शनिवार, 12 जुलाई 2014

सांप्रदायिक समाज में धर्मनिरपेक्षता पर बहस

अप्रैल-मई 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों, समाजवादी दल व लालू प्रसाद यादव की आरजेडी को धूल चाटनी पड़ी। ये सभी पार्टियां, सीमित अर्थो में ही सही, परंतु धर्मनिरपेक्ष कही जा सकती हैं। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस, जिसने अब तक देश  पर सबसे लंबे समय तक शासन किया है, ने अपनी हार के कारणों का विष्लेषण किया। पार्टी के एक शीर्ष नेता ए.के. एन्टोेनी ने यह राय व्यक्त की कि कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता को जनता ने अल्पसंख्यकों (अर्थात मुसलमान) का तुष्टीकरण माना और नतीजे में उसे केवल 19 प्रतिशत मत प्राप्त हुए और वह लोकसभा में मात्र 44 सीटों पर सिमट गई। कांग्रेस की करारी हार क्यों हुई, इस संबंध में कई अन्य कारण भी गिनाए जा रहे हैं।
अपनी विजय से प्रफुल्लित भाजपा ने पूरे आत्मविश्वास से कहा कि केवल उसे ही धर्मनिरपेक्षता की सही समझ है। उसके अनुसार, धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है, ‘‘सबके साथ न्याय, किसी का तुष्टीकरण नहीं और किसी के साथ भेदभाव नहीं’’। यह विडम्बना है कि धर्मनिरपेक्षता की यह परिभाषा, जो प्रजातांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष समाज की मूल अवधारणा के विरूद्ध है, को कई लोग ‘सच्ची धर्मनिरपेक्षता’ बता रहे हैं। कई टिप्पणीकारों ने यह मत व्यक्त किया है कि मोदी ने देश की धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के खोखलेपन को उजागर कर, सत्ता पाने में सफलता पाई है। कब जब हम सफल व्यक्ति की हर बात को सही और सच मान लेते हैं।
भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्षता हमेशा से बहस का मुद्दा बनी रही है। स्वतंत्रता के बाद कई लोगों ने कहा कि राज्य, सरकारी कार्यक्रमों आदि में धार्मिक कर्मकाण्डों को प्रतिबंधित नहीं कर रहा है और इससे देश में धर्मनिरपेक्षता कमजोर हो रही है। वर्तमान में हम देख सकते हैं कि सरकारी कार्यालयों और वाहनों में हिन्दू देवी-देवताओं की तस्वीरें लगी रहती हैं। इसका कोई विरोध नहीं करता। भूमिपूजन जैसे हिन्दू कर्मकाण्ड, सरकारी कार्यक्रमों का हिस्सा बन गए हैं और इसकी भी शायद  ही कभी निंदा की जाती हो। कुछ सरकारी संस्थाओं में सरस्वती पूजा, सूर्य नमस्कार आदि होता रहता है। जब नेहरू से आन्द्रे मालराक्स ने इस बारे में पूछा तो नेहरू ने स्वीकार किया कि यद्यपि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तथापि आम जनता, धार्मिकता के चंगुल में फंसी हुई है। आज तो प्रधानमंत्री की शपथ लेने के पहले, संबंधित सज्जन गंगा की आरती उतारते हैं। जाहिर है कि धार्मिक आस्थाओं के इस तरह के सार्वजनिक प्रदर्शन पर अब कोई प्रश्न नहीं उठाता।
भारत में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों व परंपराओं की नींव डलने की प्रक्रिया, यूरोपीय राष्ट्रों से भिन्न थी। राजा और बादशाह अपने-अपने धर्मों के पुरोहित वर्ग के साथ मजबूत गठजोड़ बनाए रखते थे। भारत के धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया, ब्रिटिश   काल के दौरान औद्योगिकरण और आधुनिक शिक्षा के प्रसार के साथ शुरू हुई। उद्योगपतियों, श्रमिकों और आधुनिक शिक्षित वर्ग के उदय के साथ, भारत में यह अवधारणा आई और भारत का ‘‘एक राष्ट्र’’ के रूप में निर्माण शुरू हुआ। राजाओं और सामंतों, जिनके साथ बाद में उच्च जातियों/शिक्षित वर्ग का श्रेष्ठि तबका जुड़ गया, ने सांप्रदायिक संगठन गठित किए। इनमें शामिल थे मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा-आरएसएस। जहां देश के नए उभरते वर्ग सभी को साथ लेकर चलने के हामी थे और उन्हें किसी धर्म के व्यक्ति से परहेज नहीं था वहीं अस्त होते वर्गों के सांप्रदायिक संगठन, मुस्लिम या हिन्दू श्रेष्ठि वर्ग तक सीमित थे। