कृषक समाज में धार्मिक आंदोलन, समाज के सामाजिक सांस्कृतिक संगठन को शक्ति देने में बड़ी भूमिका निभाता है। धर्म ने स्वतंत्र तत्व के रूप में समाजों के निर्माण में योगदान दिया है, पर जब वह समाज के एक सम्प्रदाय विशेष के निहित स्वार्थों से हाथ मिला लेता हैं तब वह अनेक बाधाओं को उत्पन्न करता है। शिक्षा के संदर्भ में हमारे पास पर्याप्त साक्ष्य हैं जो औपनिवेशिक और साम्प्रदायिक हितों के बीच गठजोड़ को प्रदर्शित करता हैं।
हमारी शिक्षा व्यवस्था में औपनिवेशिक हस्तक्षेप ने पहले की पारंपरिक व्यवस्था ‘‘प्रारम्भिक उदार विचार की केन्द्रीय धारणा की तुलना में अठारहवीं शताब्दी में विभिन्न चितंन संग्रह का निर्माण किया, जिससे पता चला कि औपनिवेशिक शिक्षा प्रबंध में राज्य की भूमिका स्वामित्व हितों के संरक्षक की थी। राज्य के अभिकरण के तौर पर शिक्षा को दोहरी भूमिका अदा करनी पड़ती थी। प्रथम यह माना जाता था कि लोगों को नैतिकता से सज्जित किया जाना है, इस प्रकार राज्य को शांति बनाए रखने में मदद मिलती थी, और द्वितीय उच्च वर्ग को कौशल तथा ज्ञान से लैस किया जाए जो कि बौद्धिक तथा सौदंर्य शास्त्रीय आनंद के लिए जरूरी था।’’ (कृष्ण कुमार, पोलिटिकल एजेण्डा ऑफ़ एजूकेशन, नई दिल्ली, सेज पब्लिकेशन, 2005, पेज 99)।
औपनिवेशिक शिक्षा ढाँचा की तमाम लोगों जैसे कि ज्योतिबा राव फुले द्वारा आलोचना की गई। उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की नीतियों की आलोचना किया क्योंकि यह उच्च जाति के ब्राह्मणों के आधिपत्यीय हितों का संरक्षण करती थी। फुले की आयुधशाला में ब्राह्मणों का वैधानिक प्रभुत्व मुख्य तत्व है जिसके खिलाफ दलितों को अपनी सामाजिक ताकतों के गतिविज्ञान को संगठित करना पड़ेगा और शिक्षा तथा रोजगार वे संसाधन हैं जिनसे वे अपने संघर्षों के लिए ऊर्जा प्राप्त करते हैं। लोक सेवा तथा उदार व्यवसाय जैसे कि वकालत तथा अध्यापन फुले के लिए अत्यंत दुःख का विषय था। (कृष्ण कुमार, पोलिटिकल एजेण्डा ऑफ़ एजूकेशन ‘‘ए स्टडी ऑफ़ कोलोनियल एण्ड नेशनलिस्ट आइडियाज’’ सेज, 2005, नई दिल्ली, पृष्ठ-100-101) अपने सामाजिक कार्यक्रम के बचाव के लिए फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना किया। इसका उद्देश्य शिक्षा और वेतन वाली नौकरियों पर से ब्राह्मणों के एकाधिकार को चुनौती देना था। यह एक सेवा मंच की तरह था जहाँ सभी गैर ब्राह्मण जातीय, जिसमें अछूत भी थे, शामिल हो सकते थे। ओमवेट ने अवलोकन किया कि सत्यशोधक समाज का यह बड़ा दृष्टिकोण धीरे-धीरे गैर ब्राह्मण आंदोलन से अपनी पकड़ खो बैठा, कुछ अंश तक तो औपनिवेशिक स्थिति की विविधा के कारण क्योंकि औपनिवेशिक समाज में राष्ट्रीय क्रांति और सामाजिक क्रांति ने समाज को अलग तरह के विकास की तरफ अग्रसर किया। (ओमवेट, गेल-ज्योति फुले एण्ड आइडियोलोजीऑफ़ सोशल रिवोल्यूशन इन इण्डिया, इकनामिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, 6 (31), 1969-78) इस प्रकार समाज के विशिष्ट शिक्षित और गैर ब्राह्मणों द्वारा यह एक सामाजिक संघर्ष था जिसने ब्राह्मणवादी एकाधिकार से लड़ने में मद्द किया। फुले की तरह अम्बेडकर ने अंग्रेजी शिक्षा को ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पंजों से बौद्धिक मुक्ति के साधन के बतौर देखा। गांधी अछूतों के प्रति संवेदनशील थे। उन्होंने कहा ‘‘हरिजन, सुधारों को कैसे सुरक्षित किया जाता है, नहीं जानता है। वह खुद को बचाने की इच्छा नही रखता है। वह पीले लोगों की धूर्तता के खिलाफ अपने को बचाने की स्वाभाविक योग्यता तथा मानवीय गौरव से पूरी तरह अचेतन रहता है’’ (गांधी, 1935-65)।
सामाजिक ताकतें जो कि सामाजिक राजनीति कार्यक्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाना चाहती थीं, अंततोगत्वा जमीनी यथार्थ के काम में लग गई थीं और उन्होंने ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज उठाने का बीड़ा उठाया। उनकी मुख्य दिलचस्पी शिक्षा में ब्राह्मणवादी विचार के खिलाफ वैचारिक बहस को मजबूत करना था। समाज के निम्नतम् स्तर में इस सामाजिक बोध ने उच्चतम स्तर के समाज में एक प्रतिक्रिया पैदा किया। इस उभरते हुए सामाजिक दृश्य के अन्तर्गत उच्च जाति के लोगों ने अपने हितों की सुरक्षा के लिए एक संगठन की तलाश शुरू की इन परिस्थितियों में तमाम संगठन और शैक्षिक व्यवस्थाएँ, हिन्दू समुदाय के विशिष्ट वर्ग के हितों की सुरक्षा के लिए विकसित किए गए। उदाहरणार्थ आर्य समाज ने प्राचीन भारतीय हिन्दू सभ्यता की प्रगति के स्तर के संबंध में विवरण देते हुए अंग्रेजी शिक्षित हिन्दू भारतीयों से संक्षिप्त रूप में आग्रह किया ‘‘जब समूचा यूरोप अभी भी योग्यता/क्षमताओं के चारो ओर दौड़ रहा है और हिन्दुस्तान के प्रारंभिक निवासियों की अतुलनीय वैज्ञानिक सफलताओं और अद्वितीय वैज्ञानिक प्रकृति के संबंध में इसके दावे ध्यान देने योग्य हैं। (स्वामी दयानंद सरस्वती-1946)
