इन दिनों नरेंद्र मोदी से लेकर उनके आगे-पीछे चलने वाले बी.जे.पी. नेता यह कहते नहीं अघाते कि वह देश को मजबूत सरकार देंगे, राष्ट्रीय सुरक्षा की गारंटी करेंगे और न जाने क्या-क्या करेंगे। उन्हें गलतफहमी है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है।
एन.डी.ए. की सरकार में कैसे-कैसे समझौते हुए और देश की इज्जत को बट्टा लगा, इसकी कई मिसालें हैं। फिलहाल सबसे शर्मनाक घटना का उल्लेख।
दिसंबर 1999 में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी भारतीय यात्री विमान का अपहरण
कर कंधार ले गए थे। सक्षम और दृढ़ संकल्प सरकार अमृतसर हवाई अड्डे पर अपहृत विमान का रास्ता अवरुद्ध कर सकती थी। वीरोचित मुद्राएँ दिखाने वालों को कुछ नहीं सूझा। विमान के कंधार पहुँच जाने के बाद तो वीरों के हाथ-पैर फूल गए। मोदी और अन्य नेता कांग्रेस का मजाक यह कह कर उड़ाते हैं कि अजमल कसाब को बिरियानी खिलाई गई। दुष्प्रचार तो दुष्प्रचार ही ठहरा। उन्हें कौन बताए कि खाना-पीना जेल मैनुअल के हिसाब से होता है। काला सच यह है कि भाजपा के विदेशमंत्री जसवंत सिंह तीन कुख्यात आतंकवादियों को साथ लेकर कंधार गए होंगे और उनका खाना-पीना जेल मैनुअल देख कर नहीं हुआ था।
छोटे सरदार (अब पूर्व छोटे सरदार कहें, क्योंकि वर्तमान छोटे सरदार तो मोदी हैं) यानी तत्कालीन गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और कंधार गए विदेशमंत्री जसवंत सिंह सत्ता से हटने के बाद मोटी-मोटी किताबें लिख चुके हैं। लेकिन ईमानदारी से यह नहीं बताया कि पर्दे के पीछे हुआ क्या था। आडवाणी और जसवंत कई इंटरव्यू भी दे चुके हैं। फिर भी सच सामने नहीं आया है। जसवंत का कहना है, ‘‘मैं रहस्योद्घाटन नहीं कर सकता। वक्त आने पर करूँगा।’’ यह मान कर चलते हैं कि बाद में भारत पर आतंक का कहर बरपा करने वाले तीन आतंकवादियों की रिहाई का फैसला सारे वीरों का सामूहिक फैसला था।
बस एक शख्स ने आतंकवादियों की रिहाई का कड़ा विरोध किया था। संघ परिवारियों को सुन कर अच्छा नहीं लगेगा, क्योंकि वह संविधान के अनुच्छेद 370 की स्थाई उपस्थिति पर कोई समझौता नहीं कर सकता और मुसलमान भी है। इस समय केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला उस समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। बकौल फारूक, ‘‘मैंने आडवाणी को फोन करके कहा था कि हम मसूद अजहर और मुश्ताक जरगर जैसे आतंकवादियों को रिहा नहीं कर सकते, उन पर कोर्ट में केस चल रहे हैं। इसलिए रिहा नहीं किया जा सकता।
आडवाणी ने जवाब दिया कि यह केंद्रीय कैबिनेट का फैसला है, आप मदद करें। ‘‘यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि फारूक ने किन परिस्थितियों में आडवाणी को फोन किया था। फारूक के अनुसार उस समय जम्मू में उनके राजकीय आवास पर ‘‘राॅ’’ के चीफ ए.एस. दुलात के नेतृत्व में एजेंसी की टीम पहुँच चुकी थी। अर्थात, आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले राज्य के मुख्यमंत्री से सलाह-मशविरा किए बगैर कश्मीर की जेल में बंद (तीसरा शेख उमर शेख दिल्ली की तिहाड़ जेल में था ) दो आतंकवादियों की रिहाई का फैसला कर लिया गया था। आडवाणी, जसवंत या एन.डी.ए. सरकार के किसी भी मंत्री ने आज तक फारूक के बयान का खंडन नहीं किया है।
एक मिसाल, देखें कांग्रेस आतंकवाद से कैसे निपटती है। 1984 में कांग्रेस की सरकार थी। प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों ने बर्मिंघम (ब्रिटेन) में भारतीय राजनयिक रवींद्र हरेश्वर म्हात्रे का अपहरण कर हत्या कर दी। वह तिहाड़ जेल में बंद लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट की रिहाई की माँग कर रहे थे। अपहरण के तीसरे दिन म्हात्रे का शव बरामद हुआ। इसके बाद तिहाड़ जेल में ही भट को फाँसी दे दी गई। एन.डी.ए. के शासन में राष्ट्रीय सुरक्षा में ढिलाई और कांग्रेसी शासन में राष्ट्रीय हितों पर अडिग रहने और समझौतावादी नीति न अपनाने के अनेक उदाहरण हैं ,जिनके बारे में फिर।
