पत्रकार अरूण शौरी, एनडीए सरकार में मंत्री थे। वे न केवल भाजपा के सदस्य थे वरन् उसके प्रमुख विचारक भी थे। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से कई अल्पसंख्यकों और दलितों के विरूद्ध हैं। ऐसी ही एक पुस्तक, जिसका आमजनों, विशेषकर दलितों, ने जमकर विरोध किया था, वह थी ‘वर्षिपिंग फाल्स गाॅड्स’ (नकली भगवानों की आराधना)। इस पुस्तक में उन्होंने अंबेडकर के प्रति आरएसएस-भाजपा के दृष्टिकोण को प्रगट किया है। इस बहुत मोटी पुस्तक में उन्होंने अंबेडकर की विचारधारा व प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना के लिए उनके द्वारा चलाए गए आंदोलन और सामाजिक न्याय के उनके संघर्ष की कड़ी आलोचना की है। आज, लगभग 15 साल बाद, एक ओर रामविलास पासवान, उदित राज व रामदास अठावले जैसे दलित नेता, अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति की खातिर, भाजपा की गोद में जा बैठे हैं वहीं दूसरी ओर, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी, दलितों को भाजपा की ओर आकर्षित करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। यह अलग बात है कि वे अपनी आदत के अनुसार, लगातार झूठ बोल रहे हैं, घटनाओं को तोड़-मरोड़ रहे हैं और दलितों की भलाई के लिए जो कुछ नहीं हो सका या नहीं किया गया, उसके लिए अपने राजनैतिक विरोधियों को दोषी ठहरा रहे हैं।
गत् 14 अप्रैल (2014) को हमने देखा कि प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक नरेन्द्र मोदी, नीली जैकेट पहनकर, भारत के संविधान निर्माता को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। उस दिन अंबेडकर जयन्ती थी। बाबासाहब के चित्र के समक्ष सर झुकाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के बाद उन्होंने कहा कि अंबेडकर जैसे व्यक्तियों के कारण ही वे और उनके जैसे अन्य लोग समाज में आगे बढ़ सके हैं। आरएसएस कभी अपने या भाजपा के नेताओं की जाति की बात नहीं करता। उसका जोर केवल हिंदुत्व पर रहता है। परंतु मोदी, कम से कम उत्तरप्रदेश और बिहार में, अपनी जाति का ढोल जमकर पीट रहे हैं। जहां तक जातिगत पदानुक्रम का सवाल है, आरएसएस, यथास्थिति बनाए रखना चाहता है। मोदी जो कुछ कर रहे हैं, उससे यह साफ है कि हमारे देश में जातिवादी राजनीति की जड़ंे बहुत गहरी हैं और उन पार्टियों को भी जातिवादी राजनीति करनी पड़ रही है, जो कि जाति के नाम पर राजनीति को गलत ठहराते आ रहे थे। चुनाव आते ही वे अपनी पुरानी बातें भूलकर जाति के कार्ड को खेलने में जुट गए हैं। यहां हमें एक बात समझनी होगी। और वह यह कि कई बार नीची जाति का दलित व्यक्ति भी ऐसी मानसिकता या विचारधारा का हो सकता है जो उसकी जाति के हितों के विपरीत हो। इसी तरह, कई बार, ऊँची जातियों के व्यक्ति भी सामाजिक न्याय और जाति के उन्मूलन के पक्षधर हो सकते हैं। अंबेडकर के कई अनुयायी ऊँची जातियों से थे। मोदी, आज चुनावी मजबूरियों के चलते उत्तरप्रदेश और बिहार में अपनी जाति का प्रचार करते घूम रहे हैं जबकि गुजरात में उनकी राजनीति और उनके पितृसंगठन आरएसएस की विचारधारा में सामाजिक न्याय की स्थापना के लक्ष्य के लिए कोई स्थान नहीं है।
एक ओर मोदी अपनी जाति का ढिंढोरा पीट रहे हैं वहीं दूसरी ओर गुजरात में उनकी नीतियां केवल और केवल बड़े उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने वाली रही हैं। समाज के इन वर्गों की भलाई के लिए केन्द्र सरकार द्वारा षुरू की गई योजनाओं को गुजरात में या तो लागू ही नहीं किया जा रहा है या फिर आधे अधूरे ढंग से लागू किया जा रहा है। योजना आयोग के निर्देशों के विपरीत, मोदी सरकार ने अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए सबप्लान के संबंध में एक भी बैठक आयोजित नहीं की। गुजरात में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए आरक्षित 27,900 पद खाली हैं। इसका एक कारण यह अजीब नीति है की किसी भी जिले में खाली पद पर केवल उसी जिले के रहवासी की नियुक्ति हो सकती है। अहमदाबाद, जहां से नरेन्द्र मोदी विधानसभा के लिए चुने गए हैं, में अनुसूचित जाति के 3,125 विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति नहीं मिली है। स्वतंत्र सर्वेक्षण बताते हैं कि गुजरात के कम से कम 1,600 गांवों में आज भी अछूत प्रथा व्याप्त है व दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता।