इतिहासकार ज्ञानेन्द्र पाण्डेय ने राजनीति और विचार प्रक्रिया में हिन्दू दावों के आविर्भाव को इन शब्दों में सिद्धांतीकृत किया है ‘‘पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक हिन्दू नव जागरण वादी राजनीति, मुस्लिम की अपेक्षा ज्यादा स्पष्ट है यह नकारात्मक संख्यात्मक शक्ति के कारण है और यह स्थानीय हिन्दुओं के संसाधन के रास्तों पर सामान्य उत्कर्ष का भी कारण है। गो रक्षा अभियान हिन्दू समुदाय को उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में इकट्ठा करने के कार्यक्रम का केवल एक हिस्सा था। वैसे ही देवनागरी लिपि में लिखी हुई संस्कृत निष्ठ भाषा को आगे बढ़ाने का भी आंदोलन महत्वपूर्ण था। (स्वामी दयानंद सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, हर विलास शारदा, लाइफ ऑफ दयानंद सरस्वती, अजमेर, 1946, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय द्वारा उद्धृत ‘‘द कन्सट्रक्शनऑफ कम्यूनलिज्म इन कोलोनियल नार्थ इण्डिया,’’ आॅक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1990, पेज 207, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय, 1990, पेज 206)
प्रसिद्ध शिक्षा विद् कृष्ण कुमार (1995) ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गति विज्ञान की तरफ इशारा करते हुए हिन्दू दावों के दूसरे पक्षों का अध्ययन किया, ‘‘1930 से आगे बढ़ते हुए हिन्दी क्षेत्र ने भारत के भविष्य में एक भिन्न किस्म की हिन्दू दृष्टि को पोषित करने के लिए एक स्रोत से और भी अधिक तीव्रता प्राप्त की है जो कि इस क्षेत्र को दक्षिण पंथ की तरफ ले जाता हैं। यह स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ था-नवजागरणवादीराष्ट्रीयतावाद के सशक्त बीज की कली जिसे तिलक ने पश्चिमी भारत में बोया था।’’ (एण्डरसन एण्ड दामले, ‘‘द ब्रदरहूड इन सैफ्रान: द राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एण्ड हिन्दू रिवाइवलिज्म, नई दिल्ली, सेज-1987), 1930 के पहले तक आर0एस0एस0 नेतृत्व ने अपनी आकांक्षायुक्त निगाहों को केन्द्रीय राज्यों के हिन्दी क्षेत्रों में डालना शुरू कर दिया था और बाद में उत्तर की तरफ गंगा के मैदानी इलाकों पर भी। यह तब हुआ जब आर.एस.एस. नेता हेडगेवार को आर्य समाज के प्रमुख नेता भाई परमानंद ने आल इण्डिया यंग मेन्स हिन्दू एसोशिएशन की सभा में भाग लेने के लिए कराँची बुलाया। इस यात्रा ने आर.एस.एस. नेता को पहली बार उन इलाकों में आर.एस.एस. की गतिविधियाँ शुरू करने का मौका दिया जहाँ आर्य समाज ने स्थाई श्रोता पा लिए थे, जैसे कि पंजाब और संयुक्त प्रांत, 30 के दशक में आर0एस0एस0 की शाखाएँ हिंदी क्षेत्रों में बड़ी तेज गति से बढ़ीं। आर0एस0एस0 की विचारधारा तथा इसके कार्य करने के तरीके का आकर्षण अध्यापकों तथा बच्चों पर पूरी तरह से स्पष्ट था। यहाँ एक सुस्पष्ट कार्यक्रम था जो मूल्यों के भाव तथा आदर्शवाद से तरुणों को प्रेरित करने का वादा करता था, यह कार्यक्रम चमकदार हिन्दू पुनरुत्थान के नाटकीय उद्देश्यों, उल्लेखों से भी भरा था (कृष्ण कुमार, 2005, पृष्ठ 147)।
बीसवें दशक के बीच में कुछ प्रमुख नेताओं में साम्प्रदायिक रास्तों का पक्ष लेने की प्रवृत्ति बढ़ी। ब्रिटिश शासकों ने इस प्रवृत्ति को अपने निहित स्वार्थाें के लिए आगे बढ़ाया। यह वही समय था जब केशवराम बलिराम हेडगेवार ने आर0एस0एस0 की 1925 में नागपुर में स्थापना की थी। उनका लक्ष्य हिन्दू राज्य को बचाना था। डाॅ0 हेडगेवार ने गांधी के हिन्दू-मुस्लिम एकता के कार्यक्रम का हमेशा विरोध किया और ब्रिटिश शासन का पक्ष लिया। आर0एस0एस0 सदैव धर्म निरपेक्ष शिक्षा की संकल्पना तथा धरोहर के खिलाफ रहा है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान हिन्दू रूढि़वादी ताकतों (आर0एस0एस0 उनमें प्रमुख था) ने औपनिवेशिक विरोधी संघर्ष में उभरते हुए धर्म निरपेक्ष विचार का विरोध किया। उनका मुख्य कार्यक्रम भारतीय जनता में हिन्दू सम्प्रदाय की श्रेष्ठता को फैलाना था। इसने सहजतापूर्वक न केवल आर0एस0एस0 नेतृत्व को स्वतंत्रता आंदोलन की सीमा से दूर किया बल्कि उससे भी आगे, दोनों के बीच एक पत्थर की दीवार बना दिया। आर0एस0एस0 नेतृत्व ने हिन्दुत्व की यात्रा जारी रखने के लिए अपने हाथ में ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों को ले लिया।
आर0एस0एस0 के मुताबिक भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के नेता तथा आजादी के बाद के भारतीय नेता हिन्दू संस्कृति पर आधिरित राष्ट्र का निर्माण करने में असक्षम रहे हैं।
आर0एस0एस0 का विचार है कि पाश्चात्य विचार और सभ्यता हिन्दू संस्कृति के दुश्मन हैं। इस्लाम और ईसाई धर्म को भारत में विदेशी कहा जाता है क्योंकि यह विदेशी हमलावरों जैसे मुगल और ब्रिटिश के धर्म हैं।
