स्वयंसेवक के रूप में
शाखा में राष्ट्रभक्ति पर विशेष जोर दिया जाता था, मन में देश प्रेम की भावना तो थी ही, इसलिए शाखा में गाए जाने वाले गीत बहुत लुभाने लगे। एक गीत-‘संगठन गढ़े चलो, सुपंथ पर बढ़े चलो, भला हो जिसमें देश का, वह काम सब किए चलो’ तो मुझे कंठस्थ ही हो गया था। भारत माता को आराध्य देवी मान कर-‘तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें; और ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ का मन्त्र जपते हुए मैं खुद को धन्य समझने लगा था, इतना ही नहीं बल्कि-‘तन समर्पित मन समर्पित और ये जीवन समर्पित, चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ, जैसे राष्ट्र प्रेम के गीत और बातें मन को अभिभूत कर देती थीं। हर दिन होली दीवाली सा माहौल होता था। मुझे पक्का यकीन होने लगा था कि हम शाखा में जाने वाले लोग ही राष्ट्रभक्त हंै, जो शाखा में नहीं आते वे सब देशद्रोही है।
आर एस एस की काली बिल्ली
जैसा कि आर.एस.एस. का दावा है कि वह अपनी शाखाओं में मानव के चरित्र निर्माण का काम करता है, उसके द्वारा तैयार व्यक्ति एक काली बिल्ली की तरह होता है, जिसको जीवन के किसी भी क्षेत्र में फेंक दिया जाए तो भी वह पीठ के बल नहीं गिरता बल्कि पैरों पर ही खड़ा होता है। अब मैं भी आर.एस.एस. की काली बिल्ली बनना चाहता था, इसलिए पूरे मनोयोग से शाखा की गतिविधियों में शिरकत करने लगा।
शाखा में ही पहली बार मैंने भारत माता की तस्वीर के दर्शन किए, जिसमंे भारत माताजी हाथ में भगवा झंडा लिए शेर के पास खड़ी दिखाई दीं। तब मेरे मन में सवाल उठा कि भारत माता के हाथ में भगवा झंडा क्यों है, राष्ट्रध्वज तिरंगा क्यों नहीं? जवाब मिला तिरंगा झंडा तो सन 1947 में आजादी मिलने के बाद स्वीकार किया गया था, भगवा ध्वज तो आदिकाल से है, इसलिए माँ भारती के कर कमलों में वही सुशोभित है। शाखा में अनुशासन पर बहुत जोर दिया जाता, कहा जाता था कि सैनिकों की तरह पूर्णतः अनुशासित रह कर ही हम स्वराष्ट्र को सशक्त बना सकते हैं हमारा लक्ष्य है हिन्दुआंे का सैन्यकरण और सैनिकों का हिन्दुकरण इसलिए शाखा में तमाम आदेश जिन्हें ‘आज्ञा’ कहा जाता, वह भी सेना की तरह ही दी जाती, सिर्फ भाषा का फर्क था, सारी आज्ञाएँ संस्कृत में दी जाती थीं, चाहे वे दक्ष (सावधान) हो या आराम (विश्राम), स्कूल में संस्कृत के गुरूजी ने बताया था कि-संस्कृत कोई सामान्य भाषा नहीं है यह देवताओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा है इसलिए इसे ‘देवभाषा’ कहा गया है। समस्त भारतीय महान ग्रन्थ भी इसी देवभाषा में रचे गए हैं वे चाहे वेद हो या उपनिषद, गीता हो या रामायण, यह बात मन में गहरे घर किए हुए थी सो शाखा में संस्कृत में जब भी कोई आज्ञा दी जाती थी तो वह मुझे ‘दैवीय आज्ञा’ लगती थी। शाखा में खेल के साथ-साथ बौद्धिक चर्चा भी की जाती थी, जब हम खेलते-खेलते हाँफने लगते तो एक अर्धमंडल में बैठकर बातचीत करते इसी को बौद्धिक लेना कहा जाता। इस दौरान भी बेहद सधी हुई संस्कृतनिष्ठ हिंदी में बात कही जाती, जो
