मंगलवार, 6 मई 2014

आज भी प्रासंगिक है '' आषाढ़ का एक दिन ''

शब्दों के बीच  की नि:शब्दता अपने में नाटकीय तनाव को वहन करने के कारण बहुत सार्थक होती है | उसका अनुपात पहले आये और उसके बाद में आने वाले शब्दों पर निर्भर करता है |
वह अपने शब्दों की यात्रा का ही एक पडाव है --- दोनों ओर के शब्दों को जोड़ता एक अंतराल ---
रंगमंच शब्दों और ध्वनियो के  निरन्तरता पर निर्भर करता है -- रंगमंच की शब्द निर्भरता का अर्थ रंगमंच में शब्द की आधार - भूत भूमिका है |
हिंदी रंगमंच के विकास से नि:संदेह यह अभिप्राय: नही है कि अत्याधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न रंगशालाये राजकीय अथवा अर्द्द राजकीय संस्थाओं द्वारा जहा तहा  बनवा दी जाए जिससे वहा  हिंदी नाटको का प्रदर्शन किया जा सके प्रश्न केवल आर्थिक सुविधा का ही नही एक सांस्कृतिक दृष्टि का भी है हिंदी रंगमंच को हिंदी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियो और आकाक्षाओ का प्रतिनिधित्व करना होगा  | रंगों और राशियों के हमारे विवेक को व्यक्त करना होगा |
हमारे दैनदिन जीवन के राग - रंग को प्रस्तुत करने के लिए हमारे सम्वेदो और स्पन्दनो को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है वह पाश्चात्य रंग मंच से भिन्न है इस रंग मंच का रूप - विधान नाटकीय प्रयोगों के अभ्यन्तर से जन्म लेगा |
एक देश में क्या परिस्थिति है बात इसकी नही | बात रंगमंच के रूप में रंगमंचो के प्रश्न पर सोचने के है ? इसी प्रश्न को लेकर कलाभवन के खंडहर में मोहन राकेश कृत  नाटक '' आषाढ़ का एक दिन '' अभिषेक पंडित के निर्देशन में इस वर्तमान समाज के सामने कुछ प्रश्न छोड़ जाता है |
'' नाटक आषाढ़ का एक दिन आज भी एक रंग शिल्प सजाये वर्तमान में भी प्रासंगिक बना हुआ है | यह नाटक जीवन के विभिन्न रूपों - वर्जनाओं को भावनाओ व कर्म के द्वंद को आम समाज के सामने प्रस्तुत करता है यह नाटक रोजमर्रा के जीवन व उसके राजनीती से हट कर मानवीय मूल्यों और उसके संवेदनाओं को स्थापित करता है और उसकी व्याख्या करता दीखता है |
मानव शरीर और उसके रूह के चेतना और वेदना  को मोहन राकेश ने बड़ी बारीकी से शब्दों में समाहित किया है |  '' कालिदास '  के जीवन के बहाने  आज के वर्तमान समय में गाँवो से शहरों की ओर हो रहे पलायन और उसे उपजे विस्थापन पर बड़े ही मजबूती से यह नाटक विमर्श पैदा करती है  | इस नाटक की नायिका ' मल्लिका ' अपने कालिदास को स्वंय के स्तर पर अपने में समाहित करके सम्पूर्णता में जीती है |वह समर्पण भाव से समाहित ही नही है वरन अपने कालिदास को अपने जीवन में ही महान उपलब्धियों से परिपूर्ण देखना चाहती है इसके लिए वह अपना सर्वस्व समर्पण आहूत करके भी उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है ' जबकि मल्लिका कालिदास के लिए सिर्फ प्रेरणा मात्र है | उसे मल्लिका प्रकृति एवं औदात्य का प्रतीक लगती है | इन सबके बीच मल्लिका की माँ अम्बिका का इस दोनों के प्रति नकारत्मक