हालिया आमचुनाव के नतीजे बहुत दिलचस्प हैं। लगभग ३१ प्रतिशत वोट प्राप्त कर भाजपा.मोदी २८२ लोकसभा सीटें जीतने में सफल हो गए हैं। कांग्रेस को १९ प्रतिशत मत और ४४ सीटें मिली हैं, बसपा को ४.१ प्रतिशत मत प्राप्त हुए हैं परंतु वह एक भी सीट नहीं जीत सकी है, तृणमूल कांग्रेस को ३.८ प्रतिशत मत और ३४ सीटें मिली हैंए समाजवादी पार्टी को ३.४ प्रतिशत मतदाताओं ने अपना समर्थन दिया और उसके पांच उम्मीदवार जीते और एआईएडीएमके ने ३.३ प्रतिशत वोट के साथ ३७ सीटें जीतीं। जहां ममता बेनर्जी ने ३.८ प्रतिशत वोट के सहारे ३२ सीटें जीतीं, वहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को उससे थोड़े कम, ३.३ प्रतिशत वोट मिले परंतु वह केवल ९ सीटें जीत सकी। यह महत्वपूर्ण है कि जहां कांग्रेस को इस बार १९.३ प्रतिशत मतों के साथ केवल ४४ सीटें मिलीं,वहीं २००९ के आमचुनाव में भाजपा को १८.५ प्रतिशत मत मिले थे परंतु उसे ११६ सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि हमारे देश में चुनावी सुधारों की सख्त जरूरत है। मतदाताओं के समर्थन और पार्टी को मिलने वाली सीटों के बीच तारतम्य नहीं होने से हमारी संसद सही अर्थों में जनादेश का प्रतिनिधित्व नहीं करती। कई सामाजिक कार्यकर्ता, चुनाव सुधारों की मांग करते आए हैं परंतु अब तक उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई है।
निःसंदेहए मोदी इस चुनाव के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बनकर उभरे हैं। यह बार.बार कहा जा रहा है कि धर्म और जाति के बंधनों को तोड़करए मतदाताओं ने उन्हें इसलिए समर्थन दिया क्योंकि वे 'विकास के पुरोधा' हैं। यह दावा किस हद तक सही है? सबसे पहली बात तो यह है कि मोदी को बड़े उद्योगपतियों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त था। उनके चुनाव अभियान में पैसा, पानी की तरह बहाया गया। इसके अतिरिक्त, लाखों आरएसएस कार्यकर्ताओं ने भाजपा को जीत दिलाने के लिए जमीनी स्तर पर दिन.रात पसीना बहाया। इस तरहए मोदी की जीत के दो स्तंभ थेः पहला कार्पोरेट घराने और व दूसरा आरएसएस। मोदी ने बार.बार दोहराया कि यद्यपि वे भारत की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान न्योछावर नहीं कर सके परंतु वे स्वतंत्र भारत के लिए सब कुछ करेंगे। यह उन कई झूठों में से एक है जो उन्होंने अपनी छवि को चमकदार बनाने के लिए गढ़े थे। हम सब जानते हैं कि वे आरएसएस.हिन्दुत्व की उस राजनैतिक विचारधारा के हामी हैं, जिसने भारत के स्वाधीनता संग्राम में कभी हिस्सा नहीं लिया। संघ.भाजपा.हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद, स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रवाद से बिल्कुल भिन्न है। गांधी और स्वाधीनता संग्राम का राष्ट्रवाद, भारतीय राष्ट्रवाद था जबकि मोदी परिवार का राष्ट्रवाद, हिन्दू राष्ट्रवाद है। यह जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्रवाद की तरह, एक प्रकार का धार्मिक राष्ट्रवाद है। मुस्लिम लीग का मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू महासभा.आरएसएस का हिन्दू राष्ट्रवाद,परतंत्र भारत में दो समानांतर राजनैतिक धाराएं थीं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान संघ और उसके साथी, आजादी की लड़ाई की आलोचना किया करते थे क्योंकि वह समावेषी भारतीय राष्ट्रवाद पर आधारित था। इसलिएए मोदी और उनके जैसे लोगों का देश की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान न्योछावर करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था।