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति और मुस्लिम व हिन्दू सांप्रदायिक तत्वों के कारण, इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ व बहुवादी धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर आधारित भारत अस्तित्व में आया। पाकिस्तान बहुत बुरे दौर से गुजरा। जिन्ना, जो कि एक धर्मनिरपेक्ष नेता थे, की मृत्यु के बाद वहां की राजनीति और समाज पर सांप्रदायिक मुस्लिम लीग और इस्लामिक कट्टरवादियों का कब्जा हो गया। मुल्ला-मिलेटरी गठजोड़, पाकिस्तान पर हावी हो गया। पाकिस्तान मुसीबतों के कई दौर से गुजरा और अमरीका के हस्तक्षेप ने वहां के सांप्रदायिक तत्वों को और मजबूती दी। अभी हाल के कुछ वर्षों में, पाकिस्तान मे धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू की है और ऐसा लगता है कि आने वाले समय में पाकिस्तान शनैःशनैः इस्लामिक कट्टरवाद के चंगुल से निकल जाएगा।
भारत का घटनाक्रम इसका ठीक उलटा था। स्वतंत्रता के बाद, सांप्रदायिक हिन्दू महासभा अंधेरे में गुम हो गई और हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रवर्तक आरएसएस ने हिन्दू राष्ट्र के अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अनेक संगठन स्थापित किए। शुरूआत में उसने भारतीय जनसंघ का निर्माण किया, जिसमें हिन्दू महासभा के सदस्य शामिल थे। यद्यपि आरएसएस स्वयं चुनाव के मैदान में कभी नहीं उतरा परंतु भारतीय जनसंघ पर उसका पूर्ण नियंत्रण था। उसने मुसलमानों, और बाद में ईसाईयों, के खिलाफ जहर फैलाना शुरू कर दिया। इतिहास के सांप्रदायिक संस्करण को जनता के दिलो-दिमाग में बैठाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी गई। मुसलमानों की नकारात्मक छवि बनाने के लिए बार-बार यह कहा गया कि मुसलमान, पाकिस्तान के प्रति वफादार हैं। मुसलमान बादशाहों के अत्याचारों और अनाचारों की कथाएं बढ़ाचढ़ा कर प्रचारित की गईं।
इस सबके चलते, तीन कारकों ने भविष्य के भारत को आकार दिया। मुसलमान, सांप्रदायिक और कट्टरवादी हैं यह सोच आम बन गई। दूसरे, सांप्रदायिक हिंसा, जिसके मुख्य शिकार मुसलमान थे, ने इस समुदाय के सदस्यों में असुरक्षा की भावना भर दी। इससे समुदाय के अंदर, कट्टरपंथी तत्वों को अपनी ताकत बढ़ाने का मौका मिल गया और मुस्लिम समुदाय मंे मुल्लाओं और सांप्रदायिक राजनीति का बोलबाला हो गया। तीसरा कारक था मुस्लिम समुदाय को आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में हाशिए पर खिसका दिया जाना। इस पृष्ठभूमि में, कांग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की बात की, उसे कई तरह के विरोध का सामना करना पड़ा। इस दुष्प्रचार के बावजूद कि कांग्रेस, सांप्रदायिक हिंसा के लिए जिम्मेदार है, हम सब यह जानते हैं कि सांप्रदायिक राजनीति से किसे लाभ हुआ है। इसके साथ ही यह भी सही है कि कांग्रेस में सांप्रदायिक तत्वों की कमी नहीं है और उसके नेतृत्व ने कई बार सांप्रदायिकता से समझौता किया है। कांग्रेस की अवसरवादी राजनीति से देश अनजान नहीं है।