इस्लाम तथा ईसाइयत दोनों ने भारत में मुगल शासन के पहले प्रवेश किया था। आर.एस.एस. हिन्दू पुनर्जागरण और उग्र राष्ट्रवाद की तस्वीर की तरह सामाजिक जीवन के सम्पूर्ण सप्तक को फिर से पुनर्परिकल्पित करना चाहती थी। इस परिदृश्य ने आर0एस0एस0 को इसके राजनैतिक, सामाजिक, तथा शैक्षिक भागों को उत्पन्न करने के लिए प्रेरित किया, यह परिवार वाला संगठन बन गया जो कि सामूहिक रूप से अब संघ परिवार के नाम से जाना जाता है। (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ’’संघ कार्य’’ फैलते हुए क्षितिज की तरफ) आर.एस.एस. ने उपनिवेश विरोधी आंदोलन का विरोध किया। गुरू गोलवलकर ने चिह्नित किया ’’ब्रिटिश विरोध को देशभक्ति तथा राष्ट्रवाद के बराबर माना जा रहा है। यह प्रतिक्रियावादी विचार स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं तथा सामान्य जनता के सम्पूर्ण गति में संकटकारी प्रभाव उत्पन्न करेगा। (बंच आॅफ थॉट्स , पेज 138)
उन्होंने इन्हीं साम्प्रदायिक विचारों का प्रसार करते हुए साम्राज्यवाद विरोधी जनउभार को विघटित किया। 1940 में जब आर.एस.एस. ने अपने नेतृत्व को पुनः संगठित किया (गुरु गोलवलकर ने नेतृत्व सँभाला), उसी समय पाकिस्तान प्रस्ताव ने तीखे साम्प्रदायिक प्रचार के लिए एक उपजाऊ जमीन तैयार की। भारतीय जनता को घृणित ढाँचे के लिए सांम्प्रदायिक बनाने के प्रयास को नेता अच्छी तरह समझ रहे थे। साम्प्रदायिकता की चुनौतियों से निपटने के लिए धर्म निरपेक्ष शिक्षा की स्थापना का काम स्वतंत्रता आंदोलन का त्वरित काम बन गया। धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और जनवादी ताकतों ने तब दृढ़ मन बनाया कि राष्ट्रीय एकीकरण को केवल धर्म निरपेक्ष शिक्षाओं से ही आगे बढ़ाया जा सकता है लेकिन साम्प्रदायिक ताकतेां ने हमेशा इन पहल कदमियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा।
उभरती हुई साम्प्रदायिक ताकतों ने विशेषकर हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतांें ने अपने वैचारिक और प्रशिक्षण केन्द्र खेले। इस ऐतिहासिक संदर्भ में शिशु मंदिरों की स्थापना भारतीय राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र में बदलने के आर.एस.एस. के वैचारिक कार्यक्रम का परिणाम था। इन साम्प्रदायिक संगठनों के विविध आयामों को समझने में शिशु मंदिरांे की संक्षिप्त ऐतिहासिक उत्पत्ति का विवरण तथा अन्य सामाजिक सांस्कृतिक पहलू मददगार साबित हो सकता है। यह इस प्रकार हैः-
शिशु मंदिर का संक्षिप्त वर्णन
आर.एस.एस. की साम्प्रदायिक हिन्दू इकाई, शक्ति प्राप्त करने के लिए और जनता के राजनैतिक विचार प्रक्रिया के पुनरभिमुखी करण के लिए शिक्षा को एक महत्वपूर्ण तत्व मानती है। हिन्दू राष्ट्र की संरचना को नई तीव्रता देने के लिए हिन्दू विचार के वैचारिक आधिपत्य को माना गया इसके लिए शिक्षण संस्थाएँ उनके साम्प्रदायिक कार्यक्रम को पूरा करने के लिए एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गईं। इस संबंध में विद्याभारती का स्थान संघ परिवार में प्रमुख है। पूरे देश के अंदर तथा बाहर मुख्यतया मध्यम वर्ग के छात्रों को शिक्षा प्रदान करने के लिए विद्या भारती निजी स्कूलों का सबसे बड़ा तंत्र चलाती है। विद्या भारती के पास 17,386 स्कूल हैं (ग्रामीण और शहरी दोनों), 2.2 लाख छात्र, 9300 अध्यापक, 15 प्रशिक्षण केन्द्र विद्यालय, 12 महाविद्यालय और 7 व्यावसायिक तथा प्रशिक्षण संस्थान हैं (आँकड़े मार्च 2002 के हैं) आर0एस0एस0 के अन्य संगठन साम्प्रदायिक विचारधारा पर आधारित शिक्षा प्रदान कर रहे हैं जैसे वनवासी कल्याण आश्रम जिसमें अन्य गतिविधियों के साथ-साथ आदिवासी बच्चों के लिए छात्रावास की व्यवस्था है। सेवा भारती (दलितों के लिए) और ‘एकल विद्यालय’ फाउंडेशन चलते हैं जो कि एक शिक्षक आधारित प्राथमिक विद्यालय है जहाँ बच्चों को मौलिक पढ़ाई लिखाई के साथ संस्कृत और संस्कार की शिक्षा मिलती है। (नंदिनी सुदंर, ई0पी0डब्ल्यू0 2004 पेज 1605) भारतीय जनता की अगली पीढ़ी के बीच में आर0एस0एस0 की विचारधारा को फैलाने के लिए पहला सरस्वती शिशु मंदिर 1952 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में खोला गया। जब शिशु मंदिरों की संख्या देश के विभिन्न भागांे में बढ़ने लगी तो एक आॅल इण्डिया कोआॅर्डिनेटिंग संस्था विद्या भारती का गठन हुआ जिसका मुख्यालय दिल्ली में है। विद्या भारती शैक्षिक मिशन को हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए तरुण मस्तिष्को को प्रशिक्षित करने के लिए स्थापित किया गया। उनके उद्देश्य तथा लक्ष्य इस प्रकार हैं-
‘‘बच्चा हमारी समस्त आकांक्षाओं का केन्द्र है। वह हमारे देश का संरक्षक है। धर्म और संस्कृति बच्चे को उसकी भूमि तथा पूर्वजों से जोड़ना शिक्षा के लिए प्रिय, सरल तथा सुस्पष्ट आज्ञा है। हमें बच्चें के चहुँमुखी विकास को शिक्षा तथा संस्कार के द्वारा प्राप्त करना पड़ेगा जैसे कि समय द्वारा सम्मानित मूल्य तथा परम्पराओं को मन में बैठाना।’’