मोदी की जीत के कई कारण हैं। इनमें शामिल हैं उनकी आक्रामक शैली, कांग्रेस की कमजोरियों का लाभ उठाने में उनकी सफलता, जनता से संवाद स्थापित करने की उनकी असाधारण क्षमता और राष्ट्रपति प्रणाली की तर्ज पर चलाया गया चुनाव अभियान। इसके मुकाबले, कांग्रेस का प्रचार अभियान अत्यंत फीका था और यूपीए सरकार पर भ्रष्ट होने और अनिर्णय का शिकार होने के आरोप थे। कांग्रेस की साख को गिराने का काम अन्ना हजारे के आंदोलन से शुरू हुआ, जिसे आरएसएस का समर्थन प्राप्त था। इस आंदोलन को केजरीवाल आगे ले गए और उन्होंने कांग्रेस की जीत की संभावनाओं को धूमिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। केजरीवाल ने भाजपा के भ्रष्टाचार के बारे में काफी देर से बोलना शुरू किया और वह भी काफी हिचकिचाहट के साथ। ऐसा क्यों हुआए यह कहना मुश्किल है। अन्ना, जिन्हें दूसरा गांधी बताया जा रहा थाए मंच पर अपनी भूमिका निभाकर अदृश्य हो गए। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने सामाजिक आंदोलन को राजनैतिक दल की शक्ल दे दी। इससे सभी सामाजिक आंदोलनों की साख और उनके असली इरादों पर प्रश्नचिन्ह लगा। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने मोदी.विरोधी मतों को विभाजित करने में खासी सफलता प्राप्त की। आप ने ४०० से अधिक उम्मीदवार खड़े किएए जिनमें से अधिकांश ने अपनी जमानतें गवां दीं। इनमें से कई उम्मीदवार ऐसे थे जिनकी जनता में बहुत उजली छवि थी और जिन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए अथक और कठिन संघर्ष किए थे। चुनावी मैदान में अपनी अपमानजनक हार के बाद ये लोग सामाजिक बदलाव के अपने एजेण्डे पर वापस जा पायेंगे या नहीं, यह संदेहास्पद है। अब जब भी वे कोई आंदोलन या अभियान चलायेंगे तो उन्हें यह याद दिलाया जायेगा कि चुनाव से यह जाहिर हो गया है कि जनता उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करती।
वे टीकाकार और नेता, जिन्होंने अन्ना को दूसरा गांधी बताया था, एक बार फिर गांधी के नाम को मिट्टी में मिलाने में जुट गए हैं। वे रामदेव और मोदी की तुलना महात्मा गांधी से कर रहे हैं। मोदी के एक दरबारी ने तो यहां तक कह डाला कि मोदी, गांधी से भी बड़े नेता हैं। यह कितना शर्मनाक है कि गांधी, जिन्होंने देश को एक किया था, की तुलना ऐसे नेताओं से की जा रही है जिनकी वैचारिक नींव ही सम्प्रदायवादी राष्ट्रवाद की अलगाववादी सोच पर आधारित है।
जहां तक विकास के एजेण्डे का सवाल है, मोदी ने गुजरात कत्लेआम में अपनी भूमिका निभाने के बाद, जल्दी ही गुजरात के विकास के नारे का दामन थाम लिया। गुजरात के विकास का मिथक अरबपति उद्योगपतियों के प्रति राज्य सरकार की उदारता पर आधारित था। गुजरात सरकार से मिल रहे लाभों के बदले उद्योगपतियों ने २००७ से ही मोदी को प्रधानमंत्री होना चाहिए के मंत्र का अनवरत जाप शुरू कर दिया था। जहां गुजरात में धार्मिक अल्पसंख्यकों को समाज के हाशिए पर पटक दिया गया और उन्हें दूसरी श्रेणी का नागरिक बना दिया गया वहीं गुजरात के विकास के किस्से देशभर में गूंजने लगे। दूसरे राजनीतिक दलों और अध्येताओं ने लंबे समय तक इन दावों को चुनौती नहीं दी। जब गुजरात के समाजिक.