धार्मिक राष्ट्रवाद के नशे में गाफिल रहने वालों को आमजनों की क्षेत्रीय व नस्लीय आकांक्षाएं दिखलाई नहीं देतीं। विभिन्न रंगों के अति राष्ट्रवादी भी इसी दृष्दिोष से पीड़ित रहते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के दिल्ली में सत्ता पर काबिज होने के बाद से संविधान की अनुच्छेद 370 को हटाने का मुद्दा एक बार फिर राजनीति के मंच के केन्द्र में आ गया है। इस मुद्दे को प्रधानमंत्री कार्यालय के एक राज्यमंत्री ने उठाया और कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ने इसका कड़ा विरोध किया।
भारतीय संघ के गठन के साथ ही, हिमाचल प्रदेश, उत्तर.पूर्वी राज्यों और जम्मू.कश्मीर के संघ में विलय का प्रश्न चुनौती बनकर उभरा। इन सभी चुनौतियों का अलग.अलग ढंग से मुकाबला किया गया परंतु आज भी ये किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय चिंता का कारण बनी हुई हैं। जम्मू.कश्मीर इस संदर्भ में सबसे अधिक चर्चा में है। कश्मीर, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र है और इसलिए वैश्विक शक्तियों ने भी कश्मीर समस्या को उलझाने में कोई कोर.कसर नहीं छोड़ी। भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में प्रगाढ़ता की राह में कश्मीर सबसे बड़ा रोड़ा है। भारतीय साम्प्रदायिक ताकतें भी कश्मीर मुद्दे को हवा देती रहती हैं।
इस पृष्ठभूमि के चलते, जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने अनुच्छेद 370 पर राष्ट्रीय बहस का आव्हान किया तब देश में मानो भूचाल सा आ गया। उनका यह कहना कि 'इससे किसे लाभ हुआ',दरअसल, दूसरे शब्दों में इस अनुच्छेद 370 को हटाने की मांग थी। मोदी की बात को आगे बढ़ाते हुए भाजपा नेता सुषमा स्वराज व अरूण जेटली ने जोर देकरकहाकिअनुच्छेद370कीसमाप्ति,हिन्दुत्व.आरएसएस एजेन्डा का अविभाज्य हिस्सा बनी हुई है। जेटली ने भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुकर्जी की इस मांग को दोहराया कि कश्मीर का भारत में तुरंत व पूर्ण विलय होना चाहिए। जेटली ने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ते.मरोड़ते हुए यह कहा कि 'स्वराज, 1953 के पूर्व की स्थिति की बहाली और यहां तक कि आजादी की मांग के मूल में नेहरू द्वारा कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने का निर्णय है।' इस विषय पर टेलीविजन चैनलों पर लंबी.लंबी बहसें हुईंए जिनसे केवल चर्चा में भाग लेने वालों की अनुच्छेद 370 और कश्मीर के विशेष दर्जे के बारे में घोर अज्ञानता जाहिर हुई। मुद्दे के एक बार फिर उठने से टेलीवीजन बहस मुबाहिसों का नया दौर शुरू हो गया है।
यह सही है कि कश्मीर में इस समय कई ऐसी ताकतें हैं जो स्वतंत्रता से लेकर स्वायत्ता तक की मांग कर रही हैं। परंतु मोटे तौर पर, राज्य में अनुच्छेद 370 के प्रश्न पर एकमत है। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस मांग का समर्थन कितने लोग कर रहे हैं तथापि कश्मीर की अधिकांश जनता, अनुच्छेद 370 के साथ-.साथ और अधिक स्वायत्ता की पक्षधर है।
