शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

ड्रीमलैंड की भूमिका ---- भगत सिंह

उस समय भगत सिंह स्वंय फाँसी  के फंदे की प्रतीक्षा कर रहे थे | वे जानते थे कि ऐसे क्षण में भगवान की शरण लेना बहुत सरल है |  '' भगवान से मनुष्य को गहरी सांत्वना तथा आश्रय मिल सकता है | "" दूसरी ओर , अपनी स्वंय की आंतरिक शक्ति पर निर्भर रहना सरल काम नही है | उन्होंने कहा ,  '' तुफानो तथा आधियो में अपने पाँव पर खड़े रहना बच्चो का खेल नही है  | '' वे यह भी जानते थे कि इस कार्य के लिए अत्यधिक नैतिक शक्ति की आवश्यकता थी तथा आधुनिक क्रांतिकारी एक अनूठे नैतिक रास्ते पर चल रहे थे | यह रास्ता मनुष्य को '' मानव जाति की सेवा तथा  ''दुखी  मानवता की स्वतंत्रता ' के प्रति समर्पण के लिए प्रेरित करता था | इस रास्ते पर वही नर -- नारी चल रहे थे , जो साहस के साथ '' दमनकर्ताओं , शोषको तथा जालिमो ' को ललकार रहे थे , जो  ' मानसिक जड़ता ' का विरोध कर रहे थे तथा आत्मचिंतन पर बल दे रहे थे | जैसा कि भगत सिंह ने आगे कहा था , '' आलोचना तथा स्वतंत्र चिंतन एक क्रांतिकारी की दो अनिवार्य विशेषताए है | '' ऐसे ही पलो में भगत सिंह ने ड्रीमलैंड की भूमिका लिखी
ड्रीमलैंड की भूमिका ---- भगत सिंह  
भगत सिंह ने अपने अंतिम दिनों में अपने क्रांतिकारी साथी लाला रामसरन दास की काव्यकृति '' द ड्रीमलैंड '' की भूमिका लिखी थी |
मेरे करीबी दोस्त लाला रामसरन दास  ने मुझसे कहा अपनी काव्यकृति '' द ड्रीमलैंड '' की भूमिका लिखने के लिए कहा है | मैं न तो कवि हूँ , न साहित्यकार हूँ , और न पत्रकार या आलोचक ही हूँ , इसीलिए उनकी इस मांग का औचित्य मैं किसी भी तरह से नही समझ पा रहा हूँ | लेकिन जिन हालातो में मैं हूँ , लेखक से इस बारे में बहस -- मुबाहसा कर पाना संभव नही है , इसीलिए मेरे सामने दोस्त की ख्वाहिश पूरी करने के अलावा कोई रास्ता नही रह जाता है | चूकी मैं कवि  नही हूँ , इसीलिए मैं उस दृष्टिकोण से इस पर बहस करने नही जा रहा हूँ | मैं छन्दों - तुको के ज्ञान से सर्वथा अनभिज्ञ हूँ और यह भी नही जानता कि छन्दों के मानदडो पर कविताएं खरी उतरेगी  या नही | एक साहित्यकार न होने के नाते मैं राष्ट्रीय साहित्य में इस कृति को उचित स्थान दिलाने के दृष्टिकोण से इस पर बहस करने नही जा रहा हूँ |

एक राजनितिक कार्यकर्ता होने के नाते अधिक से अधिक मैं इस पर उसी दृष्टिकोण से बहस कर सकता हूँ | लेकिन यहाँ भी एक बात मेरे काम  को व्यवहारिक तौर पर असम्भव , या कम से कम बहुत कठिन बना देती है | नियमानुसार भूमिका हमेशा वह आदमी लिखता है जो कृति की विषय वस्तु के बारे में वही विचार रखता हो जो लेखक रखता है | लेकिन यहाँ मामला काफी भिन्न है | मैं अपने मित्र से सभी मामलो पर एकमत नही हूँ | वे इस तथ्य से परिचित थे कि कई विषयों पर मेरी राय उनसे बिलकुल अलग हो | इसीलिए , मैं यह जो लिख रहा हूँ , कम - से - कम इस पुस्तक की भूमिका नही होने जा रही है , और चाहे जो हो | यह काफी हद तक उसकी आलोचना हो सकती है , इसीलिए इसका स्थान पुस्तक के अन्त में होगा , न कि आरम्भ में |

