बुधवार, 2 जुलाई 2014

तालिबानी हिन्दू बनाने की मुहिम -2

नफरत विधर्मी मुसाफिरों से
    बड़े-बड़े भाई साहबों के अजमेर में ही गायब हो जाने से हम थोड़े असहज तो हुए, थोड़े से उदास और निराश भी लेकिन जैसे जैसे ट्रेन ने रफ्तार पकड़ी, निराशा का दौर जाता रहा, हमारा जुनून लौट आया, अगले स्टेशन पर स्थानीय लोगों ने हमारा जोरदार स्वागत किया, खाने को फल दिए, चाय पिलाई, बीड़ी, गुटखा भी मिला लोगों को, सब आनंद से सराबोर हो गए, ट्रेन में ज्यादातर कारसेवक ही थे, थोड़े बहुत रेगुलर यात्री भी थे, जो कि सहमे हुए बैठे थे, हमारी बोगी में कुछ मुस्लिम मुसाफिर भी थे, हमने उन्हें देख कर खूब नारे लगाए ‘भारत में यदि रहना होगा वंदेमातरम् कहना होगा।’ हमने उन्हें जी भर कर घूरा भी, इच्छा तो यह थी कि चलती ट्रेन से बाहर फेंक दें इनको, इन्हीं विधर्मी तुर्काे की वजह से हमारे भगवान राम एक जीर्ण शीर्ण ढाँचे में कैद हैं। हमारा देश, हमारे राम और उनकी जन्म स्थली पर मंदिर नहीं बनाने दिया जा रहा है, हम हिन्दू अपने ही देश में दोयम दर्जे के नागरिक हो गए हंै और ये मलेच्छ मजे ले रहे हैं, चार-चार शादियाँ करके बच्चों की फौज पैदा करके अपनी आबादी बढ़ाते जा रहे हैं। पहले देश बाँट दिया, आधे वहाँ चले गए, बाकि हमारी छाती पर मूँग दलने के लिए यहीं रह गए, ऐसे ही तरह-तरह के विचारों के चलते मैं इन मुस्लिम मुसाफिरों के प्रति नफरत के अतिरेक में डूबा हुआ था, उस वक्त मुझमें इतना गुस्सा था कि अगर मेरे हाथ में हथियार होते तो राम जन्म भूमि की मुक्ति से पहले ही इन मुस्लिम, पठान विधर्मियों को जिन्दगी से मुक्त कर देता। कुछ तो माँ भारती का बोझ हल्का होता। हमारी नफरत से घूरती आँखों ने उन्हें जरूर आतंकित किया होगा लेकिन हमें तो उन्हें इस तरह सहमे, सिमटे और भयभीत देखकर बहुत आनंद आया, जीवन में पहली बार लगा कि साले कट्टुओं को हमने औकात दिखा दी। अच्छा हुआ वे लोग चुपचाप ही रहे वरना उस रात कुछ भी हो सकता था। खैर, रात गहराती जा रही थी, धीरे-धीरे नींद पलकों पर हावी होने लगी, भजनों, नारों और उन्मादी गीतों का कोलाहल शांत हो गया, कारसेवक अब सो रहे थे, या यों समझ लीजिए कि सो ही चुके थे, मैंने अपनी उनींदी आँखों से देखा कि बाकी के यात्री अब थोड़ा राहत महसूस कर रहे थे राम के भक्तों से, फिर हम सो गए, एक मीठी सी नींद जिसमे सरयू किनारे बसी भगवान श्री राम की नगरी साकेत में प्रवेश का सुन्दर सा सपना था, जिसे जल्दी ही साकार होना था।

पहली जेल यात्रा
    रात कब बीती पता ही नहीं चला, सुबह-सुबह किसी टुंडला नामक स्टेशन पर मचे भारी शोरगुल ने नींद उड़ाई, कारसेवकों में हड़कंप सा मचा हुआ था, पुलिस ने ट्रेन रुकवा रखी थी शायद आगे नहीं जाने देंगे, जाँच शुरू हुई, सारे कारसेवक धरे गए, टिकटें हमसे ले ली गईं और स्टेशन पर उतार लिया गया। पूरा स्टेशन कारसेवकों से अटा पड़ा था, कल सुबह फिर से गगन भेदते उन्मादी नारे हवा में गुंजायमान थे-सौगंध राम की खाते है, हम मंदिर वही बनाएँगे, रोके चाहे सारी दुनिया, रामलला हम