आर्थिक सूचकांकों व अन्य आंकड़ों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया, तब गुजरात के विकास का सच सामने आया था परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इस सच को आमजनों तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त समय नहीं बचा था। सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि मोदी का चुनाव अभियान केवल विकास के एजेण्डे पर आधारित था। परंतु यह सच नहीं है। मोदी ने सांप्रदायिकता और जाति के कार्ड को जमकर खेला। यह काम अत्यंत कुटिलता से किया गया। उन्होंने भारत से मांस के निर्यात की आलोचना की और उसे पिंक रेव्युलेशन बताया। इसका उद्देश्य मुस्लिम अल्पसंख्यकों को गौहत्या से जोड़ना था। इस तरहए उन्होंने एक आर्थिक मुद्दे को सांप्रदायिक मुद्दे में बदल दिया। मोदी बार.बार बांग्लाभाषी मुसलमानों के विरूद्ध बोलते रहे। उन्होंने अपनी अनेक जनसभाओं में कहा कि असम की सरकार एक सींग वाले गेंडे को मारकर,बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए जगह बना रही है। उन्होंने यह भी कहा कि बांग्लादेशी घुसपैठियों को १६ मई को अपना बोरिया.बिस्तर बांधकर भारत से प्रस्थान करने के लिए तैयार रहना चाहिए। ये सारी बातें उनके चुनाव प्रचार के सांप्रदायिक चेहरे को उजागर करने के लिए काफी हैं। भाजपा के प्रवक्ता कई बार कह चुके हैं कि जहां बांग्लाभाषी हिन्दू शरणार्थी हैं वहीं बांग्लाभाषी मुसलमान घुसपैठिए हैं।
अगर हम उन क्षेत्रों पर नजर डालें जहां भाजपा ने विजय प्राप्त की है तो अत्यंत चिंताजनक तथ्य सामने आता है। ऊपर से देखने पर तो प्रतीत होता है कि भाजपा की विजय के पीछे विकास का वायदा था परंतु इस जीत में धार्मिक ध्रुवीकरण की भूमिका को नकारना बचपना होगा। भाजपा को उन्हीं क्षेत्रों में अधिक सफलता मिली है जहां सांप्रदायिक या आतंकवादी हिंसा के कारण, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार व असम.इन सभी राज्यों में अलग.अलग समय पर व्यापक सांप्रदायिक हिंसा हुई है। इसके विपरीत, तमिलनाडु, बंगाल और केरल,जो सांप्रदायिक हिंसा से तुलनात्मक रूप से मुक्त रहे हैं,वहां भाजपा अधिक सफलता अर्जित नहीं कर सकी है। इस मामले में उड़ीसा एक अपवाद है जहां ईसाई.विरोधी कंधमाल हिंसा के बावजूद, नवीन पटनायक की पार्टी ने अपनी पकड़ बनाए रखी है। सांप्रदायिक हिंसा व आरएसएस.भाजपा.मोदी की जीत के अंतर्संबंध का गहन अध्ययन आवश्यक है। इसी तरह, सांप्रदायिक व आतंकवादी हिंसा के कारण होने वाले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। यह मात्र संयोग नहीं है कि विकास के मिथक से देश के केवल उन हिस्सों के मतदाता प्रभावित हुए जहां पिछले कुछ वर्षों में हिंसा हुई थी। सांप्रदायिक हिंसा की जांच करने वाले अधिकांश आयोगों ने दंगों के लिए संघ की मशीनरी को जिम्मेदार ठहराया है। यद्यपि मोदी ने खुलकर जाति का कार्ड नहीं खेला परंतु उन्होंने प्रियंका गांधी के 'नीच राजनीति' के आरोप को तोडमरोड़ कर, 'नीच जाति'में परिवर्तित कर अपनी जाति का ढिंढोरा पीटने का अवसर ढूंड लिया। उन्होंने अपनी जाति घांची का बार.बार नाम लिया ताकि वे नीची जातियों के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकें।
मोदी की जीत के क्या मायने हैं? मुंबईए गुजरातए मुजफ्फरनगर और ढेर सारी अन्य जगहों में हुए सांप्रदायिक दंगों ने हमारे समाज के एक हिस्से में गहरे तक असुरक्षा का भाव भर दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के कठिन संघर्ष के बावजूदए हमारी न्यायिक प्रणाली बहुत धीमी गति से काम कर रही है और पीडि़तों को न्याय नहीं मिल सका है। अपराधी यह दावा करते घूम रहे हैं कि वे निर्दोष हैं और उन्हें क्लीन चिट मिल गई है। मोदी की इस जीत में कई चीजें पहली बार हुई हैं। यह भी पहली बार हुआ है कि एक ऐसा व्यक्तिए जिसपर कत्लेआम में भागीदारी का आरोप हैए देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठेगा। ऐसे में गांधी और नेहरू के भारत का क्या भविष्य हैघ् भारतीय संविधान के मूल्य कितने सुरक्षित रह सकेंगेघ् क्या मोदीए हिन्दू राष्ट्रवाद के अपने मूल एजेण्डे को त्यागेंगेघ् क्या वे उस विचारधारा से अपने को अलग करेंगेए जो उनकी राजनीति का आधार हैघ् या वे अपने आकाओं को हिन्दू राष्ट्र भेंट में देंगेघ् इन प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिए कोई ईनाम नहीं है।