विद्या भारती स्कूलों को समृद्ध व्यवसायियों के निजी दान तथा अन्य सम्पन्न हमदर्द लोगों, जिसमें अप्रवासी भारतीय भी शामिल हैं, से आर्थिक सहायता मिलती हैं (साउथ एशिया सिटिजन्स वेब और सबरंग कम्यूनिकेशन्स 2002) संघ परिवार की शैक्षणिक संस्थाएँ अपने दैनिक कार्यांे को चलाने के लिए सरकार से सहायता न लेने का दावा करती हैं। पर तथ्य कुछ और हैं। आर.एस.एस. तंत्र का प्रसार तथा इसके शैक्षिक तंत्र का फैलाव निश्चित रूप से भाजपा सरकार के शक्ति में रहने के दौरान दोनों में परस्पर अंतर्सम्बन्ध प्रदर्शित करता है। शिशु मंदिर स्कूलों ने नब्बे के दशक में अपने तंत्र को फैलाने के लिए एक नई गति प्राप्त की। राजग सरकार ने इन संस्थाओं को कई तरह से लाभ पहुँचाया। इस सम्बन्ध में ह्यूमन वॉच , वल्र्ड रिपोर्ट 2001 ने देखा कि संघ परिवार के सदस्यों ने कई सरकारी तथा शैक्षिक स्कूलों को अपने साथ शामिल किया था। कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष इस प्रकार हैं-
‘‘संघ परिवार के सदस्यों को जिले तथा तहसील स्तर की अनेक सलाहकार समितियों जिनमें पुलिस सलाहकार समितियाँ, सामाजिक न्याय समिति तथा अन्य सरकारी पदाधिकारी भी शामिल थे, के ऊपर अधिकार करने दिया गया। करीब 20000 विद्या सहायकों को गाँवों में स्कूल चलाने के लिए भर्ती किया गया जो आर0एस0एस0 से लिए गए थे। विश्व हिन्दू परिषद को दूरस्थ गाँवों में मुक्त स्कूल खोलने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इन स्कूलों में प्रायः पाठ्यक्रम को सूक्ष्म रूप में भगवा विचारधारा के अनुरूप बदला गया था। सरस्वती शिशु मंदिर तथा विद्या भारती के अन्य संगठन अपने स्वयं के पाठ्यक्रम पाठ्यचर्या तथा अन्य अध्यापकीय गतिविधियों से काम लेते हैं। हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल सबसे आम बात है। उदाहरण के लिए कक्षाओं को ‘‘बशिष्ठ कक्ष’’, ‘‘विश्वामित्र कक्ष’’ नाम देना तथा तमाम ब्राह्मण वादी संस्कारों का अध्यापकों तथा पाठ्यचर्या द्वारा समर्थन किया जाता है। इसके अलग दो सरकारी घोषित छुट्टियों (26 जनवरी तथा 15 अगस्त) के बजाय शिशु मंदिर अपनी कार्यावली के मुताबिक विशिष्ट छुट्टियाँ मनाते हैं जैसे शिवाजी, जीजाबाई, विवेकानंद, दीनदयाल उपाध्याय और सावरकर के जन्मदिन को मनाना। यहाँ पर यह जिक्र करना महत्वपूर्ण होगा कि गांधी जयंती पिछले कुछ सालों से ही मनाई जा रही है। पूर्व राष्ट्रपति और शिक्षाविद सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस (5 सितम्बर) को समूचे देश में अध्यापक दिवस के बतौर मनाया जाता है। लेकिन आर.एस.एस. के स्कूल (शिशु मंदिर) इसे मनीषी व्यास जन्म दिवस के रूप में मनाते हैं। इस तरीके से कृष्ण जन्माष्टमी को शिशु मंदिर में बाल दिवस के तौर पर मनाया जाता है जबकि सामान्य रूप से देश में इसे पं0 नेहरु के जन्म दिवस 14 नवम्बर को मनाया जाता हैं।’’
ऊपर जिक्र किए गए समारोहों से पता चलता है कि शिशु मंदिर ने स्वतंत्रता संग्राम की समूची मिश्रित धरोहर को नकार दिया है। यहाँ पर यह जिक्र करना उपयुक्त होगा कि हमारी राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने वाली संयोजक ताकत धर्म निरपेक्ष और समान शिक्षा का परिणाम रही है। इस कारण से शिशु मंदिर की शिक्षा और पाठ्यचर्या शिक्षा में वैज्ञानिक प्रकृति और राष्ट्रीय एकता के लिए भी एक खतरा बन गई है। यह हमारी शिक्षा नीति के अंगीकृत मानकों के खिलाफ भी है।
शिशु मंदिर में एक और महत्वपूर्ण पाठ्यचर्या की गतिविधि ‘‘संस्कृति ज्ञान परीक्षा है जो सांस्कृतिक ज्ञान के लिए देश के भूगोल, इतिहास और संस्कृति की रूढि़वादी हिन्दू साम्प्रदायिक तरीके से व्याख्या करती है। नीचे दिए गए रामजन्म भूमि सम्बन्धी प्रश्न और उत्तर, इस समझ को प्रकट करते हैं जिसे ये संगठन भारतीय इतिहास के बारे में नन्हें मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश कर रहे हैं:-
प्रश्नः- किस मुगल हमलावर ने 1582
में राम मंदिर को नष्ट किया?
उत्तर- बाबर
प्रश्नः- 1852 से 1992 तक कितने
रामभक्तों ने लोगों को आजाद
करने के लिए अपने जीवन का
बलिदान दिया?
उत्तर- 300000
इससे स्पष्ट है कि कैसे ‘‘विद्या भारती’’ स्कूलों ने अपने साम्प्रदायिक कार्यक्रम को पूरा करने के लिये संगठन तैयार करने के उद्देश्य से गलत सूचनाओं को छात्रों के मन में बैठाया। कक्षा पाँच की पाठ्य पुस्तक ‘‘इतिहास गा रहा हैै’’ में इस सिद्धान्त को प्रस्तुत किया गया कि आंतरिक विभाजन की वजह से तुर्क, मंगोल तथा मुगल आक्रमणों के लिए जगह बन पाई। लेकिन यहाँ यह भी ध्यान दिया जाता है कि ‘मध्यकालीन दौर में हिन्दुत्व का संघर्ष जिंदा था’’ (सिंह 1997, पेज 9) हिन्दू मुस्लिम सहयोग को हिन्दुओं के लिए धोखा की तरह समझा जाता है। (सिंह, 1997, पेज 78) ईसाई पादरियों को उपनिवेशवाद के मुख्य यंत्र के तौर पर वर्णित किया गया। (सिंह, 1997, 27) शिवाजी, राणा प्रताप, चन्द्रगुप्त मौर्य, भगवान राम, भगवान कृष्ण, दयानंद सरस्वती को हिन्दू राष्ट्र के महान नेताओं की तरह वर्णित किया गया है। इसमें आर.एस.एस. के संस्थापक हेडगेवार तथा गोलवलकर की महानता को तथा हिन्दू एकता के लिए आर.एस.एस. जैसे संगठन की जरूरत को भी विस्तृत रुप से बताया गया हैं। (सिंह 1997 पेज 77-78)
विद्या भारती के विस्तृत अध्ययन द्वारा यह साबित हो गया है कि शिशु मंदिर हिन्दू साम्प्रदायिकता का शैक्षिक संगठन हैं। ये संगठन हमारी धर्मनिरपेक्ष तथा राष्ट्रीय एकता की अंगीकृत वैधानिक नीति के खिलाफ हैं। शैक्षणिक संगठनों के भीतर इस तरह की गैर संवैधानिक गतिविधियों को रोकने के लिए, एक उच्च शक्ति वाली प्रबोधक व्यवस्था का निर्माण सरकार द्वारा किया जाना चाहिए जो समान तथा धर्म निरपेक्ष शिक्षा को सुनिश्चित करें।
