अपने जीवन के असली या काल्पनिक कष्टों का बार-बार बयान कर जनता की
सहानुभूति हासिल करने की कोशिश अब नरेंद्र मोदी की आदत बन चुकी है। शायद ही
उनकी कोई ऐसी सभा होती हो, जिसमें वह अपने को चाय बेचने वाला न बताते हों।
वह किस तरह के चाय बेचने वाले थे, यह नहीं बताते। उनके कथन का यह अर्थ
निकलता है कि बाल्यावस्था में वह इतना गरीब थे कि चाय बेचा करते थे। दिमाग
में छवि आती है ट्रेनों में चाय बेचने वाले की या इसी तरह कुछ और। अब
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनैतिक सचिव
अहमद पटेल ने रौशनी डाली है कि मोदी चाय बेचने वाले कोई गरीब-दुखिया नहीं
थे।
मोदी के जीवनीकार नीलांजन मुखोपाध्याय ने ‘चाय बेचने वाले’
की असलियत विस्तार से बताई है। सामग्री जुटाने के लिए नीलांजन गुजरात के
मेहसाणा जिले में मोदी के गाँव वडनगर तक गए। उन्होंने उस घर को भी देखा
,जहाँ मोदी का जन्म हुआ था। वडनगर रेलवे स्टेशन के बाहर मोदी के पिता
दामोदर दास की चाय की दुकान थी। छह साल के मोदी पास ही में अपने घर से पिता
की दुकान तक आया करते थे। यह किसी भी बच्चे के लिए बिल्कुल स्वाभाविक बात
है। आते थे तो पिता की कुछ सहायता भी कर देते थे।
यह बात 1956
के आस-पास की है। तब अधिकांश भारत गरीब था। पूरा समाज पिछड़ा था। मध्य वर्ग
और निम्न मध्य वर्ग बहुत सीमित था। उस लिहाज से मान सकते हैं कि मोदी
गरीबी में रहे। लेकिन यह भी जान लेना जरूरी है कि चाय की दुकान चलाने वाला
1956 के संदर्भ में पैसे वाला भी हो सकता है, सामान्य भी हो सकता है और
गरीब भी हो सकता है। जो भी हो, पेट की आग बुझाने के लिए मोदी को चाय नहीं
बेचनी पड़ी और अगर मान लें कि किसी ने अपने जीवन के किसी दौर में चाय बेची
है या अब भी बेच रहा है तो सार्वजनिक मंचों से इसमें प्रचार की क्या बात हो
गई?
अगर कोई इसे भुना रहा है, तो इसके पीछे कौन सी मनोदशा हुई?
तय है कि वह व्यक्ति चाय बेचने के काम को सम्मानजनक नहीं मानता। यह
आत्म-पीड़न का मनोविज्ञान हुआ। मोदी एक बड़े पद के दावेदार हैं। आत्म-पीड़न
की तस्वीर आए दिन पेश करते रहना उन्हें शोभा नहीं देता। चाय बेचने के काम
को हिकारत के दबे भाव के साथ पेश करना और भी अशोभनीय है।
यह ईमानदारी की गारंटी नहीं है
मोदी जी!
नरेंद्र मोदी के मीडिया सलाहकारों और स्क्रिप्ट राइटरों को कितनी मेहनत
करनी पड़ती होगी। सभा स्थल के अनुसार विषय चुनना और भाषण को रसीला बनाने के
लिए डायलॉग लिखना। लेकिन हर बार कुछ न कुछ गड़बड़ हो जाता है। कभी
ऐतिहासिक तथ्यों में हास्यासपद दोष तो कभी कुछ। ताजा मिसाल है हिमाचल की
सभा। मोदी ने भरोसा दिलाया-मेरे आगे पीछे कोई नहीं जिसके लिए मैं करप्शन
करूँगा। यह बात भी जमी नहीं। आगे-पीछे का कथन सत्य पर
आधारित नहीं है। अब कोई घर से भाग खड़ा हो और अपनी जिम्मेदारी न महसूस करे तो बात दीगर है।
जशोदाबेन से बाकायदा उनकी शादी हुई थी। तीन साल वह उनके साथ रहीं। मोदी
उन्हें छोड़ कर वडनगर से निकल आए। कभी खोज-खबर नहीं ली। एक हिंदू विवाह के
समय जो सात वचन देता है, मोदी ने उनका पालन नहीं किया। मोदी ने विधिवत
परित्याग भी नहीं किया। राम भरोसे जशोदाबेन को छोड़ दिया। अविवाहित होने का
ढोंग करते रहे।
भ्रष्टाचार न करने का उनका तर्क भी कुतर्क है।
अविवाहित रहना या घर छोड़ कर अलग रहना ईमानदारी की गारंटी नहीं है। एक
उत्तरी राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री के बारे में किस्से मशहूर हैं।
भ्रष्टाचार के मामलों की फाइल तैयार करने में सी.बी.आई. को महीनों लग गए
होंगे। मामला सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में है। वह अविवाहित हैं। एक
दक्षिणी राज्य की मुख्यमंत्री का किस्सा भी इसी तरह का है। उनकी सालियों और
जूतों-चप्पलों तक के किस्से मशहूर हो गए। उनकी तुलना फिलीपीन की लेडी
मार्कोस से की जाने लगी, जिनके भ्रष्टाचार की अनगिनत कहानियाँ थीं। अगर
किसी के बाल-बच्चे हैं तो इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह भ्रष्ट
होगा या भ्रष्टाचार कर सकता है। भारतीय राजनीति में इसकी सैकड़ों मिसालें
मिल जाएँगी।
मोदी जी, भ्रष्टाचार का संबंध व्यवस्था से भी होता
है और चारित्रिक पतन से भी। धन का लोभ मुख्य रूप से भ्रष्टाचार को पनपाता
है। लोभी तथा क्रोध और झूठ मानव स्वभाव का हिस्सा है। जो इन विकारों पर
विजय पा लेते हैं, वह महात्मा हो जाते हैं (आशा है, महात्मा के उल्लेख से
आप को एतराज नहीं होगा क्योंकि महात्मा से आशय महात्मा गांधी से है!)।
अब आप सोचें इनमें से कितने विकारों पर आप ने विजय प्राप्त कर ली है।
इसलिए करप्शन के बारे में आपने जो भरोसा दिलाया है, उस पर यकीन नहीं होता।
-प्रदीप कुमार
लोकसंघर्ष पत्रिका चुनाव विशेषांक से
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