-राम पुनियानी
निःसंदेहए मोदी इस चुनाव के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बनकर उभरे हैं। यह बार.बार कहा जा रहा है कि धर्म और जाति के बंधनों को तोड़करए मतदाताओं ने उन्हें इसलिए समर्थन दिया क्योंकि वे 'विकास के पुरोधा' हैं। यह दावा किस हद तक सही है? सबसे पहली बात तो यह है कि मोदी को बड़े उद्योगपतियों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त था। उनके चुनाव अभियान में पैसा, पानी की तरह बहाया गया। इसके अतिरिक्त, लाखों आरएसएस कार्यकर्ताओं ने भाजपा को जीत दिलाने के लिए जमीनी स्तर पर दिन.रात पसीना बहाया। इस तरहए मोदी की जीत के दो स्तंभ थेः पहला कार्पोरेट घराने और व दूसरा आरएसएस। मोदी ने बार.बार दोहराया कि यद्यपि वे भारत की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान न्योछावर नहीं कर सके परंतु वे स्वतंत्र भारत के लिए सब कुछ करेंगे। यह उन कई झूठों में से एक है जो उन्होंने अपनी छवि को चमकदार बनाने के लिए गढ़े थे। हम सब जानते हैं कि वे आरएसएस.हिन्दुत्व की उस राजनैतिक विचारधारा के हामी हैं, जिसने भारत के स्वाधीनता संग्राम में कभी हिस्सा नहीं लिया। संघ.भाजपा.हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद, स्वाधीनता आंदोलन के राष्ट्रवाद से बिल्कुल भिन्न है। गांधी और स्वाधीनता संग्राम का राष्ट्रवाद, भारतीय राष्ट्रवाद था जबकि मोदी परिवार का राष्ट्रवाद, हिन्दू राष्ट्रवाद है। यह जिन्ना के मुस्लिम राष्ट्रवाद की तरह, एक प्रकार का धार्मिक राष्ट्रवाद है। मुस्लिम लीग का मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू महासभा.आरएसएस का हिन्दू राष्ट्रवाद,परतंत्र भारत में दो समानांतर राजनैतिक धाराएं थीं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान संघ और उसके साथी, आजादी की लड़ाई की आलोचना किया करते थे क्योंकि वह समावेषी भारतीय राष्ट्रवाद पर आधारित था। इसलिएए मोदी और उनके जैसे लोगों का देश की स्वतंत्रता के लिए अपनी जान न्योछावर करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था।
मोदी की जीत के कई कारण हैं। इनमें शामिल हैं उनकी आक्रामक शैली, कांग्रेस की कमजोरियों का लाभ उठाने में उनकी सफलता, जनता से संवाद स्थापित करने की उनकी असाधारण क्षमता और राष्ट्रपति प्रणाली की तर्ज पर चलाया गया चुनाव अभियान। इसके मुकाबले, कांग्रेस का प्रचार अभियान अत्यंत फीका था और यूपीए सरकार पर भ्रष्ट होने और अनिर्णय का शिकार होने के आरोप थे। कांग्रेस की साख को गिराने का काम अन्ना हजारे के आंदोलन से शुरू हुआ, जिसे आरएसएस का समर्थन प्राप्त था। इस आंदोलन को केजरीवाल आगे ले गए और उन्होंने कांग्रेस की जीत की संभावनाओं को धूमिल करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। केजरीवाल ने भाजपा के भ्रष्टाचार के बारे में काफी देर से बोलना शुरू किया और वह भी काफी हिचकिचाहट के साथ। ऐसा क्यों हुआए यह कहना मुश्किल है। अन्ना, जिन्हें दूसरा गांधी बताया जा रहा थाए मंच पर अपनी भूमिका निभाकर अदृश्य हो गए। केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने सामाजिक आंदोलन को राजनैतिक दल की शक्ल दे दी। इससे सभी सामाजिक आंदोलनों की साख और उनके असली इरादों पर प्रश्नचिन्ह लगा। