सोमवार, 12 मई 2014

असम नस्लीय सांप्रदायिक हिंसा का तांडव


हाल में ;मई १.२, २०१४ असम के कोकराझार में ४४ बांग्लाभाषी मुसलमानों की हत्या ने एक बार फिर क्षेत्र के बोडो व मुस्लिम रहवासियों के बीच पसरे तनाव को रेखांकित किया है। इस हिंसा के पीछे बोडोलैण्ड पीपुल्स फ्रन्ट का हाथ बताया जाता है, जिसकी विधायक प्रमिलारानी ब्रह्म ने कथित रूप से कहा था कि उनकी पार्टी के उम्मीदवार व असम के मंत्री वर्तमान चुनाव में विजय हासिल नहीं कर पाएंगे क्योंकि मुसलमानों ने उन्हें वोट न देकर एक गैर.बोडो उम्मीदवार को वोट दिया है। विधायक ने नहीं बताया कि उन्हें यह कैसे पता चला कि मुसलमानों ने किसे वोट दिया है। बताया जाता है कि उनके इस वक्तव्य के बाद हिंसा भड़क उठी। परंतु केवल इस वक्तव्य को हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराना ठीक न होगा। दोनों समुदायों के बीच अविश्वास का गहरा भाव है और उनके आपसी संबंध अत्यंत तनावपूर्ण हैं। इसी के चलतेए क्षेत्र में जुलाई २०१२ में हिंसा हुई थी। हालिया हिंसा सन् २०१५ में असम में होने वाले विधानसभा चुनाव के सिलसिले में मुसलमानों को चेतावनी देने का प्रयास भी है।
बोडो निवासियों की पार्टी ने यह आशंका व्यक्त की है कि उनके उम्मीदवार की हार से बोडोलैण्ड राज्य की उनकी मांग को धक्का लगेगा। यह मांग उनके एजेण्डे पर सबसे ऊपर है। बोडो निवासियों में व्याप्त असंतोष और बांग्लाभाषी मुसलमानों की परेशानियों का लंबा इतिहास है। जुलाई २०१२ में इस तनाव ने हिंसा का रूप ले लिया था और बोडो क्षेत्रीय स्वायत्तशासी जिलों कोकराझार व चिरांग, जिनका प्रशासन बोडो क्षेत्रीय परिषद के हाथों में है, और डूबरी के एक हिस्से में हुए खूनखराबे में १०८ लोग मारे गए थे, जिनमें ७९ मुसलमान, २२ बोडो व ४ अन्य शामिल थे। इसके अतिरिक्त, लगभग चार लाख लोग अपने घरों से बेघर हो गए थे।
इस तनाव और समस्या की जड़ में है यह गलत धारणा कि बंगालीभाषी मुसलमान बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं। यद्यपि भाजपा और मोदी बार.बार यह कह रहे हैं कि वे वर्तमान चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ रहे हैं परंतु सच यह है कि वे सांप्रदायिकता भड़काने के मौके ढूंढते ही रहते हैं। देश के पूर्वी हिस्सों में अपने भाषणों में मोदी ने बंगाल की मुख्यमंत्री पर यह आरोप लगाया कि वे बांग्लादेशी घुसपैठियों की देखभाल पर अधिक ध्यान देती हैंए बंगाल के रहवासियों की देखभाल पर कम। असम में उन्होंने यह तक कह डाला कि काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में एक सींग वाले गैंडो को इसलिए मारा जा रहा है ताकि बांग्लादेशी घुसपैठियों के रहने के लिए जगह खाली कराई जा सके। उन्होंने यह धमकी भी दी कि घुसपैठिये अपना सामान बांध लें क्योंकि १६ मई को उन्हें यह देश छोड़कर जाना होगा। इस तारीख को चुनाव नतीजे आने वाले हैं और मोदी को पूरा भरोसा है कि वे ही देश के अगले प्रधानमंत्री होंगे।
