ज़ालिम को जो न रोके वह शामिल है
ज़ुल्म में, कातिल को जो न टोके वह कातिल के साथ है,हम सर ब-कफ उठे हैं के
हक़ फतहयाब हो, कह दो उसे जो लश्करे बातिल के साथ है. (साहिर लुधयानवी) उन व्यक्तियों एवं संस्थाओं को उपर्युक्त पंक्तियों पर आज एक गंभीर विचार करने की आवश्यकता है जो मजदूरों एवं शोषितों के हक़ में आवाज़ उठाना चाहते हैं और उनकी त्रासदी भरी जि़न्दगी से व्यथित हैं. मई दिवस के अवसर पर उन्हें आज इस आधुनिक? युग में एक सांगठनिक पुनर्विचार की ओर कदम बढ़ाने एवं उसे सुनियोजित ढंग से प्रयोगात्मक रूप में पहल करने की ज़रुरत है. 1 मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस दुनिया भर में मजदूर के नाम पर मनाया जाता है. इस दिन को उन मजदूरों की याद में श्रधांजलिस्वरुप मनाया जाता है जिनकी लाशें पूंजीपतियों एवं सामंतवादी विचारधारा के लोगों के द्वारा सिर्फ इसलिए बिछा दी गईं थीं की उन्होने अपनी मेहनत के एवज़ में अपनी जायज़ मांगों को पूरा करने की मांग करने की हिमाकत दिखाया था. साधारणतः दिवसों को किसी ख़ुशी अथवा गम के रूप में मनाया जाता है, मगर मजदूर दिवस गम के साथ-साथ एक ऐसे दिवस के रूप में मनाया जाता है, जो हर साल दुनिया के मजदूरों के दिल और दिमाग को एक ऐसा एहसास दिलाता है की तुम दबे रहो, कुचले रहो, तुम्हें अपनी उचित मांगों को मांगने का भी अधिकार नहीं है. तुम अपने खून पसीनों को बहाते रहो. अमीरों की गुलामी करते रहो. पसीना बहाकर, पानी छानकर लाकर बलवानों के पैर धोते रहो. तुम्हें दबे रहना है. तुम्हें कुचले रहना है. तुम्हें अपना मुंह खोलने का अधिकार नहीं है. तुम सामंतों की केवल सेवा करते रहो, उन्हें खुश करते रहो, जिसके बदले में तुम्हारे सामने रोटी डाल दी जायगी. तुम्हें ज़रा भी विरोध नहीं करना है. तुम सिर्फ सेवा करने के लिए ही बने हो! क्योंकि तुम (मजदूर तो इन सामंतवादियों की दृष्टि में मनुष्य नहीं हैं?) तो केवल हाड़-मांस के एक टुकड़े हो! तुम इन अमीरों, बाहुबलियों की बराबरी कैसे कर सकते हो? तुम तो कमज़ोर हो. और भला कमजोरों को खुश रहने का अधिकार है? क्या गरीबों को अपनी चाहतों को पूरा करने का अधिकार है? क्या मजदूरों को सामर्थवानों की बराबरी करने का अधिकार है? नहीं न! तुम स्वयं को मनुष्य होने की भूल क्यों करते हो. तुम अपनी औकात? में रहो. वरना तुम ज़रा सा भी हिले, तुमने ज़रा भी अमीरों की बराबरी करने की कोशिश की, तुमने ज़रा भी अपने अरमानों को पूरा करने का ख्वाब देखा, तो तुम्हें गोलियों से भून दिया जाएगा.
एक मई हर वर्ष दुनिया के मजदूरों, गरीबों को याद दिलाता है की तुम कितने उपेक्षित हो. तुम्हारा एक अलग घटिया? समाज है, तुम्हें सहानुभूति की, तुम्हें सहायता की, तुम्हें प्यार की, तुम्हें प्रशंसा की, तुम्हें ईनाम की, तुम्हें श्रेय की उम्मीद ही नहीं रखनी चाहिए. तुम्हें अपने अरमानों का गला घोंट देना है, तुम्हें अपनी इच्छाओं को मार देना है.