अहमदाबाद के विभिन्न हिस्सों के दलित, 13 अप्रैल को इकट्ठा हुए और उन्होंने ‘‘गुजरात सरकार के बहुप्रचारित विकास माॅडल’’ का जमकर विरोध किया। उनका दावा है कि गुजरात सरकार ने दलितों का जीवन बेहतर बनाने के लिए कुछ भी नहीं किया है।
आंदोलनरत दलितों द्वारा सौंपे गए ज्ञापन में कहा गया है, ‘‘मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास के एकतरफा माॅडल का प्रचार करते आ रहे हैं, जिसमें दलित अधिकारों के लिए कोई स्थान नहीं है। सरकार ने दलितों की बजाय उद्योगपतियों को जमीनें दी हैं...हमने दलितों, आदिवासियों व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए लैंड सीलिंग एक्ट के तहत् जमीन दिए जाने की मांग की है। हमने यह मांग भी की है कि सिर पर मैला ढोने की प्रथा और अनुबंध के आधार पर नौकरियां देने की व्यवस्था को समाप्त किया जाना चाहिए।’’ यहां यह दिलचस्प है कि अपनी पुस्तक कर्मयोग में मोदी ने वाल्मीकियों द्वारा हाथ से मैला साफ करने को ‘‘आध्यात्मिक अनुभव’’ बताया है। यह भी महत्वपूर्ण है कि गुजरात में अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अंतर्गत दोष सिद्धि की दर मात्र 4 प्रतिशत है। यद्यपि इस अधिनियम के तहत् प्रकरण चलाने के लिए हर जिले में विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान है तथापि सरकार ने इन न्यायालयों की स्थापना आज तक नहीं की है।
झूठ बोलने के अभ्यस्त मोदी ने एक आमसभा में कहा कि कांग्रेस सरकारों ने बाबासाहब की उपेक्षा की और भाजपा सरकार ने उन्हें भारत रत्न दिया। आमसभाओं में आने वाले लोग षायद ही कभी किसी वक्ता के झूठ का खुलकर
प्रतिरोध करते हैं। परंतु मोदी के इस झूठ का मीडिया ने भी पर्दाफाश करने का प्रयास नहीं किया। सच यह है कि केन्द्र में भाजपा की पहली सरकार सन् 1996 में बनी थी और मात्र 13 दिनों में धराशयी हो गई थी। डाक्टर अंबेडकर को सन् 1990 में विश्वनाथप्रताप सिंह सरकार द्वारा मरणोपरांत भारत रत्न से विभूषित किया गया था और संसद में उनकी मूर्ति का अनावरण भी हुआ था। वी .पी. सिंह सरकार ने ही मंडल आयोग की सिफारिषों को लागू किया था और यह भी एक तरह से बाबा साहब को श्रद्धांजली थी। सच तो यह है कि भाजपा का उन मूल्यों से कभी कोई लेना ही नहीं रहा, जिनके प्रति बाबा साहब प्रतिबद्ध थे। इनमें शामिल हैं भारतीय संविधान के मूल्य, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व भारतीय राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाएं। मोदी ने हाल में कहा था कि उनका जन्म एक हिन्दू के रूप में हुआ था और वे राष्ट्रवादी हैं इसलिए वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं। अंबेडकर हिन्दू राष्ट्रवाद के कड़े विरोधी थे। अपनी स्थापना के समय से ही आरएसएस, मनुस्मृति का हामी रहा है और उसका तो यहां तक कहना था कि जब हमारे पास मनुस्मृति मौजूद है तो हमें अपना संविधान बनाने के लिए इतना समय और ऊर्जा खर्च करने की क्या आवष्यकता है।