कांग्रेस ने वह सब करने की कोशिश  की, जो एक प्रजातांत्रिक समाज में धर्मनिरपेक्ष शासन को करना चाहिए। परंतु चाहे मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा का मसला हो या उनके आर्थिक उन्नयन का, ऊपर चिन्हित किए गए कारकों के कारण कांग्रेस के प्रयास उतने प्रभावकारी नहीं हो सके जितने कि होने चाहिए थे। चूंकि पार्टी में सांप्रदायिक और अवसरवादी तत्वों की कोई कमी नहीं थी इसलिए उसने मुसलमानों की बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठाने की बजाए समुदाय के पुरातनपंथी तत्वों के साथ हाथ मिलाना शुरू कर दिया। इसका सबसे अच्छा उदाहरण शाहबानो मामला था। मुस्लिम समुदाय को एक ओर हिंसा का सामना करना पड़ा तो दूसरी ओर भेदभाव का। सांप्रदायिक हिंसा संबंधी आंकड़े व गोपाल सिंह आयोग, सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग की रपटें केवल मुस्लिम समुदाय के हालात से ही हमें वाकिफ नहीं करातीं बल्कि हमें यह भी बताती हैं कि हमारे देश की एक बड़ी आबादी की उपेक्षा कर हमने किस तरह अपने प्रजातांत्रिक कर्तव्यों को पूरा नहीं किया है।
सांप्रदायिक तत्वों को जल्द ही यह समझ में आ गया कि अगर उन्हें सत्ता में आना है तो समाज का सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण करना आवश्यक है। अतः उन्होंने एक के बाद एक पहचान से जुड़े मुद्दे उठाने शुरू किए, जिनमें से प्रमुख था राममंदिर का मुद्दा। ये तत्व आमजनों के एक बड़े तबके को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे कि कांग्रेस, मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रही है। सच यह है कि कांग्रेस की नीतियों से मुस्लिम समुदाय को कोई लाभ नहीं पहुंचा है। कांग्रेस की बातें और उसकी घोषणाएं, सांप्रदायिक रंग में रंगी राजनीति के पहाड़ से टकराकर चूर-चूर हो गईं। ‘‘उनका राष्ट्रीय संसाधनों पर पहला अधिकार है’’, जैसे कांग्रेस के वक्तव्यों का इस्तेमाल यह बताने के लिए किया गया कि पार्टी की सोच एकतरफा है। जबकि सच यह है कि अगर कोई राज्य यह कहे कि समाज के कमजोर वर्गों का राष्ट्रीय संसाधनों पर पहला हक है तो यह इस बात की निशानी है कि वह राज्य सभी वर्गों की भलाई के प्रति प्रतिबद्ध है। कांग्रेस इतनी दुविधा में रही कि वह कभी मजबूती से  धर्मनिरपेक्ष नीतियां लागू नहीं कर पाई और ना ही अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उनकी बेहतरी के लिए सकारात्मक कदम उठा सकी। परंतु उसने अपने सांप्रदायिक विरोधियों को एक हथियार जरूर दे दिया। वे इस प्रकार की बाते  करने लगे मानो कांग्रेस का अस्तित्व केवल मुसलमानों के लिए हो। यूपीए-1 व यूपीए-2 सरकारो  ने जो भी थोड़े बहुत कदम समाज के वंचित वर्गों की भलाई के लिए उठाए, उन्हें इस रूप में प्रस्तुत किया गया कि उनसे केवल मुसलमानों का भला होगा। इसी तरह के दुष्प्रचार के जरिए सांप्रदायिक हिंसा निरोधक कानून को पास नहीं होने दिया गया।
इस प्रकार, जो कुछ एंटोनी कह रहे हैं, वह आंशिक रूप से सच हो सकता है परंतु समस्या कहीं गहरी है। समस्या यह है कि हमारा समाज धर्मनिरपेक्ष नहीं है और अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक, दोनों समुदायों की सांप्रदायिक राजनीति के नतीजे में अल्पसंख्यकों की भलाई के कार्यक्रम केवल योजनाओं की घोषणाओं तक सीमित रह गए हैं। इन घोषणाओं का एकमात्र उद्देश्य अल्पसंख्यकों के वोट कबाड़ना होता है। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता में स्थायित्व नहीं है। उसके कार्यकर्ता सांप्रदायिक मुद्दों पर आम लोगों से भिन्न विचार नहीं रखते। उसके कई नेता सांप्रदायिक सोच वाले हैं। यद्यपि यह भी सच है कि उसमें धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध नेताओं की कमी भी नहीं है। जाहिर है कि कांग्रेस व उन सभी दलों को गहन आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है जो उन मूल्यों के हामी हैं जिनका जन्म हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की कोख से हुआ है।
-राम पुनियानी
         

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