आएँगे, पर हमारी शपथ पूरी न हो सकी, मुल्ला यम की सरकार ने हमें रोक लिया था। हमें गिरफ्तार कर लिया गया। रात का धुँधलका अब छँटने लगा था। भोर के उजास में हमने अपने आपको भेड़ बकरियों की तरह पुलिस के ट्रक में भरे पाया, पहले मथुरा इंटर कॉलेज ले जाए गए, जगह नहीं मिलने पर वहाँ से आगरा के बहुउद्देश्यीय स्टेडियम में बनाये गए अस्थाई जेल में ले जाए गए। वहाँ भी क्षमता से अधिक लोग पहले से ही बंद थे, इसलिए तकरीबन 80 कारसेवक बाहर ही रह गए, उनमे से एक मैं भी था,  हमने इसी जेल में जाने की जिद की, नारे लगाए, हंगामा किया, तब कहीं जा कर हमें उस अस्थाई जेल में ठूँसा गया। काफी जद्दोजहद के बाद हमें जेल में प्रवेश का सौभाग्य मिला, अन्दर घुसे, जेल क्या थी, बड़ा सा ग्राउंड था, जिसमें टेंट लगे हुए थे, दीवारें इतनी छोटी कि कोई भी कूद कर बाहर निकल सकता था लेकिन बाहर कहाँ जाते? आगरा शहर में तो कफर््यू लगा हुआ था। पुलिस पीछे पड़ी थी, इलाका अनजान था, हमें प्रेरित करके शहीदी जत्थे में भेजने वाले सारे परम पूज्य भाई साहेब लोग अजमेर से ही भाग छुटे थे, यहाँ पर हम थे या थे वीतराग संत गण, चिलमची, अफीमची, गंजेड़ी, भंगेड़ी, उनमे से कइयों ने तो गांजा पीना शुरू कर दिया। एक दो को छोड़कर बाकी सब मस्त हो गए।
       अब तो हम थे और हमारी यह अस्थायी जेल थी। ऊपर टेंट, नीचे दरी, खाने में सबसे घटिया गुणवत्ता वाली कंकर पत्थर युक्त दाल, जली हुई रोटियाँ, बेस्वाद पानी और पुलिस वालों की झिड़कियाँ खाते-खाते किसी तरह हमने अपनी जिन्दगी की पहली 10 दिवसीय जेल यात्रा पूरी की इस तरह हम चले तो थे राम जन्म भूमि के लिए और पहँुचे कृष्ण जन्म भूमि में।
गालियाँ,पत्थर ,हमला,भय और दुर्गन्ध
    जिस दिन हमें जेल से रिहा किया गया, हमारे नाम पते लिखे गए, हाथों पर जेल की मुहर लगाई गई और छोड़ दिया गया। वैसे भी जेल में जेल जैसा कुछ था ही नहीं। अन्दर ही शाखा लगती थी, बातें होती, साधू संत अपना भजन, कीर्तन और प्रवचन करते रहते थे, जेल जैसी तो कोई बात थी ही नहीं, फिर भी कैद तो कैद ही है। जेल प्रवास पूरा हुआ तो जो ट्रक हमें लाये थे, वे गायब थे, बस यूँ ही छोड़    दिए गए, शहर में अभी भी कफर््यू जारी था, सो तय यह हुआ कि रेल की पटरियों पर हो कर स्टेशन तक पहँुचा जाए, पटरी-पटरी हम आगरा केंट की ओर चले। बलिदानी मानस थोड़ा थक चुका था, कारसेवा सफल नहीं रही थी। धर्मद्रोही, मुस्लिमपरस्त मुल्ला मुलायम सिंह ने सरयू के पुल पर ही कारसेवकों पर गोलियाँ चलवा दी, सैकड़ों कारसेवक मौत का ग्रास बन गए, कइयों को गोली लगी तो कई सारे गोली लगने के डर से वेगवती सरयू के पानी में कूद कर काल कवलित हो गए। राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद का ढाँचा तोड़ना तो दूर की बात, पुलिस की सख्ती के चलते परिंदा भी वहाँ पर नहीं मार सका, वाकई मुलायम कारसेवकों के लिए मुल्ला यम साबित हुए असफलता और घनघोर निराशा तथा डर और अवसाद की स्थिति में हम किसी तरह रेंगते हुए से रेल पटरियों पर आगरा कैंट की और बढ़ रहे थे, अचानक