जहां तक सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों का सवाल है, दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता, गांधीजी और कांग्रेस के आलोचक रहे हैं। उनकी आलोचना पूरी तरह से निराधार भी नहीं है। परंतु यह आष्चर्य की बात है कि वे हिन्दू राष्ट्रवाद की उस राजनीति का तनिक भी विरोध नहीं करते जो डाक्टर अंबेडकर के मूल्यों के खिलाफ है और जो सामाजिक न्याय की असली विरोधी है। हिन्दू राष्ट्रवाद व आरएसएस की इसी राजनीति का प्रतिनिधित्व मोदी करते हैं। मोदी जिस राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं उसने मंडल आयोग की सिफारिषों को लागू करने और इसी तरह के अन्य कदमों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विरोध किया था। चुनावी राजनीति, राजनैतिक दलों और नेताओं से कुछ भी करवाने में सक्षम है, यहां तक कि नेता ऐसी बातें कहने लगते हैं जो उनकी मूल विचारधारा के खिलाफ हैं। ‘‘अंबेडकर-पूजक नरेन्द्र मोदी’’ इसी का उदाहरण है।
गत् 14 अप्रैल (2014) को हमने देखा कि प्रधानमंत्री बनने के इच्छुक नरेन्द्र मोदी, नीली जैकेट पहनकर, भारत के संविधान निर्माता को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं। उस दिन अंबेडकर जयन्ती थी। बाबासाहब के चित्र के समक्ष सर झुकाकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करने के बाद उन्होंने कहा कि अंबेडकर जैसे व्यक्तियों के कारण ही वे और उनके जैसे अन्य लोग समाज में आगे बढ़ सके हैं। आरएसएस कभी अपने या भाजपा के नेताओं की जाति की बात नहीं करता। उसका जोर केवल हिंदुत्व पर रहता है। परंतु मोदी, कम से कम उत्तरप्रदेश और बिहार में, अपनी जाति का ढोल जमकर पीट रहे हैं। जहां तक जातिगत पदानुक्रम का सवाल है, आरएसएस, यथास्थिति बनाए रखना चाहता है। मोदी जो कुछ कर रहे हैं, उससे यह साफ है कि हमारे देश में जातिवादी राजनीति की जड़ंे बहुत गहरी हैं और उन पार्टियों को भी जातिवादी राजनीति करनी पड़ रही है, जो कि जाति के नाम पर राजनीति को गलत ठहराते आ रहे थे। चुनाव आते ही वे अपनी पुरानी बातें भूलकर जाति के कार्ड को खेलने में जुट गए हैं। यहां हमें एक बात समझनी होगी। और वह यह कि कई बार नीची जाति का दलित व्यक्ति भी ऐसी मानसिकता या विचारधारा का हो सकता है जो उसकी जाति के हितों के विपरीत हो। इसी तरह, कई बार, ऊँची जातियों के व्यक्ति भी सामाजिक न्याय और जाति के उन्मूलन के पक्षधर हो सकते हैं। अंबेडकर के कई अनुयायी ऊँची जातियों से थे। मोदी, आज चुनावी मजबूरियों के चलते उत्तरप्रदेश और बिहार में अपनी जाति का प्रचार करते घूम रहे हैं जबकि गुजरात में उनकी राजनीति और उनके पितृसंगठन आरएसएस की विचारधारा में सामाजिक न्याय की स्थापना के लक्ष्य के लिए कोई स्थान नहीं है।
एक ओर मोदी अपनी जाति का ढिंढोरा पीट रहे हैं वहीं दूसरी ओर गुजरात में उनकी नीतियां केवल और केवल बड़े उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने वाली रही हैं। समाज के इन वर्गों की भलाई के लिए केन्द्र सरकार द्वारा षुरू की गई योजनाओं को गुजरात में या तो लागू ही नहीं किया जा रहा है या फिर आधे अधूरे ढंग से लागू किया जा रहा है। योजना आयोग के निर्देशों के विपरीत, मोदी सरकार ने अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए सबप्लान के संबंध में एक भी बैठक आयोजित नहीं की। गुजरात में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए आरक्षित 27,900 पद खाली हैं। इसका एक कारण यह अजीब नीति है की किसी भी जिले में खाली पद पर केवल उसी जिले के रहवासी की नियुक्ति हो सकती है। अहमदाबाद, जहां से नरेन्द्र मोदी विधानसभा के लिए चुने गए हैं, में अनुसूचित जाति के 3,125 विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति नहीं मिली है। स्वतंत्र सर्वेक्षण बताते हैं कि गुजरात के कम से कम 1,600 गांवों में आज भी अछूत प्रथा व्याप्त है व दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता।
अहमदाबाद के विभिन्न हिस्सों के दलित, 13 अप्रैल को इकट्ठा हुए और उन्होंने ‘‘गुजरात सरकार के बहुप्रचारित विकास माॅडल’’ का जमकर विरोध किया। उनका दावा है कि गुजरात सरकार ने दलितों का जीवन बेहतर बनाने के लिए कुछ भी नहीं किया है।
