सन् २०१४ के आमचुनाव में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से,देश के बुद्धिजीवियों व राजनैतिक समीक्षकों में इस मुद्दे पर बहस चल रही है कि आने वाले दिन कैसे होंगे। क्या वे'अच्छे' होंगे या बहुत बुरे? इस मुद्दे पर गहरी मत विभिन्नता है। मोदी की तुलना एक ओर रिचर्ड निक्सन,मार्गरेट थैचर व रोनाल्ड रीगन से की जा रही है तो दूसरी ओर हिटलर से। हिटलर से उनकी तुलना की कई विश्लेषकों ने कड़े शब्दों में निंदा की है। उनका कहना है कि न तो मोदी, हिटलर हैं और ना ही २०१४ का भारत, १९३० के दशक का जर्मनी है। इन विश्लेषकों का कहना है कि प्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद, जर्मनी एक बहुत बुरे दौर से गुजर रहा था। सन् १९२० के दशक के अंत में आई विश्वव्यापी मंदी ने जर्मनी में हालात को बद से बदतर बना दिया था। यही वे परिस्थितियां थींए, जिनमें हिटलर और उसकी नरसंहार की राजनीति का उदय हुआ। हिटलर के उदय के पीछे एक कारक यह भी था कि जर्मनी में प्रजातंत्र कमजोर था व केवल ३० प्रतिशत मत हासिल कर नाजी वहां सत्ता में आ गए थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि दो अलग.अलग कालों,में दो अलग.अलग देशों की राजनैतिक परिस्थितियां कभी एकदम एक.सी नहीं हो सकतीं। परंतु यह भी सच है कि कभी.कभी उनमें अंतर बहुत सतही होते हैं जबकि समानताएं मूलभूत होती हैं। यह सही है कि भारत को उस तरह का अपमान बर्दाश्त नहीं करना पड़ा है जैसा कि जर्मनी को प्रथम विश्वयुद्ध में करना पड़ा था। परंतु यह भी सच है कि पिछले कुछ वर्षों में अन्ना हजारे के आंदोलन से शुरू कर,अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी आदि ने देश की जनता में राजनैतिक व्यवस्था व शासक दल के संबंध में गहरे अविश्वास को जन्म दिया है। इस मोहभंग को अत्यंत योजनाबद्ध तरीके से उत्पन्न किया गया है। अन्ना के आंदोलन के पीछे वही आरएसएस था जो मोदी के उदय के पीछे है। निरंतर दुष्प्रचार और आम लोगों की भागीदारी में व्यापक आंदोलन चलाकर, अन्ना हजारे ने वर्तमान व्यवस्था के प्रति गंभीर अविश्वास व आक्रोश का माहौल पैदा किया। शासक दल की विश्वसनीयता को गहरी चोट पहुंचाई। केजरीवाल ने नागरिक समूहों की सहायता से शासक दल की विश्वसनीयता को और गिराया।
जहां तक प्रजातंत्र का सवाल है, भारत में प्रजातंत्र अभी भी विकास के दौर में है। वह पूरी तरह से परिपक्व नहीं हुआ है। एक ओर प्रजातंत्र के प्रति जागरूकता बढ़ रही है और लोग पहले से कहीं अधिक संख्या में मत दे रहे हैं जो कि एक सकारात्मक परिवर्तन है। दूसरी ओरए शासन के वेस्टमिंसटर मॉडल ने भारतीय प्रजातंत्र के प्रतिनिधिक चरित्र को कमजोर किया है। जर्मनी में नाजी केवल ३० प्रतिशत वोट पाकर सत्ता में आ गए थे। सन् २०१४ में भारत में भाजपा केवल ३१ प्रतिशत वोट हासिल कर लोकसभा में बहुमत प्राप्त करने और अपनी सरकार बनाने में सफल हो गई है। भारतीय प्रजातंत्र को दूसरा खतरा जातिगत व लैंगिक पदानुक्रम से है। इस पदानुक्रम के चलते, महिलाओं और दलितों के साथ अन्याय हो रहा है परंतु समाज का इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं है। राज्यतंत्र का सांप्रदायिकीकरण भी भारतीय प्रजातंत्र के लिए खतरा है। इसके चलते, धार्मिक अल्पसंख्यक नियमित रूप से हिंसा के शिकार हो रहे हैं और उन्हें न्याय नहीं मिल रहा है। देश के विभिन्न इलाकों में हुए बम धमाकों के बाद, बड़ी संख्या में निर्दोश युवकों को गिरफ्तार कर उनकी जिंदगियां और कैरियर बर्बाद कर दिये गए हैं। यद्यपि अदालतें उन्हें बरी कर रही हैं परंतु इस प्रक्रिया में लंबा समय लगता है और तब तक ऐसे युवकों का जीवन तबाह हो चुका होता है। इसके समानांतर, अल्पसख्यंकों के दानवीकरण की प्रक्रिया भी चल रही है और कुछ क्षेत्रों में उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिक का जीवन बिताने पर मजबूर होना पड़ रहा है।