यह दिवस याद दिलाता है की मजदूर हमेशा मजदूर ही रहेगा. तभी तो आज भी मजदूरों की जि़न्दगी में कोई बुनियादी फर्क नहीं हुआ है. थोड़े से पैसे उन्हें अधिक अवश्य मिल जाते हैं, पर वर्तमान समय में रूपये के अवमूल्यन के हिसाब से वही कमाई है, जो पहले थी. वरना आज मजदूर भी महलों में रहते. कारों में घूमते. उनके बच्चे भी आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर अमीरों की बराबरी कर सकते. परन्तु एक सोची समझी साजिश के तहत बराबरी और समानता के ढोंगी समाज के द्वारा उन्हें उतना ही दिया जाता है की जिससे वे किसी तरह अपने पेट को रूखे सूखे अनाजों से भर लें. और आदि काल से एक सोची समझी साजिश के तहत उन्हें सुविधाओं से वंचित करके रखा गया है. क्योंकि यदि मजदूर, गरीब रहेंगे, तभी अमीरों की अमीरी भी बनी रहेगी. गरीब हैं तभी अमीर भी हैं. अमीर अपनी अमीरी को कायम रखने के लिए गरीब की गरीबी का मोहताज! है. वरना यदि गरीब सुविधायुक्त हो जाएँगे, तो वो सुखी-संपन्न! हो जाएँगे. और जब वे सुखी-संपन्न हो जाएँगे, सक्षम हो जाएँगे, तो वे गरीब, मजदूर कहाँ रहेंगे? और यदि मजदूर गरीब नहीं रहेंगे, तो फिर अमीर कैसे अमीर रहेंगे? फिर उनकी सूखी फुटानियों को कौन बर्दाश्त करेगा. फिर उनकी सेवा! में कौन लगा रहेगा. किसे फिर वे अपनी अमीरी, शान व शौकत, धन, दौलत को दिखाएंगे, फिर उनसे कौन डरेगा! फिर वे किसे झुकाएंगे, किस पर रौब गांठेंगे. इसीलिए मई दिवस एक सांकेतिक दिवस है. वास्तव में वर्ष का हरेक दिवस मई दिवस है. हर दिन हज़ारों गरीब मजदूर सुविधा के अभाव में, धन-दौलत के अभाव में मर रहे हैं. वस्तुतः अमीरों के हांथों अप्रत्यक्ष रूप से मारे जा रहे हैं! हाँ, यह अलग बात है की मई दिवस की तरह गोलियों की आवाजें नहीं आती हैं. उनकी मौतों की ख़बरें नहीं आतीं हैं. वह कहीं, किसी अँधेरे कोने में सिसक-सिसक कर मर रहे हैं. न जाने कब “ अँधेरे कोने से ” उनकी मौतों की आवाजें, आम लोगों के, समार्थवानों के कानों से गुज़रकर उनकी अंतर्रात्मा को झिन्झोड़ेगी. न जाने कब उनकी जि़न्दगी अँधेरे कोने से निकल कर उजाले में चमकेगी. पता नहीं! दुनियां के हर कोने में मजदूरों की दशा दयनीय है. उनके कल्याण हेतु सामंतवादियों, धनवानों के द्वारा बस थोड़ी सी सहायता कर खानापूर्ति कर दी जाती है. और उसमे भी सहानुभूति, अपनत्व, प्रेम की अपेक्षा एहसान का भाव अधिक होता है. मजदूर ही लुटे जाते हैं, सताए जाते हैं, मारे जाते हैं. धनवानों के द्वारा उन्हीं का अधिकार छिना जाता है और उलटे उन्हीं पर एहसान भी थोपा जाता है. इतने वर्षों के बाद भी मजदूरों की स्थिति यथावत है. साल का हरेक दिवस मई दिवस बनकर रह गया है. इस लिए अब मई दिवस की सार्थकता ख़त्म हो गई है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा की, “ अजब करते हो तुम यारो, ये क्या बात करते हो, हमें ही लूटते हो और हमें खैरात करते हो ”.
-के ० ई ० सैम
मो-9304015014
एक मई हर वर्ष दुनिया के मजदूरों, गरीबों को याद दिलाता है की तुम कितने उपेक्षित हो. तुम्हारा एक अलग घटिया? समाज है, तुम्हें सहानुभूति की, तुम्हें सहायता की, तुम्हें प्यार की, तुम्हें प्रशंसा की, तुम्हें ईनाम की, तुम्हें श्रेय की उम्मीद ही नहीं रखनी चाहिए. तुम्हें अपने अरमानों का गला घोंट देना है, तुम्हें अपनी इच्छाओं को मार देना है.