-डॉ. आरिफ
- मो0 09415270416
लोकसंघर्ष पत्रिका के मार्च २०१४ में प्रकाशित
हमारी शिक्षा व्यवस्था में औपनिवेशिक हस्तक्षेप ने पहले की पारंपरिक व्यवस्था ‘‘प्रारम्भिक उदार विचार की केन्द्रीय धारणा की तुलना में अठारहवीं शताब्दी में विभिन्न चितंन संग्रह का निर्माण किया, जिससे पता चला कि औपनिवेशिक शिक्षा प्रबंध में राज्य की भूमिका स्वामित्व हितों के संरक्षक की थी। राज्य के अभिकरण के तौर पर शिक्षा को दोहरी भूमिका अदा करनी पड़ती थी। प्रथम यह माना जाता था कि लोगों को नैतिकता से सज्जित किया जाना है, इस प्रकार राज्य को शांति बनाए रखने में मदद मिलती थी, और द्वितीय उच्च वर्ग को कौशल तथा ज्ञान से लैस किया जाए जो कि बौद्धिक तथा सौदंर्य शास्त्रीय आनंद के लिए जरूरी था।’’ (कृष्ण कुमार, पोलिटिकल एजेण्डा ऑफ़ एजूकेशन, नई दिल्ली, सेज पब्लिकेशन, 2005, पेज 99)।
औपनिवेशिक शिक्षा ढाँचा की तमाम लोगों जैसे कि ज्योतिबा राव फुले द्वारा आलोचना की गई। उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की नीतियों की आलोचना किया क्योंकि यह उच्च जाति के ब्राह्मणों के आधिपत्यीय हितों का संरक्षण करती थी। फुले की आयुधशाला में ब्राह्मणों का वैधानिक प्रभुत्व मुख्य तत्व है जिसके खिलाफ दलितों को अपनी सामाजिक ताकतों के गतिविज्ञान को संगठित करना पड़ेगा और शिक्षा तथा रोजगार वे संसाधन हैं जिनसे वे अपने संघर्षों के लिए ऊर्जा प्राप्त करते हैं। लोक सेवा तथा उदार व्यवसाय जैसे कि वकालत तथा अध्यापन फुले के लिए अत्यंत दुःख का विषय था। (कृष्ण कुमार, पोलिटिकल एजेण्डा ऑफ़ एजूकेशन ‘‘ए स्टडी ऑफ़ कोलोनियल एण्ड नेशनलिस्ट आइडियाज’’ सेज, 2005, नई दिल्ली, पृष्ठ-100-101) अपने सामाजिक कार्यक्रम के बचाव के लिए फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना किया। इसका उद्देश्य शिक्षा और वेतन वाली नौकरियों पर से ब्राह्मणों के एकाधिकार को चुनौती देना था। यह एक सेवा मंच की तरह था जहाँ सभी गैर ब्राह्मण जातीय, जिसमें अछूत भी थे, शामिल हो सकते थे। ओमवेट ने अवलोकन किया कि सत्यशोधक समाज का यह बड़ा दृष्टिकोण धीरे-धीरे गैर ब्राह्मण आंदोलन से अपनी पकड़ खो बैठा, कुछ अंश तक तो औपनिवेशिक स्थिति की विविधा के कारण क्योंकि औपनिवेशिक समाज में राष्ट्रीय क्रांति और सामाजिक क्रांति ने समाज को अलग तरह के विकास की तरफ अग्रसर किया। (ओमवेट, गेल-ज्योति फुले एण्ड आइडियोलोजीऑफ़ सोशल रिवोल्यूशन इन इण्डिया, इकनामिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, 6 (31), 1969-78) इस प्रकार समाज के विशिष्ट शिक्षित और गैर ब्राह्मणों द्वारा यह एक सामाजिक संघर्ष था जिसने ब्राह्मणवादी एकाधिकार से लड़ने में मद्द किया। फुले की तरह अम्बेडकर ने अंग्रेजी शिक्षा को ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पंजों से बौद्धिक मुक्ति के साधन के बतौर देखा। गांधी अछूतों के प्रति संवेदनशील थे। उन्होंने कहा ‘‘हरिजन, सुधारों को कैसे सुरक्षित किया जाता है, नहीं जानता है। वह खुद को बचाने की इच्छा नही रखता है। वह पीले लोगों की धूर्तता के खिलाफ अपने को बचाने की स्वाभाविक योग्यता तथा मानवीय गौरव से पूरी तरह अचेतन रहता है’’ (गांधी, 1935-65)।
सामाजिक ताकतें जो कि सामाजिक राजनीति कार्यक्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव लाना चाहती थीं, अंततोगत्वा जमीनी यथार्थ के काम में लग गई थीं और उन्होंने ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज उठाने का बीड़ा उठाया। उनकी मुख्य दिलचस्पी शिक्षा में ब्राह्मणवादी विचार के खिलाफ वैचारिक बहस को मजबूत करना था। समाज के निम्नतम् स्तर में इस सामाजिक बोध ने उच्चतम स्तर के समाज में एक प्रतिक्रिया पैदा किया। इस उभरते हुए सामाजिक दृश्य के अन्तर्गत उच्च जाति के लोगों ने अपने हितों की सुरक्षा के लिए एक संगठन की तलाश शुरू की इन परिस्थितियों में तमाम संगठन और शैक्षिक व्यवस्थाएँ, हिन्दू समुदाय के विशिष्ट वर्ग के हितों की सुरक्षा के लिए विकसित किए गए। उदाहरणार्थ आर्य समाज ने प्राचीन भारतीय हिन्दू सभ्यता की प्रगति के स्तर के संबंध में विवरण देते हुए अंग्रेजी शिक्षित हिन्दू भारतीयों से संक्षिप्त रूप में आग्रह किया ‘‘जब समूचा यूरोप अभी भी योग्यता/क्षमताओं के चारो ओर दौड़ रहा है और हिन्दुस्तान के प्रारंभिक निवासियों की अतुलनीय वैज्ञानिक सफलताओं और अद्वितीय वैज्ञानिक प्रकृति के संबंध में इसके दावे ध्यान देने योग्य हैं। (स्वामी दयानंद सरस्वती-1946)