हिटलर, यहूदियों और संसदीय प्रजातंत्र के प्रति अपनी घृणा को सार्वजनिक व खुले रूप में व्यक्त करता था। मोदी यद्यपि ऐसा नहीं करते तथापि वे 'हिन्दू राष्ट्रवाद'के हामी हैं और हिन्दू राष्ट्रवाद की मूल अवधारणाओं में से एक यह है कि केवल हिन्दुओं को ही देश का नागरिक होने का हक है। 'विदेशी धर्मों' जैसे इस्लाम व ईसाईयत के मानने वालों को हिंदू राष्ट्र के लिए खतरा समझा जाता है। आरएसएस के सबसे प्रसिद्ध विचारक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक ए बंच ऑफ थॉट्स में हिन्दू राष्ट्रवाद को परिभाषित किया है। मोदी इसी विचारधारा में यकीन करते हैं और यह विचारधारा,हिटलर की विचारधारा से काफी हद तक मिलती.जुलती है। हिटलर द्वारा यहूदियों के कत्लेआम को जायज व प्रशंसनीय ठहराते हुएए मोदी के वैचारिक गुरू गोलवलकर लिखते हैं,अपने राष्ट्र और संस्कृति की शुद्धता को बनाये रखने के लिए जर्मनी ने अपने देश को यहूदियों से मुक्त कर दुनिया को चैका दिया। यह राष्ट्रीय गौरव का उच्चतम प्रकटीकरण था। जर्मनी ने यह दिखा दिया है कि जिन नस्लों व संस्कृतियों के बीच मूलभूत अंतर होते हैं,उन्हें एक राष्ट्र के रूप में संगठित करना संभव नहीं है। इससे हिन्दुस्तान बहुत कुछ सीख सकता है, लाभांवित हो सकता है';व्ही ऑर अवर नेशनहुड डिफाईन्ड, १९३८ए पृष्ठ २७। मोदी ने ठीक यही गुजरात में किया, जहां करीब २,००० लोगों को अत्यंत क्रूरता से मौत के घाट उतार दिया गया और मुसलमानों का एक बड़ा तबका अपमान और वंचना सहने पर मजबूर कर दिया गया। मुसलमानों को उनके मोहल्लों में कैद कर दिया गया है,जहां नागरिक सुविधाओं का नितान्त अभाव है। यह कहना कि उच्चतम न्यायालय ने मोदी को गुजरात हत्याकांड में क्लीनचिट दे दी है, हमारे समय का सबसे बड़ा झूठ है। गुजरात दंगों की जांच के लिए एसआईटी की नियुक्ति उच्चतम न्यायालय ने की थी। इसी अदालत ने इस मामले में कार्यवाही के लिए एक न्यायमित्र की नियुक्ति भी की थी। जहां एसआईटी का कहना है कि मोदी पर मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं हैं वहीं उच्चतम न्यायालय द्वारा ही नियुक्त न्यायमित्र का मत है कि मोदी के अभियोजन के लिए पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं।
एक जर्मन प्रतिनिधिमंडल,जिसने अप्रैल २०१० में गुजरात की यात्रा की थी, के एक सदस्य ने कहा था कि उसे यह देखकर बहुत धक्का लगा कि हिटलर के राज में जर्मनी और मोदी के राज में गुजरात में कितनी समानताएं हैं। यहां यह याद दिलाना समीचीन होगा कि गुजरात में स्कूली पाठ्यपुस्तकों में हिटलर का एक महान राष्ट्रवादी के रूप में महिमामंडन किया गया है। मोदी और हिटलर की समानताएं यहीं खत्म नहीं होतीं। हिटलर की तरह, मोदी को भी कार्पोरेट धनकुबेरों का पूरा समर्थन प्राप्त है। हिटलर की तरह, मोदी भी धार्मिक अल्पसंख्यकों से घृणा करते हैं और उन्होंने यह स्वयं स्वीकार किया है कि वे हिन्दू राष्ट्रवाद में विश्वास रखते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति उनके रवैये व उनके व्यक्तित्व का अत्यंत सटीक वर्णन मनोविश्लेषक आशीष नंदी ने किया है। आशीष नंदी ने मोदी का साक्षात्कार,गुजरात कत्लेआम के काफी पहले लिया था। वे लिखते हैं मुझे मोदी का साक्षात्कार लेने का अवसर प्राप्त हुआ उसके बाद मेरे मन में तनिक भी संदेह नहीं रह गया कि वे एक पक्के व विशुद्ध फासीवादी हैं। मैंने कभी 'फासीवादी' शब्द का प्रयोग गाली के रूप में नहीं किया। मेरे लिए वह एक बीमारी है जिसका संबंध व्यक्ति की विचारधारा के साथ.साथ उसके व्यक्तित्व व उसके प्रेरणास्त्रोतों से भी है।'
कुल मिलाकर,जहां १९३० के जर्मनी और २०१४ के भारत में बहुत अंतर हैं वहीं उनमें बहुत सी समानताएं भी हैं। हिटलर और मोदी की पृष्ठभूमि अलग.अलग है परंतु दोनों की राजनीति, सम्प्रदायवादी राष्ट्रवाद पर आधारित है। दोनों चमत्कारिक नेता हैं और दोनों 'दूसरे' का दानवीकरण करने में दक्ष हैं। दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र का भविष्य डावांडोल है। यदि हमें संभावित खतरों से बचना है तो हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि देश में कानून का राज हो, सबको न्याय मिले और प्रजातांत्रिक व मानवाधिकार आंदोलनों को मजबूत किया जाए। हमें ऐसे सामाजिक आंदोलनों को बढ़ावा देना है जो समावेशी हों और स्वतंत्रता, समानता व बंधुत्व के मूल्यों में न केवल दृढ़ विश्वास रखते हों बल्कि उनकी स्थापना के लिए संघर्ष करने को उद्यत भी हों।
-राम पुनियानी
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