एक मई हर वर्ष दुनिया के मजदूरों, गरीबों को याद दिलाता है की तुम कितने उपेक्षित हो. तुम्हारा एक अलग घटिया? समाज है, तुम्हें सहानुभूति की, तुम्हें सहायता की, तुम्हें प्यार की, तुम्हें प्रशंसा की, तुम्हें ईनाम की, तुम्हें श्रेय की उम्मीद ही नहीं रखनी चाहिए. तुम्हें अपने अरमानों का गला घोंट देना है, तुम्हें अपनी इच्छाओं को मार देना है.
यह दिवस याद दिलाता है की मजदूर हमेशा मजदूर ही रहेगा. तभी तो आज भी मजदूरों की जि़न्दगी में कोई बुनियादी फर्क नहीं हुआ है. थोड़े से पैसे उन्हें अधिक अवश्य मिल जाते हैं, पर वर्तमान समय में रूपये के अवमूल्यन के हिसाब से वही कमाई है, जो पहले थी. वरना आज मजदूर भी महलों में रहते. कारों में घूमते. उनके बच्चे भी आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर अमीरों की बराबरी कर सकते. परन्तु एक सोची समझी साजिश के तहत बराबरी और समानता के ढोंगी समाज के द्वारा उन्हें उतना ही दिया जाता है की जिससे वे किसी तरह अपने पेट को रूखे सूखे अनाजों से भर लें. और आदि काल से एक सोची समझी साजिश के तहत उन्हें सुविधाओं से वंचित करके रखा गया है. क्योंकि यदि मजदूर, गरीब रहेंगे, तभी अमीरों की अमीरी भी बनी रहेगी. गरीब हैं तभी अमीर भी हैं. अमीर अपनी अमीरी को कायम रखने के लिए गरीब की गरीबी का मोहताज! है. वरना यदि गरीब सुविधायुक्त हो जाएँगे, तो वो सुखी-संपन्न! हो जाएँगे. और जब वे सुखी-संपन्न हो जाएँगे, सक्षम हो जाएँगे, तो वे गरीब, मजदूर कहाँ रहेंगे? और यदि मजदूर गरीब नहीं रहेंगे, तो फिर अमीर कैसे अमीर रहेंगे? फिर उनकी सूखी फुटानियों को कौन बर्दाश्त करेगा. फिर उनकी सेवा! में कौन लगा रहेगा. किसे फिर वे अपनी अमीरी, शान व शौकत, धन, दौलत को दिखाएंगे, फिर उनसे कौन डरेगा! फिर वे किसे झुकाएंगे, किस पर रौब गांठेंगे. इसीलिए मई दिवस एक सांकेतिक दिवस है. वास्तव में वर्ष का हरेक दिवस मई दिवस है. हर दिन हज़ारों गरीब मजदूर सुविधा के अभाव में, धन-दौलत के अभाव में मर रहे हैं. वस्तुतः अमीरों के हांथों अप्रत्यक्ष रूप से मारे जा रहे हैं! हाँ, यह अलग बात है की मई दिवस की तरह गोलियों की आवाजें नहीं आती हैं. उनकी मौतों की ख़बरें नहीं आतीं हैं. वह कहीं, किसी अँधेरे कोने में सिसक-सिसक कर मर रहे हैं. न जाने कब “ अँधेरे कोने से ” उनकी मौतों की आवाजें, आम लोगों के, समार्थवानों के कानों से गुज़रकर उनकी अंतर्रात्मा को झिन्झोड़ेगी. न जाने कब उनकी जि़न्दगी अँधेरे कोने से निकल कर उजाले में चमकेगी. पता नहीं! दुनियां के हर कोने में मजदूरों की दशा दयनीय है. उनके कल्याण हेतु सामंतवादियों, धनवानों के द्वारा बस थोड़ी सी सहायता कर खानापूर्ति कर दी जाती है. और उसमे भी सहानुभूति, अपनत्व, प्रेम की अपेक्षा एहसान का भाव अधिक होता है. मजदूर ही लुटे जाते हैं, सताए जाते हैं, मारे जाते हैं. धनवानों के द्वारा उन्हीं का अधिकार छिना जाता है और उलटे उन्हीं पर एहसान भी थोपा जाता है. इतने वर्षों के बाद भी मजदूरों की स्थिति यथावत है. साल का हरेक दिवस मई दिवस बनकर रह गया है. इस लिए अब मई दिवस की सार्थकता ख़त्म हो गई है. ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा की, “ अजब करते हो तुम यारो, ये क्या बात करते हो, हमें ही लूटते हो और हमें खैरात करते हो ”.
-के ० ई ० सैम
मो-9304015014
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