इतिहासकार ज्ञानेन्द्र पाण्डेय ने राजनीति और विचार प्रक्रिया में हिन्दू दावों के आविर्भाव को इन शब्दों में सिद्धांतीकृत किया है ‘‘पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक हिन्दू नव जागरण वादी राजनीति, मुस्लिम की अपेक्षा ज्यादा स्पष्ट है यह नकारात्मक संख्यात्मक शक्ति के कारण है और यह स्थानीय हिन्दुओं के संसाधन के रास्तों पर सामान्य उत्कर्ष का भी कारण है। गो रक्षा अभियान हिन्दू समुदाय को उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों में इकट्ठा करने के कार्यक्रम का केवल एक हिस्सा था। वैसे ही देवनागरी लिपि में लिखी हुई संस्कृत निष्ठ भाषा को आगे बढ़ाने का भी आंदोलन महत्वपूर्ण था। (स्वामी दयानंद सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, हर विलास शारदा, लाइफ ऑफ दयानंद सरस्वती, अजमेर, 1946, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय द्वारा उद्धृत ‘‘द कन्सट्रक्शनऑफ कम्यूनलिज्म इन कोलोनियल नार्थ इण्डिया,’’ आॅक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली, 1990, पेज 207, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय, 1990, पेज 206)
प्रसिद्ध शिक्षा विद् कृष्ण कुमार (1995) ने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के गति विज्ञान की तरफ इशारा करते हुए हिन्दू दावों के दूसरे पक्षों का अध्ययन किया, ‘‘1930 से आगे बढ़ते हुए हिन्दी क्षेत्र ने भारत के भविष्य में एक भिन्न किस्म की हिन्दू दृष्टि को पोषित करने के लिए एक स्रोत से और भी अधिक तीव्रता प्राप्त की है जो कि इस क्षेत्र को दक्षिण पंथ की तरफ ले जाता हैं। यह स्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ था-नवजागरणवादीराष्ट्रीयतावाद के सशक्त बीज की कली जिसे तिलक ने पश्चिमी भारत में बोया था।’’ (एण्डरसन एण्ड दामले, ‘‘द ब्रदरहूड इन सैफ्रान: द राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एण्ड हिन्दू रिवाइवलिज्म, नई दिल्ली, सेज-1987), 1930 के पहले तक आर0एस0एस0 नेतृत्व ने अपनी आकांक्षायुक्त निगाहों को केन्द्रीय राज्यों के हिन्दी क्षेत्रों में डालना शुरू कर दिया था और बाद में उत्तर की तरफ गंगा के मैदानी इलाकों पर भी। यह तब हुआ जब आर.एस.एस. नेता हेडगेवार को आर्य समाज के प्रमुख नेता भाई परमानंद ने आल इण्डिया यंग मेन्स हिन्दू एसोशिएशन की सभा में भाग लेने के लिए कराँची बुलाया। इस यात्रा ने आर.एस.एस. नेता को पहली बार उन इलाकों में आर.एस.एस. की गतिविधियाँ शुरू करने का मौका दिया जहाँ आर्य समाज ने स्थाई श्रोता पा लिए थे, जैसे कि पंजाब और संयुक्त प्रांत, 30 के दशक में आर0एस0एस0 की शाखाएँ हिंदी क्षेत्रों में बड़ी तेज गति से बढ़ीं। आर0एस0एस0 की विचारधारा तथा इसके कार्य करने के तरीके का आकर्षण अध्यापकों तथा बच्चों पर पूरी तरह से स्पष्ट था। यहाँ एक सुस्पष्ट कार्यक्रम था जो मूल्यों के भाव तथा आदर्शवाद से तरुणों को प्रेरित करने का वादा करता था, यह कार्यक्रम चमकदार हिन्दू पुनरुत्थान के नाटकीय उद्देश्यों, उल्लेखों से भी भरा था (कृष्ण कुमार, 2005, पृष्ठ 147)।
बीसवें दशक के बीच में कुछ प्रमुख नेताओं में साम्प्रदायिक रास्तों का पक्ष लेने की प्रवृत्ति बढ़ी। ब्रिटिश शासकों ने इस प्रवृत्ति को अपने निहित स्वार्थाें के लिए आगे बढ़ाया। यह वही समय था जब केशवराम बलिराम हेडगेवार ने आर0एस0एस0 की 1925 में नागपुर में स्थापना की थी। उनका लक्ष्य हिन्दू राज्य को बचाना था। डाॅ0 हेडगेवार ने गांधी के हिन्दू-मुस्लिम एकता के कार्यक्रम का हमेशा विरोध किया और ब्रिटिश शासन का पक्ष लिया। आर0एस0एस0 सदैव धर्म निरपेक्ष शिक्षा की संकल्पना तथा धरोहर के खिलाफ रहा है। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान हिन्दू रूढि़वादी ताकतों (आर0एस0एस0 उनमें प्रमुख था) ने औपनिवेशिक विरोधी संघर्ष में उभरते हुए धर्म निरपेक्ष विचार का विरोध किया। उनका मुख्य कार्यक्रम भारतीय जनता में हिन्दू सम्प्रदाय की श्रेष्ठता को फैलाना था। इसने सहजतापूर्वक न केवल आर0एस0एस0 नेतृत्व को स्वतंत्रता आंदोलन की सीमा से दूर किया बल्कि उससे भी आगे, दोनों के बीच एक पत्थर की दीवार बना दिया। आर0एस0एस0 नेतृत्व ने हिन्दुत्व की यात्रा जारी रखने के लिए अपने हाथ में ब्रिटिश औपनिवेशिक हितों को ले लिया।
आर0एस0एस0 के मुताबिक भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के नेता तथा आजादी के बाद के भारतीय नेता हिन्दू संस्कृति पर आधिरित राष्ट्र का निर्माण करने में असक्षम रहे हैं।
आर0एस0एस0 का विचार है कि पाश्चात्य विचार और सभ्यता हिन्दू संस्कृति के दुश्मन हैं। इस्लाम और ईसाई धर्म को भारत में विदेशी कहा जाता है क्योंकि यह विदेशी हमलावरों जैसे मुगल और ब्रिटिश के धर्म हैं।
इस्लाम तथा ईसाइयत दोनों ने भारत में मुगल शासन के पहले प्रवेश किया था। आर.एस.एस. हिन्दू पुनर्जागरण और उग्र राष्ट्रवाद की तस्वीर की तरह सामाजिक जीवन के सम्पूर्ण सप्तक को फिर से पुनर्परिकल्पित करना चाहती थी। इस परिदृश्य ने आर0एस0एस0 को इसके राजनैतिक, सामाजिक, तथा शैक्षिक भागों को उत्पन्न करने के लिए प्रेरित किया, यह परिवार वाला संगठन बन गया जो कि सामूहिक रूप से अब संघ परिवार के नाम से जाना जाता है। (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ’’संघ कार्य’’ फैलते हुए क्षितिज की तरफ) आर.एस.एस. ने उपनिवेश विरोधी आंदोलन का विरोध किया। गुरू गोलवलकर ने चिह्नित किया ’’ब्रिटिश विरोध को देशभक्ति तथा राष्ट्रवाद के बराबर माना जा रहा है। यह प्रतिक्रियावादी विचार स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं तथा सामान्य जनता के सम्पूर्ण गति में संकटकारी प्रभाव उत्पन्न करेगा। (बंच आॅफ थॉट्स , पेज 138)