आंदोलनरत दलितों द्वारा सौंपे गए ज्ञापन में कहा गया है, ‘‘मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी विकास के एकतरफा माॅडल का प्रचार करते आ रहे हैं, जिसमें दलित अधिकारों के लिए कोई स्थान नहीं है। सरकार ने दलितों की बजाय उद्योगपतियों को जमीनें दी हैं...हमने दलितों, आदिवासियों व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए लैंड सीलिंग एक्ट के तहत् जमीन दिए जाने की मांग की है। हमने यह मांग भी की है कि सिर पर मैला ढोने की प्रथा और अनुबंध के आधार पर नौकरियां देने की व्यवस्था को समाप्त किया जाना चाहिए।’’ यहां यह दिलचस्प है कि अपनी पुस्तक कर्मयोग में मोदी ने वाल्मीकियों द्वारा हाथ से मैला साफ करने को ‘‘आध्यात्मिक अनुभव’’ बताया है। यह भी महत्वपूर्ण है कि गुजरात में अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के अंतर्गत दोष सिद्धि की दर मात्र 4 प्रतिशत है। यद्यपि इस अधिनियम के तहत् प्रकरण चलाने के लिए हर जिले में विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान है तथापि सरकार ने इन न्यायालयों की स्थापना आज तक नहीं की है।
झूठ बोलने के अभ्यस्त मोदी ने एक आमसभा में कहा कि कांग्रेस सरकारों ने बाबासाहब की उपेक्षा की और भाजपा सरकार ने उन्हें भारत रत्न दिया। आमसभाओं में आने वाले लोग षायद ही कभी किसी वक्ता के झूठ का खुलकर
प्रतिरोध करते हैं। परंतु मोदी के इस झूठ का मीडिया ने भी पर्दाफाश करने का प्रयास नहीं किया। सच यह है कि केन्द्र में भाजपा की पहली सरकार सन् 1996 में बनी थी और मात्र 13 दिनों में धराशयी हो गई थी। डाक्टर अंबेडकर को सन् 1990 में विश्वनाथप्रताप सिंह सरकार द्वारा मरणोपरांत भारत रत्न से विभूषित किया गया था और संसद में उनकी मूर्ति का अनावरण भी हुआ था। वी .पी. सिंह सरकार ने ही मंडल आयोग की सिफारिषों को लागू किया था और यह भी एक तरह से बाबा साहब को श्रद्धांजली थी। सच तो यह है कि भाजपा का उन मूल्यों से कभी कोई लेना ही नहीं रहा, जिनके प्रति बाबा साहब प्रतिबद्ध थे। इनमें शामिल हैं भारतीय संविधान के मूल्य, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व व भारतीय राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाएं। मोदी ने हाल में कहा था कि उनका जन्म एक हिन्दू के रूप में हुआ था और वे राष्ट्रवादी हैं इसलिए वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं। अंबेडकर हिन्दू राष्ट्रवाद के कड़े विरोधी थे। अपनी स्थापना के समय से ही आरएसएस, मनुस्मृति का हामी रहा है और उसका तो यहां तक कहना था कि जब हमारे पास मनुस्मृति मौजूद है तो हमें अपना संविधान बनाने के लिए इतना समय और ऊर्जा खर्च करने की क्या आवष्यकता है।
जहां तक सामाजिक न्याय से जुड़े मुद्दों का सवाल है, दलित मानवाधिकार कार्यकर्ता, गांधीजी और कांग्रेस के आलोचक रहे हैं। उनकी आलोचना पूरी तरह से निराधार भी नहीं है। परंतु यह आष्चर्य की बात है कि वे हिन्दू राष्ट्रवाद की उस राजनीति का तनिक भी विरोध नहीं करते जो डाक्टर अंबेडकर के मूल्यों के खिलाफ है और जो सामाजिक न्याय की असली विरोधी है। हिन्दू राष्ट्रवाद व आरएसएस की इसी राजनीति का प्रतिनिधित्व मोदी करते हैं। मोदी जिस राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं उसने मंडल आयोग की सिफारिषों को लागू करने और इसी तरह के अन्य कदमों का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से विरोध किया था। चुनावी राजनीति, राजनैतिक दलों और नेताओं से कुछ भी करवाने में सक्षम है, यहां तक कि नेता ऐसी बातें कहने लगते हैं जो उनकी मूल विचारधारा के खिलाफ हैं। ‘‘अंबेडकर-पूजक नरेन्द्र मोदी’’ इसी का उदाहरण है।
-राम पुनियानी
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