भाव जीवन के अपने कटु अनुभवो के प्रगट करता है | परन्तु ' मल्लिका ' अपने उदेश्य के प्रति समर्पित है | इसी बीच  उज्जैनी के राजा  ' कालिदास ' को राजधानी आमंत्रित करते है | जहा उसे राज कवि का आसन  प्राप्त होता है | कालिदास वहा  जाकर अपने रचना कर्म व भोग विलास में लींन  हो जाते है व राजकन्य ' प्रियगुमजरी ' से विवाह कर काश्मीर का शासन भार - सम्भाल लेते है | इस बीच ' मल्लिका ' अपने जीवन व भावना के साथ संघर्ष करते हुए लगातार ' कालिदास ' की प्रतीक्षा कर रही होती है | एक दिन उसके जीवन में एक नई समस्या व विषाद जन्म लेता  है | इसी बीच ' अम्बिका ' की मृत्यु हो जाती है और 'मल्लिका' नितान्त अकेली रह जाती है | ' मल्लिका ' धीरे धीरे ग्राम पुरुष ' विलोम पर निर्भर होकर रह जाती है | लेकिन नियति उसे इससे कही ज्यादा आगे तक खीच ले जाती है जहा आज भी इस समाज में स्त्री ''भोग्या '' है | इन्ही घटनाओं के परिणाम स्वरूप ' मल्लिका ' के घर एक नई ' मल्लिका ' जन्म ले चुकी है और उसके अन्तर प्रकोष्ठ में ना जाने कितनी आकृतिया आती है जाती है | उसने अपना नाम खोकर एक विशेषण उपार्जित कर लिया है | उधर कालिदास ' कश्मीर में विद्रोह के कारण  सब कुछ छोड़कर मल्लिका के लिए लौटकर आता है | किन्तु उसकी दृष्टि में ' मल्लिका '  वो नही रही जो उसकी प्रेरणा थी | कालिदास मल्लिका को छोड़कर चला जाता है |
अभिषेक पंडित ने अपने निर्देशन में जिस एकाग्रता , तीव्रता और गहराई के साथ इसके कथानक व पत्रों के जिजीविषा व भावनात्मक संवेदनाओ को नाटक के कैनवास पर उकेरा है वो इनके लिए चुनौती पूर्ण रहा है इसमें वह काफी हद तक सफल रहे है |  ' मल्लिका ' की भूमिका ममता पंडित ने इस पात्र को मंच पर सार्थक दिशा देकर अपने अभिनय क्षमता का परिचय दिया है माँ की भूमिका में अलका सिंह ने  अपने अभिनय में सहजता लाने की  कोशिश करती नजर आई कालिदास की भूमिका में हरिकेश मौर्या ने भी अपने अभिनय से बाधे  रखने के कोशिश की मातुल की भूमिका में डी . डी . संजय ने अपने अभिनय की गुरुता का बखूबी निर्वहन किया विलोम की भूमिका में अरविन्द चौरसिया ने भी अच्छा अभिनय किया प्रियगुमजरी की भूमिका में अभिलाषा सिंह  की अभिनय क्षमता देखने को नही मिली नाटक का मजबूत पक्ष उसका नेपथ्य संगीत नाटक को गम्भीरता प्रदान करता नजर आया प्रकाश का सयोजन अनुभवी हाथो में होने के कारण नाटक को गति प्रदान करता रहा | इस नाटक में जो बात खलती रही  वो है पात्रो  का उच्चारण अगर उच्चारण और बेहतर होता तो पात्र और सजीव लगते | निर्देशक ने अपने निर्देशकीय कल्पना से इस नाटक के मूल तत्व को भरपूर जिया और उसे जीवतंता प्रदान की |
भारतेन्दु कश्यप द्वारा परिकल्पित ' सेट ' ने समूचे मंच विन्यास को कथा सूत्र से जोड़ते हुए उसके लिए उपयुक्त परिवेश सृजित किया |अभिषेक को इस बात की बधाई देता हूँ कि वो इस खंडहर कलाभवन को जीवंत बनाये हुए है |
-सुनील दत्ता 
स्वतंत्र पत्रकार
समीक्षक

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