सीधे दिल दिमाग पर छा जाती। बौद्धिक चर्चा के दौरान प्रश्नोतर शैली में पूछा जाता-हम कौन हंै, यह देश किसका है, कौन इसे अपनी मातृभूमि मानता है? फिर इन सवालों के जवाब दिए जाते-हम हिन्दू है, सनातनी शुद्ध आर्य रक्त, यह देश हमारा हैं, हम हिन्दू ही इसे अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि और पवित्र भूमि मानते हैं, हमारा देश कालांतर में सोने की चिडि़या था, इसमें दूध, दही और घी की नदियाँ बहती थीं, हम जगतगुरु थे शक, हूण, कुषाण यवन मुसलमान, पठान और अंग्रेज आए, हमारे देश को लूटा और हमें गुलाम बनाया। अन्य लोग न तो भारत को माँ मानते हैं और न ही उनकी पुण्यभूमि भारत है, किसी की येरुसलम है तो किसी की मक्का मदीना, सिर्फ हम हिन्दुओं का ही सब कुछ भारत में है, हम ही माँ भारती के सच्चे पुत्र हैं, मुझमे अन्य समुदायों के प्रति नफरत का भाव पैदा होने लगा था कि ये लोग खाते भारत का हैं और गीत मक्का, मदीना, येरुसलम के गाते हैं उनकी देशभक्ति पर मुझे संदेह होने लगा।
हमारी शाखा हर दिन शाम के वक्त 6 से 7 बजे लगती थी। प्रारंभ में केवल भूगोल के शिक्षक ही आते थे, फिर अन्य शिक्षक भी आने लगे, खास तौर पर यहाँ के प्राथमिक शालाओं के कईं शिक्षक तनख्वाह सरकार की लेते हैं और काम आरएसएस का करते हैं। कभी कभार मांडल तहसील मुख्यालय से बड़े पदाधिकारी भी आते, इन सबको हम भाई साहब कह कर बुलाते थे, शाखा में आने वाले बौद्धिक पत्रक और अन्य साहित्य से मेरी विचारधारा मजबूत हो रही थी। मैं दिनों दिन और अधिक राष्ट्रभक्त बनता जा रहा था, मुझमें हिन्दू होने का गर्व और शुद्ध आर्य खून का अभिमान आने लगा था, बाकी लोग अपने आप ही मुझे नीच और छोटे नजर आने लगे थे।
ढीली खाकी नेकर
शाखा के मुख्य शिक्षक के लिए यह अनिवार्य था कि वह निर्धारित पोशाक (जिसे गणवेश कहा जाता है) पहन कर आए, मैंने भी घरवालों से पैसे लेकर काली टोपी, ढीली खाकी नेकर, चमड़े की बेल्ट, भूरे मोजे और काले जूते तथा कान के बराबर एक लकड़ी (जिसे दंड कहा जाता है) खरीदा, सफेद कमीज तो थी ही, इसलिए खरीदनी नहीं पड़ी। मैं अब गणवेश पहनकर रोज शाखा स्थल पर जाने लगा था, आखिर मुख्य शिक्षक जो ठहरा, मेरा परिवार कभी भी जनसंघी या आरएसएस टाइप की विचारधारा का नहीं रहा, दादाजी से लेकर पिताजी तक इन लोगों के विरोधी ही रहे, एक मैं अपवाद स्वरूप इनके साथ लग गया, जब पहले सिर्फ खेलने जाता था, तब तक तो कोई दिक्कत नहीं थी, पर अब जब मैं पूरी ड्रेस पहन कर रोज-रोज शाखा में जाने लगा तो पिताजी ने टोकना शुरू किया, बोले ये लोग कभी हमारे सगे नहीं हुए और न ही होंगे, नहीं जाना, लेकिन मुझ पर तो देशभक्ति का ऐसा जुनून चढ़ा हुआ था कि कोई भी थोड़ा भी संघ की शाखा के विरोध में बोलता तो वह मुझे देशद्रोही ही लगता था। मेरे से बड़े भाई लोग मेरी ढीली नेकर की बहुत मजाक उड़ाते थे पर मैं सह लेता था।
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