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने मोदी.विरोधी मतों को विभाजित करने में खासी सफलता प्राप्त की। आप ने ४०० से अधिक उम्मीदवार खड़े किएए जिनमें से अधिकांश ने अपनी जमानतें गवां दीं। इनमें से कई उम्मीदवार ऐसे थे जिनकी जनता में बहुत उजली छवि थी और जिन्होंने सामाजिक बदलाव के लिए अथक और कठिन संघर्ष किए थे। चुनावी मैदान में अपनी अपमानजनक हार के बाद ये लोग सामाजिक बदलाव के अपने एजेण्डे पर वापस जा पायेंगे या नहीं, यह संदेहास्पद है। अब जब भी वे कोई आंदोलन या अभियान चलायेंगे तो उन्हें यह याद दिलाया जायेगा कि चुनाव से यह जाहिर हो गया है कि जनता उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं करती।
वे टीकाकार और नेता, जिन्होंने अन्ना को दूसरा गांधी बताया था, एक बार फिर गांधी के नाम को मिट्टी में मिलाने में जुट गए हैं। वे रामदेव और मोदी की तुलना महात्मा गांधी से कर रहे हैं। मोदी के एक दरबारी ने तो यहां तक कह डाला कि मोदी, गांधी से भी बड़े नेता हैं। यह कितना शर्मनाक है कि गांधी, जिन्होंने देश को एक किया था, की तुलना ऐसे नेताओं से की जा रही है जिनकी वैचारिक नींव ही सम्प्रदायवादी राष्ट्रवाद की अलगाववादी सोच पर आधारित है।
जहां तक विकास के एजेण्डे का सवाल है, मोदी ने गुजरात कत्लेआम में अपनी भूमिका निभाने के बाद, जल्दी ही गुजरात के विकास के नारे का दामन थाम लिया। गुजरात के विकास का मिथक अरबपति उद्योगपतियों के प्रति राज्य सरकार की उदारता पर आधारित था। गुजरात सरकार से मिल रहे लाभों के बदले उद्योगपतियों ने २००७ से ही मोदी को प्रधानमंत्री होना चाहिए के मंत्र का अनवरत जाप शुरू कर दिया था। जहां गुजरात में धार्मिक अल्पसंख्यकों को समाज के हाशिए पर पटक दिया गया और उन्हें दूसरी श्रेणी का नागरिक बना दिया गया वहीं गुजरात के विकास के किस्से देशभर में गूंजने लगे। दूसरे राजनीतिक दलों और अध्येताओं ने लंबे समय तक इन दावों को चुनौती नहीं दी। जब गुजरात के समाजिक.आर्थिक सूचकांकों व अन्य आंकड़ों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया, तब गुजरात के विकास का सच सामने आया था परंतु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इस सच को आमजनों तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त समय नहीं बचा था। सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि मोदी का चुनाव अभियान केवल विकास के एजेण्डे पर आधारित था। परंतु यह सच नहीं है। मोदी ने सांप्रदायिकता और जाति के कार्ड को जमकर खेला। यह काम अत्यंत कुटिलता से किया गया। उन्होंने भारत से मांस के निर्यात की आलोचना की और उसे पिंक रेव्युलेशन बताया। इसका उद्देश्य मुस्लिम अल्पसंख्यकों को गौहत्या से जोड़ना था। इस तरहए उन्होंने एक आर्थिक मुद्दे को सांप्रदायिक मुद्दे में बदल दिया। मोदी बार.बार बांग्लाभाषी मुसलमानों के विरूद्ध बोलते रहे। उन्होंने अपनी अनेक जनसभाओं में कहा कि असम की सरकार एक सींग वाले गेंडे को मारकर,बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिए जगह बना रही है। उन्होंने यह भी कहा कि बांग्लादेशी घुसपैठियों को १६ मई को अपना बोरिया.बिस्तर बांधकर भारत से प्रस्थान करने के लिए तैयार रहना चाहिए। ये सारी बातें उनके चुनाव प्रचार के सांप्रदायिक चेहरे को उजागर करने के लिए काफी हैं। भाजपा के प्रवक्ता कई बार कह चुके हैं कि जहां बांग्लाभाषी हिन्दू शरणार्थी हैं वहीं बांग्लाभाषी मुसलमान घुसपैठिए हैं।
