क्या आप कल्पना कर सकते हैं इस भीषण विभीषिका का, जहाँ बच्चों की किलकारियाँ, युवाओं के अदम्य उत्साह, बहुसंख्यक बुजुर्गों की कराह के नीचे दब जाएँगे? कहाँ से आएँगी नई सम्भावनाएँ, नई, ऊर्जा, नए विचार, नए प्रयोग? किसी भी प्रजाति के लिए यह एक भीषण संकट का विषय है। विशेषज्ञ इस आसन्न परिस्थिति को आबादी का असली संकट ;जीम तमंस कमउवहतंचीपब बतपेपे मानते हैं। किसी ने ठीक ही कहा था कि बीमारी की सही डायॅगनोसिस (यानी पहचान) करने से ही हम उसका सही उपचार कर सकते हैं। यह पहला और अहम कदम उठाए बिना उपचार करना, अंधे के हाथ में छुरी पकड़ाने के बराबर है-मरीज की गर्दन भी कट सकती है। अब यह हम सब पर है कि हम अपनी सारी ऊर्जा, उद्यम इस बात पर लगाएँ कि हमारे सबसे अनमोल संसाधन-मानव, उसकी जिन्दगी कैसे और खुशहाल बनाएँ, उनकी बुनियादी जरूरतें मूल अधिकारी स्वरूप कैसे उपलब्ध कराएँ, ताकि हर बच्चा, बूढ़ा और युवा, नर-नारी, सभी अपनी सृजनशक्ति का भरपूर इस्तेमाल कर सकें और तमाम संभावनाएँ चारों तरफ विकसित हो पाएँ। या फिर एक विक्षिप्त शुतुर्मुर्ग की तरह रेत में सर छुपाए इन संभावनाओं की निर्मम हत्या करने की योजना बनाएँ? फैसला आप पर है। मुझ पर है। हम सब पर है। इतिहास के पन्ने पलटते हुए भविष्य की पीढि़याँ हमारी कमजोरियों पर हमदर्दी तो जता सकती हैं, हमारी नाकाम, आंशिक कोशिशों से इत्तेफाक रख सकती हैं, पर हमारी निष्क्रियता या बेईमानी से उठाए गए कदम को माफ नहीं करेंगी, कभी नहीं।
टेबुल-1
संसाधन धरती की सम्पूर्ण आबादी धरती की सम्पूर्ण आबादी
का नीचे के 20 प्रतिशत का ऊपर के 20 प्रतिशत
में खपत (सबसे गरीब) में खपत (सबसे अमीर)
दुनिया के सकल निजी खपत में होने वाले खर्च में हिस्सेदारी 1.3% 86%
दुनिया के सकल मीट मछली में हिस्सेदारी 5% 45% दुनिया के सकल ऊर्जा खपत में हिस्सेदारी 4% 58%
दुनिया के सकल टेलीफोन लाइंस इस्तेमाल में हिस्सेदारी 1.5% 74%
दुनिया के सकल वाहन इस्तेमाल में हिस्सेदारी 1% 87%
स्रोत-ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 1998, ओवरव्यू, यूएनडीपी, 1955
टेबुल-2
दुनिया में प्रत्येक व्यक्ति को बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने पर अतिरिक्त खर्च
प्राथमिक सुविधाएँ अतिरिक्त खर्च
सभी के लिए बुनियादी शिक्षा 6 अरब डॉलर
पीने का पानी और साफ-सुथरा परिवेश बनाए रखने के लिए 9 अरब डॉलर
बुनियादी स्वास्थ्य और पर्याप्त पोषण 13 अरब डालर
महिलाओं के प्रजनन सम्बंधित स्वास्थ्य सुविधा 12 अरब डॉलर
कुल 40 अरब डॉलर
स्रोत-ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 1998, ओवरव्यू,
टेबुल-3
मद सालाना व्यय
अमरीका में सौन्दर्यवर्धक सामग्री पर खर्च 8 अरब डॉलर
यूरोप में आइसक्रीम पर खर्च 11 अरब डॉलर
अमरीका तथा यूरोप में इत्र/परफ्यूम पर खर्च 12 अरब डॉलर
यूरोप तथा अमरीका के पालतू जानवर के खाद्य पर खर्च 17 अरब डॉलर
जापान में व्यावसायिक मनोरंजन पर खर्च 35 अरब डॉलर
यूरोप में सिगरेट पर खर्च 50 अरब डॉलर
यूरोप में शराब पर खर्च 105 अरब डॉलर
दुनिया भर में नशीले पेय पर खर्च 400 अरब डॉलर
दुनिया भर में सैन्यबल तथा अस्त्र शस्त्र पर खर्च (2009) 1300 अरब डॉलर
अमरीका का इराक तथा अफगानिस्तान में अब तक खर्च (2009) 700 अरब डॉलर
हाल में आई मंदी से उबरने के लिए अमरीकी सरकार द्वारा बेल आउट पैकेज (2009) 970 अरब डॉलर
सूचकांक के भीषण रूप से गिर जाने पर और मंदी के कारण हुआ नुकसान (2009) 1450 अरब डॉलर स्रोत-ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट 1998, ओवरव्यू, यूएनडीपी, 1955
Further Reading
1Human Development Report 1998, Overview : Changing today's Consumption Patterns - for tomorrow's human development.
1 टिप्पणी:
विस्तारपूर्वक आपने जनसंख्या विस्फ़ोट पर एक सामयिक और सार्थक आलेख प्रस्तुत किया सुमन जी । यकीनन ये आज सबसे बडी समस्या है देश की और विश्व की भी
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