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से
एन.डी.ए. की सरकार में कैसे-कैसे समझौते हुए और देश की इज्जत को बट्टा लगा, इसकी कई मिसालें हैं। फिलहाल सबसे शर्मनाक घटना का उल्लेख।
दिसंबर 1999 में पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी भारतीय यात्री विमान का अपहरण
कर कंधार ले गए थे। सक्षम और दृढ़ संकल्प सरकार अमृतसर हवाई अड्डे पर अपहृत विमान का रास्ता अवरुद्ध कर सकती थी। वीरोचित मुद्राएँ दिखाने वालों को कुछ नहीं सूझा। विमान के कंधार पहुँच जाने के बाद तो वीरों के हाथ-पैर फूल गए। मोदी और अन्य नेता कांग्रेस का मजाक यह कह कर उड़ाते हैं कि अजमल कसाब को बिरियानी खिलाई गई। दुष्प्रचार तो दुष्प्रचार ही ठहरा। उन्हें कौन बताए कि खाना-पीना जेल मैनुअल के हिसाब से होता है। काला सच यह है कि भाजपा के विदेशमंत्री जसवंत सिंह तीन कुख्यात आतंकवादियों को साथ लेकर कंधार गए होंगे और उनका खाना-पीना जेल मैनुअल देख कर नहीं हुआ था।
छोटे सरदार (अब पूर्व छोटे सरदार कहें, क्योंकि वर्तमान छोटे सरदार तो मोदी हैं) यानी तत्कालीन गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी और कंधार गए विदेशमंत्री जसवंत सिंह सत्ता से हटने के बाद मोटी-मोटी किताबें लिख चुके हैं। लेकिन ईमानदारी से यह नहीं बताया कि पर्दे के पीछे हुआ क्या था। आडवाणी और जसवंत कई इंटरव्यू भी दे चुके हैं। फिर भी सच सामने नहीं आया है। जसवंत का कहना है, ‘‘मैं रहस्योद्घाटन नहीं कर सकता। वक्त आने पर करूँगा।’’ यह मान कर चलते हैं कि बाद में भारत पर आतंक का कहर बरपा करने वाले तीन आतंकवादियों की रिहाई का फैसला सारे वीरों का सामूहिक फैसला था।
बस एक शख्स ने आतंकवादियों की रिहाई का कड़ा विरोध किया था। संघ परिवारियों को सुन कर अच्छा नहीं लगेगा, क्योंकि वह संविधान के अनुच्छेद 370 की स्थाई उपस्थिति पर कोई समझौता नहीं कर सकता और मुसलमान भी है। इस समय केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला उस समय जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री थे। बकौल फारूक, ‘‘मैंने आडवाणी को फोन करके कहा था कि हम मसूद अजहर और मुश्ताक जरगर जैसे आतंकवादियों को रिहा नहीं कर सकते, उन पर कोर्ट में केस चल रहे हैं। इसलिए रिहा नहीं किया जा सकता।
आडवाणी ने जवाब दिया कि यह केंद्रीय कैबिनेट का फैसला है, आप मदद करें। ‘‘यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि फारूक ने किन परिस्थितियों में आडवाणी को फोन किया था। फारूक के अनुसार उस समय जम्मू में उनके राजकीय आवास पर ‘‘राॅ’’ के चीफ ए.एस. दुलात के नेतृत्व में एजेंसी की टीम पहुँच चुकी थी। अर्थात, आतंकवाद से सर्वाधिक प्रभावित होने वाले राज्य के मुख्यमंत्री से सलाह-मशविरा किए बगैर कश्मीर की जेल में बंद (तीसरा शेख उमर शेख दिल्ली की तिहाड़ जेल में था ) दो आतंकवादियों की रिहाई का फैसला कर लिया गया था। आडवाणी, जसवंत या एन.डी.ए. सरकार के किसी भी मंत्री ने आज तक फारूक के बयान का खंडन नहीं किया है।
एक मिसाल, देखें कांग्रेस आतंकवाद से कैसे निपटती है। 1984 में कांग्रेस की सरकार थी। प्रधानमंत्री थीं इंदिरा गांधी। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के आतंकवादियों ने बर्मिंघम (ब्रिटेन) में भारतीय राजनयिक रवींद्र हरेश्वर म्हात्रे का अपहरण कर हत्या कर दी। वह तिहाड़ जेल में बंद लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट की रिहाई की माँग कर रहे थे। अपहरण के तीसरे दिन म्हात्रे का शव बरामद हुआ। इसके बाद तिहाड़ जेल में ही भट को फाँसी दे दी गई। एन.डी.ए. के शासन में राष्ट्रीय सुरक्षा में ढिलाई और कांग्रेसी शासन में राष्ट्रीय हितों पर अडिग रहने और समझौतावादी नीति न अपनाने के अनेक उदाहरण हैं ,जिनके बारे में फिर।
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से
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