उन्होंने इन्हीं साम्प्रदायिक विचारों का प्रसार करते हुए साम्राज्यवाद विरोधी जनउभार को विघटित किया। 1940 में जब आर.एस.एस. ने अपने नेतृत्व को पुनः संगठित किया (गुरु गोलवलकर ने नेतृत्व सँभाला), उसी समय पाकिस्तान प्रस्ताव ने तीखे साम्प्रदायिक प्रचार के लिए एक उपजाऊ जमीन तैयार की। भारतीय जनता को घृणित ढाँचे के लिए सांम्प्रदायिक बनाने के प्रयास को नेता अच्छी तरह समझ रहे थे। साम्प्रदायिकता की चुनौतियों से निपटने के लिए धर्म निरपेक्ष शिक्षा की स्थापना का काम स्वतंत्रता आंदोलन का त्वरित काम बन गया। धर्मनिरपेक्ष, प्रगतिशील और जनवादी ताकतों ने तब दृढ़ मन बनाया कि राष्ट्रीय एकीकरण को केवल धर्म निरपेक्ष शिक्षाओं से ही आगे बढ़ाया जा सकता है लेकिन साम्प्रदायिक ताकतेां ने हमेशा इन पहल कदमियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा।
उभरती हुई साम्प्रदायिक ताकतों ने विशेषकर हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतांें ने अपने वैचारिक और प्रशिक्षण केन्द्र खेले। इस ऐतिहासिक संदर्भ में शिशु मंदिरों की स्थापना भारतीय राष्ट्र को हिन्दू राष्ट्र में बदलने के आर.एस.एस. के वैचारिक कार्यक्रम का परिणाम था। इन साम्प्रदायिक संगठनों के विविध आयामों को समझने में शिशु मंदिरांे की संक्षिप्त ऐतिहासिक उत्पत्ति का विवरण तथा अन्य सामाजिक सांस्कृतिक पहलू मददगार साबित हो सकता है। यह इस प्रकार हैः-
शिशु मंदिर का संक्षिप्त वर्णन
आर.एस.एस. की साम्प्रदायिक हिन्दू इकाई, शक्ति प्राप्त करने के लिए और जनता के राजनैतिक विचार प्रक्रिया के पुनरभिमुखी करण के लिए शिक्षा को एक महत्वपूर्ण तत्व मानती है। हिन्दू राष्ट्र की संरचना को नई तीव्रता देने के लिए हिन्दू विचार के वैचारिक आधिपत्य को माना गया इसके लिए शिक्षण संस्थाएँ उनके साम्प्रदायिक कार्यक्रम को पूरा करने के लिए एक महत्वपूर्ण माध्यम बन गईं। इस संबंध में विद्याभारती का स्थान संघ परिवार में प्रमुख है। पूरे देश के अंदर तथा बाहर मुख्यतया मध्यम वर्ग के छात्रों को शिक्षा प्रदान करने के लिए विद्या भारती निजी स्कूलों का सबसे बड़ा तंत्र चलाती है। विद्या भारती के पास 17,386 स्कूल हैं (ग्रामीण और शहरी दोनों), 2.2 लाख छात्र, 9300 अध्यापक, 15 प्रशिक्षण केन्द्र विद्यालय, 12 महाविद्यालय और 7 व्यावसायिक तथा प्रशिक्षण संस्थान हैं (आँकड़े मार्च 2002 के हैं) आर0एस0एस0 के अन्य संगठन साम्प्रदायिक विचारधारा पर आधारित शिक्षा प्रदान कर रहे हैं जैसे वनवासी कल्याण आश्रम जिसमें अन्य गतिविधियों के साथ-साथ आदिवासी बच्चों के लिए छात्रावास की व्यवस्था है। सेवा भारती (दलितों के लिए) और ‘एकल विद्यालय’ फाउंडेशन चलते हैं जो कि एक शिक्षक आधारित प्राथमिक विद्यालय है जहाँ बच्चों को मौलिक पढ़ाई लिखाई के साथ संस्कृत और संस्कार की शिक्षा मिलती है। (नंदिनी सुदंर, ई0पी0डब्ल्यू0 2004 पेज 1605) भारतीय जनता की अगली पीढ़ी के बीच में आर0एस0एस0 की विचारधारा को फैलाने के लिए पहला सरस्वती शिशु मंदिर 1952 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में खोला गया। जब शिशु मंदिरों की संख्या देश के विभिन्न भागांे में बढ़ने लगी तो एक आॅल इण्डिया कोआॅर्डिनेटिंग संस्था विद्या भारती का गठन हुआ जिसका मुख्यालय दिल्ली में है। विद्या भारती शैक्षिक मिशन को हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए तरुण मस्तिष्को को प्रशिक्षित करने के लिए स्थापित किया गया। उनके उद्देश्य तथा लक्ष्य इस प्रकार हैं-
‘‘बच्चा हमारी समस्त आकांक्षाओं का केन्द्र है। वह हमारे देश का संरक्षक है। धर्म और संस्कृति बच्चे को उसकी भूमि तथा पूर्वजों से जोड़ना शिक्षा के लिए प्रिय, सरल तथा सुस्पष्ट आज्ञा है। हमें बच्चें के चहुँमुखी विकास को शिक्षा तथा संस्कार के द्वारा प्राप्त करना पड़ेगा जैसे कि समय द्वारा सम्मानित मूल्य तथा परम्पराओं को मन में बैठाना।’’
विद्या भारती स्कूलों को समृद्ध व्यवसायियों के निजी दान तथा अन्य सम्पन्न हमदर्द लोगों, जिसमें अप्रवासी भारतीय भी शामिल हैं, से आर्थिक सहायता मिलती हैं (साउथ एशिया सिटिजन्स वेब और सबरंग कम्यूनिकेशन्स 2002) संघ परिवार की शैक्षणिक संस्थाएँ अपने दैनिक कार्यांे को चलाने के लिए सरकार से सहायता न लेने का दावा करती हैं। पर तथ्य कुछ और हैं। आर.एस.एस. तंत्र का प्रसार तथा इसके शैक्षिक तंत्र का फैलाव निश्चित रूप से भाजपा सरकार के शक्ति में रहने के दौरान दोनों में परस्पर अंतर्सम्बन्ध प्रदर्शित करता है। शिशु मंदिर स्कूलों ने नब्बे के दशक में अपने तंत्र को फैलाने के लिए एक नई गति प्राप्त की। राजग सरकार ने इन संस्थाओं को कई तरह से लाभ पहुँचाया। इस सम्बन्ध में ह्यूमन वॉच , वल्र्ड रिपोर्ट 2001 ने देखा कि संघ परिवार के सदस्यों ने कई सरकारी तथा शैक्षिक स्कूलों को अपने साथ शामिल किया था। कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष इस प्रकार हैं-