शाखा में राष्ट्रभक्ति पर विशेष जोर दिया जाता था, मन में देश प्रेम की भावना तो थी ही, इसलिए शाखा में गाए जाने वाले गीत बहुत लुभाने लगे। एक गीत-‘संगठन गढ़े चलो, सुपंथ पर बढ़े चलो, भला हो जिसमें देश का, वह काम सब किए चलो’ तो मुझे कंठस्थ ही हो गया था। भारत माता को आराध्य देवी मान कर-‘तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें; और ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ का मन्त्र जपते हुए मैं खुद को धन्य समझने लगा था, इतना ही नहीं बल्कि-‘तन समर्पित मन समर्पित और ये जीवन समर्पित, चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ, जैसे राष्ट्र प्रेम के गीत और बातें मन को अभिभूत कर देती थीं। हर दिन होली दीवाली सा माहौल होता था। मुझे पक्का यकीन होने लगा था कि हम शाखा में जाने वाले लोग ही राष्ट्रभक्त हंै, जो शाखा में नहीं आते वे सब देशद्रोही है।
आर एस एस की काली बिल्ली
जैसा कि आर.एस.एस. का दावा है कि वह अपनी शाखाओं में मानव के चरित्र निर्माण का काम करता है, उसके द्वारा तैयार व्यक्ति एक काली बिल्ली की तरह होता है, जिसको जीवन के किसी भी क्षेत्र में फेंक दिया जाए तो भी वह पीठ के बल नहीं गिरता बल्कि पैरों पर ही खड़ा होता है। अब मैं भी आर.एस.एस. की काली बिल्ली बनना चाहता था, इसलिए पूरे मनोयोग से शाखा की गतिविधियों में शिरकत करने लगा।
शाखा में ही पहली बार मैंने भारत माता की तस्वीर के दर्शन किए, जिसमंे भारत माताजी हाथ में भगवा झंडा लिए शेर के पास खड़ी दिखाई दीं। तब मेरे मन में सवाल उठा कि भारत माता के हाथ में भगवा झंडा क्यों है, राष्ट्रध्वज तिरंगा क्यों नहीं? जवाब मिला तिरंगा झंडा तो सन 1947 में आजादी मिलने के बाद स्वीकार किया गया था, भगवा ध्वज तो आदिकाल से है, इसलिए माँ भारती के कर कमलों में वही सुशोभित है। शाखा में अनुशासन पर बहुत जोर दिया जाता, कहा जाता था कि सैनिकों की तरह पूर्णतः अनुशासित रह कर ही हम स्वराष्ट्र को सशक्त बना सकते हैं हमारा लक्ष्य है हिन्दुआंे का सैन्यकरण और सैनिकों का हिन्दुकरण इसलिए शाखा में तमाम आदेश जिन्हें ‘आज्ञा’ कहा जाता, वह भी सेना की तरह ही दी जाती, सिर्फ भाषा का फर्क था, सारी आज्ञाएँ संस्कृत में दी जाती थीं, चाहे वे दक्ष (सावधान) हो या आराम (विश्राम), स्कूल में संस्कृत के गुरूजी ने बताया था कि-संस्कृत कोई सामान्य भाषा नहीं है यह देवताओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा है इसलिए इसे ‘देवभाषा’ कहा गया है। समस्त भारतीय महान ग्रन्थ भी इसी देवभाषा में रचे गए हैं वे चाहे वेद हो या उपनिषद, गीता हो या रामायण, यह बात मन में गहरे घर किए हुए थी सो शाखा में संस्कृत में जब भी कोई आज्ञा दी जाती थी तो वह मुझे ‘दैवीय आज्ञा’ लगती थी। शाखा में खेल के साथ-साथ बौद्धिक चर्चा भी की जाती थी, जब हम खेलते-खेलते हाँफने लगते तो एक अर्धमंडल में बैठकर बातचीत करते इसी को बौद्धिक लेना कहा जाता। इस दौरान भी बेहद सधी हुई संस्कृतनिष्ठ हिंदी में बात कही जाती, जो