राजनितिक क्षेत्र में ' ड्रीमलैंड ' का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है | आज के हालत में वह आन्दोलन के एक जरूरी खालीपन को भरती  है | वास्तव में हमारे देश के सभी राजनितिक आन्दोलनों में , जिन्होंने हमारे आधुनिक इतिहास में कोई न कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है , उस आदर्श की कमी रही है , जिसकी प्राप्ति उसका लक्ष्य था | क्रांतिकारी आन्दोलन इसका अपवाद नही है , एक गदर पार्टी को छोड़कर | जिसने अमेरिकी प्रणाली की सरकार से प्रेरित होकर स्पष्ट शब्दों में कहा था कि वे मौजूदा सरकार की जगह गणतांत्रिक ढंग की सरकार कायम करना चाहते है , मुझे अपनी तमाम कोशिशो के वावजूद एक भी  ऐसी क्रांतिकारी पार्टी नही मिली जिसके सामने यह विचार स्पष्ट हो कि वे आखिर लड़ किस लिए रही है | सभी पार्टियों  में केवल ऐसे लोग थे जिनके पास केवल एक विचार था और वह यह कि विदेशी शासको के विरुद्द संघर्ष करना है | यह विचार पूर्ण रूप से सराहनीय है , लेकिन इसे एक क्रांतिकारी विचार नही कहा जा सकता | हमे यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि क्रान्ति का अर्थ मात्र उथल -- पुथल या रक्तरंजित संघर्ष नही होता है | क्रान्ति में , मौजूदा हालात ( यानी सत्ता ) को पूरी तरह से ध्वस्त करने के बाद , एक नये और बेहतर स्वीकृत आधार पर समाज से सुव्यवस्थित पुनर्निर्माण का कार्यक्रम अनिवार्य रूप से अंतर्निहित रहता है |

राजनितिक क्षेत्र में , उदारवादी लोग मौजूदा सरकार में ही कुछ सुधार चाहते थे , जबकि क्रांतिकारी इसे कुछ अधिक चाहते थे और उस उद्देश्य के लिए हथियारों का उपयोग करने के लिए तैयार थे | क्रांतिकारी लोग हमेशा अतिवादी साधनों को अपनाने के पक्षधर रहे है और उनका एक ही उद्देश्य रहा है --- विदेशी प्रभुत्व को उखाड़ फेकना | बेशक इनमे कुछ ऐसे लोग भी रहे है जो इन साधनों से कुछ सुधार प्राप्त करने के पक्षधर थे |
इन सभी आन्दोलनों की संज्ञा नही दी जा सकती |
लेकिन लाला रामसरन दस पहले क्रांतिकारी है , जिन्हें 1908 में एक बंगाली फरार ( क्रांतिकारी ) ने पंजाब में औपचारिक रूप से क्रांतिकारी पार्टी में शामिल किया था | तब से वे लगातार क्रन्तिकारी आन्दोलन से जुड़े रहे और इस तरह वे गदर पार्टी में शामिल हो गये , लेकिन उन्होंने अपने उन विचारो का परित्याग नही किया जो आन्दोलन के आदर्शो के बारे में पुराने क्रांतिकारियों के थे | पुस्तक के आकर्षण और मूल्य को बढ़ाने वाला यह दूसरा दिलचस्प तथ्य है | लाला रामसरन दास  को 1915 में मौत की सजा सुनाई  गयी थी और बाद में उसे आजीवन कारावास में बदल दिया गया था | आज खुद फाँसी की काल  कोठरी में बैठकर मैं पाठको को साधिकार बता सकता हूँ कि आजीवन कारावास मौत की अपेक्षा कही अधिक कठोर है | लाला रामसरन दास  ने पूरे चौदह वर्ष जेल में काटे है | यह कविता उन्होंने दक्षिण की किसी जेल में लिखी थी | लेखक की उस समय की मन: स्थिति और मानसिक संघर्ष का कविता पर स्पष्ट प्रभाव है , जो इसे और अधिक सुन्दर और दिलचस्प बना देता है | उसने जिस समय इसे लिखने का निश्चय किया उस समय वह किन्ही निराशापूर्ण मनोभावों के विरुद्द कठिन  संघर्ष कर रहा था | उन दिनों में जब बहुत से साथी माफीनामा देकर छुट चुके थे और सबके सामने , उसके ( लेखक के ) सामने भी बड़े -- बड़े लोभ -- लालच थे , और जब पत्नी और बच्चो की मधुर दुःखदायी यादे अपनी मुक्ति की आकाक्षा को और अधिक मजबूत कर रही थी , ऐसे हालात में लेखक को इन बातो के हिम्मत पस्त करने वाले प्रभाव के विरुद्द कठिन संघर्ष करना पड़ा था और उसने अपना ध्यान इस रचना -- कार्य की ओर मोड़ दिया था | इसीलिए प्रारम्भिक पदों में हमे इस तरह का आकस्मिक भावोद्वेग मिलता है ------
' मुझे हर समय घेरे रखने वाले
मेरे पत्नी , बच्चे और मित्र ,
वे चारो और घूमते
जहरीले सापो के समान थे | '