इस मुद्दे का इतिहास जटिल है। जैसा कि सर्वज्ञात है, कश्मीर सीधे अंग्रेजों के अधीन नहीं था। वह एक रियासत थी जिसके शासक डोगरा राजवंश के हरिसिंह थे। उन्होंने केबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत गठित संविधान सभा का सदस्य बनने से इंकार कर दिया था। जम्मू. कश्मीर की आबादी का 80 फीसदी मुसलमान थे। भारत के स्वतंत्र होने के बाद,कश्मीर के महाराजा के सामने दो विकल्प थे.पहला,कि वे अपने राज्य को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दें और दूसरा कि वे भारत या पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय कर दें। महाराजा की इच्छा स्वतंत्र रहने की थी। जम्मू के हिन्दू नेताओं ने हरिसिंह की इस अलगाववादी योजना का समर्थन किया। 'जम्मू.कश्मीर राज्य हिन्दू सभा' के नेताओं,जिनमें से अधिकांश बाद में भारतीय जनसंघ के सदस्य बन गए,ने जोरदार ढंग से यह आवाज उठाई कि 'जम्मू. कश्मीर, जो कि हिन्दू राज्य होने का दावा करता है, को धर्मनिरपेक्ष भारत में विलीन नहीं होना चाहिए' ;कश्मीर, बलराज पुरी, ओरिएन्ट लांगमेन,1993ए पृष्ठ 5। परंतु कश्मीर पर पाकिस्तानी सेना की मदद से कबाईलियों के हमले ने पूरे परिद्रश्य को बदल दिया।
हरिसिंह अपने बलबूते पर कश्मीर की रक्षा करने में असमर्थ थे और इसलिए उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। भारत सरकार ने कहा कि वह पाकिस्तानी हमले से निपटने के लिए अपनी सेना तभी भेजेगी जब कश्मीर का भारत में विलीनीकरण हो जाएगा। इसके बाद कश्मीर और भारत के बीच परिग्रहण की संधि पर हस्ताक्षर हुए,जिसमें अनुच्छेद 370 का प्रावधान था। यह विलय नहीं था। संधि की शर्तों के अनुसार, भारत के जिम्मे रक्षा, मुद्रा, विदेशी मामले और संचार था जबकि अन्य सभी विषयों में निर्णय लेने का पूरा अधिकार कश्मीर की सरकार को था। कश्मीर का अपना संविधान,झंडा, सदर.ए.रियासत व प्रधानमंत्री होना था। राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इस संधि का औचित्य सिद्ध करते हुए पंडित नेहरू ने 2 नवम्बर 1947 को कहा 'कश्मीर सरकार और नेशनल कांफ्रेस, दोनों ने हमसे जोर देकर इस संधि को स्वीकार करने और हवा के रास्ते कश्मीर में सेना भेजने का अनुरोध किया। उन्होंने यह कहा कि विलय के प्रश्न पर, कश्मीर के लोग, वहां शांति स्थापित होने के बाद विचार करेंगे' ;नेहरू, कलेक्टिड वर्क्स, खण्ड 16 पृष्ठ 421। इसके बाद भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ से अनुरोध किया कि वह हमले में कब्जा की गई भूमि भारत को वापिस दिलवाए और अपनी देखरेख में कश्मीर में जनमत संग्रह करवाए। इसके बाद विभिन्न कारणों से जनमत संग्रह करवाने का कार्य टलता रहा।
इसके समानांतर, भारत में एक नई प्रक्रिया शुरू हो गई। जनसंघ के मुखिया श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने जनसंघ और पर्दे के पीछे से कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं के समर्थन से यह मांग उठानी शुरू कर दी कि कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय होना चाहिए। उस दौर में नेहरू बाहर से जनसंघ और कांग्रेस के अंदर से अपने कई वरिष्ठ मंत्रियों के भारी दबाव में थे जो यह चाहते थे कि कश्मीर को पूरी तरह से भारत में मिला लिया जाए। नेहरू ने कहा 'हमें दूरदृष्टि रखनी होगी। हमें सच्चाई को उदारतापूर्वक स्वीकार करना होगा। तभी हम कश्मीर का भारत में असली विलय करवा सकेंगे। असली एकता दिलों की होती है। किसी कानून से, जो आप लोगों पर थोप दें,कभी एकता नहीं आ सकती और न सच्चा विलय ही हो सकता है।'