असम समस्या एक नासूर बन चुकी है। नौकरियों और जीवनयापन से संबंधित मुद्दों को तंगदिल ताकतों ने सांप्रदायिक रंग दे दिया है। वहां पर'असम केवल असमियों के लिए''का नारा दिया जा रहा है। ठीक उसी तरहए जैसे कि मुंबई में शिवसेना कहती रही है कि'महाराष्ट्र केवल मराठियों के लिए है'। असम में इस दुष्प्रचार और उसके कारण उपजी शत्रुता का पहला प्रगटिकरण था नैल्ली कत्लेआम ;१९८३, जिसमें लगभग ३,००० लोग,मुख्यतः बंगाली मुसलमान, लालुंग कबीलाईयों के हाथों मारे गए थे। यह कत्लेआम असम आंदोलन के दौरान हुआ था। यह आंदोलन असम की मतदाता सूचियों से 'बांग्लादेश के गैर कानूनी प्रवासियों' के नाम हटाने की मांग को लेकर चलाया जा रहा था। इस हत्याकांड की जांच के लिए त्रिभुवन प्रसाद तिवारी आयोग नियुक्त किया गया था परंतु इस आयोग की रपट कभी सार्वजनिक नहीं हुई। बोडो लोगों के आन्दोलन के बादए बोडो क्षेत्रीय परिषद बनाई गई और चार जिलो कोकराझार,चिरांग, बक्सा और उदयगिरी का प्रशासन चलाने की जिम्मेदारी बोडो को सौंप दी गई। इनमें से तीन जिलों में जुलाई २०१२ में भारी हिंसा हुई। यह दावा कि बोडो इस क्षेत्र में बहुसंख्यक हैं और उन्हें अपनी नस्लीय पहचान सुरक्षित रखने और अपने हितों की रक्षा करने का अधिकार है, में कोई दम नहीं है क्योंकि इस क्षेत्र में बोडो, कुल आबादी का २२ से २९ प्रतिशत ही हैं। स्वायत्तशासी परिषद के जरिए उन्हें मिले अधिकारों का बोडो ने जमकर दुरूपयोग किया है और समाज के दूसरे तबकों को हाशिये पर पटक दिया है। यह भी सही है कि बोडो क्षेत्रीय परिषद के निर्माण के बाद भी बोडो ने अपने हथियार नहीं डाले जबकि परिषद की स्थापना की मांग को स्वीकार करने की यह आवश्यक शर्त थी।
आबादी संबंधी आंकड़ों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाएगा कि असम में बांग्लाभाषी मुसलमानों के बसने की प्रक्रिया अंग्रेजों की नीतियों के कारण शुरू हुई थी। बांग्लाभाषी मुसलमान, असम में बहुत लंबे समय से रह रहे हैं। उदाहरणार्थ,असम में सन् १९३१ में मुसलमानों की आबादी एक लाख से अधिक थी। अंग्रेज शासन के शुरूआती दौर में बंगाल की आबादी बहुत अधिक थी और बंगाली, राजनैतिक दृष्टि से अत्यंत जागरूक थे। उस समय असम की जनसंख्या अत्यंत विरल थी। अंग्रेजों ने २०वीं सदी की शुरूआत में एक ष्मानव रोपण नीति बनाई, जिसके तहत बंगालियों को असम में बसाया जाना था। इसके तीन उद्देश्य थे.पहलाए बंगाल पर आबादी का दबाव कम करना। दूसरा, बंगाल में बार.बार होने वाले अकालों व वहां फैल रहे जनाक्रोश को कम करना और तीसरा,असम में लोगों को बसाकर वहां से टैक्स इकट्ठा करना।
बांग्लादेशी घुसपैठियों के संबंध में जमकर दुष्प्रचार किया जा रहा है। परंतु पिछली सदी के जनसंख्या संबंधी आंकड़े बताते हैं कि इस क्षेत्र में रह रहे मुसलमान,वहां स्वाधीनता के पहले से रह रहे हैं। सन् १९४७ में देश के विभाजन के समय कुछ नये लोग यहां बसे। इसके पश्चात,सन् १९७१ में हुए भारत.