( '' Wife , children , friends that me surround
were poisonous snakes aal arround . ''
)
वह शुरू में दर्शन की चर्चा करता है | यह दर्शन बंगाल और पंजाब के सभी क्रांतिकारी आन्दोलनों की रीढ़ है | इस बिंदु पर मैं लेखक से बहुत व्यापक मतभेद रखता हूँ | उसकी ब्रमाहंड की व्याख्या हेतुवादी और अधिभौतिक है , जबकि मैं एक भौतिकवादी हूँ और इस परिघटना ( फेनामेना ) की मेरी व्याख्या तार्किक होगी | फिर भी किसी भी तरह से यह रचना देश -- काल की दृष्टि से अनुपयुक्त नही है | जो सामान्य विचार हमारे देश में मौजूद है , वे लेखक द्वारा अभिव्यक्त विचारों के अनुरूप अधिक है | अपनी नैराश्यपूर्ण मनोदशा से संघर्ष के लिए अपनी प्रार्थना का रास्ता अख्तियार किया है | यह इस बात से स्पष्ट है कि पुस्तक का प्रारम्भ पूरी तरह ईश्वर , उसकी महिमा के वर्णन और उसकी परिभाषा को समर्पित है | ईश्वर में विश्वास रहस्यवाद का प्रणाम है जो निराशा का स्वाभाविक प्रतिफलन है | यह विश्व एक '' माया '' , एक स्वपन या कल्पना है -- यह स्पष्टत: रहस्यवाद है जिसे शंकराचार्य तथा दुसरे अन्य प्राचीन कल के हिन्दू संतो ने जन्म दिया और विकसित किया है | लेकिन भौतिकवादी दर्श में इस चिंतन -- पद्दति के लिए कोई स्थान नही है |  फिर भी लेखक का यह रहस्यवाद किसी भी तरह से हेय या खेदजनक नही है | इसका अपने सौन्दर्य और आकर्षण है | उसके विचार उत्साहप्रद है , उदाहरण के लिए ---
'' नीव के पत्थर बनो , अनजाने - अज्ञात
और अपने सीने  पर सहो ख़ुशी - ख़ुशी
विशाल भारी -- भरकम का बोझ ,
प् लो आश्रय कष्ट सहन में ,
मत करो ईर्ष्या शीर्ष पर जड़े पत्थर से
जिस पर उड़ेली जाती है सारी लौकिक प्रशसा , ''
आदि -- आदि |

'' Be a foundation - stone obscure ,
And on thy breast cheerfully bear
The architecture vast and huge ,
In suffering find true refuge .
Envy not the plastered top - stone .
On which all worldly praise is thrown ''