तबसे झेलम में बहुत पानी बह चुका है। साम्प्रदायिक ताकतों के बढ़ते शोर, गांधीजी की हत्या और भारत में साम्प्रदायिक राजनीति के उभार ने शेख अब्दुल्ला को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कहीं उन्होंने कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाकर गलती तो नहीं कर दी। वे धर्मनिरपेक्षता के हामी थे परंतु उन्हें यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि देश के अन्य हिस्सों में फिरकापरस्त ताकतें आंखे दिखा रही हैं। उन्होंने अपने मन की पीड़ा और संषय को सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर दिया जिसके नतीजे में उन्हें 17 साल जेल में काटने पड़े। और इसके साथ ही शुरू हुआ कश्मीर की जनता का भारत से अलगाव। पाकिस्तान ने आग में घी डालते हुए असंतुष्ट युवकों को हथियार उपलब्ध करवाने शुरू कर दिए। सन् 1980 के दशक में अल्कायदा के लड़ाकों की कश्मीर में घुसपैठ से हालात और बिगड़े। ये लोग अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को खदड़ने का अमेरिका द्वारा प्रायोजित अपना मिशन पूरा कर चुके थे और उनके पास करने को कुछ नहीं था। लिहाजा,उन्होंने कश्मीर में घुसकर जेहाद की अपनी मनमानी परिभाषा के अनुरूप काम करना शुरू कर दिया। कश्मीरियत पर आधारित आंदोलन का साम्प्रदायिकीकरण हो गया। कश्मीर की जनता का संघर्ष जेहाद का तोड़ा.मरोड़ा गया संस्करण बन गया। कश्मीरियत की बात हवा हो गई। इसके नतीजे में कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जाने लगा और साम्प्रदायिक ताकतों को यह कहने का अवसर मिल गया कि मुसलमान अलगाववादी,देशद्रोही, हिंसक और साम्प्रदायिक हैं।
इस सदी की शुरूआत के साथ ही कश्मीर में हालात बेहतर होने शुरू हुए। परंतु लोगों का गुस्सा अब भी शांत नहीं हुआ था। यह गुस्सा पत्थरबाजी करने वाले दलों के रूप में उभरा। भारत सरकार ने इस असंतोष को दूर करने के लिए वार्ताकारों का एक दल नियुक्त किया। दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एम. एम. अंसारी के इस समूह ने अपनी रपट ;मई 2012 में 1953 के पूर्व की स्थिति की बहाली की मांग को खारिज करते हुए यह सिफारिश की कि कश्मीर को वह स्वायत्ता दी जानी चाहिए, जो उसे पहले प्राप्त थी। दल ने यह सुझाव भी दिया कि संसद कश्मीर के संबंध में कोई कानून तब तक न बनाए जब तक कि उसका संबंध राज्य की आंतरिक या बाह्य सुरक्षा से न हो। टीम ने अनुच्छेद 370 को'अस्थायी'के स्थान पर 'विशेष' प्रावधान का दर्जा देने की सिफारिश भी की। दल की यह सिफारिश भी बिलकुल उचित थी कि शनै.शनै राज्य के प्रशासनिक तंत्र में इस तरह परिवर्तन लाया जाए कि उसमें स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़े। उसने वित्तीय शक्तियों से लैस क्षेत्रीय परिषदों की स्थापना की बात भी कही और यह भी कहा कि हुरियत और पाकिस्तान के साथ वार्ताएं फिर से शुरू की जाएं ताकि वास्तविक नियंत्रण रेखा के दोनों ओर तनाव घट सके। भाजपा ने इस रपट को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इससे कश्मीर का भारत में विलय कमजोर होगा। अलगाववादियों ने कहा कि रपट में की गई सिफारिशें अपर्याप्त हैं और इनसे समस्या का राजनैतिक हल नहीं निकलेगा।