पाकिस्तान युद्ध, जिसके नतीजे में बांग्लादेश अस्तित्व में आया, के बाद भी कुछ मुस्लिम असम में आकर बस गए। सन् १९७१ के बाद से असम में नए मुसलमान प्रवासी नहीं आए हैं। नील्म दत्ता की पुस्तक 'मिथ ऑफ बांग्लादेशी एण्ड वायलैंस इन असम' बताती है कि बांग्लादेश में प्रवासियों के बसने का सिलसिला १०० वर्ष से भी अधिक की अवधि से जारी है और सन् १९७१ के बाद से, प्रवासियों की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई है। सन् १९८५ में हुए असम समझौते के अंतर्गत, सन् १९७१ तक असम में बसे सभी लोगों को भारतीय नागरिक के सारे अधिकार दे दिए गए हैं। इस समझौते के अनुसार, सन् १९७१ या उससे पहले से यहां रह रहे सभी प्रवासी, भारत के पूर्ण नागरिक हैं और अधिकांश मुसलमान इसी श्रेणी में आते हैं। कहने का अर्थ यह नहीं है कि असम में एक भी गैरकानूनी प्रवासी नहीं है। परंतु उनकी संख्या बहुत कम है और वे मुख्यतः आर्थिक कारणों से यहां आकर बसे हैं।
इन तथ्यों के बावजूद,सांप्रदायिक राजनीति के पैरोकार इस मुद्दे को जमकर उछालते आए हैं। वे इन गरीब व मजबूर प्रवासियों को घुसपैठिया कहते हैं। बांग्लादेश से जो हिन्दू भारत में आकर बसे हैं उनके लिए वे शरणार्थी शब्द का प्रयोग करते हैं जबकि मुसलमानों को घुसपैठिया बताते हैं। सन् २०१२ की हिंसा को सांप्रदायिक ताकतों ने राष्ट्रवादियों ;बोडो व विदेशियों ;मुसलमानों के बीच संघर्ष बताया था। इलाके में रह रहे बांग्ला बोलने वाले मुसलमानों की हालत बहुत खराब है। उन्हें नीची निगाहों से देखा जाता है और उनमें से कई को मत देने का अधिकार भी नहीं है। उनमें से अनेक को 'डाउटफुल' ;संदेहास्पद मतदाता घोषित कर दिया गया है। नफरत फैलाने वाली ताकतें यहां अतिसक्रिय है और यह मिथक फैलाया जा रहा है कि शासक दल,वोटों की खातिर घुसपैठियों को बढ़ावा दे रहा है। सच यह है कि जो लोग पड़ोसी देशों से हमारे देश में आ भी रहे हैं वे केवल आर्थिक मजबूरी के कारण ऐसा कर रहे हैं। हमारे देश के विभिन्न हिस्सों में लाखों नेपाली विभिन्न प्रकार के काम कर अपना पेट पाल रहे हैं। परंतु उन्हें कभी निशाना नहीं बनाया जाता क्योंकि वे हिन्दू हैं। इसके विपरीत, बांग्लादेश से रोटी.रोजी की तलाश में भारत आने वाले मुसलमानों को देश का दुश्मन करार दे दिया जाता है।
वर्तमान हिंसा के पीछे चुनाव प्रचार के दौरान किया गया विषवमन है। बोडो लोगों ने क्षेत्रीय परिषद के गठन के बाद भी अपने हथियार नहीं डाले हैं और यह हिंसा का एक प्रमुख कारण है। इस मुद्दे पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। यह मांग भी की जा रही है कि अल्पसंख्यकों को आत्मरक्षा के लिए बंदूक आदि के लायसेंस दिए जाने चाहिए। परंतु ऐसा करने से हिंसा में और बढ़ोत्तरी होने की संभावना है। बेहतर तो यह होगा कि पुलिस या सेना का उपयोग कर, बोडो लोगों के पास जो अवैध हथियार हैं उन्हें सख्ती से जब्त किया जाए। इस तरह की मानवीय त्रासदी से निपटने के लिए राज्य और केन्द्र, दोनों सरकारों कौ फौरी कदम तो उठाने ही चाहिए,दूरगामी नीति भी बनानी चाहिए। विस्थापितों का पुनर्वास होना चाहिए और क्षेत्र का विकास। विकास के अभाव के चलते ही इलाके में नफरत की राजनीति शुरू हो गई है। दोनों समुदायों के आपसी संबंधों को सौहाद्रपूर्ण बनाया जाना अतिआवश्यक है।
 -राम पुनियानी

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