अगर हम उन क्षेत्रों पर नजर डालें जहां भाजपा ने विजय प्राप्त की है तो अत्यंत चिंताजनक तथ्य सामने आता है। ऊपर से देखने पर तो प्रतीत होता है कि भाजपा की विजय के पीछे विकास का वायदा था परंतु इस जीत में धार्मिक ध्रुवीकरण की भूमिका को नकारना बचपना होगा। भाजपा को उन्हीं क्षेत्रों में अधिक सफलता मिली है जहां सांप्रदायिक या आतंकवादी हिंसा के कारण, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार व असम.इन सभी राज्यों में अलग.अलग समय पर व्यापक सांप्रदायिक हिंसा हुई है। इसके विपरीत, तमिलनाडु, बंगाल और केरल,जो सांप्रदायिक हिंसा से तुलनात्मक रूप से मुक्त रहे हैं,वहां भाजपा अधिक सफलता अर्जित नहीं कर सकी है। इस मामले में उड़ीसा एक अपवाद है जहां ईसाई.विरोधी कंधमाल हिंसा के बावजूद, नवीन पटनायक की पार्टी ने अपनी पकड़ बनाए रखी है। सांप्रदायिक हिंसा व आरएसएस.भाजपा.मोदी की जीत के अंतर्संबंध का गहन अध्ययन आवश्यक है। इसी तरह, सांप्रदायिक व आतंकवादी हिंसा के कारण होने वाले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का भी अध्ययन किया जाना चाहिए। यह मात्र संयोग नहीं है कि विकास के मिथक से देश के केवल उन हिस्सों के मतदाता प्रभावित हुए जहां पिछले कुछ वर्षों में हिंसा हुई थी। सांप्रदायिक हिंसा की जांच करने वाले अधिकांश आयोगों ने दंगों के लिए संघ की मशीनरी को जिम्मेदार ठहराया है। यद्यपि मोदी ने खुलकर जाति का कार्ड नहीं खेला परंतु उन्होंने प्रियंका गांधी के 'नीच राजनीति' के आरोप को तोडमरोड़ कर, 'नीच जाति'में परिवर्तित कर अपनी जाति का ढिंढोरा पीटने का अवसर ढूंड लिया। उन्होंने अपनी जाति घांची का बार.बार नाम लिया ताकि वे नीची जातियों के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकें।
मोदी की जीत के क्या मायने हैं? मुंबईए गुजरातए मुजफ्फरनगर और ढेर सारी अन्य जगहों में हुए सांप्रदायिक दंगों ने हमारे समाज के एक हिस्से में गहरे तक असुरक्षा का भाव भर दिया है। सामाजिक कार्यकर्ताओं के कठिन संघर्ष के बावजूदए हमारी न्यायिक प्रणाली बहुत धीमी गति से काम कर रही है और पीडि़तों को न्याय नहीं मिल सका है। अपराधी यह दावा करते घूम रहे हैं कि वे निर्दोष हैं और उन्हें क्लीन चिट मिल गई है। मोदी की इस जीत में कई चीजें पहली बार हुई हैं। यह भी पहली बार हुआ है कि एक ऐसा व्यक्तिए जिसपर कत्लेआम में भागीदारी का आरोप हैए देश की सत्ता के शीर्ष पर बैठेगा। ऐसे में गांधी और नेहरू के भारत का क्या भविष्य हैघ् भारतीय संविधान के मूल्य कितने सुरक्षित रह सकेंगेघ् क्या मोदीए हिन्दू राष्ट्रवाद के अपने मूल एजेण्डे को त्यागेंगेघ् क्या वे उस विचारधारा से अपने को अलग करेंगेए जो उनकी राजनीति का आधार हैघ् या वे अपने आकाओं को हिन्दू राष्ट्र भेंट में देंगेघ् इन प्रश्नों का सही उत्तर देने के लिए कोई ईनाम नहीं है।
-राम पुनियानी
2 टिप्पणियां:
अनर्गल प्रलाप और अनर्गल आलाप से कोई देश का भला नही होने वाला। मतदाता के विवेक पर सवालिया निशान कुछ समयोपरांत लगाते तो कुछ वाजिब होता....
कुछ लोग अपने सीमित दायरे से आगे नहीं सोच पाते ये वही जी रहे है। इनका सोच न्यायपालिका व जनता के मानस से ऊपर है क्योंकि शायद किसी दल विशेष की विचारधारा से प्रभावित हैं इनका प्रलाप ऐसे ही चलेगा कोई इलाज नहीं
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