अपने निजी अनुभव के आधार पर मैं अधिकार पूर्वक कह सकता हूँ कि गुप्त कार्यो के दौरान , जब मनुष्य बिना किसी आशा और भय के लगातार अपरिचित , असम्मानित , अप्रशसित व्यक्ति की मौत के लिए तैयार रहते हुए लगातार एक जोखिम -- भरी जिन्दगी बिताता है , तो वह व्यक्तिगत प्रलोभनों और इच्छाओं से सिर्फ इस तरह से रहस्यवाद के सहारे ही लड़ सकता है और ऐसा रहस्यवाद किसी भी तरह से हिम्मत को पस्त करने वाला नही होता | असली बात , जिसका उन्होंने वर्णन किया है , वह एक क्रांतिकारी की मानसिकता है | लाला रामसरन दास जिस क्रांतिकारी पार्टी के सदस्य थे , उसे कई हिंसात्मक कार्यो के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था | लेकिन इससे किसी भी तरह यह साबित नही होता कि क्रांतिकारी विनाश में सुख अनुभव करने वाले खून से प्यासे राक्षस होते है |
पढिये ------' अगर जरूरत हो , ऊपर से उग्र बनो
लेकिन रहो हमेशा नरम अपने दिल में
अगर जरूरत हो , तो फुफकारो पर डसो मत
दिल में प्यार को ज़िंदा रखो और लड़ते रहो ऊपरी तौर पर | '  
'' If need be , outwardly be wide ,
But in thy heart be always mild
Hiss if need be , but do not bite
Love in thy heart and outside fight ''
संरचना के लिए विनाश जरूरी ही नही , अनिवार्य है | क्रान्तिकारियो को इसे अपने कार्यक्रम के एक आवश्यक अंग के रूप में अपनाना पड़ता है , और उपर की पंक्तियों में हिंसा और अहिंसा के दर्शन को खुबसूरत ढंग से ब्यान किया गया है | लेनिन ने एक बार गोर्की से कहा कि उन्हें ऐसा संगीत सुनने को नही मिला जो कभी नाड़ियो -- शिराओ को झकझोर दे और जिसे सुनकर कलाकार का सिर थपथपाने की इच्छा पैदा हो जाये | '' लेकिन '' उन्होंने आगे कहा था , '' यह समय सिर थपथपाने का नही है |
यह समय हाथो से खोपड़ियो को तोड़ने का है , हालाकि हमारा अंतिम उद्देश्य हर प्रकार की हिंसा को समाप्त करना है | "" एक भयानक आवश्यकता के रूप में हिंसात्मक साधनों का उपयोग करते हुए क्रांतिकारी भी ठीक ऐसा ही सोचते है |
इसके बाद लेखक धर्मो की परस्पर विरोधी विचारधाराओं की समस्या का उल्लेख करता है | वह सभी धर्मो में सामंजस्य स्थापित करने की चेष्टा करता है जैसा कि प्राय: सभी राष्ट्रवादी किया करते है | इस सवाल को हल करने का यह तरीका लम्बा और गोलमोल है | जहा तक मेरा प्रश्न है , मैं इस मसले को कार्ल मार्क्स के एक वाक्य द्वारा खारिज कर दूंगा कि '' धर्म जनता के लिए अफीम है | ''
अन्त में उसकी कविता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा आता है , जहा उसने उस भावी समाज के बारे में लिखा है , जिसकी रचना करने के लिए हम सभी लालायित है | लेकिन मैं शुरू से ही एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि '' ड्रीमलैंड '' दरअसल एक यूटोपिया ( काल्पनिक ) है | लेखक ने स्वंय इस बात को स्पष्ट रूप से शीर्षक में ही स्वीकार किया है | वह इस विषय पर कोई वैज्ञानिक शोधपत्र लिखने का दावा नही करता | यह बात सही है कि समाज के विकास में यूटोपिया की महत्वपूर्ण भूमिका है |
सेंट् साइमन , फूरिये , राबर्ट ओवेन और उनके सिद्दान्तो के अभाव में वैज्ञानिक -- मार्क्सवादी  समाजवादी भी नही होता | लाला रामसरन दास की '' यूटोपिया '' ( काल्पनिक ) का भी उसी तरह से महत्व है | जब हमारा कार्यकर्ता अपने आन्दोलन के दर्शन को व्यवस्थित रूप देने और एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने का महत्व समझेगा , उस समय यह पुस्तक उसके लिए बहुत ही उपयोगी साबित होगी |
इस बात की और मेरा ध्यान गया है कि लेखक की अभिव्यक्ति की शैली अनगढ़ है | अपने '' यूटोपिया '' का वर्णन करते हुए लेखक वर्तमान समाज के विचारों से अछूता नही रह पाता है |

-सुनील दत्ता
स्वतंत्र पत्रकार - समीक्षक     
आभार '' मैं नास्तिक क्यों हूँ - अनुवाद - पंकज चतुर्वेदी
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