सामने से तकरीबन एक दर्जन लोग ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाते हुए आते दिखाई दिए, हम में पुनः जोश का स्फुरण होने लगा, कफर््यू के बावजूद रामभक्त हमारे स्वागत को आ गए हैं, इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है। बहुत अच्छा लगा, हमने अपने अंदर उत्साह महसूस किया, हमारे कदम खुद ब खुद उठने लगे पर यह क्या? ये तो मुल्ले निकले, इनके तो हाथों में पत्थर हैं, अब इनकी जबान से जय श्रीराम नहीं निकल रहा था, हमारी सात पुश्तों तक उनकी भद्दी गालियाँ पहँुच रही थी-मादर ...द यहाँ क्या लव... पकड़ने आए हो, मारो मादर ...दो को, हम तो स्तब्ध रह गए, आँखों के आगे
अँधेरा छाने लगा, आसपास की बस्ती की ओर मदद के लिए हमने कातर निगाहों से देखा। मगर सब तरफ इंकार ही इंकार के भाव थे। दरअसल इस रेल पटरी के चारों ओर सिर्फ मुस्लिम बस्ती ही थी। सामने से आए इन मुस्लिम युवाओं से छोटा सा संघर्ष हुआ, कुछ लोगों को चोटें आई, सामान भी गिरा, एक कारसेवक होतुमल की उन्होंने जमकर पिटाई की, वह भारी शरीर था, भाग नहीं पाया, उनके हत्थे चढ़ गया। हमारे पीछे भी दौड़े, पत्थर फेंके, हम आगे-आगे और वे पीछे-पीछे किसी तरह जान बचाने के लिए हमने रेलवे पुलिस थाने की शरण ली, दरोगा जी यदुवंशी निकले, मुल्ला यम के वंश के, उनके श्रीमुख से भी हजारों गालियों की बौछार से हम नहाए, जिस पुलिस से मदद की उम्मीद थी, वही लट्ठ लेकर मारने को पीछे दौड़ी, पीछे पत्थर बरसाते मुल्ले और आगे लाठियाँ लिए खड़े ठुल्ले हे भगवान, अब कहाँ जाएँ, हे राम जी, आप ही जान बचाओ अब हमारी, एक क्षण तो लगा कि अब मौत ही हमारी अंतिम मुकाम है, लेकिन जहाँ राम रक्षा मंत्र नहीं चल पाया वहाँ रेल रक्षा यंत्र ने काम किया। आगरा कैंट पर खड़ी एक मालगाड़ी के खाली डिब्बों में घुस कर हमने दरवाजे बंद करके किसी तरह जान बचाई। गालियाँ देते मुस्लिम नौजवान और पुलिसकर्मी जब वापस चले गये। तब हमारी रुकी हुई साँसे फिर से चलने लगी, मालगाड़ी के डिब्बों से निकल कर हम वापस स्टेशन पर खड़े हुए। बाद में जयपुर की ओर जाने वाली किसी ट्रेन में हम सवार हुए। ट्रेन में भारी भीड़ थी, टॉयलेट के पास खड़े रहने भर की जगह मिली। टिकट भी नहीं खरीद पाए, बेटिकट ही बैठ गए थे, भारी भीड़, भय और पाखाने की भयंकर दुर्गन्ध सब एकाकार हो गए थे। कारसेवा के दौरान शहीद होने की इच्छा अब तक मर चुकी थी, एक ही इच्छा थी कि जल्दी से जल्दी घर पहँुचा जाए, घर पर परिजनों के हाल बेहाल थे अयोध्या की खबरें सुन-सुन कर, चूँकि हम दोनों ही भाई इस कारसेवा का हिस्सा बनने चले गए थे, इसलिए माँ बाप ने सोच लिया कि हम जरूर पुलिस की गोली के शिकार हो गए होंगे और इस तरह वे बेऔलाद, मगर न तो हमें रामजी के नाम पर मौत आई और न ही वे निःसंतान हुए, महज 15 दिनों में हम घर लौट आए सही सलामत एकदम जिंदा।
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश  :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित

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