‘‘संघ परिवार के सदस्यों को जिले तथा तहसील स्तर की अनेक सलाहकार समितियों जिनमें पुलिस सलाहकार समितियाँ, सामाजिक न्याय समिति तथा अन्य सरकारी पदाधिकारी भी शामिल थे, के ऊपर अधिकार करने दिया गया। करीब 20000 विद्या सहायकों को गाँवों में स्कूल चलाने के लिए भर्ती किया गया जो आर0एस0एस0 से लिए गए थे। विश्व हिन्दू परिषद को दूरस्थ गाँवों में मुक्त स्कूल खोलने के लिए प्रोत्साहित किया गया। इन स्कूलों में प्रायः पाठ्यक्रम को सूक्ष्म रूप में भगवा विचारधारा के अनुरूप बदला गया था। सरस्वती शिशु मंदिर तथा विद्या भारती के अन्य संगठन अपने स्वयं के पाठ्यक्रम पाठ्यचर्या तथा अन्य अध्यापकीय गतिविधियों से काम लेते हैं। हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल सबसे आम बात है। उदाहरण के लिए कक्षाओं को ‘‘बशिष्ठ कक्ष’’, ‘‘विश्वामित्र कक्ष’’ नाम देना तथा तमाम ब्राह्मण वादी संस्कारों का अध्यापकों तथा पाठ्यचर्या द्वारा समर्थन किया जाता है। इसके अलग दो सरकारी घोषित छुट्टियों (26 जनवरी तथा 15 अगस्त) के बजाय शिशु मंदिर अपनी कार्यावली के मुताबिक विशिष्ट छुट्टियाँ मनाते हैं जैसे शिवाजी, जीजाबाई, विवेकानंद, दीनदयाल उपाध्याय और सावरकर के जन्मदिन को मनाना। यहाँ पर यह जिक्र करना महत्वपूर्ण होगा कि गांधी जयंती पिछले कुछ सालों से ही मनाई जा रही है। पूर्व राष्ट्रपति और शिक्षाविद सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस (5 सितम्बर) को समूचे देश में अध्यापक दिवस के बतौर मनाया जाता है। लेकिन आर.एस.एस. के स्कूल (शिशु मंदिर) इसे मनीषी व्यास जन्म दिवस के रूप में मनाते हैं। इस तरीके से कृष्ण जन्माष्टमी को शिशु मंदिर में बाल दिवस के तौर पर मनाया जाता है जबकि सामान्य रूप से देश में इसे पं0 नेहरु के जन्म दिवस 14 नवम्बर को मनाया जाता हैं।’’
ऊपर जिक्र किए गए समारोहों से पता चलता है कि शिशु मंदिर ने स्वतंत्रता संग्राम की समूची मिश्रित धरोहर को नकार दिया है। यहाँ पर यह जिक्र करना उपयुक्त होगा कि हमारी राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने वाली संयोजक ताकत धर्म निरपेक्ष और समान शिक्षा का परिणाम रही है। इस कारण से शिशु मंदिर की शिक्षा और पाठ्यचर्या शिक्षा में वैज्ञानिक प्रकृति और राष्ट्रीय एकता के लिए भी एक खतरा बन गई है। यह हमारी शिक्षा नीति के अंगीकृत मानकों के खिलाफ भी है।
शिशु मंदिर में एक और महत्वपूर्ण पाठ्यचर्या की गतिविधि ‘‘संस्कृति ज्ञान परीक्षा है जो सांस्कृतिक ज्ञान के लिए देश के भूगोल, इतिहास और संस्कृति की रूढि़वादी हिन्दू साम्प्रदायिक तरीके से व्याख्या करती है। नीचे दिए गए रामजन्म भूमि सम्बन्धी प्रश्न और उत्तर, इस समझ को प्रकट करते हैं जिसे ये संगठन भारतीय इतिहास के बारे में नन्हें मस्तिष्क में बैठाने की कोशिश कर रहे हैं:-
प्रश्नः- किस मुगल हमलावर ने 1582
में राम मंदिर को नष्ट किया?
उत्तर- बाबर
प्रश्नः- 1852 से 1992 तक कितने
रामभक्तों ने लोगों को आजाद
करने के लिए अपने जीवन का
बलिदान दिया?
उत्तर- 300000
इससे स्पष्ट है कि कैसे ‘‘विद्या भारती’’ स्कूलों ने अपने साम्प्रदायिक कार्यक्रम को पूरा करने के लिये संगठन तैयार करने के उद्देश्य से गलत सूचनाओं को छात्रों के मन में बैठाया। कक्षा पाँच की पाठ्य पुस्तक ‘‘इतिहास गा रहा हैै’’ में इस सिद्धान्त को प्रस्तुत किया गया कि आंतरिक विभाजन की वजह से तुर्क, मंगोल तथा मुगल आक्रमणों के लिए जगह बन पाई। लेकिन यहाँ यह भी ध्यान दिया जाता है कि ‘मध्यकालीन दौर में हिन्दुत्व का संघर्ष जिंदा था’’ (सिंह 1997, पेज 9) हिन्दू मुस्लिम सहयोग को हिन्दुओं के लिए धोखा की तरह समझा जाता है। (सिंह, 1997, पेज 78) ईसाई पादरियों को उपनिवेशवाद के मुख्य यंत्र के तौर पर वर्णित किया गया। (सिंह, 1997, 27) शिवाजी, राणा प्रताप, चन्द्रगुप्त मौर्य, भगवान राम, भगवान कृष्ण, दयानंद सरस्वती को हिन्दू राष्ट्र के महान नेताओं की तरह वर्णित किया गया है। इसमें आर.एस.एस. के संस्थापक हेडगेवार तथा गोलवलकर की महानता को तथा हिन्दू एकता के लिए आर.एस.एस. जैसे संगठन की जरूरत को भी विस्तृत रुप से बताया गया हैं। (सिंह 1997 पेज 77-78)
विद्या भारती के विस्तृत अध्ययन द्वारा यह साबित हो गया है कि शिशु मंदिर हिन्दू साम्प्रदायिकता का शैक्षिक संगठन हैं। ये संगठन हमारी धर्मनिरपेक्ष तथा राष्ट्रीय एकता की अंगीकृत वैधानिक नीति के खिलाफ हैं। शैक्षणिक संगठनों के भीतर इस तरह की गैर संवैधानिक गतिविधियों को रोकने के लिए, एक उच्च शक्ति वाली प्रबोधक व्यवस्था का निर्माण सरकार द्वारा किया जाना चाहिए जो समान तथा धर्म निरपेक्ष शिक्षा को सुनिश्चित करें।
-डॉ. आरिफ
- मो0 09415270416
लोकसंघर्ष पत्रिका के मार्च २०१४ में प्रकाशित
1 टिप्पणी:
सार्थक प्रस्तुति...!
सपरिवार रंगोत्सव की हार्दिक शुभकामनाए ....
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