अनुच्छेद 370 पर बेशक बहस हो। परंतु हम सबको यह समझना होगा कि कश्मीरी आखिर चाहते क्या हैं?अतिराष्ट्रवादियों की उन्मादी बातें केवल घावों के भरने की प्रक्रिया को धीमा करेंगी और राज्य में प्रजातंत्र की जड़ों को कमजोर। जैसा कि नेहरू ने कहा था, सबसे जरूरी है लोगों का दिल जीतना। कानून उसके बाद बनाए जा सकते हैं। लोगों की आकांक्षाओं को समझकर ही उन्हें अपना बनाया जा सकता है। दंभपूर्ण बातों और आक्रामक तेवरों से लाभ कम होगा हानि ज्यादा।
-राम पुनियानी
भारतीय संघ के गठन के साथ ही, हिमाचल प्रदेश, उत्तर.पूर्वी राज्यों और जम्मू.कश्मीर के संघ में विलय का प्रश्न चुनौती बनकर उभरा। इन सभी चुनौतियों का अलग.अलग ढंग से मुकाबला किया गया परंतु आज भी ये किसी न किसी रूप में राष्ट्रीय चिंता का कारण बनी हुई हैं। जम्मू.कश्मीर इस संदर्भ में सबसे अधिक चर्चा में है। कश्मीर, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र है और इसलिए वैश्विक शक्तियों ने भी कश्मीर समस्या को उलझाने में कोई कोर.कसर नहीं छोड़ी। भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों में प्रगाढ़ता की राह में कश्मीर सबसे बड़ा रोड़ा है। भारतीय साम्प्रदायिक ताकतें भी कश्मीर मुद्दे को हवा देती रहती हैं।
इस पृष्ठभूमि के चलते, जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने अनुच्छेद 370 पर राष्ट्रीय बहस का आव्हान किया तब देश में मानो भूचाल सा आ गया। उनका यह कहना कि 'इससे किसे लाभ हुआ',दरअसल, दूसरे शब्दों में इस अनुच्छेद 370 को हटाने की मांग थी। मोदी की बात को आगे बढ़ाते हुए भाजपा नेता सुषमा स्वराज व अरूण जेटली ने जोर देकरकहाकिअनुच्छेद370कीसमाप्ति,हिन्दुत्व.आरएसएस एजेन्डा का अविभाज्य हिस्सा बनी हुई है। जेटली ने भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुकर्जी की इस मांग को दोहराया कि कश्मीर का भारत में तुरंत व पूर्ण विलय होना चाहिए। जेटली ने ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़ते.मरोड़ते हुए यह कहा कि 'स्वराज, 1953 के पूर्व की स्थिति की बहाली और यहां तक कि आजादी की मांग के मूल में नेहरू द्वारा कश्मीर को विशेष दर्जा दिए जाने का निर्णय है।' इस विषय पर टेलीविजन चैनलों पर लंबी.लंबी बहसें हुईंए जिनसे केवल चर्चा में भाग लेने वालों की अनुच्छेद 370 और कश्मीर के विशेष दर्जे के बारे में घोर अज्ञानता जाहिर हुई। मुद्दे के एक बार फिर उठने से टेलीवीजन बहस मुबाहिसों का नया दौर शुरू हो गया है।
यह सही है कि कश्मीर में इस समय कई ऐसी ताकतें हैं जो स्वतंत्रता से लेकर स्वायत्ता तक की मांग कर रही हैं। परंतु मोटे तौर पर, राज्य में अनुच्छेद 370 के प्रश्न पर एकमत है। यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि किस मांग का समर्थन कितने लोग कर रहे हैं तथापि कश्मीर की अधिकांश जनता, अनुच्छेद 370 के साथ-.साथ और अधिक स्वायत्ता की पक्षधर है।
इस मुद्दे का इतिहास जटिल है। जैसा कि सर्वज्ञात है, कश्मीर सीधे अंग्रेजों के अधीन नहीं था। वह एक रियासत थी जिसके शासक डोगरा राजवंश के हरिसिंह थे। उन्होंने केबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत गठित संविधान सभा का सदस्य बनने से इंकार कर दिया था। जम्मू. कश्मीर की आबादी का 80 फीसदी मुसलमान थे। भारत के स्वतंत्र होने के बाद,कश्मीर के महाराजा के सामने दो विकल्प थे.पहला,कि वे अपने राज्य को एक स्वतंत्र देश घोषित कर दें और दूसरा कि वे भारत या पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय कर दें। महाराजा की इच्छा स्वतंत्र रहने की थी। जम्मू के हिन्दू नेताओं ने हरिसिंह की इस अलगाववादी योजना का समर्थन किया। 