यह दिवस याद दिलाता है की मजदूर हमेशा मजदूर ही रहेगा. तभी तो आज भी मजदूरों की जि़न्दगी में कोई बुनियादी फर्क नहीं हुआ है. थोड़े से पैसे उन्हें अधिक अवश्य मिल जाते हैं, पर वर्तमान समय में रूपये के अवमूल्यन के हिसाब से वही कमाई है, जो पहले थी. वरना आज मजदूर भी महलों में रहते. कारों में घूमते. उनके बच्चे भी आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर अमीरों की बराबरी कर सकते. परन्तु एक सोची समझी साजिश के तहत बराबरी और समानता के ढोंगी समाज के द्वारा उन्हें उतना ही दिया जाता है की जिससे वे किसी तरह अपने पेट को रूखे सूखे अनाजों से भर लें. और आदि काल से एक सोची समझी साजिश के तहत उन्हें सुविधाओं से वंचित करके रखा गया है. क्योंकि यदि मजदूर, गरीब रहेंगे, तभी अमीरों की अमीरी भी बनी रहेगी. गरीब हैं तभी अमीर भी हैं. अमीर अपनी अमीरी को कायम रखने के लिए गरीब की गरीबी का मोहताज! है. वरना यदि गरीब सुविधायुक्त हो जाएँगे, तो वो सुखी-संपन्न! हो जाएँगे. और जब वे सुखी-संपन्न हो जाएँगे, सक्षम हो जाएँगे, तो वे गरीब, मजदूर कहाँ रहेंगे? और यदि मजदूर गरीब नहीं रहेंगे, तो फिर अमीर कैसे अमीर रहेंगे? फिर उनकी सूखी फुटानियों को कौन बर्दाश्त करेगा. फिर उनकी सेवा! में कौन लगा रहेगा. किसे फिर वे अपनी अमीरी, शान व शौकत, धन, दौलत को दिखाएंगे, फिर उनसे कौन डरेगा! फिर वे किसे झुकाएंगे, किस पर रौब गांठेंगे. इसीलिए मई दिवस एक सांकेतिक दिवस है. वास्तव में वर्ष का हरेक दिवस मई दिवस है. हर दिन हज़ारों गरीब मजदूर सुविधा के अभाव में, धन-दौलत के अभाव में मर रहे हैं. वस्तुतः अमीरों के हांथों अप्रत्यक्ष रूप से मारे जा रहे हैं! हाँ, यह अलग बात है की मई दिवस की तरह गोलियों की आवाजें नहीं आती हैं. उनकी मौतों की ख़बरें नहीं आतीं हैं. वह कहीं, किसी अँधेरे कोने में सिसक-सिसक कर मर रहे हैं. न जाने कब “ अँधेरे कोने से ” उनकी मौतों की आवाजें, आम लोगों के, समार्थवानों के कानों से गुज़रकर उनकी अंतर्रात्मा को झिन्झोड़ेगी. न जाने कब उनकी जि़न्दगी अँधेरे कोने से निकल कर उजाले में चमकेगी. पता नहीं! दुनियां के हर कोने में मजदूरों की दशा दयनीय है. उनके कल्याण हेतु सामंतवादियों, धनवानों के द्वारा बस थोड़ी सी सहायता कर खानापूर्ति कर दी जाती है. और उसमे भी सहानुभूति, अपनत्व, प्रेम की अपेक्षा एहसान का भाव अधिक होता है. मजदूर ही लुटे जाते हैं, सताए जाते हैं, मारे जाते हैं. धनवानों के द्वारा उन्हीं का अधिकार छिना जाता है और उलटे उन्हीं पर एहसान भी थोपा जाता है. इतने वर्षों के बाद भी मजदूरों की स्थिति यथावत है. साल का हरेक दिवस मई दिवस बनकर रह गया है. इस लिए अब मई दिवस की सार्थकता ख़त्म हो गई है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा की, “ अजब करते हो तुम यारो, ये क्या बात करते हो, हमें ही लूटते हो और हमें खैरात करते हो ”.
-के ० ई ० सैम
मो-9304015014
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