सीधे दिल दिमाग पर छा जाती। बौद्धिक चर्चा के दौरान प्रश्नोतर शैली में पूछा जाता-हम कौन हंै, यह देश किसका है, कौन इसे अपनी मातृभूमि मानता है? फिर इन सवालों के जवाब दिए जाते-हम हिन्दू है, सनातनी शुद्ध आर्य रक्त, यह देश हमारा हैं, हम हिन्दू ही इसे अपनी जन्मभूमि, कर्मभूमि और पवित्र भूमि मानते हैं, हमारा देश कालांतर में सोने की चिडि़या था, इसमें दूध, दही और घी की नदियाँ बहती थीं, हम जगतगुरु थे शक, हूण, कुषाण यवन मुसलमान, पठान और अंग्रेज आए, हमारे देश को लूटा और हमें गुलाम बनाया। अन्य लोग न तो भारत को माँ मानते हैं और न ही उनकी पुण्यभूमि भारत है, किसी की येरुसलम है तो किसी की मक्का मदीना, सिर्फ हम हिन्दुओं का ही सब कुछ भारत में है, हम ही माँ भारती के सच्चे पुत्र हैं, मुझमे अन्य समुदायों के प्रति नफरत का भाव पैदा होने लगा था कि ये लोग खाते भारत का हैं और गीत मक्का, मदीना, येरुसलम के गाते हैं उनकी देशभक्ति पर मुझे संदेह होने लगा।
हमारी शाखा हर दिन शाम के वक्त 6 से 7 बजे लगती थी। प्रारंभ में केवल भूगोल के शिक्षक ही आते थे, फिर अन्य शिक्षक भी आने लगे, खास तौर पर यहाँ के प्राथमिक शालाओं के कईं शिक्षक तनख्वाह सरकार की लेते हैं और काम आरएसएस का करते हैं। कभी कभार मांडल तहसील मुख्यालय से बड़े पदाधिकारी भी आते, इन सबको हम भाई साहब कह कर बुलाते थे, शाखा में आने वाले बौद्धिक पत्रक और अन्य साहित्य से मेरी विचारधारा मजबूत हो रही थी। मैं दिनों दिन और अधिक राष्ट्रभक्त बनता जा रहा था, मुझमें हिन्दू होने का गर्व और शुद्ध आर्य खून का अभिमान आने लगा था, बाकी लोग अपने आप ही मुझे नीच और छोटे नजर आने लगे थे।
ढीली खाकी नेकर
शाखा के मुख्य शिक्षक के लिए यह अनिवार्य था कि वह निर्धारित पोशाक (जिसे गणवेश कहा जाता है) पहन कर आए, मैंने भी घरवालों से पैसे लेकर काली टोपी, ढीली खाकी नेकर, चमड़े की बेल्ट, भूरे मोजे और काले जूते तथा कान के बराबर एक लकड़ी (जिसे दंड कहा जाता है) खरीदा, सफेद कमीज तो थी ही, इसलिए खरीदनी नहीं पड़ी। मैं अब गणवेश पहनकर रोज शाखा स्थल पर जाने लगा था, आखिर मुख्य शिक्षक जो ठहरा, मेरा परिवार कभी भी जनसंघी या आरएसएस टाइप की विचारधारा का नहीं रहा, दादाजी से लेकर पिताजी तक इन लोगों के विरोधी ही रहे, एक मैं अपवाद स्वरूप इनके साथ लग गया, जब पहले सिर्फ खेलने जाता था, तब तक तो कोई दिक्कत नहीं थी, पर अब जब मैं पूरी ड्रेस पहन कर रोज-रोज शाखा में जाने लगा तो पिताजी ने टोकना शुरू किया, बोले ये लोग कभी हमारे सगे नहीं हुए और न ही होंगे, नहीं जाना, लेकिन मुझ पर तो देशभक्ति का ऐसा जुनून चढ़ा हुआ था कि कोई भी थोड़ा भी संघ की शाखा के विरोध में बोलता तो वह मुझे देशद्रोही ही लगता था। मेरे से बड़े भाई लोग मेरी ढीली नेकर की बहुत मजाक उड़ाते थे पर मैं सह लेता था।
-भँवर मेघवंशी
मो-09571047777
क्रमश :
लोकसंघर्ष पत्रिका में प्रकाशित
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