'जम्मू.कश्मीर राज्य हिन्दू सभा' के नेताओं,जिनमें से अधिकांश बाद में भारतीय जनसंघ के सदस्य बन गए,ने जोरदार ढंग से यह आवाज उठाई कि 'जम्मू. कश्मीर, जो कि हिन्दू राज्य होने का दावा करता है, को धर्मनिरपेक्ष भारत में विलीन नहीं होना चाहिए' ;कश्मीर, बलराज पुरी, ओरिएन्ट लांगमेन,1993ए पृष्ठ 5। परंतु कश्मीर पर पाकिस्तानी सेना की मदद से कबाईलियों के हमले ने पूरे परिद्रश्य को बदल दिया।
हरिसिंह अपने बलबूते पर कश्मीर की रक्षा करने में असमर्थ थे और इसलिए उन्होंने भारत सरकार से मदद मांगी। भारत सरकार ने कहा कि वह पाकिस्तानी हमले से निपटने के लिए अपनी सेना तभी भेजेगी जब कश्मीर का भारत में विलीनीकरण हो जाएगा। इसके बाद कश्मीर और भारत के बीच परिग्रहण की संधि पर हस्ताक्षर हुए,जिसमें अनुच्छेद 370 का प्रावधान था। यह विलय नहीं था। संधि की शर्तों के अनुसार, भारत के जिम्मे रक्षा, मुद्रा, विदेशी मामले और संचार था जबकि अन्य सभी विषयों में निर्णय लेने का पूरा अधिकार कश्मीर की सरकार को था। कश्मीर का अपना संविधान,झंडा, सदर.ए.रियासत व प्रधानमंत्री होना था। राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इस संधि का औचित्य सिद्ध करते हुए पंडित नेहरू ने 2 नवम्बर 1947 को कहा 'कश्मीर सरकार और नेशनल कांफ्रेस, दोनों ने हमसे जोर देकर इस संधि को स्वीकार करने और हवा के रास्ते कश्मीर में सेना भेजने का अनुरोध किया। उन्होंने यह कहा कि विलय के प्रश्न पर, कश्मीर के लोग, वहां शांति स्थापित होने के बाद विचार करेंगे' ;नेहरू, कलेक्टिड वर्क्स, खण्ड 16 पृष्ठ 421। इसके बाद भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ से अनुरोध किया कि वह हमले में कब्जा की गई भूमि भारत को वापिस दिलवाए और अपनी देखरेख में कश्मीर में जनमत संग्रह करवाए। इसके बाद विभिन्न कारणों से जनमत संग्रह करवाने का कार्य टलता रहा।
इसके समानांतर, भारत में एक नई प्रक्रिया शुरू हो गई। जनसंघ के मुखिया श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने जनसंघ और पर्दे के पीछे से कांग्रेस के कुछ बड़े नेताओं के समर्थन से यह मांग उठानी शुरू कर दी कि कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय होना चाहिए। उस दौर में नेहरू बाहर से जनसंघ और कांग्रेस के अंदर से अपने कई वरिष्ठ मंत्रियों के भारी दबाव में थे जो यह चाहते थे कि कश्मीर को पूरी तरह से भारत में मिला लिया जाए। नेहरू ने कहा 'हमें दूरदृष्टि रखनी होगी। हमें सच्चाई को उदारतापूर्वक स्वीकार करना होगा। तभी हम कश्मीर का भारत में असली विलय करवा सकेंगे। असली एकता दिलों की होती है। किसी कानून से, जो आप लोगों पर थोप दें,कभी एकता नहीं आ सकती और न सच्चा विलय ही हो सकता है।'
तबसे झेलम में बहुत पानी बह चुका है। साम्प्रदायिक ताकतों के बढ़ते शोर, गांधीजी की हत्या और भारत में साम्प्रदायिक राजनीति के उभार ने शेख अब्दुल्ला को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि कहीं उन्होंने कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाकर गलती तो नहीं कर दी। वे धर्मनिरपेक्षता के हामी थे परंतु उन्हें यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था कि देश के अन्य हिस्सों में फिरकापरस्त ताकतें आंखे दिखा रही हैं। उन्होंने अपने मन की पीड़ा और संषय को सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर दिया जिसके नतीजे में उन्हें 17 साल जेल में काटने पड़े। और इसके साथ ही शुरू हुआ कश्मीर की जनता का भारत से अलगाव। पाकिस्तान ने आग में घी डालते हुए असंतुष्ट युवकों को हथियार उपलब्ध करवाने शुरू कर दिए। सन् 1980 के दशक में अल्कायदा के लड़ाकों की कश्मीर में घुसपैठ से हालात और बिगड़े। ये लोग अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं को खदड़ने का अमेरिका द्वारा प्रायोजित अपना मिशन पूरा कर चुके थे और उनके पास करने को कुछ नहीं था। लिहाजा,उन्होंने कश्मीर में घुसकर जेहाद की अपनी मनमानी परिभाषा के अनुरूप काम करना शुरू कर दिया। कश्मीरियत पर आधारित आंदोलन का साम्प्रदायिकीकरण हो गया। कश्मीर की जनता का संघर्ष जेहाद का तोड़ा.मरोड़ा गया संस्करण बन गया। कश्मीरियत की बात हवा हो गई। इसके नतीजे में कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जाने लगा और साम्प्रदायिक ताकतों को यह कहने का अवसर मिल गया कि मुसलमान अलगाववादी,देशद्रोही, हिंसक और साम्प्रदायिक हैं।
इस सदी की शुरूआत के साथ ही कश्मीर में हालात बेहतर होने शुरू हुए। परंतु लोगों का गुस्सा अब भी शांत नहीं हुआ था। यह गुस्सा पत्थरबाजी करने वाले दलों के रूप में उभरा। भारत सरकार ने इस असंतोष को दूर करने के लिए वार्ताकारों का एक दल नियुक्त किया। दिलीप पडगांवकर, राधा कुमार और एम. एम. अंसारी के इस समूह ने अपनी रपट ;मई 2012 में 1953 के पूर्व की स्थिति की बहाली की मांग को खारिज करते हुए यह सिफारिश की कि कश्मीर को वह स्वायत्ता दी जानी चाहिए, जो उसे पहले प्राप्त थी। दल ने यह सुझाव भी दिया कि संसद कश्मीर के संबंध में कोई कानून तब तक न बनाए जब तक कि उसका संबंध राज्य की आंतरिक या बाह्य सुरक्षा से न हो। टीम ने अनुच्छेद 370 को'अस्थायी'के स्थान पर 'विशेष' प्रावधान का दर्जा देने की सिफारिश भी की। दल की यह सिफारिश भी बिलकुल उचित थी कि शनै.शनै राज्य के प्रशासनिक तंत्र में इस तरह परिवर्तन लाया जाए कि उसमें स्थानीय लोगों का प्रतिनिधित्व बढ़े। उसने वित्तीय शक्तियों से लैस क्षेत्रीय परिषदों की स्थापना की बात भी कही और यह भी कहा कि हुरियत और पाकिस्तान के साथ वार्ताएं फिर से शुरू की जाएं ताकि वास्तविक नियंत्रण रेखा के दोनों ओर तनाव घट सके। भाजपा ने इस रपट को इस आधार पर खारिज कर दिया कि इससे कश्मीर का भारत में विलय कमजोर होगा। अलगाववादियों ने कहा कि रपट में की गई सिफारिशें अपर्याप्त हैं और इनसे समस्या का राजनैतिक हल नहीं निकलेगा।
अनुच्छेद 370 पर बेशक बहस हो। परंतु हम सबको यह समझना होगा कि कश्मीरी आखिर चाहते क्या हैं?अतिराष्ट्रवादियों की उन्मादी बातें केवल घावों के भरने की प्रक्रिया को धीमा करेंगी और राज्य में प्रजातंत्र की जड़ों को कमजोर। जैसा कि नेहरू ने कहा था, सबसे जरूरी है लोगों का दिल जीतना। कानून उसके बाद बनाए जा सकते हैं। लोगों की आकांक्षाओं को समझकर ही उन्हें अपना बनाया जा सकता है। दंभपूर्ण बातों और आक्रामक तेवरों से लाभ कम होगा हानि ज्यादा।
-राम पुनियानी
4 टिप्पणियां:
aabhar is jankari k liye.
कल 06/जून /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
अच्छी जानकारी दी है आपने |
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